सधुवै दासी, चौरवै खाँसी, प्रेम बिनासै हाँसी।
घग्घा उनकी बुद्धि बिनासै, खाय जो रोटी बासी।।
भावार्थ- साधु को दासी, चोर को खाँसी और प्रेम को हँसी (उपहास) नष्ट कर देती है। इसी तरह जो बासी रोटी खाते हैं उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है।
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