बाँध बनाने के पूर्व कुछ आवश्यक जाँच की जाती है। सबसे पहले नदी का वह भाग ढूंढ़ा जाता है, जहाँ पर नदी संकरी हो तथा ऊँचे पहाड़ों के बीच बह रही हो जिससे बाँध को दो पहाड़ों के बीच बाँध दिया जा सके। अगर नदी का पाट चौड़ा होगा तो बाँध बनाने में सामान अधिक लगेगा और सामान ज्यादा लगेगा तो खर्च भी कई गुना बढ़ जाएगा। मुख्य मेहनत नदी के दोनों तटों पर पक्की चट्टानें ढूंढ़ने में लगती है जिन पर बाँध को बाँधा जा सके।
बाँध बनाना कोई बच्चों का खेल नहीं है पहले पहले जब मनुष्य बाँध बनाना सीख रहा था, तो उसे बहुत जगह हार का सामना करना पड़ा था। सेंट कैलिर्फोनिया का सेंट फ्रांसिस बाँध कुछ ही समय में रिस-रिस कर बह गया। क्योंकि वह दो तीन तरह की चट्टानों पर बना था और उस स्थान पर एक भ्रंश फाल्ट भी था। इडाहो की जेरोम तथा न्यू मेक्सिको के होन्डो कृत्रिम झीलें पानी के अत्यधिक रिसाव के कारण कभी भर ही नहीं पाईं। कैलिफोर्निया का ही लाफायेट बाँध जमीन की सहनशक्ति से भारी बन गया था इसलिए 20 फीट तक धँस गया। टेनेसी नदी में घुलनशील कार्बोनेट चट्टानों में बने हेलेंस बार बाँध को बचाने में पाँच हजार टन अतिरिक्त सीमेंट तथा ग्यारह हजार बेरल एसफाल्ट खर्च करना पड़ा था। भारत के कोयना बाँध के निर्माण के समय आशंका उभरी कि इतनी विशाल कृत्रिम झील के भार को सहने में असमर्थ धरती में भूचाल आ सकते हैं। भारत के ही टिहरी बाँध के संबंध में आशंकाएं जताई गई कि हिमालय में स्थित यह बाँध भूकम्प आने पर अपार जन धन हानि का कारण बन सकता है।इन सब घटनाओं/ दुर्घटानाओं/ आशंकाओं ने भूवैज्ञानिकों को जागृत करके कठिन समस्याओं के हल खोजने में मदद की है। सारी दुनिया के अभियन्ताओं/भूवैज्ञानिकों ने इन गलतियों से सबक सीखे। नतीजा आज कोई भी बाँध बिना जमीन को ठीक से जाँचे परखे नहीं बनाए जाते। इसलिए भूविज्ञानी इस धरा पर होने वाले किसी भी निर्माण के लिये जब तक हरी झण्डी नहीं दे देते तब तक निर्माण शुरू नहीं कराया जा सकता। कुछ जगहों पर जहाँ पर निर्माण करना मजबूरी होती है जैसे कमजोर चट्टानों से गुजरती कोई सड़क या सुरंग, तब आवश्यक सुरक्षा संबंधी दिशा निर्देश गहन अध्ययन के पश्चात जारी कर दिए जाते हैं तथा निर्माण करने वाली एजेंसियों को पहले से ही संभावित खतरों से आगाह कर दिया जाता है।
बाँध बनाने के पूर्व कुछ आवश्यक जाँच की जाती है। सबसे पहले नदी का वह भाग ढूंढ़ा जाता है, जहाँ पर नदी संकरी हो तथा ऊँचे पहाड़ों के बीच बह रही हो जिससे बाँध को दो पहाड़ों के बीच बाँध दिया जा सके। अगर नदी का पाट चौड़ा होगा तो बाँध बनाने में सामान अधिक लगेगा और सामान ज्यादा लगेगा तो खर्च भी कई गुना बढ़ जाएगा। मुख्य मेहनत नदी के दोनों तटों पर पक्की चट्टानें ढूंढ़ने में लगती है जिन पर बाँध को बाँधा जा सके।
इस कार्य हेतु अति सूक्ष्म जानकारियाँ जुटाई जाती हैं क्योंकि इस स्थल पर पूरी झील के पानी का दबाब रहता है अत: सघन शिला के साथ-साथ चट्टानों के सही दिशा में झुके तल भी तलाशे जाते हैं ताकि पानी किसी भी प्रकार बाँध को धक्का देकर तोड़ न डाले। इस गणित को ध्यान में रखकर ही बाँध के भार का निर्धारण करके उपयुक्त भार प्रदान करने योग्य सामग्री प्रयुक्त की जाती है।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रख कर चुने बाँध स्थल के अन्तिम निर्धारण हेतु कई स्थलों का गहन अध्ययन करने की परम्परा है अध्ययन करने हेतु जमीन पर चलकर भूवैज्ञानिक मानचित्रण तो किया ही जाता है वेधन विधियों द्वारा संभावित बाँध स्थलों पर कई छिद्र करके वहाँ की तल शिला के कोर बाहर निकाल कर जमीन के अंदर का भूवैज्ञानिक मानचित्रण किया जाता है। इस तरह से लगभग अंतिम बाँध स्थल चुनकर वहाँ पर छोटी सुरंगे (ड्रिप्ट) बनाकर उनका गहन भूवैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जब भूवैज्ञानिक तथ्य लगभग सारे एकत्र हो जाते हैं तब पूर्व में किए गए वेधन छिद्रों में निश्चित दबाव पर डाले गए पानी के रिसाव / पारगम्यता के आंकड़े भूवैज्ञानिक तथ्यों के साथ मिलाए जाते हैं कि कहाँ से ज्यादा पानी रिस सकता है और क्यों तथा जरूरत पड़ने पर तल शिला के व्यवहार के अनुरूप चट्टानों की ज्यादा सही तस्वीर बनाने में मदद ली जाती है। अब भूभौतिकीय तरीकों से भी उस क्षेत्र के भूगर्भ की सूचनाएँ एकत्रित करके उक्त तस्वीर को बेहतर बनाया जाता है। चट्टानों के पतले सेक्शन काट कर सूक्ष्मदर्शीय जाँच तथा पीस कर भूरासायनिक जाँचों द्वारा भी तस्वीर स्पष्ट की जाती है। इस तरह अध्ययन करके एक बाँध स्थल चुन लिया जाता है। बाँध बनाते समय सबसे जरूरी बात जो कि ध्यान रखी जाती है वह है नजदीक में कहीं पर बाँध बनाने योग्य सामग्री की उपलब्धता होना। बाँध की लागत कम करने में यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
बाँध में जरूरत से ज्यादा पानी आ जाने पर भी बाँध को खतरा रहता है अत: अधिक पानी की निकासी हेतु रास्ते तैयार किए जाते हैं यह कार्य सुनने में जितना आसान लग रहा है वास्तव में ये उतना ही कठिन है, कारण इतनी बड़ी झील की ऊँचाई से जब पानी नीचे गिरता है तो उचित आधार न मिलने पर अपने वेग से पूरे नदी तल को तोड़ कर बाँध को भारी नुकसान पहुँचा सकता है इसलिए आधार को ताकत देने के पूरे उपाय किए जाते हैं,
एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बाँध की झील में आने वाले पानी के साथ अधिक सिल्ट/रेत - रेड़ी नहीं आनी चाहिए वरना झील तो इन सब से ही भर जाएगी। पानी कहाँ रहेगा और यदि बाँध बनाकर पानी जमा नहीं कर सके तो मछली किसमें पलेगी, खेती के लिये पानी कहाँ से मिलेगा और सबसे महत्त्वपूर्ण बिजली किससे बनेगी। ध्यान रखने योग्य बात है कि पानी से कोई चीज निकाल कर बिजली नहीं बनती है। बिजली बनती है पानी को पूरे जोर से पावर हाउस में टरबाईन के चक्कों पर गिराने से। इस तरह से टरबाईन चलने लगती है और जो ऊर्जा पैदा होती है उससे बिजली बना ली जाती है। जैसे घट में आटा पीसते हैं, एक बहुत बड़े स्तर पर लगभग वही सिद्धांत।कहते हैं जितना गुड़ डालो उतना मीठा। ठीक इसी तरह ऊँचाई व वेग से पानी पावरहाउस में आएगा बिजली उतनी ही अधिक बनाई जा सकेगी और इसके लिये उपयुक्त मशीनरी की भी जरूरत होगी साथ ही जरूरत होगी एक ऐसी मजबूत धरती की जो उस धारा का वेग सह सके। ऐसी धरती खोज निकालने का काम करता है एक भूविज्ञानी। कई बार खुले आकाश के नीचे इस तरह की धरती नहीं मिल पाती है, तब पावरहाउस पहाड़ के अंदर सुरंग खोद कर बनाया जाता है। पावर हाउस के लिये काफी बड़ा मशीन हाल, पानी लाने ले जाने वाली सुरंगे, अंदर जो आदमी काम करेंगे उनके सांस लेने के लिये हवा की सुरंगे। बिजली बननी है इसलिए तारों के लिये सुरंगे। बाँध व पावरहाउस की तबीयत का हाल चाल जानने हेतु अत्याधुनिक मशीन प्रणाली से युक्त सुरंगे इत्यादि बनाने में कदम-कदम पर भूवैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप कार्य करना होता है। बाँध या पावर हाउस की छुटमुट क्षतियों सीमेंट भरने / ठीक करने हेतु ग्राउटिंग गैलरियाँ। बाँध के पानी को बाहर करने हेतु सुरंगे आदि। बाहर से सौम्य दिखने वाले मजबूत पहाड़ को गणेश वाहन सा खोद-खोद कर गणपति की कृपा से ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त की जाती है।
सुरंगे बनाना भी कोई चूहे का खेल नहीं है बड़ी सुरंगे होती है जिनमें बकायदा वाहन आ जा सकते हैं बड़ी-बड़ी मशीनें जा सकती हैं। टिहरी में बाँध स्थल से पावर हाउस काफी नजदीक है तथा केवल पानी पावर हाउस तक लाने हेतु कुल लगभग चार किमी की चार सुरंगे बनाई जाती हैं और फिर पावर हाउस से इस पानी का वापिस नीचे नदी में डालने हेतु लगभग डेढ़ किमी की दो सुरंगे। इसी तरह से पूर्व में वर्णित अन्य सुरंगे भी बनाई गई हैं। सुरंग खोदते समय भूविज्ञानी रात दिन चौकन्ने रह कर भूवैज्ञानिक तथ्य नोट करके अपने पुराने बनाए मानचित्रों से साम्य करते रहते हैं इस तरह आने वाले खतरों या सुरंग के ऊपर के पर्वत के भार की जानकारी देकर सुरंग को खड़ा रखने में मदद देते हैं वरना कई बार तो चारों ओर के पहाड़ का भार सुरंग खोदते ही उसे पिचका के गायब कर देने के लिये काफी रहता है।
बाँध में जरूरत से ज्यादा पानी आ जाने पर भी बाँध को खतरा रहता है अत: अधिक पानी की निकासी हेतु रास्ते तैयार किए जाते हैं यह कार्य सुनने में जितना आसान लग रहा है वास्तव में ये उतना ही कठिन है, कारण इतनी बड़ी झील की ऊँचाई से जब पानी नीचे गिरता है तो उचित आधार न मिलने पर अपने वेग से पूरे नदी तल को तोड़ कर बाँध को भारी नुकसान पहुँचा सकता है इसलिए आधार को ताकत देने के पूरे उपाय किए जाते हैं, और सबसे उत्तम उपाय एक मजबूत चट्टान ढूंढना या मरम्मत करके बनाना हो सकता है।
सम्पर्क
कौमुदी जोशी
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, देहरादून
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