सहअस्तित्व की संस्कृति में जिएं

जिस तरह मौसम परिवर्तन दुनिया में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया।पर्यावरण असंतुलन दशकों से मानवजाति के लिए चिंता का सबब बना है। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है और इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। वास्तव में देखा जाए तो पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल ही नहीं है। हम क्यों रोते हैं कि मौसम चक्र बदल चुका है और तापमान निरंतर बढ़ता जा रहा है, इसके लिए कौन दोषी है। धरती जो कभी सोना उगला करती थी, हमारी पैसे की हवस ने केमिकल डाल-डाल कर उसे बंजर बना दिया, फसल अच्छी लेने के लिए उसको बांझ बना दिया। कृत्रिम साधनों से उसका दोहन हो रहा है, उससे हमने गुणवत्ता खोई है।

पिछले कई वर्षो से दुनियाभर के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता हर साल पर्यावरण संबंधित सम्मेलनों में भाग लेते रहे हैं, लेकिन आज तक कोई ठोस लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश की शुरुआत हो चुकी है? लोगों को इस कथित विकास की बेहोशी से जगाने के उद्देश्य से ही 22 अप्रैल 1970 से धरती को बचाने की मुहिम अमरीकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई थी। लेकिन वर्तमान में यह दिवस सिर्फ आयोजनों तक ही सीमित रह गया है।

इस कथित विकास की बेहोशी से जगने का बस एक ही मूल मंत्र है कि विश्व में सह अस्तित्व की संस्कृति का निर्वहन हो। सह अस्तित्व का मतलब प्रकृति के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए मानव विकास करे। प्रकृति और मानव दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय न हो ऐसा संकल्प और ऐसी ही व्यवस्था की जरूरत है। अभी तक इस सिद्धांत को पूरे विश्व ने खासतौर पर विकसित देशों ने विकासवाद की अंधी दौड़ की वजह से भुला रखा है ।

वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्षो में जैविक ईंधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। अगर यही स्थिति रही तो 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं, यही दर कायम रही तो 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। सन 1870 के बाद से जल सतह 1.7 मिमी की दर से बढ़ रहा है और अब तक 20 सेमी के लगभग बढ़ चुका है। यदि ऐसा ही रहा तो एक दिन मॉरीशस जैसे कुछ देश और कई तटीय शहर डूब जाएंगे।

जिस तरह मौसम परिवर्तन दुनिया में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है।

पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया। परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी। एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वॉर होने के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। यानी अगले 17 वर्षो में अफ्रीकी देशों में संकट गहरा सकता है। यह स्टडी यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया के इकोनॉमिस्ट मॉर्शल बर्क द्वारा की गई है ।

पश्चिमी विज्ञान ने हमारे एक धड़े को प्रकृति का दोहन करने और उस पर वर्चस्व स्थापित करने का पाठ पढ़ाने में कामयाबी हासिल की है। अंग्रेजों ने पहले के भारत में प्रकृति के साथ सह अस्तित्व की मान्यता थी जहां कृषि, उत्पादन प्रणाली, यातायात और सामाजिक व धार्मिक कार्यक्रमों की योजना मौसम चक्र के अनुसार बनाई जाती थी। हमारा विज्ञान प्रकृति का सम्मान करता था लेकिन आधुनिक विज्ञान ने कोयले और कच्चे तेलों को उनकी खदानों से निकालने के साथ पुलों और बांधों को बनाने, भूजल के दोहन द्वारा बेमौसमी संकर फसलें उगाने, जीएम फसलों को पैदा करने की जानकारी दी। नए ज्ञान के इस रूप को अपनाने के दो सौ साल के भीतर ही आज हमने बड़े पैमाने पर पर्यावरण असंतुलन को जन्म दे दिया।

प्रकृति पर जितना अधिकार हमारा है उतना ही हमारी भावी पीढ़ियों का भी, जब हम अपने पूर्वजों के लगाए वृक्षों के फल खाते हैं, उनकी संजोई धरोहर का उपभोग करते हैं तो हमारा नैतिक दायित्व है कि हम भविष्य के लिये भी नैसर्गिक संसाधनों को सुरक्षित छोड़ जाएं, कम से कम अपने निहित स्वार्थो हेतु उनका दुरुपयोग तो न करें। अन्यथा भावी पीढ़ी और प्रकृति हमें कभी माफ नहीं करेगी।जिससे अब हमें विकास के ऐसे मॉडल को अपनाना होगा जो पूरी तरह से सहअस्तित्व के सिद्धांत पर काम करता हो । भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षो में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा जिसे हासिल करना मुश्किल होगा। अगर हम सभी सामूहिक जिम्मेदारी से पृथ्वी को बचाने का संकल्प अपने मन में कर लें तो यह संभव अवश्य होगा। हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को शामिल करना होगा। अगर हम अभी भी अपनी बेहोशी से नहीं जागे तो ज्वालामुखी, भूकंप, सुनामी और भूस्खलन- जो इस पृथ्वी की पीड़ा के प्रतीक हैं, इसे नेस्तनाबूद कर देंगे। संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे, करेंगे और जो नहीं जानते, उन्हें इससे अवगत कराएंगे, अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे ।

ये जीवनदायिनी धरती मां हमें सब कुछ देती रही है और आज भी दे रही है। बेमौसम बरसात, गहराता पेयजल संकट, बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं, जीवज न्तुओं की घटती संख्या खतरनाक संकेत हैं। प्रकृति और वातावरण को शुद्ध करने वाले पक्षी आज विलुप्त होने के कगार पर हैं, कौवा और गिद्ध जैसे पक्षी कम होते जा रहे हैं। हम अपना योगदान देकर इस पृथ्वी को नष्ट होने से बचा सकते हैं। प्रकृति पर जितना अधिकार हमारा है उतना ही हमारी भावी पीढ़ियों का भी, जब हम अपने पूर्वजों के लगाए वृक्षों के फल खाते हैं, उनकी संजोई धरोहर का उपभोग करते हैं तो हमारा नैतिक दायित्व है कि हम भविष्य के लिये भी नैसर्गिक संसाधनों को सुरक्षित छोड़ जाएं, कम से कम अपने निहित स्वार्थो हेतु उनका दुरुपयोग तो न करें। अन्यथा भावी पीढ़ी और प्रकृति हमें कभी माफ नहीं करेगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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