शास्त्रों में पर्यावरण चेतना

बढ़ती हुई आबादी भी भोगवादी जीवन का ही परिणाम है, जिसके नियंत्रण के साथ-साथ मनुष्य को एक बार फिर से प्रकृति की ओर लौटने की आवश्यकता है। यदि मनुष्य आवश्यक संसाधन ही प्राप्त करे और सामान्य जीवन जिए तो पर्यावरण का इतना विनाश नहीं होगा, जितना अभी हो रहा है। यदि पृथ्वी को जीवनरहित नहीं करना है तो पेड़-पौधों को देवों का स्थान पुनः देना ही होगा। चतुर्दिश अवलोकन करने पर जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, वह सब पर्यावरण के अंतर्गत आता है। पर्यावरण के लिए अंग्रेजी शब्द ‘इन्वायरमेंट’ (environment) प्रयुक्त किया जाता है, जो फ्रेंच भाषा के इनवाइरन शब्द से बना है, जिसका अर्थ है आस-पास का वातावरण। परि + आवरण, अतः पर्यावरण परिस्थितियों एवं पदार्थों का ऐसा समुच्चय है, जो जीवधारियों के पालन-पोषण में मुख्य भूमिका करता है। इसमें, अंतरिक्ष, ग्रह-नक्षत्र, रात-दिन, जल, अग्नि, पृथ्वी वायु, वनस्पतियां, पहाड़, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और जाड़ा-गर्मी आदि समग्र वस्तुएं सम्मिलित हैं।

पर्यावरण में प्रमुखतः दो तरह के तत्व विधामान है-


1. जैव तत्व समूह तथा
2. अजैव तत्व समूह।

जैव तत्व समूह में वनस्पति, जीव-जंतु, मानव तथा सूक्ष्म जीव आते हैं, जबकि अजैव तत्व समूह के अंतर्गत सूर्य, प्रकाश ऊर्जा, तापमान,पर्वत, सागर, झील, नदी, भूमिगत जल, मृदा जल, मृदा वायु धात्विक एवं अधात्विक खनिज चट्टाने आदि आते हैं।

एक संतुलित पर्यावरण में ये सभी तत्व समुचित मात्रा में पाए जाते हैं, जब एक या अधिक तत्वों की मात्रा पर्यावरण में अधिक हो जाती है या वातावरण में विषैले तत्वों की मात्रा बढ़ जाता ही, तब वह पर्यावरण जीवधारियों के जीवन के लिए संकट उत्पन्न करने लगता है। पर्यावरण में होने वाला यही घातक परिवर्तन पर्यावरण प्रदूषण के नाम से जाना जाता है।

प्रदूषण के कारण


प्रदूषण बढ़ने के मुख्य कारण-बढ़ती जनसंख्या, कटते वन, विकास हेतु बढ़ते कल-कारखाने, निवास, फसल उगाने, साज-सज्जा हेतु वनों की निर्मम कटाई, आवागमन हेतु धुआं उगलते वाहन, नदियों, समुद्रों में आबादी के मल-मूत्र, कूड़ा-कचरा, शव विसर्जन, कल-कारखानों के अपशिष्ट परमाणविक परीक्षण, विद्युत उत्पादन में कोयले का दहन, वनों की आग, आबादी के भोजन निर्माण में प्रयुक्त पेट्रोलियम ईंधन, जीवित ज्वालामुखी, भूकंप, हवा में मिले धुल के कण, कृषि कार्य में प्रयुक्त रासायनिक कीट-पीड़, खरपतवार नाशक नाभिकीय रेडियोधर्मी प्रदूषण, नाभिकीय अस्त्र-शस्त्र, उत्खनन, त्योहारों पर की जाने वाली आतिशबाजी, ध्वनि विस्तारक यंत्र, दुर्घटनाएं आदि हैं।

मनुष्य अपने पर्यावरण में जन्म लेता है, उसी में विकास करता है और समय पाकर तिरोहित होता है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंचरचित यह अधम शरीरा- पृथ्वी, अग्नि, आकाश, वायु, जल से मिलकर मनुष्य का शरीर बना है। प्रकृति में प्रचुर मात्रा में प्राण वायु, पेयजल उपलब्ध है। पृथ्वीवासियों के जीवनदाता भुवन भास्कर सदैव ऊर्जा और प्रकाश देते रहते हैं, पृथ्वी वनस्पतियों से परिपूर्ण है, अभी पचास वर्ष पूर्व तक आबादी के मुकाबले ये संसाधन कई गुना अधिक थे। पर्यावरण संतोषजनक था, किंतु अब विश्वभर में गंभीर चिंता का विषय बन गया है।

हमें अपनी संस्कृति, सभ्यता, प्राचीन इतिहास आदि का ज्ञान, अपने प्राचीन शास्त्रों से प्राप्त होता है। हिंदू धर्मशास्त्रों में पर्यावरण चेतना के स्वर बार-बार मुखरित होते हैं।

हमारे धर्मशास्त्रों में सभी ग्रहों, नक्षत्रों, चांद-तारों, सूर्य, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश, वनस्पतियों को देवों का स्थान प्राप्त है। सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में इन सबकी स्तुतियां की गई हैं। जल के देव वरुण हैं, इंद्र इन सबके राजा हैं, जो जल बरसाते हैं, मेघों को धरती पर भेजते हैं, जिससे पृथ्वी पर जीव-संसार जीवन पाता है। बरगद, पीपल, नीम, आंवला, तुलसी, दौना आदि पेड़े-पौधे ईश्वर की भांति पूजित हैं। इनकी महिमा का गान हर धर्मशास्त्र करता है। नदियों को पवित्र मानकर उनकी भी पूजा की जाती है। स्नान पर्वों पर करोड़ों की संख्या में लोग गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी में पुण्य स्नान करते हैं।

त्रेतायुग का वर्णन करने वाला प्रमुख धर्म-ग्रंथ रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस तो जैसे पर्यावरण चेतना के ही ग्रंथ हैं। इनमें बार-बार प्रकृति से एक्य स्थापित होते देखा जाता है। यूं भी मनुष्य का अधिकांश जीवन वनों के संसर्ग में ही व्यतीत होता था। आयु के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्चर्याश्रम, वनों में घूमते, पेड़-पौधे लगाते, फल-फूलों पर जीवन-निर्वाह करते, गुरू से शिक्षा प्राप्त करते व्यतीत होते, बाद में 25 वर्ष भी शास्त्र लेखन, आश्रम संचालन, प्रकृति रक्षण में व्यतीत होते थे, तपस्या वनों में, सजा वनों में, शिक्षा वनों में अर्थात् मानव-जीवन और प्रकृति को अलग-अलग करके देखना असंभव जैसा ही था। मनु शतरूपा ने बन में तपस्या कर ईश्वर को पुत्र रूप में पाने का वरदान पाया। यज्ञ रूप पर्यावरण शोधन के फलस्वरूप राजा दशरथ ने राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को प्राप्त किया। चारों भाइयों ने गुरू वशिष्ठ के आश्रम में पेड़-पौधों, फूलों के सान्निध्य में शिक्षा प्राप्त की। यज्ञ द्वारा वायु की शुद्धता को बनाए रखने वाले ऋषियों के कार्य में विघ्न उत्पन्न करने वाले राक्षसों-ताड़का, सुबाहु, मारीच आदि का वध कर राम ने विश्वामित्र का यज्ञ पूर्ण कराया। जनकपुर जाते हुए गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को नई चेतना देकर पुनर्जीवित किया, अहिल्या को शाप दे गौतम ऋषि अन्यत्र चले गए थे, जिसके कारण आश्रम के पेड़-पौधे, पुष्प, लताएं सब उजड़ से गए थे, अहिल्या को चैतन्य कर प्रभु श्रीराम ने पर्यावरण की रक्षा की। आगे जीवनदायिनी गंगा की स्तुति एवं महत्व पर प्रकाश डाला। राजा जनक की पुष्पवाटिका सीता-राम के प्रथम दर्शन का कारण बनी, श्रीराम अपने गुरू की पूजा हेतु पुष्प चयन करने आए थे, सीताजी भवानी पूजन हेतु सखियों के साथ पधारी थीं।

श्रीराम ने देखा-

लागे विटप मनोहर नाना, बरन-बरन बर बेलिबिताना।
नव पल्लव फल सुमन सुहाए, निज संपत्ति सुर रुख लजाए।।
चातक कोकिल कीर चकोरा, कूंजत विहक नटत कल मोरा।
मध्य बाग सरू सोह सुहावा, मनि सोपान विचित्र बनावा।।


विमल सलिलु सरसिज बहुरंगा, जल खग, कूंजत गुंजत भृंगा-सखि मुख से श्रीराम-लक्ष्मण की शोभा का वर्णन सुन सीताजी दर्शन हेतु अधीर हो जाती हैं, तब का प्रकृति चित्रण-

लता भवन ते प्रगट भे ते ही अवसर दोऊं भाई।
निकसे जनु जुग विबुध विधु जलद पटल बिगलाई।।


चित्रकूट में हो अथवा पंचवटी में, जहां-जहां राम ने पर्णकुटि बनाई, लक्ष्मण, सीता ने पेड़-पौधे, फुलवारी लगाई और उनका संरक्षण किया। नदी से जल लाकर स्वयं जनकनंदिनी अपनी वाटिका का सिंचन करती थीं। श्रीराम ने पर्यावरण के अभिन्न अंग जीव-जंतुओं से भी आत्मीयता का व्यवहार किया। जटायु ने इसी मित्रता की लाज रखते हुए वैदेही को रावण से बचाने के लिए प्राणाहुति दे दी। प्रभु ने उसका अंतिम संस्कार अपने पिता की भांति श्रद्धापूर्वक किया (गिद्ध पर्यावरण स्वच्छ करने वाला महत्वपूर्ण प्राणी है)। जब मारीच की आर्त्त पुकार सुनकर वैदेही ने मर्म वचन कहकर लक्ष्मणजी को कुटिया से जाने को विवश किया, तब वे सीताजी को प्रकृति देव के संरक्षण में रखकर गए। यथा-

वन दिशि देव सौंपि सब काहू, चले जहां रावन शशि राहू।

सीता-हरण के पश्चात् राम एक-एक लता, पशु व पक्षी से सीताजी का पता पूछते हैं-

हे खग-मृग हे मधुर श्रेणी, तुम देखी सीता मृग नैनी।

रिष्यमूक पर्वत पर रहते हुए सीताजी के विरह में श्रीराम प्रकृति से स्वयं को अभिन्न अनुभव करते हैं। उनसे बाते करते हैं-

घन घमंड गरजत नभ घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा।

पर्यावरण के माध्यम से शिक्षा दी गई है-
बूंद-बूंद करि भरई तड़ागा, जिमी सद्गुण सज्जन पहिआवा।
कृषि निरावही चतुर किसाना, जिमि बुध तजही मोह मद नाना।।
बूंद आघात सहईं गिरी कैसे, खल के वचन संत सह जैसे।


अपहरण के पश्चात् अशोक वन में रावण सीता को तरह-तरह से अपने अनुकूल करने की कोशिश करता है, तब वे कहती हैं-

तृण धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरी अवधपति परम सनेही।

तिनके को अपना भाई समझकर (सीता धरती की पुत्री और तिनका पुत्र है), सीताजी उसकी ओट से रावण को फटकार लगाती हैं-

रे दस मुख खद्योत प्रकाशा, कबहू की नलिनी करई विकासा।

रावण द्वारा एक मास का समय दिए जाने पर, सीताजी प्रकृति को अपनी सहचरी मान उससे ही अपना दुःखड़ा कहती हैं-

देखियत प्रगट गगन अंगारा, अवनी न आवत एकौ तारा।

या फिर-
पावकमय शशि स्रवत न आगी, मानहूं मोहि जानि हतभागी,
सुनही विनय मम विटप अशोका, सत्यनाम करूं हरु गम शोका।
नूतन किसलय अनल समाना, देहि अगिनी जनि करहि निदाना।।


हनुमान जी लंका में पहुंचकर पर्वत से लंका की शोभा देखते हैं, जो वनों, बागों, उपवनों और तड़ागों से सुसज्जित है। तुलसी के पौधे को देखकर ही हनुमानजी विभीषण को हरिभक्त के रूप में पहचानते हैं। शक्तिसंपन्न होते हुए भी श्री राम विभीषण से वह मार्ग पूछते हैं, जिससे समुद्री जीव-जंतुओं को हानि पहुंचाए बिना, सेना सहित समुद्र पार हो सकें। भाई लक्ष्मण उनकी इस विनय से रुष्ट होकर कहते हैं कि अग्निबाण द्वारा समुद्र को सुखा दीजिए, भाग्य भरोसे तो आलसी बैठते हैं। परंतु मछली, मगर, कछुए, प्रवाल, सर्प आदि असंख्य जीवों को नष्ट होने से बचाने हेतु श्रीराम ने समुद्र की पूजाकर उसे सम्मुख आने पर विवश किया एवं सेतु बंधन का कष्टसाध्य, किंतु सर्वजन कल्याणकारक मार्ग का अनुसरण किया। लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने में हिमालय की संजीवनी बूटी काम आती है। अयोध्या से निष्कासन के बाद सीताजी पुनः अपने पुत्रों-लव एवं कुश के साथ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में वास करती हैं और अंत में पृथ्वी में समाहित होकर पंचतत्व में विलीन हो जाती हैं।

श्री कृष्ण ने मथुरा नगर में जन्म लेकर गोकुल में अपना बाल्यकाल व्यतीत किया। गेंद के बहाने कालीदह में कूदकर अपने विष से यमुना जल को प्रदूषित करने वाले कालियानाग का दमन किया। यह जल शोधन का उदाहरण है। कदंब की डाल, करील की झाड़ियां, फूल-पत्तों का सिंगार, रासलीला, यमुना-स्नान आदि सभी प्रकरण पर्यावरण के प्रति व्यक्तियों को सचेत करते हैं।

महाभारत युद्ध के पश्चात् पांडवों द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन वास्तव में वायु शोधन का उपक्रम था।

कार्तिक माह में प्रातः स्नान कर तुलसी की पूजा करने वाली पटरानी सत्यभामा के आंगन में ही स्वर्ग के नंदन कानन से जीतकर लाया गया पारिजात वृक्ष लगाया गया था, ये कुछ उदाहरण हैं कि धर्मशास्त्रों का हर पृष्ठ पर्यावरण चेतना का संदेश देता है। कहा गया है कि एक वृक्ष दस पुत्रों के समान होता है, इसी क्रम में-

‘जो नर-नारी वृक्ष लगावही, सो चारों धाम फल पावहीं।’

हमारे ऋषि-मुनियों ने धर्म द्वारा अशिक्षित जन को पर्यावरण के प्रति सचेत करने का सफल विधान रचा है। पीपल के वृक्ष में मूल ब्रह्मा, तना विष्णु, पत्रे देव महेश्वर बताए गए हैं, अब तो सिद्ध हो गया है कि पीपल की ऊंची शाखाएं बादलों को अपने में उलझाकर वर्षा में सहायक होती हैं। ऑक्सीजन निर्माण, शीतल छाया, पक्षियों का आश्रय, पथिकों को विश्रांति देने वाला पीपल वृक्ष पूजा का आश्रय है, उसे कौन नहीं बचाएगा। इसी प्रकार नीम, तुलसी एवं आंवले की उपयोगिता कहने या लिखने की आवश्यकता नहीं है। पंच महायज्ञों के माध्यम से जन-जन में पर्यावरण चेतना का विकास किया गया है।

पूजा की वस्तुएं वस्तुतः पर्यावरण सुरक्षा का ही माध्यम हैं। फूल, पत्ते, मौसमी फल, दुर्वा इनकी आवश्यकता के मद्देनजर इन्हें लगाया भी जाएगा। दुर्वा भू-क्षरण रोकने का सशक्त माध्यम है, पत्र-पुष्पों से वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा संतुलित रहती है। शुद्ध जल ही देवता को चढ़ाया जाता है। नदियों की भी पत्र-पुष्प, दुग्ध, अक्षत आदि से पूजा की जाती है, इन्हें खाकर जलचर अपने जीवन-निर्वाह के साथ जल-शोधन भी करते हैं।

प्रश्न उठता है कि हमारे ऋषि-मुनियों के प्रयास के पश्चात् भी इतना प्रदूषण कैसे फैल गया?

इसका कारण पिछले सौ वर्षों से धर्म का ह्रास ही है। कुछ पाश्चात्य संस्कृति के अंधे भक्त पूजा-पद्धति को पाखंड कहकर उसका उपहास उड़ाते हैं। कथा सुनी भी तो जो उनके अनुकूल हुआ, उसी पर ध्यान देते हैं। हमारे यहां तो सांप की उपादेयता को समझकर ही (चूहों को खाकर कृषक की मदद करता है) उसे शंकरजी का आभूषण बनाया गया होगा, किंतु लोग हमें सपेरा कहने की धृष्टता कर बैठते हैं। सिंह, वृषभ, महिष, गर्दभ, अश्व, मयूर, कुत्ता, उल्लू आधि शक्तिशाली देवताओं के वाहन हैं, अर्थात् उनके द्वारा संरक्षित, पोषित, पालित और बहु उपयोगी हैं, इसलिए लोग इनके प्रति सहज भक्ति भाव रखते आए हैं। पक्षियों के लिए दाना-पानी रखना, गाय व कुत्ते को रोटी देने की अनिवार्यता जिसे पाप-पुण्य से जोड़ा गया है, वस्तुतः पर्यावरण संचेतन ही है।

बढ़ती हुई आबादी भी भोगवादी जीवन का ही परिणाम है, जिसके नियंत्रण के साथ-साथ मनुष्य को एक बार फिर से प्रकृति की ओर लौटने की आवश्यकता है। यदि मनुष्य आवश्यक संसाधन ही प्राप्त करे और सामान्य जीवन जिए तो पर्यावरण का इतना विनाश नहीं होगा, जितना अभी हो रहा है। यदि पृथ्वी को जीवनरहित नहीं करना है तो पेड़-पौधों को देवों का स्थान पुनः देना ही होगा। भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर हिरण्यक्ष द्वारा विष्ठा में डुबाई गई पृथ्वी को निकालकर उसका वध कर दिया था, अर्थात् उस समय भी पृथ्वी असह्य प्रदूषण युक्त हो गई थी, जिसे स्वच्छ करने विश्व नियंता को वाराह जैसा निम्न श्रेणी का जीव बनना पड़ा। प्रकारांतर में वाराह जैसे घृणित प्राणी की अतुलनीय सेवा का ध्यान रखकर ही उसे भी पूज्य माना गया है। गो-वंश पूजनीय एवं पालनीय माना गया है। गो-वंश से अमृत तुल्य दुग्ध तो मिलता ही है, उसके गोबर-मूत्र से जो जैविकीय उर्वरक प्राप्त होता है, वह पृथ्वी के पोषण हेतु अमृत-तुल्य होता है। रासायनिक उर्वरकों से होने वाली हानि से हम सभी परिचित हैं। जैविकीय उर्वरक एवं जैविकीय कीटनाशक पर्यावरण की सुरक्षा करते हुए, अपना कार्य कर पृथ्वी को हरी-भरी बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इस उपकार के फलस्वरूप ही हमारे गणेशजी गाय के गोबर से बनते हैं, जिसके बिना कोई पूजा सफल नहीं होती। गौ, गंगा, तुलसी-पत्र के बिना किसी देव की पूजा संपन्न नहीं होती।

अतः हम कह सकते हैं कि हमारे धर्माशास्त्र जीवन और पर्यावरण की शिक्षा देने वाले महान् ग्रंथ हैं और इनके हर पृष्ठ में पर्यावरण चेतना का संकेत प्राप्त होता है।

बिलासपुर (छ.ग.)

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