1. इस समस्या के रूप और प्रदूषण के विस्तार- से हमें इसके समाधान के बारे में क्या पता चलता है?
आर्सेनिक और सरकार जैसे दो कपटी निमित्तों से जूझते हुए एक बात साफ जाहिर हो जाती है- हमें युक्तिमूलक समाधान ढूँढना होगा। सरकार के लिए अति आवश्यक है कि वह प्रदूषित इलाकों की पहचान बनाए, न कि इसका दावा करती रहे कि यह समस्या सिर्फ पश्चिम बंगाल तक सीमित है।
आर्सेनिक का व्यापक रूप से विस्तार हुआ है, मगर यह एक इलाके में बिखरा हुआ भी मिल सकता है। एक ही इलाके में जहाँ एक हैंडपम्प प्रदूषण-मुक्त हो सकता है, वहीं दूसरे में भारी मात्रा में आर्सेनिक प्राप्त हो सकता है। एक गाँव जहाँ जहर की चपेट में है, वहीं पड़ोसी गाँव पूरी तरह से सुरक्षित हो सकता है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के घाटी में आर्सेनिक की खोज सुखी घास में एक सुई खोजने के बराबर ही मुश्किल है। मगर हमें तो यह खोज जारी रखना होगा।
अगर हम मानते हैं कि इस प्रदूषण का जड़ मानव है, तो प्रदूषण का विस्तार संदूषक तत्वों के व्यवहार पर निर्भर करेगा। प्राकृतिक आर्सेनिक की कल्पना के अनुसार यह विस्तार हिमालय की नदियों के आस-पास होगा। नेपाल के तराई क्षेत्र से बंगाल-बांग्लादेश डेल्टा तक। मगर इस विस्तार में आर्सेनिक की मात्रा एक समान नहीं भी हो सकती है। जादवपुर विश्वविद्यालय के दिपांकर चक्रवर्ती कहते हैंः “गंगा का सारा मैदान समान रूप से प्रभावित नहीं हो सकता है...।” प्रश्न यह है कि प्राकृतिक आर्सेनिक कहाँ और कैसे बाहर आ निकलेगा। लघुकरण परिकल्पना के अनुसार आर्सेनिक प्राकृतिक रूप से ही बाहर आएगा। मगर प्रश्न यह भी है कि क्या भूजल निष्कर्षण की वजह से भूगर्भ में ऑक्सीजन घुसने से इस प्राकृतिक प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है?
भारत में पीने के पानी का मुख्य स्रोत भूजल ही है। मगर इस भूजल के व्यवहार पर कोई लगाम नहीं है, न ही इसके अप-व्यवहार पर कोई रोक। बलिया और उसके जैसे अन्य संदूषित इलाकों की त्रासदी एक अनजाने सम्पदा की कहानी है। एक ऐसी संपदा जो भूगर्भ में समाई हुई है, और जिसका अविराम निष्कर्षण किया जा रहा है। जानबूझकर पानी को विष में बदलने की इस प्रथा का अन्त होना जरूरी है।
2. जाहिर है कि माॅनीटर करना बहुत ही जरूरी है। मगर सटीक परिणाम पाने के लिए किस तरह से माॅनीटर किया जाना चाहिए?
आर्सेनिक के इस अनर्थ को नकारने से हमें कुछ नहीं मिलेगा। यह एक मानवीय त्रासदी है और इसके लिए जरूरत है एक दृढ़बद्ध प्रतिक्रिया की।
भारत को चाहिए एक देशव्यापी माॅनीटरिंग परियोजना, जिसका कार्यान्वयन सही तरीके से हो। यह उस तरह से नहीं किया जा सकता जैसा कि सेन्ट्रल ग्राउन्डवाटर बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) ने अपनी आर्सेनिक संदूषण सर्वेक्षण में किया, इस सर्वेक्षण के परिणामों पर पर्दा डाल दिया गया। यह उस तरह से भी नहीं किया जा सकता जैसा कि बलिया में पानी की जाँच की गई, जिसमें प्रयोगशाला को गाँवों से भेजे गए नमूने बिल्कुल ‘साफ’ पाए गए।
माॅनीटरिंग का एक उद्देश्य होना चाहिए, लोग क्यों मर रहे हैं, इसका जवाब ढूँढ़ना। अगर यह आर्सेनिक नहीं है, तो उनकी बीमारी का क्या कारण है? आर्सेनिक जाँच की प्रणाली को सरकारी संस्थाओं की छल-कपट और उदासीनता का शिकार नहीं बनने देना चाहिए। इन संस्थाओं की जिम्मेदारी होगी समस्या के अनुपात का अनुमान लगाना। इसके लिए यह ध्यान में रखना होगा कि कितने लोग आक्रांत हैं, और कितने आक्रांत हो सकते हैं। यह माॅनीटरिंग लोगों के साथ मिलकर, और उनके लिए, किया जाना चाहिए।
इसके अलावा, सरकार को जिला-स्तर पर प्रयोगशालाओं की स्थापना करनी चाहिए, जहाँ आर्सेनिक की जाँच की जा सके। “अगर देशव्यापी मानचित्रण करना है, तो इसमें पहला कदम होगा आधुनिकतम तकनीकों और उपकरण से लैस ज्यादा से ज्यादा प्रयोगशालाओं की स्थापना। मौजूदा हालात में, देशव्यापी मानचित्रण करने में 10 साल लगेंगे। इसी बीच, आर्सेनिक हजारों की मौत का कारण बनता रहेगा।” ऐसा कहते हैं ‘पाॅल डेवेरिल, डायरेक्टर चाईल्ट हेल्थ प्रोग्राम, युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड’।
3. क्या भारत इस प्रकार की माॅनीटरिंग कर सकता है?
भारत के पास माॅनीटरिंग के लिए पर्याप्त साधन मौजूद नहीं है। सेन्ट्रल ग्राउन्डवाटर बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) आर्सेनिक जाँच के लिए केन्द्रीय सरकारी संस्था है। इसके पास देश भर में भूजल जाँच करने के लिए 17,000 प्रेक्षण-चौकियाँ हैं। मगर इन चौकियों में अधिकतम कुएँ हैं। आर्सेनिक भूर्गभ के छिछले अंशों में नहीं मिलता- इस वजह से प्रेक्षण के लिए इन कुँओं का प्रयोग उपयुक्त नहीं हैं। इसके अलावा, यूनिसेफ का कहना है कि सीजीडब्ल्यूबी के पास आर्सेनिक जाँच करने के लिए पूँजी नहीं है।
यह माना गया है कि अधिकतम राज्यों के पब्लिक हेल्थ इंजिनियरिंग डिपार्टमेंटों के पास पानी में आर्सेनिक संदुषण परखने की सुविधा उपलब्ध है। मगर इन प्रयोगशालाओं में ज्यादातर आर्सेनिक की जाँच नहीं कर रहे, उदाहरण स्वरूप, बलिया। “आर्सेनिक की जाँच यू.पी. जल निगम के नियमित जल माॅनीटरिंग प्रक्रिया में शामिल जरूर है, मगर हम इसकी माॅनीटरिंग नहीं करते क्योंकि यह एक बड़ी ही थकाने वाली प्रक्रिया है। हमारी प्रादेशिक प्रयोगशालाओं में ऐसी जाँच की कोई सुविधा नहीं उपलब्ध है। हम तभी जाँच करते हैं जब हमें संदूषण के बारे में पता चलता है। अगर हम यह जानते हैं कि इस क्षेत्र में आर्सेनिक नहीं हो सकता, तो इसकेलिए जाँच की क्या आवश्यकता है ?” यह कहना है यू. पी. जल निगम के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर एस. आर. शर्मा का।
4. क्या हमारी वर्तमान परियोजनाओं में से किसी से हमें सीख मिल सकती है?
उत्तर प्रदेश सरकार की फ्लोराइड अल्पीकरण परियोजना एक उदाहरण है। राज्य का लगभग सात प्रतिशत हिस्सा फ्लोराइड से आक्रान्त है। लम्बे समय तक फ्लोराइड के अन्तर्ग्रहण से (संदूषित पानी के जरिए) फ्लोरोसीस की बीमारी हो जाती है। राज्य सरकार गाँवों में स्वच्छ पानी पहुँचाने की परियोजना में हर साल लगभग 40 करोड़ रुपया खर्चा करती है। इसके बावजूद, फ्लोराइड अल्पीकरण के परिणाम निराशाजनक ही हैं। उदाहरण स्वरूप, फ्लोराइड से आक्रान्त उन्नाव जिले में मध्य - 1990 के दशक से 592 गाँवों में पाईप द्वारा पानी ले जाने के 54 सतही सिस्टमों के ऊपर 61 करोड़ रुपए से भी ज्यादा खर्च किया गया। मगर लगातार बिजली की कमी की वजह से ये सिस्टम दिन में सिर्फ दो घंटे ही कार्यरत रहते हैं।
इस समस्या के निदानस्वरूप जिला जल निगम के इंजिनीयरों में 2002 में 25 अलुमिना से चलने वाले हैंडपम्प ट्रीटमेंट यूनिट लगाए। एक साल के अन्तर में वे सारे यूनिट विफल हो चुके थे। आर्सेनिक अल्पीकरण परियोजनाएँ तैयार करने से पहले, राज्य सरकारों को पानी से सम्बन्धित परियोजनाओं में आ रही सारी समस्याओं का ध्यानपूर्वक मूल्यांकन करना होगा। असल बात यह है कि ये परियोजनाएँ जनसाधरण के हित में होनी चाहिए, और इस कार्य में संचित निधि का अपव्यय नहीं होना चाहिए।
5. गहरे ट्यूबवेलों का उत्खनन-क्या यह एक समाधान हो सकता है ?
अल्पिकरण परियोजनाएँ तय करते समय यह ध्यान में रखना होगा कि आर्सेनिक समस्या का जन्म एक जनस्वास्थ्य नीति से ही हुआ है। जब हमारे नीति बनाने वालों ने पाया कि सतही जल के सेवन से पानी की बीमारियाँ बुरी तरह से फैल रही हैं, तो उन्होंने संदूषण का खात्मा करने के बजाय एक आसान तरीके को अपनाया - भूजल का प्रयोग और दुरुपयोग। सतही जल संसाधन उपेक्षित होते रहे, और हैंडपम्पों ने जोर पकड़ लिया। अब इंडिया मार्क-I जैसे हैंडपम्प हमारे लिए समस्या बन खड़े हुए हैं और इसका समाधान सतही जल संसाधनों और छिछले कुओं में है।
मगर अधिकारी-वर्ग ऐसा नहीं समझते। जब ‘डाउन टू अर्थ’ ने बलिया में आर्सेनिक के प्रकोप का पर्दाफाश किया, सीजीडब्ल्यूबी ने समाधान-स्वरूप दीनानाथ जी के घर में एक और गहरा हैंडपम्प खोद दिया- जैसे कि संदूषण सिर्फ दीनानाथ जी के घर में ही था। ‘डाउन टू अर्थ’ ने नए हैंडपम्प के पानी की जाँच की - इसमें 5 पीपीबी आर्सेनिक मिला। इससे क्या हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि गहरे ट्यूबवेल आर्सेनिक समस्या का समाधान कर सकते हैं? नहीं। आर्सेनिक किसी भी जगह की स्थल और जल, दोनों से जुड़ा होता है। इसलिए भूजल की मात्रा की तरह, इसकी मौजूदगी और कार्य-प्रणाली समय-समय पर बदल सकती है। सिर्फ एक बार किए गए आँकलन पर हमेशा निर्भर नहीं रहा जा सकता।
वर्तमान में, ज्यादातर वैसे ट्यूबवेलों में जो 200 मीटर से गहरे हैं, आर्सेनिक की मात्रा कम है। इसका कारण भूगर्भ के विभिन्न तलों की विशेषताएँ हो सकती हैं, जहाँ होलोसीन तल में आर्सेनिक अधिक मात्रा में है, वहीं उससे गहरे प्लीस्टोसीन तल में नहीं है। मगर गहरे ट्यूबवेल आमतौर पर लोकप्रिय नहीं हैं। छिछले ट्यूबवेलों की तुलना में इन्हें बनाने में 45 गुणा ज्यादा व्यय होता है। आर्सेनिक से आक्रान्त इलाकों में रहने वाले लोग इनसे घबराते हैं। भूवैज्ञानिक और जलवैज्ञानिक भी गहरे ट्यूबवैलों के उत्खनन का समर्थन नहीं करते, क्योंकि उन्हें डर है ये ट्यूबवेल भी संदूषित हो सकते हैं और इससे समस्या और भी जटिल हो सकती है।
6. तो फिर इसका समाधान क्या है?
यह निश्चित है कि पानी का कुप्रबंधन ही आर्सेनिक समस्या का जड़ है। लोग भूजल पर जरूरत से ज्यादा निर्भर करने लगे, जिससे पानी में आर्सेनिक का मिश्रण हो गया। विडम्बना यह है कि यह हुआ है बलिया जैसे स्थानों में, जहाँ पर्याप्त मात्रा में सतही जल उपलब्ध है-तालाबों और नदियों में।
सतही जल के उपयोग का एक तरीका है पाईप द्वारा पानी की आपूर्ति - जो कि बलिया जैसे इलाकों में किया जा सकता है। इस प्रणाली में यह माना जाता है कि नदी का पानी अभिक्रिया के पश्चात पाईप द्वारा घरों तक पहुँचाया जाएगा। यह पानी जीवाणु रहित और रासायनिक संदूषण से मुक्त होगा। मगर क्या राज्य सरकार इस विकल्प को अपनाने के लिए तैयार हैं? शायद नहीं, क्योंकि ये योजनाएँ कीमती और कठिनाई से भरी हैं। पाईपों की देख-रेख, जो समुदाय का दायित्व माना जाता है, अक्सर ठीक ढँग से नहीं हो पाता। माल्दा, दक्षिण 24 - परगना और उत्तर 24-परगना में, जहाँ पाईप द्वारा पानी घरों तक पहुँचाया जा रहा है, पाईपों के रख-रखाव के अभाव में उनमें रिसाव आ गया है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार पाईप द्वारा पानी की आपूर्ति करने वाली परियोजनाओं में सामुदायिक प्रबन्धन और तकनीकी निवेश की ज्यादा जरूरत होती है, उनमें राष्ट्रीय व स्थानीय सरकारों, नागरिक समुदायों और निजी क्षेत्रों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता होती है।
सतही जल को एक और तरीके से उपयोग किया जा सकता है- छिछले तालाबों के पानी का इस्तेमाल करके। इसके लिए, पानी का जीवाणु-रहित होना अति आवश्यक है। वर्तमान में पानी में रहने वाले रोगजनक हर साल 20 में से एक शिशु और 10 में से एक पाँच-साल के कम उम्र के बच्चे की मौत का कारण बनते हैं। मगर ऐसी समस्याओं के समाधान भी हैं। पानी को जीवाणु-मुक्त करने का एक तरीका, जो ग्रामीण समुदायों में प्रचलित है, रेत या कंकड़ निस्यन्दन तकनीक है। पानी की तुलना में रेत या कंकड़ के बीच गुजरने में जीवाणुओं को ज्यादा कठिनाई होती है। अगर निस्यन्दकों का नियमित रूप से रखरखाव हो, छिछले कुँओं या तालाबों का असुरक्षित पानी कम लागत में साफ पानी में तब्दील किया जा सकता है।
वर्षा जल संकलन (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) एक और समाधान हो सकता है। बलिया जैसे इलाकों में भारी वर्षा होती है। छतों पर पीने के लिए वर्षाजल संग्रह किया जा सकता है, घरेलू काम में इस्तेमाल के लिए वर्षाजल को छिछले कुँओं में संग्रह किया जा सकता है। मगर इसके लिए सफाई का ध्यान रखना बहुत जरूरी है, जिससे संग्रहित पानी मानवीय मल से प्रदूषित न हो जाए।
इनके अलावा, इस समस्या का समाधान है जनसाधारण का प्रत्यच ज्ञान। पानी हमारे जीवन का एक मूल अंग है। इसके व्यवहार और उपयोग में किसी भी प्रकार का सांस्कृतिक परिवर्तन हमें सुचिन्तित रूप से व्याख्यान करना होगा। पश्चिम बंगाल और बांग्लोदश के स्थानीय सरकारी विभागों ने निरक्षर नागरिकों को आर्सेनिक के बारे में ज्ञात कराने के लिए प्रचारपत्रों का प्रयोग किया है।
7. मगर क्या ये जन-अभियान सार्थक रहे हैं?
नहीं-ऐसा डब्ल्यूएचओ द्वारा 2001 में बांग्लादेश में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है (फाईटिंग आर्सेनिकः लिसनिंग टू रूरल कम्युनिटीज)। सर्वेक्षण के 2,400 गृहस्थियों में से 87 प्रतिशत को समस्या के बारे में ज्ञान था, 87 प्रतिशत गृहस्थी आर्सेनिक-पीड़ित इलाकों में वास कर रहे थे। जो क्षेत्र आर्सेनिक से पीड़ित नहीं थे, वहाँ 53 प्रतिशत गृहस्थी इस समस्या को जानते और समझते थे। मगर ज्यादातर प्रत्यार्थियों को पीने के पानी में आर्सेनिक से होने वाली बीमारियों के बारे में ज्ञान नहीं था।
इन जन अभियानों की सार्थकता चाहे ये अभियान सरकारी संस्थाओं द्वारा या गैर सरकारी संगठनों द्वारा शुरू किए गए हों- आर्सेनिक के कहर को दबाने के लिए अतिआवश्यक है। अगर समुदाय को उसके हत्यारों के बारे में ज्ञान ही न हो, तो वह अपना बचाव करेगा कैसे? इसकी जरूरत ज्यादा तब महसूस होती है जब सरकारी संस्थाएँ कुछ ठोस कदम उठाने से कतराती हैं। सरकारी अफसर इतना तो कर सकते हैं कि इस भयानक समस्या को नकारने के बजाय स्वीकारें और जनता को इसके विषय में अवगत कराएँ। मगर बलिया में ऐसा नहीं हो रहा। आर्सेनिक से भी अधिक जानलेवा तो सरकार की निर्दयता है, जो बीमारों को पूरी तरह से अनदेखी कर रही है। जब सरकार ही इस विष के अस्तित्व को झुठलाएगी, तो विष और भी फैलेगा। वही हमारे लिए चिन्ता का विषय है।
भूजल में संखिया के संदूषण पर एक ब्रीफिंग पेपर अमृत बन गया विष (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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