सबसे अहम है नदियों के पुनर्जीवन का सवाल

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यह सर्वविदित है कि मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। यह भी सच है कि आदिकाल से नदियों को भारतीय संस्कृति में माँ कहें या देवी के रूप में पूजा जाता रहा है। गंगा को तो मोक्षदायिनी, पुण्यसलिला और पतितपावनी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। देश में अधिकांश जगह तो नदियों की आरती भी उतारी जाती है। लेकिन आज देश में प्रदूषण के चलते इन्हीं नदियों के अस्तित्व पर संकट मँडरा रहा है। इस तथ्य को हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी स्वीकारते हैं। लेकिन वह और देश की जल संसाधन एवं नदी विकास मंत्री उमा भारती यह कहते नहीं थकते कि देश की नदियों की शुद्धि का सवाल सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है।

सरकार गंगा, यमुना सहित देश की सभी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने हेतु कृत संकल्पित हैं। लेकिन जिस तरह सरकार नमामि गंगे मिशन के तहत गंगा की शुद्धि हेतु पिछले तीन बरसों से बार-बार समय सीमा बढ़ायी जा रही है, उससे निर्धारित समय सीमा में गंगा शुद्ध; हो पायेगी, उसमें संदेह है। ऐसी हालत में यमुना सहित देश की अन्य नदियों की शुद्धि की आशा बेमानी सी प्रतीत होती है। असलियत में देश की अधिकांश नदियाँ प्रदूषित हैं। कुछ तो नदी न रहकर नालों में तब्दील हो चुकी है, कुछ मर चुकी हैं, कुछ का तो वजूद ही खत्म हो गया है। असलियत में कुछ का तो अब केवल नाम ही शेष रह गया है। जो नदियाँ बची हैं उन्हें सरकार में बैठे नदी विशेषज्ञ नदी जोड़ के नाम पर वित्तीय व्यावहारिकता, तकनीकी क्षमता, पर्यावरण संरक्षण बनाए रखने और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का आकलन किये बिना उनका रास्ता मोड़ कर मारने पर उतारू हैं। उस दशा में जबकि नदियों के उद्गम स्थल सिकुड़ रहे हैं और नदियों की धारा को अबाध रख पाने में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं।

इस मामले में राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी की जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम है क्योंकि देश की नदियों के भविष्य के बारे में सरकारों को कटघरे में खड़ा करने में उसने कोई कोताही नहीं बरती है। विडम्बना यह कि उसके बावजूद देश में नदियों की बदहाली में कोई बदलाव या सुधार दिखाई नहीं देता। उनकी हालत दिन-ब-दिन और बदतर होती जा रही है। असल में वे मैला ढोने वाली गाड़ी बन कर रह गयी हैं, इसके सिवाय कुछ नहीं।

नदी दरअसल आज चाहे गंगा हो, यमुना हो, बूढ़ी गंगा या गोमती हो, सरयू हो, राप्ती हो, गंडक हो, रामगंगा हो, घाघरा हो, कोसी हो, महानंदा या तमसा हो, सोन, पुनपुन या शारदा हो, चंबल, ऋषिगंगा हो, हनुमानगंगा हो या बेतवा, केन, सिंध, टौंस हों या फिर पांडु या आमी हो, कुआनो हो, ईसन हो या हिंडन हो, काली हो, स्वर्णरेखा, रारो, खरकई हो, लखनदेई हो, मारकंडा हो या खान, मुंसी हो या भीमा, या फिर अमलाखेडी, साबरमती, सहित देश की तकरीब 70 फीसदी से अधिकांश नदियाँ सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।

इनमें कुछ तो मृत प्रायः हैं, कुछ की पहचान ही मिटने के कगार पर है, कुछ सूख गई हैं।, गंगा सहित कुछ का ऑक्सीजन स्तर गिर चुका है, कुछ का पानी आचमन लायक तक नहीं रह गया है। और तो और अधिकांश का पानी जानलेवा बीमारियों का सबब बन गया है। वह बात दीगर है कि उत्तराखण्ड हाईकोर्ट गंगा और यमुना को जीवित व्यक्ति का दर्जा देकर महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय दे चुका है। हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि गंगा को धर्मग्रंथों में पवित्र नदी का दर्जा दिया गया है। इसलिए हम इसे जीवित नदी के तौर पर देख रहे हैं। कोर्ट के अनुसार जीवित इकाई करार दिये जाने का साफ मतलब है कि गंगा को अब वही अधिकार मिलेंगे जो देश का संविधान और कानून किसी व्यक्ति को देता है।

तात्पर्य यह कि यदि गंगा को कोई व्यक्ति प्रदूषित करता है तो उसके खिलाफ वैसी ही कानूनी कार्यवाही की जायेगी जो किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने पर की जाती है। लेकिन उसके बाद भी दोनों नदियों की हालत जस की तस है। विडम्बना यह कि अभी तक किसी भी व्यक्ति या उद्योग के खिलाफ नदियों को प्रदूषित किए जाने के अपराध में कोई भी मुकदमा दर्ज नहीं किया गया है।

नदी दरअसल गंगा के प्रदूषण की शुरुआत तो आज से 85 साल पहले 1932 से ही हो गई थी जब बनारस के कमिश्नर हॉकिंस ने एक गंदे नाले को गंगा से जोड़ने का आदेश दिया था। 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद स्वदेशी सरकार द्वारा औद्योगिक विकास का जो रथ चलाया गया जिसके तहत औद्योगिक कल-कारखानों का जाल बिछा। नतीजन उन करखानों के रसायन युक्त अवशेष ने नदियों को तबाह करने में अहम भूमिका निबाही। दुख इस बात का है कि इस बाबत कोई भी सरकार इन पर अंकुश लगाने में नाकाम रही। फिर कस्बे, नगर और महानगर के निकायों ने शहरी नालों, कचरे और सीवेज के निस्तारण कहें या उसे ठिकाने लगाने हेतु नदियों को सबसे मुफीद माना।

नतीजन जो नदियाँ जीवनदायिनी थीं, वे विषवाहिनी और भयंकर जानलेवा रोगों की जन्मदायिनी होकर रह गयीं। इसका प्रमुख कारण यह रहा कि छोटे कस्बे हों, शहर हों या महानगर के निवासियों के पेयजल का मुख्य साधन नदी जल ही रहा जो बीमारियों का कारण बना। विडम्बना तो यह है, जानते-समझते हुए कि नदी का प्रदूषण धरती को बांझ बनाने में अहम भूमिका निभाता है, फिर भी सरकारों का मौन समझ से परे है। मोदी सरकार गंगा की शुद्धि के लिये तत्पर है, प्रयासरत है लेकिन नमामि गंगे मिशन के तहत बीते तीन सालों में ढिंढोरा कितना भी पीटा जाये, प्रगति न के बराबर है। असलियत यह है कि इस दौरान गंगा और बदहाल हुई है।

जहाँ तक नदियों के पुनर्जीवन का सवाल है, इस तथ्य को सभी भलीभाँति जानते-समझते हुए कि किसी भी नदी को बहने का अधिकार है। तात्पर्य यह कि नदी को अपने बहाव को बनाए रखने का अधिकार है। फिर नदी जोड़ योजना के नीति नियंताओं पर नदी के बहाव को मोड़ने के अपराध में मुकदमा दर्ज होना चाहिए क्योंकि वे नदी के बहाव के मार्ग में बाधा पहुँचाने के दोषी हैं। इससे नदी की अविरलता प्रभावित होती है। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि जिन देशों से हमने नदी जोड़ का ज्ञान हासिल किया है, उसे अपने यहाँ अमल में ला रहे हैं जबकि वे देश इसे अव्यावहारिक बता कर अपने यहाँ बंद कर चुके हैं। गौरतलब यह है कि नदियाँ तो तब जीवित रहेंगी, जब उनमें जल बहाव निरंतर हो।

यह सर्वविदित है कि किसी भी नदी की अविरलता तब तक असंभव है, जब तक कि उसकी त्रिआयामी अविरलता, बहाव कहें या प्रवाह की मात्रा तथा उसके पानी के वेग की वृद्धि सुनिश्चित न की जा सके। यह तभी संभव है जबकि नदी का भूगर्भ तंत्रिकाओं से जुड़ाव हो, नदी जल का दोहन नियंत्रित हो। नदी में रेत खनन पर पाबंदी लगे। पुराने प्राकृतिक वर्षाजल संचयन ढाँचों तथा तालाबों आदि का पुनरुद्धार हो, उन पर जो अतिक्रमण किया गया है, उसे हटाया जाये। जाहिर है इससे नदी जल संग्रहण क्षमता में बढ़ोतरी होगी।

दिल्ली में प्रदूषित यमुना फिर नदियों में गाद की समस्या नयी नहीं है। इसका आजतक समाधान नहीं निकल सका है। यह गाद नदी की अविरलता में सबसे बड़ी बाधा है। फिर बाढ़ का सबसे बड़ा कारण भी है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। इसके बारे में आजतक किसी भी सरकार ने सोचना मुनासिब नहीं समझा। बीते माह नर्मदा सेवा यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री, केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री, मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री, ने देश की सभी नदियों को जीवनदान देने की घोषणा की थी। अभी तक तो किसी भी अन्य नदी को जीवनदान देने का कोई सार्थक प्रयास किया नहीं गया है, फिर अभी गंगा की शुद्धि का मसला ही भगवान भरोसे है, उस दशा में यमुना सहित देश की अन्य नदियों के उद्धार की आशा करना ही व्यर्थ है। यदि यही हाल रहा तो नदियों का अस्तित्व बचा रह पायेगा, इसमें संदेह है।

ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद, अध्यक्ष, राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति, ए-326, जीडीए फ्लैट्स, फर्स्ट फ्लोर, मिलन विहार, फेज-2, अभय खण्ड-3, समीप मदर डेयरी, इंदिरापुरम, गाजियाबाद-201010, उ.प्र. , मोबाइल: 9891573982, ई-मेल: rawat.gyanendra@rediffmail.com, rawat.gyanendra@gmail.com
 

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