सभ्यता का संकट और गांधी का विकल्प

वर्तमान औद्यागिक सभ्यता हर स्तर पर मजदूरों के शोषण से लेकर पर्यावरण के विरुद्ध अनियंत्रित आक्रमण पर आधारित है। खनिज और जीवाश्म इंधनों के लिए धरती के चट्टानी सतहों की तोड़-फोड़, वनों की कटाई, जलस्रोतों का अतिशय दोहन और नदियों से लेकर भूतल तक के जल को रासायनिक कचरे से प्रदूषित करना इसके प्रकृति विरोधी हिंसा के आयाम हैं। इस व्यवस्था के खिलाफ हुईं सभी क्रांतियां अंतत: इसी हिंसात्मक संस्कृति का हिस्सा बनकर कुछ फेरबदल के साथ इस व्यवस्था को चलाने में लगी रही हैं।

आधुनिक औद्योगीकरण ने धरती और इसके संसाधनों पर बोझ घटाने की बजाय लगातार बढ़ाया है। उद्योगों के लिए वनोपज और खनिज की बढ़ती मांग के कारण वनभूमि एवं कृषि योग्य भूमि को बंजर बनाया जा रहा है। दूसरी ओर, भूमि की उपज को अखाद्य वस्तुओं जैसे रबर या एथनॉल में तब्दील किया जा रहा है। इसी तरह विपणन के विस्तार के लिए यातायात बढ़ता है और इससे कृषि योग्य भूमि को अधिग्रहित कर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। यह जीवन की जरूरत नहीं, बल्कि विनिमय की रफ्तार बढ़ाने के लिए हो रहा है। कुल मिलाकर, इस आम धारणा के विपरीत कि औद्योगीकरण से भूमि पर आबादी का बोझ घटता है, हकीकत में आबादी का बोझ बढ़ता है क्योंकि आदमी की जरुरतें बढ़ाई जा रही हैं। अपने विशाल क्षेत्रफल और कोयला, तेल आदि की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद, हमसे एक-चौथाई से कम आबादी वाले देश अमेरिका को अपने ऊंचे जीवन स्तर के लिए सारे संसार में पैर पसारना अपरिहार्य लगता है। अगर भारत उसकी तरह के जीवन स्तर की आकांक्षा रखे तो उसे धरती जैसे कितने ही नक्षत्रों पर साम्राज्य फैलाना होगा। यह सब सीधी सी बात है। लेकिन आधुनिकता की फैंटेसी में जीने वाले हमारे एलिट लोगों की समझ में आज भी जो बात नहीं आ रही है वह महात्मा गांधी ने अपने युवाकाल में तीन महादेशों के अनुभव से समझ लिया था और इसी आधार पर वे अपना और समाज के जीवन को ढालने की कोशिश कर रहे थे।

हमारे आदिम पूर्वज कभी घने वनों में छोटे समूहों में पारस्परिक सहयोग के आधार पर जीते थे। उनकी आवश्यकता के हिसाब से संसाधन सहज उपलब्ध थे। उस जीवन के प्रतिमान शायद आज भी हमारे जीन में उपस्थित हैं, हालांकि हमारे जीवन की स्थितियां बिलकुल बदल गई हैं। अदन के बाग का उन्मुक्त जीवन, न्यू अटलांटिस, सतयुग या यूटोपिया की तलाश कहीं न कहीं हमारी उस आदिम अवस्था की चाहत की ही अभिव्यक्ति है। समता और सामुदायिकता की तलाश हमारे घोर व्यक्तिवादी समाज के दबावों के बावजूद खत्म नहीं होती। एंथ्रोलॉजिस्ट डेस्मंड मॉरिस ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘द ह्यूमन जू’ में लिखा है, ‘आज के निर्वैयक्तिक समाज में, जहां लाखों लोगों को साथ रहना होता है वहां भी व्यक्ति पुराने जैविक किस्म का वैयक्तिक संबंध कबीलाई आकार के छोटे पेशागत या सामाजिक समूह में स्थापित कर लेता है। छोटे समूह में वह पारस्परिक सहयोग और संपत्ति साझा करने के अपने स्वाभाविक रुझान को तुष्ट कर सकता है।’

मानव स्वभाव में अंतर्निहित सामुदायिकता विषमतामूलक समाज के विकास के क्रम में उसके अवचेतन में दबा दी गई है। लेकिन विशेष अवसरों पर यह उसकी चेतना में उभर आती है। गांधीजी के जीवन में इस तरह का बदलाव रस्किन की पुस्तक ‘अन टू दिस लास्ट’ पढऩे के बाद आया और उसी क्षण से वे साम्यवादी बन गए-महज दिमागी ऐय्याशी के लिए नहीं, व्यावहारिक जीवन में। इस नतीजे पर पहुंचने के साथ ही गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सामुदायिक श्रम पर आधारित जीवन की शुरुआत अपनी पत्रिका ‘इंडियन ओपिनियन’ के प्रकाशन की नई व्यवस्था से की। उन्होंने फोनिक्स में (डरबन के पास के एक छोटा रेलवे स्टेशन) भूमि खरीद कर अपने भारतीय और यूरोपीय सहयोगियों के साथ सामूहिक श्रम के आधार पर आवास निर्माण से लेकर प्रेस चलाने तक का सारा काम शुरू किया। इसमें संपादक और श्रमिक सबकी समान सहभागिता थी। यह स्वावलंबन पर आधारित सामुदायिक श्रम का प्रयोग था। इसमें एक समय ऐसा भी आया जब उन लोगों ने मशीन की जगह शारीरिक श्रम से प्रेस चलाना शुरू कर दिया और गांधीजी ने जैसा लिखा है, उनके लिए वे नैतिक उत्थान के सर्वोच्च क्षण थे।

सामुदायिक जीवन का इससे भी बड़ा प्रयोग टॉल्सटॉय फार्म का था। इसमें जेल की सजा काट रहे सत्याग्रहियों के परिवारों के सामूहिक जीवन की व्यवस्था की गई थी। जोहान्सबर्ग के पास इसके लिए गांधी जी के एक जर्मन सहयोगी कालेनबाख ने 1100 एकड़ का एक फार्म खरीद दिया। शुरू में इसमें दस औरतों और सात मर्दों के लिए व्यवस्था की गई। इनमें हिंदू, पारसी, ईसाई और मुसलमान- सभी धर्मों के लोग थे, जिनमें तमिल, तेलुगू, गुजराती और उत्तर भारतीय थे। अपने लिए आवास का निर्माण सबने मिलकर स्वयं ही किया। भाषायी भिन्नता के बावजूद इनकी शिक्षा की सम्मिलित व्यवस्था की गई। मल-मूत्र आदि के निस्तार की ऐसी व्यवस्था की गई, जिससे पर्यावरण शुद्ध रहे और साथ ही उपयोगी खाद तैयार हो जाए, जो सामुदायिक कृषि के लिए उपयोग में आए। यह सब होना चमत्कार-सा लगेगा जब तक हम यह न मान लें कि सहयोग और पारस्परिकता का भाव मनुष्य का आनुवंशिक गुण है, जिसे प्रतिस्पर्धा की वर्तमान सभ्यता ने हजारों वर्ष के विकास के क्रम में नष्ट करने का काम किया है। संघर्ष के साथ रचना का कार्यक्रम, जो गांधी जी के आंदोलन का महत्वपूर्ण चरित्र रहा है, उस दिशा की ओर इशारा करता है, जिसमें चलकर वर्तमान सभ्यता के विकल्प के तौर पर उसके भीतर से ही एक नई जीवन पद्धति का विकास किया जा सकेगा। अराजकवादियों की यह कल्पना कि किसी तरह धक्का देकर वर्तमान व्यवस्था को नष्ट कर देने से सहयोग आधारित समाज स्वत: अस्तित्व में आ जाएगा, किसी चमत्कार की आशा जैसी लगती है। 1960 के दशक में फ्रांस से शुरू होकर यूरोप और अमेरिका में छात्रों और बाद में उसके समर्थन में जुड़े मजदूरों के आंदोलनों ने औद्योगिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों (प्रतिस्पर्धा एवं युद्ध) के विनाशकारी चरित्र को उजागर तो किया, लेकिन विकल्प के अभाव में वह विद्रोही युवा पुराने ढांचे को कबूल करने को मजबूर हो गया। आधी सदी बाद उन आंदोलनों के स्मृति भी शेष नहीं है।

यूरोप और स्वयं फ्रांस की नई पीढ़ी और मजदूर वर्ग में विनाशकारी व्यवस्था को नष्ट करने के जुनून की जगह आप्रवासी मजदूरों के खिलाफ अंधविरोध का भाव व्याप्त है। वर्तमान औद्यागिक सभ्यता हर स्तर पर मजदूरों के शोषण से लेकर पर्यावरण के विरुद्ध अनियंत्रित आक्रमण पर आधारित है। खनिज और जीवाश्म इंधनों के लिए धरती के चट्टानी सतहों की तोड़-फोड़, वनों की कटाई, जलस्रोतों का अतिशय दोहन और नदियों से लेकर भूतल तक के जल को रासायनिक कचरे से प्रदूषित करना इसके प्रकृति विरोधी हिंसा के आयाम हैं। इस व्यवस्था के खिलाफ हुईं सभी क्रांतियां अंतत: इसी हिंसात्मक संस्कृति का हिस्सा बनकर कुछ फेरबदल के साथ इस व्यवस्था को चलाने में लगी रही हैं। पिछली त्रासदियों के संदर्भ में प्रश्न उठता है कि क्या वैसी स्थितियां संभव है जब आज की जीवन पद्धति को छोड़ प्रकृति के साहचर्य की नई जीवन पद्धति विकसित हो सके? जवाब है हां। यह बात कुछ विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वर्तमान विकास की सीमाएं कुछ इस तरह उभर रही हैं जो हमें मजबूरन प्रकृति पर विजय पाने की आसुरी आकांक्षा छोड़ प्रकृति से साहचर्य के सरल जीवन की ओर मुडऩे को मजबूर करती है। ऐतिहासिक दृष्टि से चालक कभी घोड़ा, जलधारा या वायु हुआ करता था। अब यह मूलत: कोयला, खनिज तेल या किसी स्रोत से उपलब्ध बिजली बन गई है। हस्तकला को छोड़कर प्राय: दूसरे सभी क्षेत्रों में मनुष्य चालक की भूमिका से बाहर हो गया है और घोड़े, ऊंट, बैल आदि भी चालक के रूप में हाशिए पर डाल दिए गए हैं। चूंकि, मनुष्य के पूर्ण नियंत्रण में रहने वाले स्रोत तेल, कोयला आदि ही हैं, जिनका जल, थल और वायु तीनों में ऐच्छिक इस्तेमाल हो सकता है, पिछली शताब्दी से इन्हीं स्रोतों की तलाश और इनका कारखानों, बिजलीघरों और वाहनों के लिए अनियंत्रित उपयोग होता रहा है। लेकिन ऊर्जा के इन स्रोतों की तलाश में इस बात को सदा नजरअंदाज किया जाता रहा है कि ये सारे के सारे जीवाश्म ईंधन कभी के गड़े खजाने हैं, जिन्हें आज न कल खत्म होना है।

जल, जंगल, जमीन पर संकटजल, जंगल, जमीन पर संकटइधर लगातार बढ़ रही महंगाई के पीछे यह एक मूल कारण है। कोयला, तेल आदि स्रोतों पर ऊर्जा के लिए हमारी निर्भरता और इनका महंगा होते जाना इसके मूल में है। कोयला या एथनॉल के माध्यम से जैविक पदार्थों का ईंधन-गैस या तेल में परिवर्तित किया जाना उस दिशा का संकेत हैं, जिसमें ऊर्जा के स्रोतों के सिकुडऩे से महंगाई और अंतत: अभाव बढ़ता जा रहा है। प्राय: तेल के महंगा होने के पीछे ‘ओपेक’ जैसे तेल उत्पादक देशों के संगठन को दोषी ठहराया जाता रहा है जबकि हकीकत है कि ओपेक के देश कहीं न कहीं तेल की उपलब्धता के सिकुडऩे को ही प्रतिबिंबित करते हैं। कच्चा तेल 1960 के दशक तक के एक डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर आज सौ डॉलर प्रति बैरल के आस-पास पहुंच गया है। आगे जैसे-जैसे ऊर्जा के ये स्रोत विरल होते जांएगे, इनकी महंगाई बढ़ती जाएगी। अर्थ जगत का वह रुझान, जिसे अर्थशास्स्त्री ‘स्टैगफ्लेशन’ कहते हैं- यानी मंदी और महंगाई का साथ-साथ होना- इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। आम तौर पर माना जाता है कि आर्थिक मंदी के काल में वस्तुओं की कीमतें गिरेंगी, क्योंकि बेरोजगारी से लोगों की क्रय शक्ति घटने से उनके खरीददार घटेंगे। लेकिन ‘स्टैगफ्लेशन’ में मंदी के साथ-साथ महंगाई भी बढ़ती है। दरअसल यह स्थिति लगातार गहराते ऊर्जा संकट का संकेत है। लोगों की क्रय शक्ति चाहे कितना ही कम हो, अगर वस्तुओं के उत्पादन में लगने वाली ऊर्जा की कीमत लगातार बढ़ेगी तो इससे उत्पादों की कीमत बढ़ेगी ही। विशेषकर, अगर खेती तेल से चलने वाले यंत्रों पर निर्भर है तो कृषि उत्पाद भी महंगे होंगे।

एक समय मूलत: मानव श्रम पर निर्भर भारतीय उद्योग पश्चिमी देशों से आयातित कारखानों में उत्पादित औद्योगिक वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा में मार खा गए थे। संभवत: बाइसवीं सदी आते-आते कोयला, तेल आदि इतने महंगे हो जाएंगे की अक्षय ऊर्जा स्रोत सूर्य पर निर्भर ‘फूडचेन’ और उससे प्राप्त ऊर्जा के आधार पर चलने वाले उद्योग-धंधे स्पर्धा में कोयला, तेल आदि पर निर्भर उद्योगों से आगे निकल जाएंगे। विशेष तरह के हस्तकौशल से निर्मित वस्तुएं आज भी कारखानों में बनी वस्तुओं से बेहतर होती हैं और प्रतिस्पर्धा में टिकी हुई हैं। हमारी पारंपरिक कृषि भी, जो मूलत: बैलों, मानव श्रम और जैविक खादों पर निर्भर है, खाद्यान्न उत्पादन सस्ते दर पर करती है और पश्चिमी देशों की मशीनीकृत कृषि के खाद्यान्नों के मुकाबले खड़ी है, जबकि पश्चिमी देशों की कृषि को भारी अनुदान पर टिकाए रखा जाता है। आने वाले समय में जब धरती का गड़ा खजाना शेष हो जाएगा, प्राकृतिक आधार पर स्थित कृषि और घरेलू उद्योगों के इर्द-गिर्द छोटी स्वायत्त ग्रामीण इकाइयां ही चल सकेंगी, जैसी भारत में और संभवत: दुनिया के कई दूसरे हिस्सों में औद्योगिक क्रांति से पहले थीं। यूरोप में भी इसके बावजूद कि वहां फ्यूडल सिस्टम विकसत हो गया था, फ्यूडल व्यवस्था के समानांतर ही रूस के ग्रामीण लोगों की पारस्परिकता पर आधारित ‘मीर’ जैसी संस्थाएं अस्तित्व में थीं।

महात्मा गांधी की कल्पना का भारत वैसे ही स्वशासी ग्रामीण इकाइयों का था। यह एक व्यावहारिक कल्पना थी, जो उभरते ऊर्जा संकट के संदर्भ में प्रासंगिक बनती जाएगी। शताब्दी-दो शताब्दी बाद आज की ये विशाल नागरीय व्यवस्थाएं ऊर्जा और पर्यावरण के संकट से ध्वस्त हो जाएंगी और आज की विशाल आवासीय और आवागमन की व्यवस्थाएं ऊर्जा संकट से मृत हो जाएंगी। ये चीन की दीवार और पिरामिड की तरह खंडहर बनकर नुमाइश की चीजें बन जाएंगी। महात्मा गांधी राजकीय व्यवस्थाओं को नजरअंदाज किए बगैर उनसे संघर्ष के साथ-साथ कुछ वैसे प्रतिमान भी रचनात्मक कामों से स्थापित करना चाहते थे, जो नए समाज के निर्माण को दिशा दे।

लेखक प्रख्यात समाजवादी चिंतक हैं।

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