भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में शेखर गुप्ता एक बड़ा नाम है। अच्छी पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों में से एक होता है कि तथ्यों से छेड़खानी ना हो। इसलिए शेखर से एक तो उम्मीद थी कि जब वे अपने बहस में बड़े बांधों और नदी जोड़ योजना के पक्ष में तर्क दे रहे हैं तो वे तथ्यों के प्रति दृढ़ रहेंगे।
दुर्भाग्य से, उनका कॉलम ‘‘एक और हरित क्रांति की ओर’’ (दैनिक भास्कर, 24 अगस्त 2009) गलत जानकारी और तथ्यों की गलत बयानबाजी का संग्रह है। उनके लेख का दावा है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खेती की अच्छी संभावना बड़े बांधों की वजह से है। दावे के पक्ष में कोई तथ्य या विश्लेषण भी नहीं प्रस्तुत किए गए हैं। इसके विपरीत, उपलब्ध प्रमाण {देखें श्रीपाद धर्माधिकारी की अनरैवेलिंग भाखड़ा (Unravalling Bhakra)} बताते हैं कि पंजाब के कृषि उत्पादन का 45 प्रतिशत और हरियाणा के कृषि उत्पादन का 35 प्रतिशत भूजल के अत्यधिक दोहन (भूजल की प्राकृतिक क्षमता के उपरांत) पर आधारित है। भूजल के अत्यधिक दोहन के मुद्दे पर ही इंडियन एक्पप्रेस में जहां शेखर गुप्ता का मूल अंग्रेजी लेख 15 अगस्त 2009 को छपा था उसी दिन संपादकीय प्रकाशित हुआ है। वास्तव में, उसी विश्लेषण से पता चलता है कि भाखड़ा प्रणाली द्वारा सिंचित भूमि में पंजाब के कृषि उत्पादन का हिस्सा 11 प्रतिशत है जबकि हरियाणा का हिस्सा 24 प्रतिशत है। यदि आप इसमें इस तथ्य को भी जोड़ देते हैं कि इस क्षेत्र में, सरकार द्वारा बड़े अतिरिक्त खर्च पर अतिरिक्त लाभ के तौर पर, ज्यादातर खाद्यान्नों की खरीद होती है, तो हम देख सकते हैं कि किन चीजों ने यहां कृषि उत्पादन को टिकाऊ बनाया है। हालांकि, यहां की कृषि समृद्धि अब अस्थिरता के गंभीर संकेत दिखा रही है।
शेखर का तर्क कि गुजरात की कृषि की बेहतर स्थिति नर्मदा बांध की वजह से है, यह भी बहुत ही कमजोर तथ्यों पर आधारित है। खुद गुजरात सरकार ही स्वीकार करती है कि, गुजरात में खेती योग्य उपलब्ध कुल 98 लाख हेक्टेअर क्षेत्र में से वह नर्मदा नहर के माध्यम से मुश्किल से केवल 1.5 लाख हेक्टेअर सिंचाई करने में सक्षम है। यह तो गुजरात सरकार भी दावा नहीं करती है कि उसकी कृषि समृद्धि नर्मदा की सिंचाई की वजह से है!
दुर्भाग्य से, उनका कॉलम ‘‘एक और हरित क्रांति की ओर’’ (दैनिक भास्कर, 24 अगस्त 2009) गलत जानकारी और तथ्यों की गलत बयानबाजी का संग्रह है। उनके लेख का दावा है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खेती की अच्छी संभावना बड़े बांधों की वजह से है। दावे के पक्ष में कोई तथ्य या विश्लेषण भी नहीं प्रस्तुत किए गए हैं। इसके विपरीत, उपलब्ध प्रमाण {देखें श्रीपाद धर्माधिकारी की अनरैवेलिंग भाखड़ा (Unravalling Bhakra)} बताते हैं कि पंजाब के कृषि उत्पादन का 45 प्रतिशत और हरियाणा के कृषि उत्पादन का 35 प्रतिशत भूजल के अत्यधिक दोहन (भूजल की प्राकृतिक क्षमता के उपरांत) पर आधारित है।
यहां यह बताना भी उपयोगी होगा कि भारत में बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर पिछले बारह वर्षों में (जिनके आंकड़े उपलब्ध हैं) 99,610 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद, भारत की बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के नहरों से वास्तविक सिंचित इलाकों में 30 लाख हेक्टेअर से ज्यादा की कमी आई है। अधिकारिक आंकड़ों पर आधारित यह विस्तृत विश्लेषण सैण्ड्रप के वेबसाइट पर उपलबध हैं
नदियों को जोड़ने की वकालत पर भी शेखर का तर्क आधारहीन है। वास्तव में, केन बेतवा नदी जोड़ प्रस्ताव के नाम से आगे बढ़ाई जा रही पहली नदी जोड़ परियोजना के संदर्भ में, हमारे पास इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कोई वैज्ञानिक आधार ही मौजूद नहीं है कि केन नदी वास्तव में जल बहुल नदी है।
संयोग से, शेखर के लेख वाले पृष्ठ पर छपे उसी संपादकीय का कहना है कि, ‘‘यह अनुमान किया जाता है कि भारत के कृषि उत्पादन का 70 से 80 प्रतिशत तक भूजल पर निर्भर है।‘‘ यदि इस आकलन में कुछ अतिशयोक्ति हो तो भी कोई इससे इनकार नहीं कर सकता है कि भूजल ही भारत की वास्तविक जीवनरेखा है और यह कई सालों तक ऐसे ही रहने वाली है। जैसा कि यू.एस. के उपग्रह के नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि, हम बहुत ही गैरटिकाऊ तरीके से भूजल का उपयोग कर रहे हैं। भूजल जीवनरेखा को टिकाऊ बनाने का एक ही तरीका है कि स्थानीय जल प्रणाली के माध्यम से जहां बारिश हो उसे वहीं संरक्षित किया जाय और विश्वसनीय समुदाय आधारित नियामक प्रक्रिया के कायदे स्थापित हों। यह ग्लेशियर (हिमनद) के पिघलने और जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून के ज्यादा अनियमित व अप्रत्याशित होने की स्थिति में और भी ज्यादा प्रासंगिक होगा।
दुर्भाग्य से, यह पहली बार नहीं है जब शेखर गुप्ता ने बड़े बांधों पर ऐसी तथ्यहीन वकालत की है। कोई भी उनसे इससे अच्छे लेख की उम्मीद करेगा, खासकर तब जबकि उनके कालम के शीर्षक में ‘‘राष्ट्रीय हित’’ जुड़ा हो और वह कालम भारत के स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रकाशित हो रही हो। फिलहाल, तो यह लेख राष्ट्रीय हित के बजाय कुछ निहित स्वार्थों को बढ़ावा देता हुआ लगता है।
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