खाद्य सुरक्षा और भोजन का अधिकार जैसे नए अभियान सामने आ रहे हैं। लेकिन भूख का प्रश्न तो बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ खुले में पड़ा अनाज गीला होकर सड़ रहा तो दूसरी तरफ बंद गोदामों से भी उसकी बदबूदार खबरें आ रही हैं। बड़ी अदालत सरकार से नाराज होकर कह रही है कि अनाज मुफ्त में बांट दो और खेती मंत्री बता रहे हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। ऐसे में उन छोटे-छोटे गांवों को याद कर रही हैं राधा बहन, जिनमें बिना किसी नारेबाजी के लोग इसे अपना अधिकार नहीं, कर्तव्य मानते थे कि उनके गांव में सबको भोजन मिलना चाहिए।
उत्तराखंड की पनार घाटी के उस एक छोटे-से गांव की बात है, जिसे देश के नक्शे में ढूंढना भी कठिन है। दुनिया से अनजाना, अकेला, दूरस्थ यह गांव था धुरका। यह बात आज से 60 वर्ष पुरानी है। धुरका गांव में सिंचित भूमि नाम मात्र को ही थी। मुख्य खेती मडुवा, झुंगरा, दालें और गेहूं जैसी फसलें वर्षा के ऊपर निर्भर रहकर होती थीं। वर्षा व हिमपात प्रति वर्ष नियमित रूप से व निश्चित समय से होते थे।
उस समय उस गांव के लोगों के लिए कोई सस्ते गल्ले की दूकानें नहीं थीं। आठ-दस किलोमीटर चढ़ाई-उतार के रास्ते पर चलने के बाद छोटी-सी चार-छह दुकानों वाला ग्रामीण बाजार आता था। यहां विक्रय की वस्तुएं मुख्यतः कपड़ा, बरतन, गुड़ व नमक आदि थीं। मंडी में गुड़ आने पर ताजा व सस्ता गुड़ लेने वाले पैदल दो दिन चलकर हल्द्वानी मंडी जाया करते थे और अपने सिर व कंधों पर ढोकर हंसते, खेलते सालभर के लिए कुछ नमक व गुड़ ले आते थे।
कोई पैंतीस परिवारों वाले इस गांव के एक छोर पर था हमारा घर। उस समय के रिवाज के अनुसार परिवार में भोजन कराने का एक क्रम था- पहले घर भर के बच्चों को रसोई की परिधि के बाहर बिठाकर भोजन परोसा जाता। उनके खा चुकने के बाद परिवार के पुरुष हाथ-पांव धोकर धुली धोतियां पहने रसोई की परिधि के भीतर बैठकर भोजन करते। तब बारी आती परिवार की महिलाओं की यानी मेरी मां, चाची और दादी की। खाने की थाली सामने आए, उसके पहले मेरी दादी घर के आंगन की सबील पर खड़ी होकर पूरे गांव को सुनाई दे, ऐसी ऊंची आवाज में कहतीं, गांव वालो तुम सब लोगों के घरों में खाना पक गया? सबने खा लिया?
यह रोज लगने वाली आवाज थी उस गांव में। लोग इसके आदी थे। वे अपने छोटे व एक-सी ऊंचाई के घरों से बाहर निकल कर कहते, हां खाना बन रहा है। कोई कहता- हम खाना खा रहे हैं या फिर यह भी कि हम खा चुके हैं।
खाने की थाली सामने आए, उसके पहले मेरी दादी घर के आंगन की सबील पर खड़ी होकर पूरे गांव को सुनाई दे, ऐसी ऊंची आवाज में कहती, गांव वालो तुम सब लोगों के घरों में खाना पक गया? सबने खा लिया? ”अच्छा, तो अब मैं भी खाती हूं।“ कह कर दादी अपनी रसोई में आ जाती। दादी उस गांव की सबसे सयानी महिला थी। गांव की भूख को दादी व बीमारियों को दूर करने का प्रबंध मेरे दादा स्वनियुक्त जिम्मेवारी से करते थे।
नई फसल का अनाज घर में आने के पहले यदि किसी कम भूमि वाले परिवार का अनाज-भंडार समाप्त हो जाता तो दादी उसे किसी ऐसे परिवार से अनाज पैंच (विनिमय) में दिला देती, जिसके पास अपनी जरूरत की पूर्ति से कुछ अधिक अन्न होता था। इसमें दादी केवल निमित्त बनती- यह तो जानी-समझी परंपरागत बात थी कि जिस परिवार के पास, परिवार छोटा होने या भूमि अधिक होने से उसकी जरूरत से थोड़ा भी अधिक अन्न होता, वह ऐसे मौकों पर दूसरों को देता ही था। नई फसल आने के बाद उसका अन्न वापस लौटा दिया जाता था।
मेरे बचपन में मेरे गांव की खाद्य सुरक्षा का यह सीधा सरल तरीका था। इसमें किसी सरकार के, प्रशासन के कानून की, लोकसभा व विधानसभाओं की बहसों और अदालतों के आदेशों की जरूरत नहीं थी। यहां तक कि गांव की पंचायत व प्रधान का भी इसमें कोई दखल पंच या प्रधान की हैसियत से नहीं था।
यों देखा जाए तो हमारा यह गांव खाद्यान्न में कोई संपन्न गांव नहीं था। हर परिवार को छह सात माह की जरूरत भर का अन्न और खुशी-गमी के मौकों के लिए कुछ अतिरिक्त अन्न हो जाए तो लोग मस्त होकर जीते थे। वे मानते थे कि अगर धरती मां की देन का, अन्न का निरादर करेंगे, उसे जूठन की तरह फेकेंगे, सड़ने देंगे, जीवन धारण के अतिरिक्त कुछ और उपयोग करेंगे तो मां दुखी होगी और फिर यह अन्न हमसे ‘हत’, रूठ जाएगा। थाली में कुछ भी नहीं छोड़ना, बच्चे या बीमार थाली में छोड़ दें तो उसे घरेलू पशुओं को खिलाना और रसोई में कुछ बचे तो संभालकर रखना व दूसरे भोजनकाल पर फिर से गरम करके खाना- एक भी कण, एक भी दाना व्यर्थ नहीं करना। इस प्रकार से यह सामान्य-सी अनौपचारिक आदत उस गांव समाज का एक अनुशासन बन गई थी। शादी, यज्ञोपवीत या नामकरण जैसे अवसरों पर भी इसकी सावधानी बरती जाती थी।
नई फसल का अनाज घर में आने के पहले यदि किसी कम भूमि वाले परिवार का अनाज-भंडार समाप्त हो जाता तो दादी उसे किसी ऐसे परिवार से अनाज पैंच (विनिमय) में दिला देती, जिसके पास अपनी जरूरत की पूर्ति से कुछ अधिक अन्न होता था।मुझे लगता कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए यह एक स्वर्णिम नियम है। लेकिन इस पर देश की केंद्रित व्यवस्थाएं नजर ही नहीं डालतीं। भुखमरी, कुपोषण या खाद्य सुरक्षा के मुद्दों पर विचार करते हुए क्या कभी भी होटलों, रेस्टोरेंटों, होस्टलों, बैठकों, विवाहों, भोजों आदि में होने वाली बर्बादी पर विचार किया जाता है?
जब देश में भूख व कुपोषण से बच्चों की मृत्यु होती हो, भयंकर मंहगाई के कारण लोग परेशान हों, तब शादी-ब्याह के विलासी समारोहों, पूजा-अर्चना के बरवादी करने वाले पर्वो-भंडारों तथा रईसों, उद्योगपतियों व राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा आयोजित खाने-खिलाने व पीने-पिलाने की फिजूल दावत-पार्टियों को बंद करके अथवा उन्हें सादगीपूर्ण संयमित करके देश में टनों-टन खाद्य पदार्थों की बचत की जा सकती है।
लालबहादुर शास्त्रीजी ने देश की ऐसी ही स्थिति में विदेशों से अन्न मंगवाने से अधिक जोर दिया था, देश के नागरिकों द्वारा हरेक सोमवार को एक समय का उपवास करने पर। खाद्य-स्वावलंबन को वे पूरे राष्ट्र का पुरुषार्थ बनाना जानते थे। आज ऐसी दूरदृष्टि व एक खाद्यनीति की जरूरत है, जो राष्ट्रीय खाद्य बचत और राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन के द्वारा इस देश के हर नागरिक को दो जून की रोटी व पर्याप्त पोषण अपने घर यानी अपनी रसोई में मुहैया कर सके। हमने देखा है बांटे गए भोजन व बांटे गए पोषण ने लोगों की भूख नहीं मिटाई है। इसने उन्हें पुष्ट करने के बदले भिखारी मनोवृत्ति में धकेल दिया है। और कुछ को भ्रष्ट व बेईमान बनने के मौके दिए हैं।
आज भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी व्यवस्था सही में पश्चिमी सभ्यता के केंद्रीकरण की अवधारणा के तहत इस देश में आई है। यह यहां के जन समाज की जननिर्भर कुशल व बुद्धिमतापूर्ण परंपराओं के विपरीत है।नीतिगत रूप से देश की कृषि की अवहेलना करके हमने धरती मां व धरती पुत्रों को दुखी किया है। यही कारण है कि विश्व भूख सूचकांक के अंतर्गत भारत की भुखमरी पाकिस्तान व नेपाल से भी बदतर बताई गई है। कृषि क्षेत्र इस देश का प्राथमिक सेक्टर है। इसके प्रतिकूल बनाई गई राष्ट्र नीतियों ने राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में इसके योगदान को निरंतर घटाया है। यदि कृषि उत्पादन में वृद्धि हो तो खाद्य सुरक्षा पर प्रभावी ढंग से नियंत्रण लाया जा सकता है। इसके लिए हरित क्रांति, जहरीली खाद, कीटनाशक आदि का नहीं, बल्कि कृषक समुदाय का देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण व प्राथमिक अधिकार सुनिश्चित करना होगा। उसकी जमीन, जल और जंगल का उपयोग प्राथमिक रूप से उसकी खेती के लिए होगा। कृषि उत्पादन के मूल्य निर्धारण की न्याय पूर्ण प्रक्रिया स्वयं किसान के हाथों में देनी होगी। कृषि को इस देश का सर्वोच्च और सर्व प्रथम पेशा घोषित करना होगा।
आज भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी व्यवस्था सही में पश्चिमी सभ्यता के केंद्रीकरण की अवधारणा के तहत इस देश में आई है। यह यहां के जन समाज की जननिर्भर कुशल व बुद्धिमतापूर्ण परंपराओं के विपरीत है। अपने पूरे गांव के प्रति जो लगाव व सामूहिक पुरुषार्थ जुड़ा होता था, उसे हमने‘विकास’ की आधुनिक अवधारणा के सामने निरर्थक मानकर ठुकरा दिया है। हमारे वे गांव अकाल-दुष्काल में कैसे जीना, यह जानते थे, उनकी वह अनुभव जन्य समझ उनकी अंतर्दृष्टि बन गई थी। उत्तराखंड का गंगी गांव 12 महीनों तक पूरे गांव के लिए पर्याप्त अनाज बना रहे- ऐसी खाद्य व्यवस्था रखता था। गांव का अनाज कुठारों,मकानों के बाहर बने काष्ठ के भंडारों में जमा रहता था। जब प्रकृति की विषम परिस्थितियां भयानक हिमपात गंगी गांव को शेष दुनिया से महीनों तक के लिए काट देती थीं, तो भी गंगी का एक भी परिवार भूखा नहीं रहता था।
राजस्थान के जयपुर जिले के एक छोटे गांव लापोड़िया का उदाहरण लें। वहां खाद्य सुरक्षा का तरीका कैसा था, इसका वर्णन ‘गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया’ नामक पुस्तिका में मिलता है।
”खाई एक तरह का सूखा कुंआ होता था। इसमें अनाज का भंडार सुरक्षित रखा जाता था। हरेक खाई कोई 10 से 15 हाथ गहरी और 7 हाथ के व्यास की गोलाई लिए होती थी। यह गोलाई नीचे से ऊपर आते समय थोड़ी कम हो जाती थी। पूरा अनाज भर जाने पर इसे मिट्टी के घोल से ढक्कन बनाकर बंद कर दिया जाता था। सभी खाईयां थोड़े ऊंचे स्थानों पर बनाई जाती थीं, ताकि बरसात की नमी और पानी इसमें न जा पाए। खाई के भीतर बहुत सावधानी से गोबर और मिट्टी से लिपाई की जाती थी। इसमें कुछ भाग राख का भी होता था ताकि अनाज में कीड़े न लगें।
गांव का अनाज कुठारों, मकानों के बाहर बने काष्ठ के भंडारों में जमा रहता था। जब प्रकृति की विषम परिस्थितियां भयानक हिमपात गंगी गांव को शेष दुनिया से महीनों तक के लिए काट देती थीं, तो भी गंगी का एक भी परिवार भूखा नहीं रहता था।”लापोड़िया गांव में आजादी से पहले तक बीस खाईयां थीं। अच्छी फसल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बंद कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाई भर नहीं जाती थीं, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था। इन खाईयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानों में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाईयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं। अकाल का संकट आने पर खाई खोलने का निर्णय गांव के दो पटेल और ठिकानेदार की एक छोटी-सी बैठक में तुरंत लिया जाता था। उसके बाद गांव के घरों की जरूरत देखते हुए एक के बाद एक खाई खुलती जाती थी और अनाज का वितरण होता जाता था। एक मोटे हिसाब से प्रति परिवार प्रति माह कोई एक मन अनाज बांटा जाता था। अकाल समाप्त होने पर अच्छी पैदावार आने पर इन्हीं परिवारों से चालीस किलो के बदले 50 किलो अनाज वापस लेकर फिर से खाई में सुरक्षित रख दिया जाता था।
”गांव की बीस खाईयों में से केवल चार खाई ठिकानेदार के गढ़ के भीतर थीं। शेष 16 गांव के सार्वजनिक स्थानों पर बनी थीं। इन सोलह खाईयों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके सामने पड़ने वाले घरों की होती थी। ये परिवार भी सभी जातियों के और सभी तरह की आर्थिक स्थिति के होते थे। एक खाई मंदिर के सामने थी और उसकी रखवाली पुरोहित खुद करते थे। भगवान की पूजा में भक्तों की पूजा, गांव की पूजा भी शामिल रहती थी। गढ़ के भीतर चार खाई इसलिए रखी जाती थीं कि कहीं किसी हमले में गांव की खाईयों में आग लगा दी जाए तो कम से कम गढ़ की चार खाई सुरक्षित रह सकेंगी। आज भारतीय खाद्य निगम जैसी व्यवस्था गांव का अनाज गांव से बाहर निकालकर कहीं दूर शहरों में जमा करता है और संकट आने पर उसे ठीक उस समय पर गांवों में वापस नहीं कर पाता। खाई खाद्य सुरक्षा का बेहतर प्रबंध था।“
”लापोड़िया गांव में आजादी से पहले तक बीस खाईयां थीं। अच्छी फसल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बंद कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाईं भर नहीं जाती थीं, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था।‘खाई’ या गंगी व धुरका गांव की अपने बलबूते पर खड़ी की गई ये खाद्य व्यवस्थाएं सम्मानजनक व कारगर व्यवस्थाओं के नमूने तो हैं ही, वे आज के खाद्य-संग्रह, खाद्य संरक्षण व उसकी वितरण प्रणाली में घुस आए भ्रष्टाचार से भी मुक्त थीं। इस व्यवस्था से अभिप्रेरित होकर वर्तमान को सामने रखकर ऐसी एक व्यवस्था खोजी जा सकती है जिसमें प्रति गांव नहीं तो कुछ किलोमीटर के एक क्षेत्र में अन्न भंडारण व वितरण डिपो बनाएं। इसे अन्न के उत्पादकों व उपभोक्ताओं का सामूहिक प्रबंधन संचालित करे। ऐसी पद्धति देश व दुनिया की अनेक समस्याओं का हल करेंगी।
खाद्य सुरक्षा की आज की व्यवस्था कितनी अव्यावहारिक हैः कृषकों से अनाज लेकर ट्रकों व ट्रेनों आदि से ढोकर विशाल गोदामों तक पहुंचाना। उसकी सुरक्षा के लिए कर्मियों व साधनों पर धन व्यय करना, उसके बाद पुनः नगर या गांव के बाजार या गल्ले की दुकानों तक पहुंचाने में उतनी ही ऊर्जा, पेट्रोल, बिजली, जनशक्ति व धन का अपव्यय करना। यह द्रविड़ प्राणायाम इन दोहरे खर्चों के कारण अन्न को मंहगा करता है। ट्रकों, वाहनों से वायु को प्रदूषित करता है और हम मंहगाई व ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का रोना सारी दुनिया के साथ बैठकर रोने लगते हैं।
अन्न सब तक बराबर पहुंचता नहीं। एक ओर लोग भूख से तड़पते हैं, दूसरी ओर अन्न सड़ता है। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में केवल 11,000 मीट्रिक टन अनाज ही सड़ा है- यह था हमारे कृषिमंत्री का बयान। दूसरा उदाहरण है कि अकेले पंजाब राज्य में 1.36 लाख टन गेहूं खुले में पिछले दो साल से धूप व मानसूनी वर्षा झेलता सिर्फ पोलोथीन से ढका हुआ रखा है। इसमें से करीब पचास हजार टन गेहूं खराब हो चुका है। अन्न की रक्षा तो वही कर सकता है, जो उसे अपना पसीना बहा कर पैदा करता है। बरबादी के इन आंकड़ों को सुनकर वे ग्रामीण लोग क्या महसूस करते, जो अन्न के एक कण की भी रक्षा किया करते थे? एक दाने का भी अपव्यय नहीं होने देते थे।
इन खाईयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानों में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाईयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं।मनुष्यों और उसको जीवन देने वाले अन्न के प्रति यह संवेदनहीनता जब हमारे मनों में ही अकुलाहट पैदा कर देती है तो उन लोगों को तो व्यथा से भर ही देती।
इन सभी सवालों का एक ही जवाब है उत्पादन के साधनों से लेकर वितरण तक की सारी प्रक्रियाओं को विकेन्द्रित करें। उन्हें सरकारों के हाथों में नहीं, जन समाज व जन समुदाय के हाथों से संचालित होने दें। उत्पादन के संसाधनों पर इन समुदायों की प्राथमिकता, प्रबंधन व उपयोग करने का अधिकार सुनिश्चित करें। हमारा ग्राम समाज बहुत समर्थ समाज है। वह अपनी गरीबी स्वयं मिटा सकता है। वह अपने अन्न भंडार संचालित कर सकता है। वह अपने सक्षम बाजार खड़े कर सकता है। केवल सरकारें यह भ्रम मिटाएं कि देश का जी.डी.पी. बढ़ने से गरीबी या भुखमरी मिटेगी।
लक्ष्मी आश्रम, कौसानी, अल्मोड़ा के माध्यम से महिलाओं की शिक्षा की तीन पीढ़ियां राधा बहन की स्नेह छाया और प्रेरणा की ऊष्मा से पक कर आगे निकली हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली की अध्यक्ष भी हैं।
उत्तराखंड की पनार घाटी के उस एक छोटे-से गांव की बात है, जिसे देश के नक्शे में ढूंढना भी कठिन है। दुनिया से अनजाना, अकेला, दूरस्थ यह गांव था धुरका। यह बात आज से 60 वर्ष पुरानी है। धुरका गांव में सिंचित भूमि नाम मात्र को ही थी। मुख्य खेती मडुवा, झुंगरा, दालें और गेहूं जैसी फसलें वर्षा के ऊपर निर्भर रहकर होती थीं। वर्षा व हिमपात प्रति वर्ष नियमित रूप से व निश्चित समय से होते थे।
उस समय उस गांव के लोगों के लिए कोई सस्ते गल्ले की दूकानें नहीं थीं। आठ-दस किलोमीटर चढ़ाई-उतार के रास्ते पर चलने के बाद छोटी-सी चार-छह दुकानों वाला ग्रामीण बाजार आता था। यहां विक्रय की वस्तुएं मुख्यतः कपड़ा, बरतन, गुड़ व नमक आदि थीं। मंडी में गुड़ आने पर ताजा व सस्ता गुड़ लेने वाले पैदल दो दिन चलकर हल्द्वानी मंडी जाया करते थे और अपने सिर व कंधों पर ढोकर हंसते, खेलते सालभर के लिए कुछ नमक व गुड़ ले आते थे।
कोई पैंतीस परिवारों वाले इस गांव के एक छोर पर था हमारा घर। उस समय के रिवाज के अनुसार परिवार में भोजन कराने का एक क्रम था- पहले घर भर के बच्चों को रसोई की परिधि के बाहर बिठाकर भोजन परोसा जाता। उनके खा चुकने के बाद परिवार के पुरुष हाथ-पांव धोकर धुली धोतियां पहने रसोई की परिधि के भीतर बैठकर भोजन करते। तब बारी आती परिवार की महिलाओं की यानी मेरी मां, चाची और दादी की। खाने की थाली सामने आए, उसके पहले मेरी दादी घर के आंगन की सबील पर खड़ी होकर पूरे गांव को सुनाई दे, ऐसी ऊंची आवाज में कहतीं, गांव वालो तुम सब लोगों के घरों में खाना पक गया? सबने खा लिया?
यह रोज लगने वाली आवाज थी उस गांव में। लोग इसके आदी थे। वे अपने छोटे व एक-सी ऊंचाई के घरों से बाहर निकल कर कहते, हां खाना बन रहा है। कोई कहता- हम खाना खा रहे हैं या फिर यह भी कि हम खा चुके हैं।
खाने की थाली सामने आए, उसके पहले मेरी दादी घर के आंगन की सबील पर खड़ी होकर पूरे गांव को सुनाई दे, ऐसी ऊंची आवाज में कहती, गांव वालो तुम सब लोगों के घरों में खाना पक गया? सबने खा लिया? ”अच्छा, तो अब मैं भी खाती हूं।“ कह कर दादी अपनी रसोई में आ जाती। दादी उस गांव की सबसे सयानी महिला थी। गांव की भूख को दादी व बीमारियों को दूर करने का प्रबंध मेरे दादा स्वनियुक्त जिम्मेवारी से करते थे।
नई फसल का अनाज घर में आने के पहले यदि किसी कम भूमि वाले परिवार का अनाज-भंडार समाप्त हो जाता तो दादी उसे किसी ऐसे परिवार से अनाज पैंच (विनिमय) में दिला देती, जिसके पास अपनी जरूरत की पूर्ति से कुछ अधिक अन्न होता था। इसमें दादी केवल निमित्त बनती- यह तो जानी-समझी परंपरागत बात थी कि जिस परिवार के पास, परिवार छोटा होने या भूमि अधिक होने से उसकी जरूरत से थोड़ा भी अधिक अन्न होता, वह ऐसे मौकों पर दूसरों को देता ही था। नई फसल आने के बाद उसका अन्न वापस लौटा दिया जाता था।
मेरे बचपन में मेरे गांव की खाद्य सुरक्षा का यह सीधा सरल तरीका था। इसमें किसी सरकार के, प्रशासन के कानून की, लोकसभा व विधानसभाओं की बहसों और अदालतों के आदेशों की जरूरत नहीं थी। यहां तक कि गांव की पंचायत व प्रधान का भी इसमें कोई दखल पंच या प्रधान की हैसियत से नहीं था।
यों देखा जाए तो हमारा यह गांव खाद्यान्न में कोई संपन्न गांव नहीं था। हर परिवार को छह सात माह की जरूरत भर का अन्न और खुशी-गमी के मौकों के लिए कुछ अतिरिक्त अन्न हो जाए तो लोग मस्त होकर जीते थे। वे मानते थे कि अगर धरती मां की देन का, अन्न का निरादर करेंगे, उसे जूठन की तरह फेकेंगे, सड़ने देंगे, जीवन धारण के अतिरिक्त कुछ और उपयोग करेंगे तो मां दुखी होगी और फिर यह अन्न हमसे ‘हत’, रूठ जाएगा। थाली में कुछ भी नहीं छोड़ना, बच्चे या बीमार थाली में छोड़ दें तो उसे घरेलू पशुओं को खिलाना और रसोई में कुछ बचे तो संभालकर रखना व दूसरे भोजनकाल पर फिर से गरम करके खाना- एक भी कण, एक भी दाना व्यर्थ नहीं करना। इस प्रकार से यह सामान्य-सी अनौपचारिक आदत उस गांव समाज का एक अनुशासन बन गई थी। शादी, यज्ञोपवीत या नामकरण जैसे अवसरों पर भी इसकी सावधानी बरती जाती थी।
नई फसल का अनाज घर में आने के पहले यदि किसी कम भूमि वाले परिवार का अनाज-भंडार समाप्त हो जाता तो दादी उसे किसी ऐसे परिवार से अनाज पैंच (विनिमय) में दिला देती, जिसके पास अपनी जरूरत की पूर्ति से कुछ अधिक अन्न होता था।मुझे लगता कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए यह एक स्वर्णिम नियम है। लेकिन इस पर देश की केंद्रित व्यवस्थाएं नजर ही नहीं डालतीं। भुखमरी, कुपोषण या खाद्य सुरक्षा के मुद्दों पर विचार करते हुए क्या कभी भी होटलों, रेस्टोरेंटों, होस्टलों, बैठकों, विवाहों, भोजों आदि में होने वाली बर्बादी पर विचार किया जाता है?
जब देश में भूख व कुपोषण से बच्चों की मृत्यु होती हो, भयंकर मंहगाई के कारण लोग परेशान हों, तब शादी-ब्याह के विलासी समारोहों, पूजा-अर्चना के बरवादी करने वाले पर्वो-भंडारों तथा रईसों, उद्योगपतियों व राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा आयोजित खाने-खिलाने व पीने-पिलाने की फिजूल दावत-पार्टियों को बंद करके अथवा उन्हें सादगीपूर्ण संयमित करके देश में टनों-टन खाद्य पदार्थों की बचत की जा सकती है।
लालबहादुर शास्त्रीजी ने देश की ऐसी ही स्थिति में विदेशों से अन्न मंगवाने से अधिक जोर दिया था, देश के नागरिकों द्वारा हरेक सोमवार को एक समय का उपवास करने पर। खाद्य-स्वावलंबन को वे पूरे राष्ट्र का पुरुषार्थ बनाना जानते थे। आज ऐसी दूरदृष्टि व एक खाद्यनीति की जरूरत है, जो राष्ट्रीय खाद्य बचत और राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन के द्वारा इस देश के हर नागरिक को दो जून की रोटी व पर्याप्त पोषण अपने घर यानी अपनी रसोई में मुहैया कर सके। हमने देखा है बांटे गए भोजन व बांटे गए पोषण ने लोगों की भूख नहीं मिटाई है। इसने उन्हें पुष्ट करने के बदले भिखारी मनोवृत्ति में धकेल दिया है। और कुछ को भ्रष्ट व बेईमान बनने के मौके दिए हैं।
आज भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी व्यवस्था सही में पश्चिमी सभ्यता के केंद्रीकरण की अवधारणा के तहत इस देश में आई है। यह यहां के जन समाज की जननिर्भर कुशल व बुद्धिमतापूर्ण परंपराओं के विपरीत है।नीतिगत रूप से देश की कृषि की अवहेलना करके हमने धरती मां व धरती पुत्रों को दुखी किया है। यही कारण है कि विश्व भूख सूचकांक के अंतर्गत भारत की भुखमरी पाकिस्तान व नेपाल से भी बदतर बताई गई है। कृषि क्षेत्र इस देश का प्राथमिक सेक्टर है। इसके प्रतिकूल बनाई गई राष्ट्र नीतियों ने राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में इसके योगदान को निरंतर घटाया है। यदि कृषि उत्पादन में वृद्धि हो तो खाद्य सुरक्षा पर प्रभावी ढंग से नियंत्रण लाया जा सकता है। इसके लिए हरित क्रांति, जहरीली खाद, कीटनाशक आदि का नहीं, बल्कि कृषक समुदाय का देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण व प्राथमिक अधिकार सुनिश्चित करना होगा। उसकी जमीन, जल और जंगल का उपयोग प्राथमिक रूप से उसकी खेती के लिए होगा। कृषि उत्पादन के मूल्य निर्धारण की न्याय पूर्ण प्रक्रिया स्वयं किसान के हाथों में देनी होगी। कृषि को इस देश का सर्वोच्च और सर्व प्रथम पेशा घोषित करना होगा।
आज भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी व्यवस्था सही में पश्चिमी सभ्यता के केंद्रीकरण की अवधारणा के तहत इस देश में आई है। यह यहां के जन समाज की जननिर्भर कुशल व बुद्धिमतापूर्ण परंपराओं के विपरीत है। अपने पूरे गांव के प्रति जो लगाव व सामूहिक पुरुषार्थ जुड़ा होता था, उसे हमने‘विकास’ की आधुनिक अवधारणा के सामने निरर्थक मानकर ठुकरा दिया है। हमारे वे गांव अकाल-दुष्काल में कैसे जीना, यह जानते थे, उनकी वह अनुभव जन्य समझ उनकी अंतर्दृष्टि बन गई थी। उत्तराखंड का गंगी गांव 12 महीनों तक पूरे गांव के लिए पर्याप्त अनाज बना रहे- ऐसी खाद्य व्यवस्था रखता था। गांव का अनाज कुठारों,मकानों के बाहर बने काष्ठ के भंडारों में जमा रहता था। जब प्रकृति की विषम परिस्थितियां भयानक हिमपात गंगी गांव को शेष दुनिया से महीनों तक के लिए काट देती थीं, तो भी गंगी का एक भी परिवार भूखा नहीं रहता था।
राजस्थान के जयपुर जिले के एक छोटे गांव लापोड़िया का उदाहरण लें। वहां खाद्य सुरक्षा का तरीका कैसा था, इसका वर्णन ‘गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया’ नामक पुस्तिका में मिलता है।
”खाई एक तरह का सूखा कुंआ होता था। इसमें अनाज का भंडार सुरक्षित रखा जाता था। हरेक खाई कोई 10 से 15 हाथ गहरी और 7 हाथ के व्यास की गोलाई लिए होती थी। यह गोलाई नीचे से ऊपर आते समय थोड़ी कम हो जाती थी। पूरा अनाज भर जाने पर इसे मिट्टी के घोल से ढक्कन बनाकर बंद कर दिया जाता था। सभी खाईयां थोड़े ऊंचे स्थानों पर बनाई जाती थीं, ताकि बरसात की नमी और पानी इसमें न जा पाए। खाई के भीतर बहुत सावधानी से गोबर और मिट्टी से लिपाई की जाती थी। इसमें कुछ भाग राख का भी होता था ताकि अनाज में कीड़े न लगें।
गांव का अनाज कुठारों, मकानों के बाहर बने काष्ठ के भंडारों में जमा रहता था। जब प्रकृति की विषम परिस्थितियां भयानक हिमपात गंगी गांव को शेष दुनिया से महीनों तक के लिए काट देती थीं, तो भी गंगी का एक भी परिवार भूखा नहीं रहता था।”लापोड़िया गांव में आजादी से पहले तक बीस खाईयां थीं। अच्छी फसल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बंद कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाई भर नहीं जाती थीं, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था। इन खाईयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानों में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाईयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं। अकाल का संकट आने पर खाई खोलने का निर्णय गांव के दो पटेल और ठिकानेदार की एक छोटी-सी बैठक में तुरंत लिया जाता था। उसके बाद गांव के घरों की जरूरत देखते हुए एक के बाद एक खाई खुलती जाती थी और अनाज का वितरण होता जाता था। एक मोटे हिसाब से प्रति परिवार प्रति माह कोई एक मन अनाज बांटा जाता था। अकाल समाप्त होने पर अच्छी पैदावार आने पर इन्हीं परिवारों से चालीस किलो के बदले 50 किलो अनाज वापस लेकर फिर से खाई में सुरक्षित रख दिया जाता था।
”गांव की बीस खाईयों में से केवल चार खाई ठिकानेदार के गढ़ के भीतर थीं। शेष 16 गांव के सार्वजनिक स्थानों पर बनी थीं। इन सोलह खाईयों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके सामने पड़ने वाले घरों की होती थी। ये परिवार भी सभी जातियों के और सभी तरह की आर्थिक स्थिति के होते थे। एक खाई मंदिर के सामने थी और उसकी रखवाली पुरोहित खुद करते थे। भगवान की पूजा में भक्तों की पूजा, गांव की पूजा भी शामिल रहती थी। गढ़ के भीतर चार खाई इसलिए रखी जाती थीं कि कहीं किसी हमले में गांव की खाईयों में आग लगा दी जाए तो कम से कम गढ़ की चार खाई सुरक्षित रह सकेंगी। आज भारतीय खाद्य निगम जैसी व्यवस्था गांव का अनाज गांव से बाहर निकालकर कहीं दूर शहरों में जमा करता है और संकट आने पर उसे ठीक उस समय पर गांवों में वापस नहीं कर पाता। खाई खाद्य सुरक्षा का बेहतर प्रबंध था।“
”लापोड़िया गांव में आजादी से पहले तक बीस खाईयां थीं। अच्छी फसल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बंद कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाईं भर नहीं जाती थीं, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था।‘खाई’ या गंगी व धुरका गांव की अपने बलबूते पर खड़ी की गई ये खाद्य व्यवस्थाएं सम्मानजनक व कारगर व्यवस्थाओं के नमूने तो हैं ही, वे आज के खाद्य-संग्रह, खाद्य संरक्षण व उसकी वितरण प्रणाली में घुस आए भ्रष्टाचार से भी मुक्त थीं। इस व्यवस्था से अभिप्रेरित होकर वर्तमान को सामने रखकर ऐसी एक व्यवस्था खोजी जा सकती है जिसमें प्रति गांव नहीं तो कुछ किलोमीटर के एक क्षेत्र में अन्न भंडारण व वितरण डिपो बनाएं। इसे अन्न के उत्पादकों व उपभोक्ताओं का सामूहिक प्रबंधन संचालित करे। ऐसी पद्धति देश व दुनिया की अनेक समस्याओं का हल करेंगी।
खाद्य सुरक्षा की आज की व्यवस्था कितनी अव्यावहारिक हैः कृषकों से अनाज लेकर ट्रकों व ट्रेनों आदि से ढोकर विशाल गोदामों तक पहुंचाना। उसकी सुरक्षा के लिए कर्मियों व साधनों पर धन व्यय करना, उसके बाद पुनः नगर या गांव के बाजार या गल्ले की दुकानों तक पहुंचाने में उतनी ही ऊर्जा, पेट्रोल, बिजली, जनशक्ति व धन का अपव्यय करना। यह द्रविड़ प्राणायाम इन दोहरे खर्चों के कारण अन्न को मंहगा करता है। ट्रकों, वाहनों से वायु को प्रदूषित करता है और हम मंहगाई व ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का रोना सारी दुनिया के साथ बैठकर रोने लगते हैं।
अन्न सब तक बराबर पहुंचता नहीं। एक ओर लोग भूख से तड़पते हैं, दूसरी ओर अन्न सड़ता है। भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में केवल 11,000 मीट्रिक टन अनाज ही सड़ा है- यह था हमारे कृषिमंत्री का बयान। दूसरा उदाहरण है कि अकेले पंजाब राज्य में 1.36 लाख टन गेहूं खुले में पिछले दो साल से धूप व मानसूनी वर्षा झेलता सिर्फ पोलोथीन से ढका हुआ रखा है। इसमें से करीब पचास हजार टन गेहूं खराब हो चुका है। अन्न की रक्षा तो वही कर सकता है, जो उसे अपना पसीना बहा कर पैदा करता है। बरबादी के इन आंकड़ों को सुनकर वे ग्रामीण लोग क्या महसूस करते, जो अन्न के एक कण की भी रक्षा किया करते थे? एक दाने का भी अपव्यय नहीं होने देते थे।
इन खाईयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानों में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाईयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं।मनुष्यों और उसको जीवन देने वाले अन्न के प्रति यह संवेदनहीनता जब हमारे मनों में ही अकुलाहट पैदा कर देती है तो उन लोगों को तो व्यथा से भर ही देती।
इन सभी सवालों का एक ही जवाब है उत्पादन के साधनों से लेकर वितरण तक की सारी प्रक्रियाओं को विकेन्द्रित करें। उन्हें सरकारों के हाथों में नहीं, जन समाज व जन समुदाय के हाथों से संचालित होने दें। उत्पादन के संसाधनों पर इन समुदायों की प्राथमिकता, प्रबंधन व उपयोग करने का अधिकार सुनिश्चित करें। हमारा ग्राम समाज बहुत समर्थ समाज है। वह अपनी गरीबी स्वयं मिटा सकता है। वह अपने अन्न भंडार संचालित कर सकता है। वह अपने सक्षम बाजार खड़े कर सकता है। केवल सरकारें यह भ्रम मिटाएं कि देश का जी.डी.पी. बढ़ने से गरीबी या भुखमरी मिटेगी।
लक्ष्मी आश्रम, कौसानी, अल्मोड़ा के माध्यम से महिलाओं की शिक्षा की तीन पीढ़ियां राधा बहन की स्नेह छाया और प्रेरणा की ऊष्मा से पक कर आगे निकली हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली की अध्यक्ष भी हैं।
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