साथ चलना संभव, चलाने वाला हो

देश की हर नदी का गंगा जैसा हाल है। या तो तिलतिल खत्म हो रही है या खत्म हो चुकी है। इनके किनारे बसे शहर इनका पानी ले रहे हैं। और गंदा पानी इसमें छोड़ रहे हैं। औद्योगिक अपशिष्ट भी इन्हीं में जा रहा हैं। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर नदियों को साफ रखने की नीति नकाफी सिद्ध हुई है। गंगा की शुद्धि का कार्यक्रम भी तभी सफल होगा जब हम प्रदूषण पर नियंत्रण के तरीके बदल लें। नदियों में प्रदूषण को रोकने की कार्य योजना एजेंडा होना चाहिए न कि हर बार की तरह नदी को साफ करना।

इस पर्यावरण दिवस के मौके पर हम नई सरकार के समक्ष पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक एजेंडा पेश कर रहे हैं। पहली बात यह है कि पर्यावरण संरक्षण पर हमें कोरी बयानबाजी से बचना चाहिए।

पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार एक मजबूत कार्ययोजना के साथ बदलाव लाए। इस एजेंडे में वही चीजें प्राथमिकता पर है, जिसकी मांग हम हमेशा से करते रहे हैं- एक समावेशी और टिकाऊ। यह एजेंडा बताता है कि कैसे पर्यावरण और विकास की देखरेख एक साथ की जा सकती है?

शुद्ध हवा मिले


वायु प्रदूषण की बात करें तो भारत एक तरह से टाईमबम पर बैठा हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के मुताबिक विश्व में सबसे ज्यादा प्रदूषित तीस शहरों में से बीस शहर भारत के हैं। विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि प्रदूषण संबंधी बिमारियों पर स्वास्थ्य खर्च डीजीपी का 3 फीसदी है।

इस लिहाज से देश को क्या करना चाहिए? इसकी शुरूआत करने के लिए हमारे देश में 2015 तक भारत स्टेज- चार ईंधन का इस्तेमाल शुरू होना चाहिए उत्सर्जन मानदंड स्थापित होने चाहिए। साफ ईंधन और उत्सर्जन मानदंडों को लेकर एक आधुनिक रोडमैप पेश करना चाहिए। सीएनजी जैसे साफ ईंधन को बढ़ावा देने की नीति बने।

डीजल वाहनों पर कर लगाना चाहिए और शहरों में सस्ते सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने के लिए केन्द्रीय फंडिंग में इजाफा करना चाहिए। ‘मिलियन बस प्रोग्राम’ और राइट टू वाॅक, राइट टू साइकिल जैसें कार्यक्रम लाने चाहिए। निजी वाहनों के इस्तेमाल पर ज्यादा पाबंदी रखनी चाहिए। साथ ही निजी वाहनों के पार्किंग शुल्क में बढ़ोतरी करनी चाहिए।

निगरानी व्यवस्था सुधारो


पर्यावरण स्वीकृतियों को उद्योग विकास में बाधा बताते हैं लेकिन तथ्य यह है कि भारत में पर्यावरणीय कारणों से बहुत कम परियोजनाओं को रोका जाता है। पर्यावरण संबंधी शर्तों की पालना की निगरानी में कोताही का अर्थ यह है उद्योग लगाने वाला बिना बाधा में कितना भी प्रदूषण फैला सकता है।

नई सरकार को पर्यावरण प्रबंधन व्यवस्था एवं पर्यावरण स्वीकृति प्रक्रिया में सुधार लाना चाहिए ताकि लोगों की चिंताएं दूर की जा सके। इसके लिए पर्यावरण, वन, तटीय इलाके, वनीय जीव सभी तरह की स्वीकृतियों को एक साथ तलब किया जाए ताकि परियोजना के संपूर्ण असर के आकलन के आधार पर निर्णय हो सके।

अनेक नियंत्रकों की जगह पर्यावरणीय स्वीकृति के लिए एक ही स्वतंत्र संस्था बनाई जाए और स्वीकृति के समय लगाई गई शर्तों के संबंध में निगरानी के लिए राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण मंडलों के संसाधनों का उपयोग किया जाए।

परियोजनाओं की स्वीकृति के बजाए परियोजनाओं की निगरानी पर अधिक ध्यान दिया जाए। साथ ही नियम-कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए संस्थाओं में सुधार किया जाए। स्वीकृति की प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनाया जाए।

वन अधिकर कानून फेज दो...


इस कानून का मुल लक्ष्य गरीब-से-गरीब व्यक्ति को जीवनयापन एवं खाद्य सुरक्षा देना था। सात वर्ष बाद भी कानून अपने लक्ष्य से दूर है। नई सरकार को इसी भाव के साथ इसे अपने विकास एजेंडे में शामिल करना चाहिए और समुदायिक वन अधिकार एवं वन संपोषण को आधार बताते हुए कानून का द्वितीय चरण लागू करना चाहिए।

सभी तरह की वन उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर वनों में रह रहे लोगों को वन उपज का लाभ पहुंचाना चाहिए।

स्वस्थ नदियां चाहिए


देश की हर नदी का गंगा जैसा हाल है। या तो तिलतिल खत्म हो रही है या खत्म हो चुकी है। इनके किनारे बसे शहर इनका पानी ले रहे हैं। और गंदा पानी इसमें छोड़ रहे हैं। औद्योगिक अपशिष्ट भी इन्हीं में जा रहा हैं। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर नदियों को साफ रखने की नीति नकाफी सिद्ध हुई है।

गंगा की शुद्धि का कार्यक्रम भी तभी सफल होगा जब हम प्रदूषण पर नियंत्रण के तरीके बदल लें। नदियों में प्रदूषण को रोकने की कार्य योजना एजेंडा होना चाहिए न कि हर बार की तरह नदी को साफ करना। नदियों एवं सहायक नालों में परिस्थितिकीय बहाव को अनिवार्य किया जाए। परिशोधित पानी का पुनः प्रयोग सुनिश्चित किया जाए या फिर सीधे नदी में छोड़ जाए ताकि वह डाइल्यूट हो जाए। जल एवं स्वच्छता के संबंध में वाहनीय उपायों को खोजा जाए।

कचरे का पृथकीकरण कर उसकी उपयोगिता ढूंढी जाए। यह ध्यान रखा जाए कि औद्योगिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए नियम-कानूनों का सख्ती से पालन होनी चाहिए और लघु उद्योगों के लिए उचित तकनीकी विकसित होनी चाहिए। राष्ट्रीय स्वच्छता कार्यक्रम को भी प्राथमिकता मिले।

ग्रामीण विकास


ग्रामीण विकास के कार्यक्रम तो चल रहे हैं। चुनौती इस मद में पूर्ववर्ती सरकार के बजट प्रावधानों को बनाए रखना और सही लोगों तक इन कार्यक्रमों के फायदे पहुंचाना है। सरकार को मनरेगा में सुधार कर इसके तहत संपतियां खड़ी करनी चाहिए ताकि लोगों का श्रम किसी काम आए।

पर्यावरण संरक्षण एवं जल संग्रहण के लिए मनरेगा का उपयोग होना चाहिए। नई सरकार को परियोजनाओं की स्वीकृति के आगे सोचना चाहिए। सरकार को वायु एवं जल प्रदूषण रोकने, स्वच्छता, वनों एवं जलाशयों के संवर्द्धन और क्लीन एनर्जी मुहैया करवाने का अधिक ध्यान देना चाहिए।

अक्षय ऊर्जा पर अधिक काम


देश में 30.6 करोड़ लोगों (अधिकतर गांव में) तक बिजली की पहुंच नहीं है। ऊर्जा संकट की समस्या से तो निपटना है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन देश में कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है। नई सरकार को ऊर्जा सुरक्षा और इसके मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर असर के बीच सामंजस्य बैठाना होगा। इसके लिए कुछ सुझाव हैः

(अ) सरकार को वर्ष 2019 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार को न्यूनतम एक यूनिट बिजली पहुंचाने का लक्ष्य तय करना चाहिए।
(ब) बारहवीं पंचवर्षी योजना के पूरा होने तक अक्षय ऊर्जा का हिस्सा 3 से बढ़ाकर 25 प्रतिशत करने के लिए नीति बननी चाहिए।
(स) मिनी ग्रीडों के माध्यम से ऊर्जा उत्पाद के विकेन्द्रीकरण की नीति तैयार होनी चाहिए।
(द) रूफटॉप सोलर ऊर्जा के लिए नीति बनाई जाए ताकि लोग घरों की छतों के माध्यम से ही इस ऊर्जा क्रांति में शामिल हो सकें।

(चंद्रभूषण, अनुमिता राय चौधरी एवं रिचर्ड महापत्र के इनपुट के साथ)

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