सौराष्ट्र प्रायद्वीप के तटीय नदी बेसिन में सिंचाई अनुकूलता हेतु भूजल गुणवत्ता आंकलन

भूजल
भूजल

सारांश

सौराष्ट्र के तटीय भाग का भू-जल उच्च लवणता से प्रभावित है। दक्षिण सौराष्ट्र के मिनसर नदी बेसिन में समुद्र तट के पास वाले क्षेत्र में भूजल में लवणता बहुत ज्यादा है जबकि तट से दूर जाने पर लवणता में कमी आती है। इस भाग के भू-जल के नमूनें के रासायनिक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि सोडियम के बाद भूजल में कैल्शियम एवं मैग्नीशियम के धनायन की बहुलता है। इसी प्रकार क्लोराइड के अतरिक्त बाइकार्बोनेट के ऋणायन भी उपस्थित हैं। सिंचाई हेतु भूजल की गुणवत्ता को आंकलित करने के लिए समुद्री तट पर विभिन्न स्थानों से भू जल के 71 नमूने एकत्र किए गए तथा उन्हें जल की गुणवत्ता निर्धारित करने वाले सूचकों जैसे लवणता सोडियम अवशोषण अनुपात अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट पारगम्यता सूचक इत्यादि को ज्ञात करने की दृष्टि से विश्लेषित किया गया । परिणाम बताते हैं कि सिंचाई हेतु भूजल की गुणवत्ता समुद्र तट से 12 किलोमीटर की दूरी के बाद अनुकूल है। इस क्षेत्र के लिए मृदा के प्रबंधन के अतिरिक्त फसलों के चुनाव की भी संस्तुति की गई है।

Abstract

The management of freshwater reserves is becoming increasingly imperative for the managers of natural resources around the globe. Freshwater stored in coastal aquifers is particularly susceptible to degradation due to its proximity to seawater, in combination with the intensive water demands that accompany higher population densities of coastal zones. Seawater ingress may occur due to prolonged changes (or in some cases severe episodic changes) in coastal groundwater levels due to pumping, land-use change, climate variations or sea-level fluctuations. The primary detrimental effects of seawater ingress are reduction in the available freshwater storage volume and contamination of production wells, whereby less than 2 per cent of seawater renders freshwater unfit for drinking. The fragility of these aquifers and their sensitivity to human activities demand an in-depth understanding of the coastal groundwater dynamics and an informed, competent management to guarantee the sustainable development and management of the coastal areas using suitable aquifer management strategies.

परिचय

भू-जल के संपोषण में भू-जल की उपलब्धता एवं विभिन्न उपयोगों के लिए इसकी गुणवत्ता की उपयुक्तता आदि दो प्रमुख घटक हैं। जल के किसी भी तरह के उपयोग के लिए उसकी अनुकूलता उसके भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों से सम्बन्धित होती है। जल के विभिन्न उपयोग के लिए उसका स्वाद, गंध, उसमें उपस्थित सूक्ष्मजीवी तत्व तथा उसमें प्राकृतिक एवं औद्योगिक रूप से उसमें घुले रासायनिक तत्व इत्यादि पैमाने विभिन्न उपयोग हेतु उसकी गुणवत्ता की उपयुक्तता को परिभाषित करने के मापदंड हैं। तटीय क्षेत्रों में कुछ प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे लवण-युक्त जल के अतिक्रमण, ज्वारभाटा के प्रभाव, हवा द्वारा समुद्री जल की बौछार, ऊपरी मृदा पर जमा समुद्री एरोसाल, वाष्पीकरण तथा भूजल की खारे पानी एवं भूवैज्ञानिक गठनों के साथ परस्पर क्रिया इत्यादि से भूजल की गुणवत्ता में कमी आई है जिसके कारण इसका घरेलु, सिंचाई एवं औद्योगिक उपयोग प्रभावित हुआ है। भारत में पिछले कुछ समय में विभिन्न शोधकर्ताओं ने भूजल की सिंचाई हेतु उसकी गुणवत्ता तथा जल के जलीय भूरासायनिक दृष्टिकोण को ज्ञात करने के लिए अनेक अध्ययन (सुब्बाराव 16 2006, जयलक्ष्मी देवी 8, 2009, रविकुमार 11 2011, धीमान 5, 2014) किए गए हैं। इसके अतिरिक्त तटीय क्षेत्रों में भूजल की सिंचाई उपयुक्तता को ज्ञात करने हेतु भी कई अध्ययन (साथियामूर्ती एवं श्रवण 15 द्वारा वर्ष 2013 में, मंडल 10 इत्यादि द्वारा वर्ष 2011 में सार्थ पाश्र्नाथ 14 इत्यादि द्वारा वर्ष 2012 में, सजिल कुमार 13 इत्यादि द्वारा वर्ष 2013 में) हुए हैं।

अध्ययन ये बताते हैं कि उत्तम गुणवत्ता वाले जल से फसलों की सिंचाई होने से ही उत्पादकता अधिक प्राप्त की जा सकती है। गुजरात राज्य का तटीय सौराष्ट्र में लवण से प्रभावित मिनसर नदी बेसिन में खेती ही मुख्य आर्थिक स्रोत है।

प्रस्तुत शोध कार्य का उद्देश्य मिनसर नदी बेसिन में सिंचाई हेतु उपलब्ध भू-जल में जलीय भू-रासायनिक तत्वों के वितरण का मूल्यांकन करना है। अध्यययन क्षेत्र अध्यययन क्षेत्र मिनसर नदी बेसिन द्वारा बना हुआ है जिसका मुख्य भाग गुजरात राज्य के तटीय सौराष्ट्र के पोरबंदर जिले में आता है। इस क्षेत्र की जलवायु अर्ध-शुष्क प्रकार की है यहाँ गर्मियों का अधिकतम तापमान 350 सेंटीग्रेट से लेकर 440 सेंटीग्रेट तक रहता हैं तथा सर्दियों में 80सेंटीग्रेट से लेकर 220सेंटीग्रेट तक रहता है। जाँच का कुल क्षेत्रफल लगभग 1750 वर्ग किलोमीटर का है, तथा यह एक तरफ अरब सागर से घिरा है। मिनसर नदी जामनगर जिले में उपस्थित पहाड़ियों से निकल कर कुछ पहाड़ी एवं कुछ मैदानी भाग से होकर बहती है। यह बरसाती नदी है अतः इसमें केवल बरसात के मौसम में ही जल उपलब्ध रहता है। यहाँ पर वर्षा का 93 प्रतिशत भाग जून से लेकर सितम्बर के महीनों में ही प्राप्त हो जाता है। यहाँ खेती जीविका का प्रमुख स्रोत है तथा फसलों की सिंचाई मुख्यतः भू-जल से होती है। इन तटीय मैदानों में मुख्यतः दो सिंचाई परियोजनाएं हैं केरली तैदल एवं केरली जलाशय तथा अध्ययन क्षेत्र के दूसरे सिरे पर ‘‘वरदा सागर’’ नामक सिंचाई परियोजना हैं। चित्र-1 में अध्ययन क्षेत्र को दर्शाया गया है। सामान्य मानसून वाले वर्ष में इन योजनाओं द्वारा आस -पास के क्षेत्रों में सिंचाई हेतु जल उपलब्ध कराया जाता है, परन्तु यदि वर्षा कम हो तो ये योजनाएँ जल की आपूर्ति नहीं कर पाती जिससे इस क्षेत्र के किसान खेती एवं घरेलू मांग के लिए भूजल पर निर्भर रहते हैं। इस क्षेत्र की स्थलाकृति चूने के पत्थर द्वारा निर्मित है। तटीय मैदान लेटराइट्स एवं जलोढक द्वारा बना है जबकि ऊपरी भूमि सख्त डेकन ट्रेप द्वारा निर्मित है। तट के पास वाले भाग में भू-जल में लवणता अत्यधिक है लेकिन आंतरिक क्षेत्र में भूजल स्वच्छ है। भूजल की जलीय-भूरासायानिक विशेषताओं के लिए अध्ययन क्षेत्र को समुद्र तट से दूरी के आधार पर तीन जोन में बाँटा गया है। तट से 3 किलोमीटर की दूरी वाला क्षेत्र को जोन-1, तट से 3 किलोमीटर से लेकर 12 किलोमीटर तक के भाग को जोन-2 तथा 12 किलोमीटर से ज्यादा दूरी वाले भाग को जोन-3 कहा गया है।

परिणाम एवं परिचर्चा

अध्ययन के परिणाम निम्न प्रकार पाए गए।

सामान्य जलीय रसायन विज्ञान

जोन-1, जोन-2 एवं जोन-3 हेतु भू जल के भौतिक एवं रासायनिक प्राचलों के सांख्यिकीय सार को तालिका-1 में दर्शाया गया है। तीनों जोन में हाइड्रोजन सामथ्र्य (pH) के परिवर्तन की समग्र सीमा 6.7 से लेकर 8.46 के मध्य थी तथा चभ् का औसतन मान 7.37 था। कुल घुलित ठोस (pH) का मान जोन-1, जोन-2 एवं जोन-3 में क्रमशः 2472.24 मिली ग्राम/लीटर, 2290 मिली ग्राम/लीटर एवं 1211.09 मिली ग्राम/लीटर पाया गया। अतः तट से दूर जाने पर भूजल की लवणता में गिरावट पाई गयी। जोन-2 के कुछ भाग मुख्यतः गेड क्षेत्र, में लवणता अत्यधिक होने के कारण यह जल सिंचाई हेतु प्रयोग नहीं किया जाता। तट से लगभग 200 मीटर की दूरी पर लवणता में वृद्धि गहराई के साथ बड़ी तेजी से बढती है। तालिका-1 दर्शाती है कि अध्ययन क्षेत्र में सोडियम के धनायन के बाद भूजल में कैल्शियम, पोटेशियम एवं मैगनीशियम के धनायन की बहुलता है। इसी प्रकार जोन-1 एवं जोन-2 में क्लोराइड के ऋणायन के अतरिक्त बाइकार्बोनेट के एनायन की अधिकता है। यद्यपि जोन-3 में क्लोराइड की मात्रा कुछ कम हुई है फिर भी इस जोन में क्लोराइड एवं बाइकार्बोनेट एनायन की मात्रा प्रभावी है। क्लोराइड एवं बाइकार्बोनेट के अनुपात एवं कुल घुलित ठोस के मध्य ग्राफ को चित्र-2 में दिखाया गया है। ग्राफ से पता चलता है कि भू-जल जिसमें कुल घुलित ठोस की सांद्रता अधिक है उसमें क्लोराइड है परन्तु जिस भूजल में कुल घुलित ठोस की मात्रा कम है वह या तो समुद्री जल से प्रभावित नहीं है या कम प्रभावित है।

सिंचाई उपयुक्तता हेतु भू-जल की गुणवत्ता का आकलन

अध्ययन क्षेत्र में सिंचाई हेतु भूजल की उपयुक्तता को विभिन्न आधार जैसे-लवणता, सोडियम अवशोषण अनुपात (SAR) सोडियम का प्रतिशत (%Na), अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट (RSC), मैग्नीशियम जोखिम (MH), पारगम्यता सूचकांक (PI) एवं बोरोन सांद्रता इत्यादि द्वारा आंकलित किया गया। भूजल के नमूनों का वर्गीकरण रिचर्ड 12 (वर्ष 1954) द्वारा बताए युएसएसएल (USSL) डायग्राम के आधार पर किया गया। तालिका-2 में विद्युत् चालकता (EC), ¨डियम अवशोषण अनुपात, सोडियम कार्बोनेट अवशेष, मैग्नीशियम जोखिम, सोडियम का प्रतिशत, पारगम्यता सूचकांक एवं बोरोन सांद्रता के आधार पर सिंचाई हेतु जल का संस्तुत वर्गीकरण दिखाया गया है, जबकि तालिका-3 में मिनसर नदी बेसिन में लिए गए भूजल के नमूनों का उपरोक्त प्राचलों के आधार पर वर्गीकरण दिखाया गया है। भारतीय मानक ब्यूरो 3 (वर्ष 1987 में, वर्ष 2001 में पुनः पुष्टित) विद्युत् चालकता, सोडियम अवशोषण अनुपात, सोडियम कार्बोनेट अवशेष एवं बोरोन सांद्रता इत्यादि के आधार पर सिंचाई हेतु जल की गुणवत्ता के लिए दिशा-निर्देश उपलब्ध करता है। लिए गए नमूनों में विद्युत् चालकता, सोडियम अवशोषण अनुपात, सोडियम कार्बोनेट अवशेष एवं बोरोन सांद्रता का भारतीय मानक ब्यूरो 3 (वर्ष 1987) के अनुसार वर्गीकरण किया गया। सिंचाई हेतु भूजल की अनुकूलता हेतु भू-जल की गुणवत्ता का विस्तृत वर्णन निम्नलिखित है।

लवणता (EC)

सिंचाई हेतु भूजल की अनुकूलता में लवणता का महत्वपूर्ण योगदान होता है। विद्युत् चालकता का प्रयोग लवणता ज्ञात करने के लिए होता है। इसकी इकाई माइक्रो सेकण्ड/सेमी होती है। यह भूजल में कुल घुलित ठोस को दर्शाती है। सिंचाई जल में लवण की उच्च मात्रा सोइल सलूशन ओस्मोटिक दवाब में वृद्धि करती है। लवणता पौधों की बढ़ोतरी को प्रभावित करने के अतिरिक्त इसके कारण मृदा की संरचना, पारगम्यता तथा वायु संचारण भी प्रभावित होते हैं, जिसका सीधा असर पौधों के विकास पर पड़ता है। रिचर्ड इत्यादि द्वारा वर्ष 1954 में भूजल के विद्युत् चालकता वर्गीकरण को तालिका-2 में दर्शाया गया है। इसके अनुसार यदि विद्युत् चालकता का मान 250 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से कम है तो जल में लवणता कम होगी एवं भूजल सर्वोत्तम गुणवत्ता का होगा, यदि विद्युत् चालकता का मान 250 से लेकर 750 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के मध्य है तो लवणता मध्यम होगी तथा जल उत्तम गुणवत्ता का होगा, यदि विद्युत् चालकता का मान 750 से लेकर 2250 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के मध्य है तो लवणता उच्च होगी तथा जल अनुमत होगा, यदि विद्युत् चालकता का मान 2250 से लेकर 5000 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के मध्य है तो लवणता अति उच्च होगी तथा जल की गुणवत्ता संशयात्मक होगी परन्तु यदि विद्युत् चालकता का मान 5000 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के ज्यादा है तो जल सिंचाई हेतु अयोग्य होता है। मिनसर नदी बेसिन के तीनो जोनों जोन-1, जोन-2 एवं जोन-3 से लिए गए नमूने लवणता के आधार पर क्रमशः केवल 3%, 0% तथा 20% नमूने उत्तम थे तथा 26%, 20% तथा 73% नमूने अनुमत, 48%, 68% तथा 7% नमूने संशयात्मक तथा 2%, 12% तथा 0% नमूने अयोग्य थे। इन तीनों जोनों में से किसी में भी कोई नमूना सर्वोत्तम गुणता वाला नहीं पाया गया। जोन-1 एवं जोन-2 में अधिकतर नमूने संशयात्मक/अयोग्य थे जबकि जोन-3 के नमूने उत्तम/अनुमत प्रकार के थे जिन्हें तालिका-3 में दिखाया गया है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार विद्युत् चालकता के आधार पर सिंचाई जल को चार वर्गों में बाँटा गया है; यदि विद्युत् चालकता का मान 1500 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से कम है तो जल में लवणता कम होगी, यदि विद्युत् चालकता का मान 1500 से लेकर 3000 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के मध्य है तो लवणता मध्यम होगी, यदि विद्युत् चालकता का मान 3000 से लेकर 6000 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के मध्य है तो लवणता उच्च होगी, परन्तु यदि विद्युत् चालकता का मान 6000 माइक्रो सेकण्ड/सेमी के ज्यादा है तो लवणता अति उच्च होगी। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार मिनसर नदी बेसिन के तीनो जोनों जोन-1, जोन-2 एवं जोन-3 में भूजल के नमूने लवणता के आधार पर क्रमशः 13%, 16% तथा 73% में कम लवणता, 19%, 44% तथा 27% में मध्यम लवणता, 55%, 36% तथा 0% में उच्च लवणता तथा 13%, 4% तथा 0% में अति उच्च लवणता पाई गई। अतः जोन-1 के 13% नमूने अति उच्च लवणता वाले थे जबकि 55% नमूने उच्च लवणता वाले थे। जोन-2 के 44% नमूने मध्यम लवणता वाले थे। जोन-3 के 73% नमूने कम लवणता वाले थे। अतः तट से दूर जाने पर भू जल में लवणता कम होने से वह जल सिंचाई के लिए अनुकूल होता जाता है।

सोडियम अवशोषण अनुपात (SAR)

जल में स¨डियम की अधिकता मिट्टी के गुण पर अनावश्यक प्रभाव डालती है तथा उसकी पारगम्यता को कम कर देती है। सोडियम या अन्य क्षारीय जोखिम को सोडियम अवशोषण अनुपात (SAR) द्वारा व्यक्त करते हैं। जिसे निम्न सिद्धान्त द्वारा आकलित किया जाता है।

सिंचाई जल में सोडियम अवशोषण अनुपात तथा मृदा द्वारा अवशोषित सोडियम आयन की सीमा के मध्य गहरा सम्बन्ध होता है। यदि सिंचाई के लिए प्रयुक्त जल में सोडियम आयन (Na+) की अधिकता तथा कैल्शियम आयन (Ca2-) की कमी हो तो आयन परिवर्तन जटिलता (ion-) सोडियम आयन से संतृप्त हो सकती है जो मृदा की संरचना को क्षति पहुंचाती है जिससे पौधों की बढ़त सीमित हो जाती है। क्षारीय अवरोध के अनुसार सिंचाई जल निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जाता है। यदि सोडियम अवशोषण अनुपात का मान 10 से कम है तो जल कम क्षारीय संकट वाला कहलाता है, यदि यह मान 10 से 18 के मध्य हो तो मध्यम क्षारीय संकट वाला, यदि यह मान 18 से 26 के मध्य हो तो उच्च क्षारीय संकट वाला जल तथा यदि यह मान 26 से ज्यादा है तो जल अति उच्च क्षारीय संकट वाले जल की श्रेणी में आता है। अध्ययन क्षेत्र के सभी जोन में वर्ष 2013 के मानसून के बाद वाले नमूनों में सोडियम अवशोषण अनुपात का मान 0.78 से लेकर 46.20 के मध्य पाया गया। जोन -1 के 26% तथा जोन-2 के 12% नमूनों में क्षारीय संकट अति उच्च था जबकि जोन-3 के 93% नमूनों में सोडियम अवशोषण अनुपात का मान 10 से कम होने के कारण यह कम क्षारीय संकट वाला था। अतः तट से दूरी बढ़ने के साथ भूजल में क्षारीय संकट में कमी आती है। सिंचाई जल का भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा किया गया क्षारीय संकट वर्गीकरण रिचर्ड द्वारा किए गए वर्गीकरण के समान है। परिणाम को तालिका-3 में दर्शाया गया है।

अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट (RSC)

अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट पैमाने द्वारा जल में उपस्थित उच्च बाईकार्बोनेट को ज्ञात किया जाता है। जिसे निम्न सिद्धान्त द्वारा आकलित किया जाता है।

जहाँ पर आयन की सांद्रता मिली तुल्य प्रतिलीटर में मापी गयी है। जोन-1, जोन-2 एवं जोन-3 से लिए नमूनों में अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट निम्न प्रकार पाए गए। जोन-1, जोन-2, जोन-3 में क्रमशः 32%, 88% एवं 93% नमूने उत्तम, 3%, 4% एवं 7% नमूने मध्यम, तथा 65%, 8% एवं 0% नमूने निम्न थे जो कि इस बात को दर्शाते हैं कि जोन-2 में 88% तथा जोन-3 में 93% नमूने उत्तम श्रेणी के थे। वर्ष 1987 में दिए भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार उच्च बाईकार्बोनेट आयन सांद्रता के आधार पर भूजल का वर्गीकरण इस प्रकार है यदि अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट का मान 1.5 मिली तुल्य प्रतिलीटर से कम है तो कम जोखिम वाला जल है, यदि यह मान 1.5 से लेकर 3 मिली तुल्य प्रतिलीटर के मध्य है तो मध्यम जोखिम, यदि यह मान 3 से लेकर 6 मिली तुल्य प्रतिलीटर के मध्य है तो उच्च जोखिम तथा यदि यह मान 1.5 मिली तुल्य प्रतिलीटर से अधिक है तो अत्यधिक जोखिम वाला जल माना जाता है। इस मानक के आधार पर अध्ययन क्षेत्र के भूजल के नमूनों में बाईकार्बोनेट का जोखिम जोन-1, जोन-2, तथा जोन-3 में क्रमशः 32%, 92% एवं 93% नमूने कम जोखिम वाले, 16%, 0% तथा 7% नमूने मध्यम जोखिम वाले, 10%, 0% तथा 0% नमूने उच्च जोखिम वाले तथा 42%, 8% तथा 0% नमूने अति उच्च जोखिम वाले हैं। भारतीय मानक ब्यूरो वर्गीकरण के अनुसार जोन-2 के 92% एवं जोन-3 के 93% नमूनों में उच्च बाईकार्बोनेट का जोखिम कम तथा जोन-1 के 42% नमूनों में यह अत्यधिक था।

पारगम्यता सूचकांक (PI)

भूजल की जलीय-भू रासायनिक क्रिया एवं जलीय भू रसायन स्थानिक एवं सामायिक होते हैं। यह जलभृतों की भौमिक एवं रासायनिक विशेषताओं पर निर्भर करते हैं। सोडियम एवं बाईकार्बोनेट से युक्त जल से अधिक समय तक सिंचाई करने पर मृदा की पारगम्यता प्रभावित होती है। वाढ 1964 में दोनीन ने बताया कि सिंचाई हेतु जल की उपयुक्तता आंकलन करने के लिए पारगम्यता सूचकांक भी एक कसौटी है। जिसे ज्ञात करने के लिए निम्न समीकरण का प्रयोग किया जाता है।

यहाँ पर आयन की सांद्रता मिली तुल्य प्रतिलीटर द्वारा मापी गयी है। भूजल के लिए पारगम्यता सूचकांक के आधार पर जोन-1, जोन-2, तथा जोन-3 से प्राप्त नमूनों में से क्रमशः 61%, 36% एवं 40% नमूने उत्तम तथा 39%, 64% एवं 60% मध्यम पाए गए । जोन-1 में केवल उथले जलभृत का जल ही सिंचाई योग्य था। अध्ययन क्षेत्र के वर्ष 2013 के मानसून माह के बाद के नमूनों में पारगम्यता सूचकांक का मान 42.72 से लेकर 102.82 के मध्य था एवं केवल 48% नमूने ही उत्तम श्रेणी के पाए गए जिनमें पारगम्यता सूचकांक का मान 75 से ज्यादा था जबकि 52% नमूनों में यह मान 25 से लेकर 75 तक था।

अमरीका (यूएस) लवणता प्रयोगशाला वर्गीकरण

सिंचाई हेतु भू जल की व्यवहारिकता ज्ञात करने के लिए सामान्यतः यूएस लवणता प्रयोगशाला वर्गीकरण आरेख का उपयोग किया जाता है। सोडियम जोखिम को y-axis तथा विद्युत् चालकता को x-axis पर प्लाट करने पर जो आरेख (diagram) प्राप्त होता है उसे यूएसएसएल आरेख कहते हैं लवणता संकट को चार श्रणियों में विभाजित किया गया है वे क्रमशः सी-1 (कम जोखिम), सी-2 (मध्यम जोखिम), सी-3 (उच्च जोखिम) तथा सी-4 (अति उच्च जोखिम) हैं। सी-1 से लेकर सी-4 श्रेणी तक विद्युत् चालकता (EC) का मान क्रमशः 250 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से कम, 250 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से लेकर 750 माइक्रो सेकण्ड/सेमी तक, 750 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से लेकर 2250 माइक्रो सेकण्ड/सेमी तक एवं 2250 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से अधिक था। सोडियम संकट को चार श्रणियों में विभाजित किया गया है वे क्रमशः एस-1 (कम जोखिम), एस-2 (मध्यम जोखिम), एस-3 (उच्च जोखिम) तथा एस-4 (अति उच्च जोखिम) हैं। एस-1 से लेकर एस-4 श्रेणी तक सोडियम संकट (EC) का मान क्रमशः 10 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से कम, 10 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से लेकर 18 माइक्रो सेकण्ड/सेमी तक, 18 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से लेकर 26 माइक्रो सेकण्ड/सेमी तक एवं 26 माइक्रो सेकण्ड/सेमी से अधिक था।

चित्र-3 में यूएसएसएल आरेख को दर्शाया गया है। इस चित्र से ज्ञात होता है की जोन-1 के अधिकतर भाग के भूजल के नमूने सी-4 एस-4 एवं सी-4 एस-3 श्रेणी के थे जो अति उच्च लवणता तथा उच्च से लेकर अति उच्च सोडियम युक्त जल को दर्शाते हैं। अतः सामान्यतः इस जोन का जल सिंचाई हेतु उपयुक्त नहीं है। यहाँ पर फसलों के लिए विशिष्ट मृदा प्रबंधन जैसे उत्तम निकासी तंत्र, उच्च निक्षालन एवं जैविक पदार्थों का प्रयोग तथा लवण सहने में सक्षम फसलों का प्रयोग इत्यादि की आवश्यकता है। जोन-2 के अधिक्तर नमूने सी-3एस-2, सी-3एस-1, सी-4एस-2 एवं सी-4एस-3 श्रेणी के थे जो उच्च से लेकर अति उच्च लवणता तथा मध्यम से लेकर उच्च सोडियम युक्त जल को दर्शाते हैं। अतः इस जोन का जल खुरदरी बुनावट वाली अथवा जैविक मृदा जिसकी पारगम्यता उत्तम हो तथा ऐसी फसलें जो लवण को सहने में सक्षम हों इत्यादि के लिए प्रयोग किया जा सकता है। जोन-3 के अधिकतर भाग के भूजल के नमूने सी-3एस-1 एवं सी-3एस-2 श्रेणी में आते हैं। जिससे ज्ञात होता है कि वहां के भूजल में लवणता उच्च तथा सोडियम मध्यम है। भूजल में सोडियम की मात्रा मध्यम होने के कारण इस जोन का जल सभी प्रकार की मृदा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। सोडियम की मध्यम मात्रा बारीक बुनावट वाली मृदा जिसमें कैटायन एक्सचेंज क्षमता उच्च हो एवं जहाँ निक्षालन कम हो में सोडियम जोखिम उत्पन्न करता है। अतः इस प्रकार की मृदा की उत्पादकता को बनाए रखने हेतु जिप्सम या सल्फर का अनुप्रयोग एवं उच्च गुणवत्ता वाले जल से निक्षालन करना आवश्यक है।

निष्कर्ष

भू रासायनिक विश्लेषण के परिणाम बताते हैं कि मिनसर बेसिन में भूजल स्वच्छ से लेकर खारा तथा क्षारीय प्रकृति का है। तटीय जलभृत में भूजल का रासायनिक घटक जलीय रासायनिक प्रक्रियाओं से प्रभावित होता है जो कि विभिन्न प्राचलों जैसे कुल घुलित ठोस, सोडियम आयन, क्लोराइड आयन कैल्शियम आयन सल्फेट आयन, बाईकार्बोनेट आयन के मानक मानों से विचलन द्वारा प्रदर्शित हो रहा है। समुद्र तट से 12 किलोमीटर की दूरी के बाद का भूजल, खेती हेतु सिंचाई के लिए उपयुक्त है। यूएसएसएल वर्गीकरण के अनुसार अध्ययन क्षेत्र के अधिकतर नमूने लगभग 95% में लवणता जोखिम उच्च से अति उच्च था जबकि क्षारीयता जोखिम कम से अति उच्च था। लगभग 14% नामूनों में विद्युत् चालकता का मान 5000 माइक्रो सेकण्ड/सेमी तक थी जिसके कारण यहाँ का जल सिंचाई हेतु अनुपयुक्त था। यहाँ का जल उत्तम लवण सहनीय फसलों तथा मृदा के विशिष्ट प्रबंधन तकनीक जैसे उत्तम जल निकासी तंत्र, उच्च निक्षालन (leaching) द्वारा एवं जैविक पदार्थों को मिलाकर प्रयोग किया जा सकता है। यह भी देखा गया है कि तट से 12 किलोमीटर की दूरी पर जल में लवणता में गहराई के साथ वृद्धि होती है, अतः सिंचाई हेतु जलभृत उथले होने चाहिए।

आभार

यह कार्य राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान रूड़की को गुजरात राज्य के सौराष्ट्र में ‘‘तटीय भू जल की गतिकी एवं प्रबंधन’’ नामक शीर्षक के अंतर्गत पीडीएस के रूप में दिया गया था। इसमें गुजरात राज्य के जल संसाधान विकास कारपोरेशन लिमिटेड, गांधीनगर ने अपना सहयोग प्रदान किया। यह अध्ययन जल संसाधन मंत्रालय द्वारा वित्त पोषित एवं विश्व बैंक दायारा सहायता प्राप्त जलविज्ञान परियोजना (द्वितीय चरण) के अंतर्गत किया गया।

References

• Abarca E., Vázquez-Suñé E., Carrera, J., Capino, B., Gámez, D. and Batlle, F. (2006) Optimal design of measures to correct seawater intrusion. Water Resour. Res. 42(9), W09415.

• ACASA (2011) Saltwater Intrusion and Climate Change. Atlantic Climate Adaptation Solutions Association, Prince Edward Island Department of Environment, Labour and Justice.

• Atkinson, S.F., Miller, G.D. and Curry, D.S. (1986) Salt-water Intrusion, Status and Potential in the Contiguous United States. Lewis Publishers.

• Barlow, P.M. and Reichard, E.G. (2010) Saltwater intrusion in coastal regions of North America. Hydrogeology Journal 18: 247–60.

• Bear, J. (2004) Management of a coastal aquifer (editorial). Groundwater,42, pp. 317.

• Bear, J., Cheng, A.H.-D , Sorek, S., Ouazar, D. and Herrera, I. (1999). Seawater Intrusion in Coastal Aquifers: Concepts, Methods and Practices. Kluwer, Dordrecht.

• Bray, B. and Yeh, W. (2008) Improving seawater barrier operation with simulation optimization in southern California. J. Water Resour. Plan. Manage. pp. 134:171–180

• IPCC (2007) Climate Change 2007: Synthesis Report – Summary for Policymakers. Intergovernmental Panel on Climate Change.

• Kumar, C.P. (2006) Management of Groundwater in Salt Water Ingress Coastal Aquifers. In: Groundwater Modelling and Management (Eds. N.C. Ghosh & K.D. Sharma), Capital Publishing Comp., New Delhi, pp. 541-560.

• McCobb, T.D. and Weiskel, P.K. (2003) Long-Term Hydrologic Monitoring Protocol for Coastal Ecosystems, USGS Open-File Report 02-497.

• McGranahan, G., Balk, D. And Anderson, B. (2007) The Rising Tide: Assessing the Risks of Climate Change and Human Settlements in Low Elevation Coastal Zones. Environment & Urbanization, International Institute for Environment and Development, Vol 19(1), pp. 17–37.

• Pool, M., and Carrera, J. (2010) Dynamics of negative hydraulic barriers to prevent seawater intrusion. Hydrogeology Journal 18: 95–105.

• Saravanan, K., Kashyap, D. and Sharma, A. (2012) Modeling of Scavenger Well System for Skimming Freshwater from Fresh-Saline Aquifers. In: Fifth Int. Groundwater Conf. (IGWC-2012), Dec.18-21, Aurangabad, India

• Sharma, A. (2006) Freshwater-Saltwater Interaction in Coastal Aquifers. In: Groundwater Modelling and Management (Eds. N.C. Ghosh & K.D. Sharma), Capital Publishing Comp., New Delhi, pp. 523-539.

• Todd, D. (1980) Groundwater hydrology, Wiley, Chichester, UK

• USEPA (1999) Salt Water Intrusion Barrier Wells. Volume 20, The Class V Underground Injection Control Study, Office of Ground Water and Drinking Water, EPA/816-R-99-014t, Sept. 1999.

• Weert, F.V., van der Gun, J., and Reckman, J. (2009) Global Overview of Saline Groundwater Occurrence and Genesis. International Groundwater Resources Assessment Centre, Report no. GP 2009-1, Utrecht.

• WB (2010) Implications of Climate Change for Fresh Groundwater Resources in Coastal Aquifers in Bangladesh. Report by World Bank and USGS. South Asia Region, Sustainable Development Department, Agriculture and Rural Development Unit. Document of the World Bank.

Path Alias

/articles/saauraasatara-paraayadavaipa-kae-tataiya-nadai-baesaina-maen-saincaai-anaukauulataa-haetau

Post By: Shivendra
×