भारतीय खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एस.आर.आई. पद्धति का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। यह पद्धति न केवल 50-100 प्रतिशत धान की उपज बढ़ाती है, बल्कि कीट पतंगों एवं बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी प्रदान करती है। सूखा एवं बाढ़ की परिस्थितियों में भी अच्छे परिणाम देती है क्योंकि एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती रबी मौसम में की जाती है। भारत में खाद्यान्न फसलों में धान प्रमुख है और कुल क्षेत्र के 23 प्रतिशत में धान की खेती होती है। हमारे देश में यह इसलिये और भी व्यावहारिक है क्योंकि देश में जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है उनमें से 44 प्रतिशत इलाके असिंचित हैं। विश्व में 50 प्रतिशत से अधिक आबादी का मुख्य भोजन चावल है। हमारे देश में हर साल तकरीबन 44 मिलियन हेक्टेयर भूमि में धान की खेती की जाती है जिससे लगभग 96 मिलियन टन पैदावार होती है वर्तमान में धान की उत्पादकता लगभग 2000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। भारत में खाद्यान्न की फसलों में धान की फसल सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है जो देश में खाद्यान्न की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन में धान का 43 प्रतिशत एवं कुल अनाजों में 46 का योगदान है। भारत में धान की खेती, क्षेत्रफल के अनुसार पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है जबकि उत्पादन के हिसाब से इसका चीन के बाद दूसरा स्थान है। भारत जैसे विकासशील देश में बढ़ती जनसंख्या का दबाव तथा खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए देश में धान की पैदावार बढ़ना ही एकमात्र विकल्प है।
धान ही एक ऐसी फसल है जो खरीफ एवं रबी दोनों मौसमों में ली जा सकती है। हमारे देश में धान की पैदावार अन्य विकसित देशों की अपेक्षा कम है। यहाँ लगभग 84 प्रतिशत छोटे एवं सीमान्त किसान हैं जो अपनी कम जमीन में अधिक पैदावार करके परिवार का भरण पोषण करना चाहते हैं। धान की कम पैदावार के बहुत से कारण हैं, जैसे किसानों को बेहतर किस्मों के बीज की जानकारी न होना, सिंचाई की समस्या, भूमि के उपजाऊपन में लगातार कमी, मानसून समय पर न आने के कारण समय पर बुवाई न कर पाना एवं उन्नत तकनीक की जानकारी की कमी के कारण खाद्यान्न समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। देश में लगभग धान की 720 उन्नतशील किस्में उपलब्ध हैं। जब धान के विषय में चर्चा करते हैं तो सामान्यतः लोगों के मन में सबसे पहली बात अधिक पानी की उपलब्धता की आती है। पहले यह धारणा बनी थी कि धान का खेत पानी से भरा रहना चाहिए तब ही अधिक पैदावार ली जा सकती है लेकिन धान की खेती पर अनुसन्धानों में यह पाया गया कि जरूरत से अधिक पानी देने की आवश्यकता नहीं है किन्तु पानी का समुचित उपयोग करना चाहिए। आज विश्व में तीन मुख्य समस्याएँ हैं- बढ़ती जनसंख्या का दबाव, पानी की कमी एवं खाद्यान्न। अगर पानी के उपयोग पर एक नजर डालें तो कुल कृषि क्षेत्रफल का 60-70 प्रतिशत पानी केवल एक ही फसल धान उगाने में उपयोग होता है एवं शेष 30-40 प्रतिशत पानी अन्य कृषि फसलों में प्रयोग होता है। कई वर्षों से लगातार मानसून की आँख-मिचोली धान खेती में अधिक जोखिम की समस्या बनी है।
आन्ध्र प्रदेश में एस.आर.आई. पद्धति पर अनुसन्धान
आन्ध्र प्रदेश में लगातार सूखे की समस्या से पानी की कमी के कारण प्राकृतिक जल संसाधनों एवं वन्य जीव कृषि मत्स्य पालन आदि पर बुरा असर पड़ा है। लगातार बारानी खेती से प्रदेश में खाद्य समस्या पर बुरा असर पड़ा है। आन्ध्र प्रदेश में अधिकतर लोगों का मुख्य भोजन चावल है। चावल की खेती के लिये अधिक पानी की आवश्यकता होती है। आन्ध्र प्रदेश देश का पाँचवाँ घनी आबादी वाला राज्य है। यहाँ की जनसंख्या 73 मिलियन और 4.84 मिलियन हेक्टेयर सिंचित भूमि है जो लगातार विभिन्न समस्याओं के कारण घटती जा रही है। जैसे जल संसाधनों की कमी के कारण नदी, नहर, कुओं में पानी के घटते स्तर से भयानक स्थिति बनी है।
आन्ध्र प्रदेश में 2000-01 में धान के अन्तर्गत क्षेत्रफल 42.43 लाख हेक्टेयर था एवं उत्पादन 124.58 लाख टन था जो घटकर सन 2002-03 में क्रमशः 28.2 लाख हेक्टेयर एवं उत्पादन 73.27 टन रह गया। पानी की कमी एवं खाद्यान्न समस्या को देखते हुए सरकार ने एस.आर.आई. पद्धति के प्रक्षेत्र प्रदर्शन को बढ़ावा दिया। किसानों को इस पद्धति से खेती करने के लिये तकनीकी एवं खाद बीज एवं में मदद दी गई। इस प्रकार आन्ध्र प्रदेश में किसानों द्वारा एस.आर.आई. पद्धति से खेती करने पर धान का क्षेत्रफल बढ़कर सन 2008-09 में 43.87 लाख हेक्टेयर एवं उत्पादन 142.10 लाख टन हो गया एवं उत्पादकता लगभग 3240 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई है। देश के कुल धान उत्पादन में आन्ध्र प्रदेश का 12 प्रतिशत योगदान है एवं इसका पश्चिम बंगाल के बाद दूसरा स्थान है जबकि उत्पादकता में प्रथम स्थान है।
एस.आर.आई. पद्धति की खोज
मेडागास्कर के प्रमुख सस्य वैज्ञानिक सेवेस्टीयम रफरलई एवं एफ.आर.डी. हेनरी लौलेन ने पानी की कमी से धान की कम पैदावार के कारण 1980 में धान की नई पद्धति की खोज छोटे किसानों को ध्यान में रखते हुए की थी। यह धान सघनीकरण पद्धति (System of Rice Intensification) या मेडागास्कर धान की खेती के नाम से विश्व भर में प्रचलित है। हमारे देश के विभिन्न भागों में यह पद्धति एस.आर.आई., धान की सघन खेती या धान उगाने की तीव्रीकरण पद्धति के नाम से जानी जाती है। धान की खेती मेडागास्कर पद्धति से पिछले 30 वर्षों से हो रही है और इससे 14-16 टन/हेक्टेयर अधिकतम उपज का रिकॉर्ड बन चुका है। इस पद्धति से खेती करने से चीन में 10 टन प्रति हेक्टेयर, इंडोनेशिया में 9.5 टन प्रति हेक्टेयर, कम्बोडिया में 6-8 टन प्रति हेक्टेयर, देश में 5 टन प्रति हेक्टेयर के परिणाम मिले हैं। यह पद्धति विश्व के 40 अधिक देशों में फैल चुकी है। हमारे देश में वर्ष 2002-03 से इस पद्धति से धान की खेती कई राज्यों में की जा रही है। आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा, त्रिपुरा एवं अन्य राज्यों में इस पद्धति से अच्छे परिणाम मिले हैं।
एस.आर.आई. पद्धति का उद्देश्य:- इस पद्धति का मुख्य उद्देश्य पानी एवं अन्य लागत का इस तरीके से प्रबन्ध करना है जिससे अधिक-से-अधिक चावल का उत्पादन किया जा सके। अनुसन्धानों से ज्ञात हुआ है कि एक किलोग्राम धान पैदा करने के लिये लगभग 5,000 लीटर पानी चाहिए जबकि इस पद्धति से केवल 2,000-2,500 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है अर्थात कम पानी में अधिक पैदावार लेना। इस प्रकार पानी की बचत से छोटे किसान अन्य फसलों को उगाकर अपनी आय एवं पारिवारिक भरण पोषण में आत्मनिर्भर होंगे जो देश के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
एस.आर.आई. पद्धति के मुख्य पहलू
यह धान की खेती की ऐसी तकनीक है जिसमें पानी बीज, खाद एवं मानव श्रम का समुचित तरीके से प्रबन्ध करना शामिल है जिसका उद्देश्य प्रति इकाई भूमि की अधिक-से-अधिक उत्पादकता बढ़ाना है।
भूमि का चुनाव
मेडागास्कर पद्धति में विशेष तौर से भूमि, पानी एवं अन्य पोषक तत्वों के बेहतर प्रबन्धन से पौधे की जड़ों के अधिक-से-अधिक विकास पर जोर दिया जाता है। इसके लिये भूमि में अन्तः कर्षण क्रियाएँ समय-समय पर अवश्य करनी चाहिए जिससे भूमि में नमी संरक्षित रहती है जो सूक्ष्म जीवाणुओं की सक्रियता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती है। धान की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है, फिर भी इसके लिये दोमट चिकनी मिट्टी, पानी सोखने की अधिक क्षमता वाली एवं अधिक ह्यूमस (जैविक तत्वों से भरपूर) वाली भूमि अच्छी मानी जाती है, जिसकी जल धारण क्षमता अधिक हो।
पौध रोपण एवं सावधानियाँ
पौधे क्यारी में बीज बोने के बाद तकरीबन 10-12 दिन की नई पौध को सावधानीपूर्वक निकालकर एक-एक करके मुख्य खेत में आधे घंटे के अन्दर में सावधानीपूर्वक 1.5 से 2.0 सेंटीमीटर गहरा रोपना चाहिए एवं खेत में 2 सेंटीमीटर से अधिक पानी नहीं भरा होना चाहिए।
एस.आर.आई. पद्धति से पौध की तैयारी
पौधे से पौधे की दूरी 25X25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए एवं एक हिल पर एक ही पौध रोपना चाहिए। अगर भूमि की उर्वरा शक्ति अधिक हो तो पौधे-से-पौधे की दूरी बढ़ा सकते हैं। पौधे के विकास के लिये दूरी का ध्यान रखना आवश्यक है।
खरपतवार नियंत्रण एवं जड़ों का विकास
अच्छे पौधे विकसित हों इसके लिये खेत में नमी बनाए रखें। बहुत अधिक पानी न भरें एवं भूमि में रन्ध्रावकाश अच्छा रखने के लिये खेत में कोनोवीडर से निराई-गुड़ाई करें। आवश्यकतानुसार पानी दें जिससे पानी की बचत होगी एवं खरपतवार नियंत्रण में मदद मिलेगी। इस पद्धति से खेती करने में निराई-गुड़ाई पर विशेष ध्यान रखना होता है जिससे जड़ों का बेहतर विकास हो एवं भूमि पोषक तत्वों को अधिक-से-अधिक मात्रा में ग्रहण कर सके और जिससे प्रति पौधा उपज में वृद्धि हो सके।
सिंचाई
आवश्यकतानुसार एक निश्चित अन्तराल पर सिंचाई करते हैं जिससे खेत में नमी बनाए रखने के साथ-साथ भूमि में वायु का संचार अच्छा रहे। खेत में 1-2 सेंटीमीटर से अधिक पानी नहीं देना चाहिए। देश के कई राज्यों में पानी की कमी को ध्यान में रखकर इस तकनीक का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है।
गोबर की खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग
धान की फसल में मुख्यतः नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश एवं खैरा बीमारी से बचाने के लिये जिंक सल्फेट का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन इस विधि में धान की अधिक उपज लेने के लिये कार्बनिक खादों जैसे गोबर की खाद या कम्पोस्ट 15 टन प्रति हेक्टेयर दर से प्रयोग करने से उपज में सार्थक परिणाम मिले हैं। कार्बनिक खादों जैसे गोबर की खाद या कम्पोस्ट उपलब्ध न होने पर हरी खाद का प्रयोग करना चाहिए फिर भी फसल की स्थिति एवं भूमि की उर्वरा शक्ति के परीक्षण के आधार पर नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग कर सकते हैं।
पोषक तत्वों का प्रयोग
पौधों में टिलरिंग के समय एवं जड़ों के विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए। सामान्य धान की खेती की अपेक्षा इसमें उर्वरकों की मात्रा कम देते हैं क्योंकि सिंचाई कम होने से पोषक तत्वों का भूमि में रिसाव कम होता है। धान की खेती में सामान्यतः कम पोषक तत्व देने की आवश्यकता पड़ती है फिर भी खेत में कई फसलें लेने की स्थिति में पोषक तत्व आवश्कतानुसार दे सकते हैं। धान में अधिकतर जिंक की कमी से खैरा रोग के लक्षण दिखें तो पौध की जड़ों को जिंक ऑक्साइड 4 प्रतिशत घोल में डुबोकर रोपना चाहिए।
एस.आर.आई. पद्धति खेती के परिणाम एवं चर्चा
हाल में ही आन्ध्र प्रदेश में 70 किसानों का सर्वेक्षण किया गया जिसमें 4 प्रतिशत सीमान्त किसान, 20 प्रतिशत छोटे किसान, 41 प्रतिशत मध्यम किसान एवं 34 प्रतिशत बड़े किसानों पर एस.आर.आई. और सामान्य धान खेती के बारे में आँकड़ों का विश्लेषण करने पर निम्नलिखित जानकारी प्राप्त हुई।
1. बीज की बचत
आन्ध्र प्रदेश में एस.आर.आई. पद्धति में औसत 7 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से, जबकि सामान्य धान खेती में 72 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर बोया गया। एस.आर.आई. पद्धति अपनाने से 65 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की बचत हुई जिसकी कीमत लगभग 1260 रुपए है।
2. पानी की बचत
आन्ध्र प्रदेश में एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती करने पर फसल पकने तक 72 दिन सिंचाई दी गई, जबकि सामान्य धान खेती में 96 दिन, एस.आर.आई. पद्धति अपनाने से 25 प्रतिशत सिंचाई की बचत हुई।
3. उत्पादन एवं आय में वृद्धि
आन्ध्र प्रदेश में ईस्ट गोदावरी, चित्तूर एवं महबूबनगर में सामान्य धान खेती की अपेक्षा एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती करने से 66 कुन्तल तथा सामान्य धान की खेती से 52 कुन्तल प्रति हेक्टेयर उत्पादन हुआ। नई तकनीकी से लगभग 27 प्रतिशत अधिक पैदावार मिली एवं प्रति हेक्टेयर आय में 17.48 प्रतिशत वृद्धि हुई।
4. समय की बचत
सामान्य धान खेती की अपेक्षा एस.आर.आई. पद्धति में सीधे तौर पर पौध तैयार करने में 18 से 20 दिन की बचत होती है जिससे पौध तैयार करने में लगभग 30-40 प्रतिशत खर्चे में कमी आती है। इसलिये एस.आर.आई. पद्धति अपनाने से समय एवं पैसे दोनों की बचत होती है जो किसानों के लिये बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुई।
5. खर्च लाभ
आन्ध्र प्रदेश में सामान्य धान खेती एवं एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती आय-व्यय आँकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ कि पद्धति 1 रुपया खर्च करने पर 2 रुपए जबकि सामान्य धान खेती में 1 रुपया खर्च करने पर 1.70 रुपए जोकि 16 प्रतिशत अधिक है।
भारत में एस.आर.आई. पद्धति की नीति एवं विस्तार
भारत में सर्वप्रथम तमिलनाडु कृषि विश्व विद्यालय ने एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती की शुरुआत सन 2000 में अनुसन्धान स्तर पर की। इससे किसानों को कम बीज एवं पानी का उपयोग कर अच्छी उपज प्राप्त हुई। तमिलनाडु सरकार के आँकड़ों के अनुसार सन 2008-09 इस पद्धति से धान की खेती 7,50,000 हेक्टेयर भूमि में फैल चुकी है।
आन्ध्र प्रदेश में सर्वप्रथम सन 2003 में इसे अनुसन्धान स्तर पर प्रारम्भ किया गया। आन्ध्र प्रदेश में एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती की शुरुआत का श्रेय राज्य सरकार, कृषि प्रसार एवं कृषि विश्वविद्यालय को जाता है। इसका मुख्य श्रेय आचार्य एन.जी. रंगा कृषि विश्वविद्यालय के निदेशक, कृषि विस्तार एवं आन्ध्र प्रदेश सरकार के कृषि विस्तार निदेशक डॉ. अलपति सत्य नारायण को जाता है। उन्होंने जनवरी 2003 में श्रीलंका में एस.आर.आई. पद्धति का प्रक्षेत्र प्रदर्शन देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि इस प्रकार धान की खेती से जरूर क्रान्ति आ सकती है। सन 2003 में खरीफ में 300 प्रक्षेत्र प्रदर्शन 22 जिलों में किये गए। उसके बाद से लगातार एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती बढ़ती चली गई।
देश की खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की स्थापना मई, 2007 में की। मिशन का मुख्य उद्देश्य ग्यारहवीं योजना (2011-12) के अन्त तक 10 मिलियन टन धान, 8 मिलियन टन गेहूँ एवं 2 मिलियन टन दालों का अतिरिक्त उत्पादन बढ़ाना था। आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, त्रिपुरा राज्यों में एस.आर.आई. की सफलता को देखकर सरकार के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन ने देश में 20 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर जो 12 राज्यों में 133 जिलों में एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती पर विशेष जोर दिया। धान का उत्पादन लक्ष्य 90 मिलियन टन प्राप्त करने के लिये मिशन ने किसानों के खेतों पर एस.आर.आई. पद्धति से 50,000 क्षेत्र पर प्रदर्शन प्रबन्धन का अधिक-से-अधिक प्रसार के लिये केन्द्र सरकार ने 1500 लाख का बजट रखा है। किसानों की तकनीकी कार्य कुशलता बढ़ाने के लिये 5000 कृषक प्रक्षेत्र स्कूल प्रति 1000 हेक्टेयर के दायरे में खोलने का प्रबन्ध किया है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन ने किसानों को खाद, बीज, सूक्ष्म तत्वों एवं कृषि यंत्रों मुख्य कोनोवीडर खरीदने के लिये 50 प्रतिशत अनुदान का प्रावधान रखा है। इसके विस्तार में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राज्य सरकारें, प्रगतिशील किसानों एवं एन.जी.ओ. की महत्त्वपूर्ण भूमिका है तथा बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड एवं उड़ीसा राज्य पर प्रमुख ध्यान दिया जा रहा है। किसानों को एस.आर.आई. पद्धति की नवीनतम जानकारी के लिये कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केन्द्रों एवं कृषि प्रसार संस्थाओं की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इक्रीसेट, हैदराबाद राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर इस पद्धति से धान की खेती पर काफी अनुसन्धान एवं तकनीकी बुलेटिन प्रकाशित कर चुके हैं।
निष्कर्ष
भारतीय खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एस.आर.आई. पद्धति का महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। यह पद्धति न केवल 50-100 प्रतिशत धान की उपज बढ़ाती है, बल्कि कीट पतंगों एवं बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी प्रदान करती है। सूखा एवं बाढ़ की परिस्थितियों में भी अच्छे परिणाम देती है क्योंकि एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती रबी मौसम में की जाती है। भारत में खाद्यान्न फसलों में धान प्रमुख है और कुल क्षेत्र के 23 प्रतिशत में धान की खेती होती है। हमारे देश में यह इसलिये और भी व्यावहारिक है क्योंकि देश में जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है उनमें से 44 प्रतिशत इलाके असिंचित हैं। वे पूरी तरह वर्षा पर निर्भर हैं जबकि एस.आर.आई. पद्धति से धान की खेती रबी में करने से महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। वर्तमान में दुनिया के 40 से अधिक देशों में एस.आर. आई. पद्धति से सफलतापूर्वक खेती की जा रही है। भारत में तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, कर्नाटक, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में सफलतापूर्वक इस पद्धति से धान की खेती की जा रही है। केन्द्र सरकार एवं राज्य मिलकर एस.आर.आई. पद्धति को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के द्वारा आवश्यक तकनीक एवं आर्थिक सहायता किसानों को दे रही हैं।
हल्दी ने किसानों का कर्ज चुकाया
आन्ध्र प्रदेश में लगभग 63,000 हेक्टेयर में हल्दी की खेती की जाती है। अकेले निजामाबाद में लगभग 10,000 हेक्टेयर में हल्दी की खेती की जाती है। जब पिछले साल 2009 में किसानों ने हल्दी बोना शुरू किया था तो मंडी में उसके भाव 5000 रुपए प्रति क्विंटल चल रहे थे। मई 2010 के प्रथम सप्ताह में मंडी में हल्दी के भाव 15,800 रुपए प्रति क्विंटल पहुँच गए, जबकि ‘सालम फिंगर’ जैसी किस्म की हल्दी की गाँठों के भाव 18,678 रुपए प्रति क्विंटल थे। नई फसल आने पर किसानों की उम्मीद है कि मंडी में हल्दी की गाँठों के भाव 17,000 रुपए प्रति क्विंटल मिलेंगे ही। हल्दी की एशिया की सबसे बड़ी मंडी सांगली महाराष्ट्र में है और दूसरी इरोड, आन्ध्र प्रदेश में। एक एकड़ में किस्म और देखभाल के अनुसार 20 से 40 क्विंटल हल्दी पैदा हो जाती है। इरोड जिले में कोदूमुदी गाँव में सबसे ज्यादा हल्दी पैदा की जाती है। अकेले इस गाँव से इरोड की मंडी में एक लाख बोरी हल्दी की गाँठें पहुँचाती हैं। एक बोरी में 75 किग्रा हल्दी आती है। हल्दी की बुआई मई से अगस्त तक की जाती है और जनवरी से गाँठों की खुदाई शुरू की जाती है। आन्ध्र प्रदेश में इरोड और निजामाबाद तथा आस-पास के तमिलनाडु और कर्नाटक के इलाके हल्दी की खेती के लिये मशहूर हैं। इरोड, भवानी, सालेम, अतूर और कर्नाटक के चामराजनगर को मिलाकर 15-20 लाख बोरी हल्दी की गाँठ पैदा की जाती है। सन 2009 में पैदावार कम हुई थी और इस क्षेत्र में केवल 12 लाख बोरी हल्दी पैदा की गई थी। लेकिन बाद में किसानों ने हल्दी का क्षेत्र बढ़ा दिया, क्योंकि माँग भी बढ़ी और दाम भी बढ़े। हल्दी की खेती करना खर्चीला तो है लेकिन खर्चा निकल भी आता है और मुनाफा भी ज्यादा होता है। एक एकड़ में हल्दी की गाँठों की बुवाई पर ही बीज की लागत सहित 50,000 रुपए का खर्चा आता है और कुल लागत डेढ़ लाख पड़ती है। अगर 40 क्विंटल पैदा की तो 10,000 रुपए प्रति क्विंटल भी लगाए तो 4 लाख रुपए यानी ढाई लाख रुपए का शुद्ध मुनाफा हुआ, जबकि भाव 16-17000 रुपए प्रति क्विंटल चल रहा है। हल्दी उत्पादकों ने अपने सारे कर्जे चुका दिये और बच्चों को इंजीनियरिंग कॉलेज और एम बी ए वगैरह में यहाँ पढ़ा रहे हैं और कच्चे मकान पक्के करा लिये हैं। |
जैविक तरीकों से टमाटर उगाइए
टमाटर की सरताज किस्म पर एकीकृत नाशीजीव तथा पोषक तत्व प्रबन्धन के जैविक तरीके अपनाकर प्रति हेक्टेयर 962 क्विंटल तक टमाटर पैदा किये गए जो कि बहुत अच्छी उपज है। प्रयोगों में खाद लगाने के दस जैविक स्रोतों का उपयोग किया गया। 10 टन प्रति हेक्टेयर घूरे और गोबर की खाद, मलजल की खाद 20 टन प्रति हेक्टयर, नीम की खली 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, घूरे की खाद और अजोटोबैक्टर और गन्दे पानी को हटाने के बाद बची इत्यादि के प्रयोग किये गए। सबसे अधिक उपज वर्मीकम्पोस्ट के साथ अजोटोबैक्टर का जैव उर्वरक देने पर मिली। |
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