सेटलमेंट सिस्टम पर चोट

इंसान जायदाद से बेदखल करने पर अदालतों की शरण जाते हैं परंतु नदियां और उनसे जुड़े घड़ियाल, डालफिन, उदबिलाव, शेर, बाघ आदि किस आधार पर और किससे गुहार करें? नदियां किन अदालतों से और किन कानूनों की आड़ में मानव के अलावा बाकी सभी संतानों के जीवन रक्षा की मांग करें? पिछले एक दशक से चीन द्वारा तिब्बत से निकलने वाली नदियों के ऊपर बांध बनाने और उनकी दिशा बदलने के प्रयासों की वैश्विक प्रतिक्रिया हो रही है। चीन द्वारा उठाये गए कदम अगर इस दिशा में सफल होते हैं तो न केवल ब्रह्मपुत्र व सिंधु नदी और उनकी सहायक नदियां बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगी बल्कि थाईलैंड, म्यांमार, वियतनाम और कम्पूचिया जैसे देश तो नदी विहीन ही हो जाएंगे।

नदियों को जोड़ने का निर्णय हतप्रभ करने वाला है। वह इसलिए कि ऐसी योजना बनाते समय उन तमाम पक्षों पर ध्यान नहीं दिया गया, जो इससे उत्पन्न होंगे। पूरी दुनिया एडर्वड जेनर, लुई पास्चर तथा उन सभी वैज्ञानिकों की शुक्रगुजार है जिन्होंने प्राकृतिक कारणों से होने वाली बीमारियों से मानव जाति को मुक्ति दिलाई। वैज्ञानिक अनुसंधान से इलाज के लिए दवाओं की खोज की गई जिससे मानवता का फायदा हुआ। जानलेवा रोगों से मरने का डर गया और हम दीर्घायु की ओर बढ़ गए। आज कभी-कभार मृत्यु को जीत लेने की खबरों से मन में वितृष्णा भर जाती है। नई खोजों का लाभ लेते हुए हमने कभी यह नहीं सोचा कि दीर्घायु होने का प्रकृति पर क्या असर पड़ा है- पृथ्वी पर, पानी पर, आकाश पर या वायु आदि पर। चिकित्सा क्रांति से एक ही चीज बढ़ी है, मानव आबादी। बढ़ती आबादी की इच्छापूर्ति को जिंदा रखने के लिए नदियों को जोड़ने के विचार को जन्म दिया है। बढ़ती हुई आबादी से अरबों सालों में बने प्राकृतिक खनिज व जंगल समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। पहाड़ भी नंगे हो गए और उन पर खड़ी वनस्पतियां न केवल खत्म हुए बल्कि चोटियों पर जमी बर्फ भी विलुप्त हो गई। प्रकृति के अप्राकृतिक दोहन के फलस्वरूप न केवल वातावरण का संतुलन बिगड़ गया वरन वातावरण ही बदल गया। प्रकृति के कितने जीव-जंतु और वनस्पतियां अब तो मात्र संग्रहालयों में ही रह गए हैं और कुछ प्राणी पिंजरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। पिछले दो सौ साल में प्रकृति के साथ हुए खिलवाड़ और उसके दुष्परिणामों से हमने कुछ नहीं सीखा। इसी का नतीजा है कि देश में नदियों को आपस में जोड़ने और उनके बहाव को बदलने की आवश्यकता बताई जा रही है। बात केवल आस्था की नहीं है। आज गंगा के पयार्यवाची भागीरथी, जाह्नवी या अलकनंदा का मतलब टिहरी बांध के बाद भला कौन समझ सकता है?

नदियों की भिन्न जैविकता की रक्षा का भी तो सवाल है


नदियों ने तो किसी को कभी आमंत्रित नहीं किया था कि आओ मेरे किनारों पर बसो। नदियों का बहाव एक प्राकृतिक दिशा और दशा में होता है। उनकी अपनी एक अधिवास प्रणाली होती है। न केवल नदियों में विशिष्ट जीव रहते हैं वरन उनके किनारों पर भी विशिष्ट जीवों व वनस्पतियों का पालन-पोषण होता है। सभी नदियों और उन पर आश्रित जीवों व पौधों का भी एक अपना चरित्र होता है। गंगा में पाई जाने वाली विलुप्त होती डालफिन मछली यमुना में नहीं पाई जाती। इसी तरह से हिल्सा मछली समुद्र में गिरने वाली सभी नदियों में नहीं पाई जाती। यही हाल नदी किनारे पाए जाने वाले पौधों का भी है। मनुष्य को छोड़कर विश्व के सभी जीव अपने प्राकृतिक माहौल में रहते हैं। अत: मुख्य प्रश्न यह भी है कि नदियों को जोड़ने व बहाव बदलने से सेटलमेंट सिस्टम पर क्या असर पड़ेगा? इसका चम्बल में बचे-खुचे घड़ियालों व गंगा की डालफिन पर क्या असर पड़ेगा? नदी के किनारे बसे उन लोगों का क्या होगा? जो बाढ़ द्वारा लाई गई मिट्टी एवं उर्वरकों पर निर्भर रहते हैं। घाघरा नदी में बसे अप्रतिम दुर्बल उदबिलावों का क्या होगा? यही सब बातें दक्षिण की नदियों पर भी लागू होती हैं।

इंसान जायदाद से बेदखल करने पर अदालतों की शरण जाते हैं परंतु नदियां और उनसे जुड़े घड़ियाल, डालफिन, उदबिलाव, शेर, बाघ आदि किस आधार पर और किससे गुहार करें? नदियां किन अदालतों से और किन कानूनों की आड़ में मानव के अलावा बाकी सभी संतानों के जीवन रक्षा की मांग करें? पिछले एक दशक से चीन द्वारा तिब्बत से निकलने वाली नदियों के ऊपर बांध बनाने और उनकी दिशा बदलने के प्रयासों की वैश्विक प्रतिक्रिया हो रही है। चीन द्वारा उठाये गए कदम अगर इस दिशा में सफल होते हैं तो न केवल ब्रह्मपुत्र व सिंधु नदी और उनकी सहायक नदियां बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगी बल्कि थाईलैंड, म्यांमार, वियतनाम और कम्पूचिया जैसे देश तो नदी विहीन ही हो जाएंगे। अगर हम खुद ही नदियों का रुख बदलने की बात कहेंगे तो चीन को ऐसा न करने के लिए कहने का हमारा नैतिक अधिकार कैसे होगा?

प्रो. मक्खन लाल सीनियर फेलो, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन, नई दिल्ली

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