सभ्यता का प्रवाह है उत्सव

उत्सव शब्द सवन से उत्पन्न है। सोम या रस निकालना ही सवन है। वह रस जब ऊपर छलक आए तो उत्सवन या उत्सव है। भारतीय संस्कृति में त्यौहारों और उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां पर मनाए जानेवाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम और एकता को बढ़ाते हैं। त्यौहारों और उत्सवों का संबंध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है… पर्व प्रवाही काल का साक्षात्कार है। इंसान द्वारा ऋतु को बदलते देखना, उसकी रंगत पहचानना, उस रंगत का असर अपने भीतर अनुभव करना पर्व का लक्ष्य है। हमारे पर्व-त्यौहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं, जिन्हें मनाना या यूं कहें कि बार-बार मनाना, हर साल मनाना, हर भारतीय को अच्छा लगता है। पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां मौसम के बदलाव की सूचना भी त्यौहारों से मिलती है। इन मान्यताओं, परंपराओं और विचारों में हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनगिनत सरोकार छुपे हैं। जीवन के अनोखे रंग समेटे हमारे जीवन में रंग भरने वाली हमारी उत्सवधर्मिता की सोच मन में उमंग और उत्साह के नए प्रवाह को जन्म देती है। उत्सव शब्द सवन से उत्पन्न है। सोम या रस निकालना ही सवन है। वह रस जब ऊपर छलक आए तो उत्सवन या उत्सव है। भारतीय संस्कृति में त्यौहारों और उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां पर मनाए जानेवाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम और एकता को बढ़ाते हैं। त्यौहारों और उत्सवों का संबंध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है। सभी त्यौहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना है। यही कारण है कि त्यौहार-उत्सव सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं।

इधर नवरात्र, दशहरा और बकरीद की धूम रही। बच्चे, बड़े सभी इन उत्सवों का हिस्सा बने। शारदीय नवरात्र में दुर्गापूजा की सर्वत्र धूम रही। चारों ओर देवीमंडप सजे। इनमें नवीनतम कला रूपों का कलाकारों, मूर्तिकारों ने प्रयोग किया। चारों ओर तरह-तरह के सांस्कृतिक अनुष्ठानों का आयोजन हुआ। ऐसे अवसरों पर गरीब और अमीर का भेद नजर नहीं आता। त्यौहारों पर ही पता चलता है कि कितना गुथा हुआ समाज है हमारा। कोई मुस्लिम संगतराश देवी की मूर्ति को आकार देता है तो गांव का हरिचरन देवी की मूर्ति में रंग भरता है। पूरा गांव-कस्बा, मोहल्ला जमा हो जाता है, जब देवी को मंडप में लाया जाता है। हर जाति-मजहब का व्यक्ति मूर्ति स्थापना में अपना सक्रिय सहयोग कर स्वयं को धन्य मान रहा होता है। देवी के संबोधन से हम अपनी बहन-बेटियों को भी संबोधित करते हैं। संबोधन की यह पवित्रता हमें अपने संस्कारों से मिली है और यह पर्व ऐसे संस्कारों को जीवंत करते हैं।

दरअसल, देवी उपासना का सीधा संबंध स्त्री के वजूद और परम व्यापक अस्तित्व की मन से स्वीकार्यता से ही जुड़ा है। जहां स्त्री को अपने से ऊपर और अपेक्षाकृत अधिक शक्तिमान स्वीकारा गया है और यह साफ-साफ कहा गया है कि इसके बगैर सृष्टि का न अस्तित्व है, न सामर्थ्य। शक्ति की प्रतीक इस परम सत्ता का ही अंश स्त्री है। इसीलिए दुर्गा सप्तशती में समस्त विद्याओं की प्राप्ति और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिए स्पष्ट उल्लेख है।

किसी देवी के बिना देव में सामर्थ्य की कल्पना तक व्यर्थ है। अत: यह समझने की आवश्यकता है कि यदि हम घर-परिवार में स्त्रियों का अपमान करते हैं तो देवी उपासना का न कोई लाभ है और न ही औचित्य। किसी देवी के बिना देव में सामर्थ्य की कल्पना तक व्यर्थ है। अत: यह समझने की आवश्यकता है कि यदि हम घर-परिवार में स्त्रियों का अपमान करते हैं तो देवी उपासना का न कोई लाभ है और न ही औचित्य। दुखद है कि आजकल समाज पर ऑनर किलिंग का कलंक है। भ्रूणहत्या तो लगभग कारोबार ही बन गया है। इस समय रामलीला का मंचन भी गांव, शहर और मोहल्लों में बड़े हर्ष के साथ मनाया जाता है। यह मंचन भारतीय संस्कृति की अनेकता में एकता का जाग्रत उदाहरण है, जिसमें कहीं राम के किरदार को मोहन जीता है तो सुनीता सीता बनती है। कलाकारों के कपड़े जुम्मन दर्जी सिलता है तो समूची रामलीला मंडली जातपात, मजहब के तंग दायरे से निकल कर रामकथा को जीती है। कितना सुखद संयोग कि जहां एक ओर नवरात्र और विजयदशमी इस माह में लोगों को त्याग और तपस्या की सीख देते हैं तो दूसरी तरफ ईदउल अजहा यानी बकरीद भी सत्य के अपराजित होने और उसके लिए हमेशा कुर्बानी देने को तैयार रहने का संदेश जन-जन तक पहुंचाता है। त्याग, बलिदान, आपसी मिल्लत, हमदर्दी, सामाजिक सौहार्द का पैगाम देनेवाले इस पर्व को लेकर देश में खुशनुमा माहौल देखने लायक रहता है। इस बार भी शहर के बाजारों में अच्छी खासी रौनक रही।

दरअसल, हम भारतीय स्वभाव से ही उत्सवधर्मी हैं। इसीलिए पूरे मन से इन उत्सवों का हिस्सा बनते हैं। आखिर कितना कुछ बदल जाता है त्यौहारों की दस्तक से हमारे जीवन में। दिनचर्या से लेकर दिल के एहसास और विचारों तक। इन पर्वों की हमारे जीवन में क्या भूमिका है, इसका अंदाज इसी बात से लगा लीजिए कि त्यौहार हमारे जीवन को प्रकृति की ओर मोड़ने से लेकर घर-परिवारों में मेलजोल बढ़ाने तक सबकुछ करते हैं और हर बार यह सिखा जाते हैं कि जीवन एक उत्सव ही है। हमारा मन और जीवन दोनों ही उत्सवधर्मी है। मेलों और मदनोत्सव के इस देश में ये उत्सव हमारे मन में संस्कृति बोध उपजाते हैं। हमारी उत्सवधर्मिता परिवार और समाज को एकसूत्र में बांधती है। संगठित होकर जीना सिखाती है। सहभागिता और आपसी समन्वय की सौगात देती है। दुनिया भर के लोगों को हिंदुस्तानियों की उत्सवधर्मिता चकित करती है।

हमारी ऐतिहाहिक विरासत और जीवंत संस्कृति के गवाह ये त्यौहार विदेशी सैलानियों को भी बहुत लुभाते हैं। हमारे सरस और सजीले सांस्कृतिक वैभव की जीवन रेखा हैं हमारे त्यौहार, जो हम सबके जीवन को रंगों से सजाते हैं। दरअसल, रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में एक आम इंसान अवसाद में घिर ही जाता है, इसीलिए समाज ने हर ऋतु के अनुरूप थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद त्यौहारों की संरचना की, ताकि जीवन में आनंद और समरसता के साथ-साथ शक्ति और प्रफुल्लता का संचार हो सके। लोग एक-दूसरे के सहायक बनें और दैनिक कार्यों को पुनः निष्ठा और उत्साह के साथ संपन्न कर सकें। पवित्र और नैतिक सोच देने के अलावा त्यौहारों का उद्देश्य होता है सभी को एक सूत्र में पिरोना, क्योंकि एक साथ त्यौहार मनाने से न केवल समाज की नींव मजबूत होती है, बल्कि हर स्तर पर सौहार्द और मेल-मिलाप बढ़ता है। जीवन की कलुषता और स्वार्थ को मिटाने के वास्ते ही हमारे पूर्वजों ने त्यौहारों की रचना की है, पर अफसोस कि आज त्यौहार सिर्फ शोर-शराबे का पर्याय बनते जा रहे हैं, जिनमें अनाप-शनाप खर्च करना ही लोगों की प्रवृत्ति बन गई है।

होली हो या दीपावली, ईद हो या गणेश चतुर्थी या फिर क्रिसमस, हर तरफ कानफोड़ू संगीत और तड़क-भड़क के जरिए लोग अपने रीति-रिवाजों का सड़क पर प्रदर्शन करते हुए अपने को श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं। आज एक ओर जहां त्यौहारों की रौनक महंगाई ने छीन ली है, वहीं लोगों के स्वार्थपरक व्यवहार ने उन्हें बोझिल भी बना दिया है। पर सच्चाई यही है कि हर दौर में त्यौहार हमें ये मौका देते हैं कि हम अपने जीवन में सुधार लाकर वातावरण को खुशियों से भर सकें। इंसान की सेवा में ही हर त्यौहार की सार्थकता है और यही सच्ची पूजा भी है। त्यौहार व्यक्ति के जीवन में नए उत्साह का संचार करते हैं, जिससे जीवन में गति आती है। त्यौहार जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया तैयार करते हैं, ताकि किसी भी प्रकार की कठिनाई आने पर हम घबराएं नहीं और अपना जीवन एक सुगंधित फूल की भांति बनाएं, जिसकी खुशबू से यह चमन महकता रहे।

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Post By: pankajbagwan
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