साठा धान से उपजा संकट


साठा धान को चैनी धान भी कहते हैं। इस फसल को अधिकांश गर्मी के मौसम में उगाया जाता है। यह धान उसी जगह पर लगाया जाता है जहाँ पानी की अधिकता बहुत ज्यादा रहती है। बारिश न भी हो, तब भी साठा धान धरती का गला सोखकर तैयार हो जाती है। कई राज्यों में साठा धान प्रतिबन्धित है। साठा धान की पूरी फसल की सिंचाई भूजल द्वारा की जाती है, जिससे भूमि का जलस्तर लगातार नीचे गिर रहा है। पीलीभीत जनपद में विगत 5-7 सालों से इस धान का चलन काफी बढ़ा है।

उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र को सबसे गीला माना जाता है। इस क्षेत्र को चावल का कटोरा कहा जाता है। इस इलाके में धान की सबसे ज्यादा पैदावार होती है, लेकिन यहाँ की धरती धीरे-धीरे सूख रही है। मानवीय हिमाकत के चलते धान की पैदावार की आड़ में प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।

तराई क्षेत्र में एक ऐसी फसल उगाई जाने लगी है, जो जमीन के भीतर पानी को सोख रही है। उसका नाम है साठा धान। वहाँ की जमीन उपजाऊ और भूजल स्तर अच्छा होने के कारण यह कृषि के लिये सबसे अच्छी मानी जाती है। जमीन में ज्यादा नमी होने के चलते सभी फसलों का बेहतर उत्पादन होता है। लेकिन फसल माफियाओं ने इस जमीन को बदरंग कर दिया है।

नेपाल सीमा से सटे तराई क्षेत्र का भूजल स्तर पूरे देश से ज्यादा है। तराई में पन्द्रह फीट नीचे पानी तैर रहा है। लेकिन अब इस पानी का दोहन युद्धस्तर पर हो रहा है। यहाँ के लोग साठा धान की उगाई करने लगे हैं। साठा धान की फसल बहुत ज्यादा पानी चाहती है। यह धान जमीन से पानी सोखता है।

जिस भूमि पर यह फसल होने लगती है वहाँ का भूजल स्तर लगातार नीचे खिसकता जाता है। यही हाल इस समय तराई क्षेत्र का हो रहा है। हालांकि प्रशासन ने अब उन किसानों पर नकेल कसनी शुरू कर दी है जो साठा धान की फसलें करते हैं। तराई का क्षेत्रफल हजारों हेक्टेयर में फैला है। इसका काफी हिस्सा उत्तराखण्ड में आता है। केन्द्रीय मंत्री मेनका गाँधी का संसदीय क्षेत्र पीलीभीत का तकरीबन हिस्सा तराई में आता है।

पंजाब और हरियाणा में साठा धान की खेती पर सालों पहले प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, लेकिन उत्तराखण्ड सरकार ने इससे कोई सीख नहीं ली जबकि पूरी गर्मियों में पानी को तरस जाता है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक तराई के 40 फीसदी पाताल तोड़ कुएँ वाले क्षेत्रों में पानी सूख गया है। कभी इन पाताल तोड़ कुओं से बिना पम्प किये ही पानी ऊपर बहने लगता था। साल भर में धान की कई-कई फसलों की खेती की वजह से यहाँ मिट्टी और पानी का सन्तुलन बिगड़ गया है।

उत्तराखण्ड के जिले ऊधमसिंह नगर, जसपुर और काशीपुर में पिछले एक दशक में पानी का स्तर दो से चार मीटर तक नीचे चला गया है। चावल का कटोरा कहे जाने वाले तराई इलाके में यदि यों ही साठा धान की फसलें लहलहाती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब धरती का गला ही सूख जाएगा। तराई में धान की खेती के लिये भूजल दोहन जिस तेजी से हो रहा है उसे देखते हुए धरती के नीचे पानी का स्तर तेजी से नीचे भाग रहा है। समूचा तराई पंजाब और हरियाणा के नक्शे कदम पर चल रहा है।

गर्मी में धान की फसल के लिये पानी का अन्धाधुन्ध दोहन इस पूरे क्षेत्र को एक दिन बेपानी कर देगा। राज्य सरकार ने इस विषय को गम्भीरता से लेना शुरू कर दिया है। जुलाई महीने में सरकार द्वारा गठित एक टीम ने पूरे तराई का दौरा कर स्थिति का जायजा लिया। जब उन्होंने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो पता चला की साठा धान कैसे धरती का गला सुखा रहा है। सरकार ने तराई क्षेत्र में साठा धान की फसल पर प्रतिबन्ध लगाने का मन बना लिया है। तराई क्षेत्र के सभी जिलाधिकारियों को आदेश दिये गए हैं कि किसी को साठा धान न लगाने दिया जाये।

साठा धान को चैनी धान भी कहते हैं। इस फसल को अधिकांश गर्मी के मौसम में उगाया जाता है। यह धान उसी जगह पर लगाया जाता है जहाँ पानी की अधिकता बहुत ज्यादा रहती है। बारिश न भी हो, तब भी साठा धान धरती का गला सोखकर तैयार हो जाती है। कई राज्यों में साठा धान प्रतिबन्धित है। साठा धान की पूरी फसल की सिंचाई भूजल द्वारा की जाती है, जिससे भूमि का जलस्तर लगातार नीचे गिर रहा है। पीलीभीत जनपद में विगत 5-7 सालों से इस धान का चलन काफी बढ़ा है।

जिले की मुख्य तहसील पूरनपुर में 6810 हेक्टेयर में साठा धान की खेती की जा रही है, जिसकी पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इस धान की उपज खरीफ वाले धान की तुलना में कुछ अधिक रहती है। देखा जाये तो साठा धान वैज्ञानिक विधि से भी खेतों के लिये भयंकर हानिकारक है।

एक तो साठा धान के बाद लगातार दूसरी धान की फसल लेने से भूमि की उर्वरकता में काफी कमी आ जाती है और भूमि में आवश्यक उर्वरक तत्वों की कमी भी हो जाती है। साठा धान में कीट एवं रोग कम लगते हैं लेकिन यह धान गर्मियों में लगने वाले कीटों को लगातार भोजन उपलब्ध कराकर खरीफ फसल में लगने वाले कीटों के लिये अधिक अनुकूल वातावरण तैयार कर देता है जिससे मुख्य फसल में कीट और बीमारियाँ ज्यादा लगने लगती हैं।

वैज्ञानिक रिसर्च में भी पाया गया है कि चैनी धान का सबसे अधिक हानिकारक प्रभाव भूजल पर होता है, जिससे जलस्तर नीचे चला जाता है। साठा धान की पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है क्योंकि यह धान गीला होता है और राज्य सरकार द्वारा भी इसका कोई मूल्य निर्धारित नहीं किया जाता है, जिसकी वजह से व्यापारी इस धान को गीला बताकर सस्ते दामों पर खरीद लेते हैं। साठा धान पर उत्तर प्रदेश सरकार की हालिया जारी हुई रिपोर्ट ने सबके कान खड़े कर दिये हैं।

साठा धान के कारण उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्र में भी भूजल निरन्तर नीचे जा रहा है। पहाड़ी इलाकों में पानी की सुविधा के लिये पिछले वर्षों में सड़क के किनारों पर बड़ी-भारी मशीनों से गहराई तक खुदाई करके हैण्डपम्प लगाए गए, लेकिन उनमें से अनेक गर्मियों में पानी नहीं देते। कई तो सूख ही चुके हैं। इनके लगने से आस-पास के गाँव के नौले-धारों का पानी भी घट गया है या सूख गया है।

हैण्डपम्प को जल संरक्षण के उपाय की तरह प्रचारित किया जाता रहा है जबकि मामला इसके ठीक उलट है। उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्र में भी भूजल निरन्तर नीचे जा रहा है और इसका समाधान लोग पहले से ज्यादा गहराई में खुदाई करके पानी खींचकर निकाल रहे हैं। लेकिन कब तक और कितना गहरा? आखिर एक दिन वहाँ से सिर्फ हवा निकलेगी पानी नहीं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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