पिछले अनेक वर्षों से भारत में यातायात व्यवस्था को सुगम बनाने के लिए सडकों और नये-नये रेलमार्गों के निर्माण हो रहा है। जन प्रतिनिधियों के अलावा स्थानीय प्रशासन भी अपने कार्यक्षेत्र में सक्रिय रहता है। वन विभाग भी हर साल जंगलों में मिट्टी की सडकों का निर्माण करता है। इन सडकों तथा रेल मार्गों की लम्बाई हजारों किलोमीटर होती है। उन्हें बनाने में बहुत बड़ी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता होती है। उसे प्राप्त करने के लिए उपयुक्त स्थान खोजा जाता है। वहाँ से मिट्टी खोदकर सडकों का आधार तैयार किया जाता है। इस काम में हर साल करोड़ों क्यूबिक मीटर मिट्टी लगती है। परिवहन पर हर साल बहुत बड़ी राशि खर्च की जाती है। यह काम लगातार चलने वाला काम है अतः आने वाले सालों में भी आगे चलता रहेगा।
मिट्टी के महत्व और उसके कटाव से सब परिचित हैं। उसके बने रहने के कारण ही देश में हरियाली है। उसकी अच्छी सेहत ही विपुल उत्पादन का सुनिश्चित बीमा है। उसी के रहते जंगलों का अस्तित्व है। उसकी सुरक्षा में ही जीवन की सलामती है। उसका सबसे बड़ा दुश्मन कटाव है। यह कटाव पानी और हवा के असर से होता है। अनुमान है कि 1977 से 1997 के बीच भूमि कटाव से प्रभावित इलाका दो गुना हो गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि हर साल औसतन 5,334 मिलियन टन (प्रति हैक्टर औसतन 16.4 टन) कटाव के कारण मिट्टी बह जाती है। भूमि कटाव का लगभग 61 प्रतिशत हिस्सा, हर साल अपनी जगह बदलता हैै। भूमि कटाव का लगभग 29 प्रतिशत (1068.8 मिलियन टन) हिस्सा समुद्र में जमा होता है। भूमि कटाव का दस प्रतिशत (533.4 मिलियन टन) हिस्सा जलाशयों में जमा होता है।
इस व्यवस्था को अपनाने से एक ओर सड़क निर्माण के लिए मिट्टी मिल जाएगी और दूसरी ओर देश के लगभग हर इलाके में पर्याप्त गहरे तालाबों का निर्माण होगा। समाज को पानी का स्रोत मिल जाएगा, सरकार का कुछ धन भी बच जाएगा। तालाबों तथा जलाशयों में हर साल मिट्टी जमा होती है। अर्थात सड़क निर्माण के लिए मिट्टी की कमी नहीं होगी। मिट्टी निकालने से तालाब में जमा हानिकारक रसायनों की भी मात्रा कुछ कम होगी। बढ़ते जल संकट को देखते हुए इसे सरकारों तथा कारपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी के अन्तर्गत अपनाया जा सकता है।
इसके कारण जलाशयों की पानी जमा करने वाली क्षमता हर साल एक से दो प्रतिशत घट जाती है। यह दुहरा नुकसान है। पहला जलाशय की क्षमता के कम होने के साथ-साथ उपयोगी उम्र घटती है। दूसरा नुकसान है उपजाऊ मिट्टी से लाभ मिलना खत्म हो जाता है। तालाबों के पुनर्जीवन पर चर्चा करते समय उसे काम में लाने के बारे में सोचा जाता है पर संभावित खर्च तथा विकल्पों के अभाव के कारण मामला आगे नहीं बढ़ पाता है। उसका निपटान समस्या ही बना रहता है। असल में सिल्ट के निपटान को समस्या के स्थान पर अवसर के तौर पर देखने की आवश्यकता है। उसे हटाने के लिए नवाचार अपनाने की आवश्यकता है। मौजूदा समय में चल रही योजनाओं में उसके उपयोग की संभावना के बारे में सोचने की आवश्यकता है। संभव है वह नवाचार गहराते जल संकट से मुक्ति दिलाने में कुछ मदद करे। तकनीकी स्तर पर मान्य और आर्थिक स्तर पर मितव्ययी हो।
कुछ सुझाव
सभी जानते हैं कि नये रेलमार्ग को बनाने में बहुत बड़ी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता होती है। इसे अनेक स्थानों से खोदकर रेलमार्ग पर डाला जाता है। मिट्टी प्राप्ति की व्यवस्था में यदि बदलाव कर यदि रेलमार्ग के दोनों तरफ मिलने वाले सूखे तालाबों की मिट्टी निकालकर रेलमार्ग बनाया जाये तो एक ओर जल संचय के लिए तालाबों का गहरीकरण हो सकेगा और दूसरी ओर रेल मार्ग बनाने के लिए मिट्टी मिल जाएगी। यह कदम सिल्ट की खलनायकी भूमिका को यथासंभव अवसर में बदल सकता है।
विदित है कि कि वन भूमि पर हर साल कच्ची सड़कों को सुधारा जाता है तथा कहीं-कहीं नई सड़कों का निर्माण भी किया जाता है। उन सड़कों को बनाने में बहुत बड़ी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता होती है। उसकी आपूर्ति साधारणतः वनभूमि से ही की जाती है। वनों की सेहत के लिए मिट्टी निकालना सही नहीं होता है। अतः यदि यह मिट्टी अनेक स्थानों के बजाए एक ही स्थान से निकाली जाये तो वहाँ तालाब विकसित किया जा सकता है। इस व्यवस्था को अपनाने से एक ओर तालाब का निर्माण हो सकेगा, दूसरी ओर जंगल में बन रही सडक को मिट्टी मिल जाएगी। जंगल को नमी का लाभ तथा जंगली जानवरों के लिए जंगल के भीतर पानी मिल जाएगा। विकल्प के तौर पर कन्टूर ट्रेंच, गली प्लग जैसी संरचनाओं में जमा सिल्ट को भी निकाला जा सकता है। इस कदम से वनों को भी लाभ होगा। अतिरिक्त जल स्रोत बनाने की आवश्यककता नहीं पडेगी।
सभी जानते हैं कि इन दिनों देश के हर हिस्से में बड़े पैमाने पर सडकों का निर्माण किया जा रहा है। यह निर्माण सामान्यतः पीडब्ल्यूडी और ग्रामीण विकास विभाग द्वारा किया जाता है। इन दोनों विभागों के अलावा और भी विभाग और संस्थान हैं, जो छोटे स्तर पर सडकों का निर्माण कराते हैं। समय-समय पर उनकी मरम्मत भी की जाती है। भवन निर्माण में भी मिट्टी की आवश्यकता होती है। इन सभी को सड़क बनाने में बहुत बड़ी मात्रा में मिट्टी की आवश्यकता होती है। उसकी आपूर्ति साधारणतः आसपास के इलाके से ही की जाती है। यदि व्यवस्था बदलकर पुराने सूखे तालाबों से मिट्टी निकाली जावे तो वहाँ बारहमासी तालाब बनाया जा सकता है। कुछ मिट्टी गर्मी के मौसम में बडे जलाशयों तथा बांधों के सूखे इलाकों से भी प्राप्त की जा सकती है।
इस व्यवस्था को अपनाने से एक ओर सड़क निर्माण के लिए मिट्टी मिल जाएगी और दूसरी ओर देश के लगभग हर इलाके में पर्याप्त गहरे तालाबों का निर्माण होगा। समाज को पानी का स्रोत मिल जाएगा, सरकार का कुछ धन भी बच जाएगा। अर्थात सब का काम बन जाएगा। तालाबों तथा जलाशयों में हर साल मिट्टी जमा होती है। अर्थात सड़क निर्माण के लिए मिट्टी की कमी नहीं होगी। मिट्टी निकालने से तालाब में जमा हानिकारक रसायनों की भी मात्रा कुछ कम होगी। बढ़ते जल संकट को देखते हुए इसे सरकारों तथा कारपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी के अन्तर्गत अपनाया जा सकता है।
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