शास्त्रों की दृष्टि में प्रदूषण का स्वरूप

यो भूतं च भव्यं च सर्व यश्र्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रहाम्णे नमः।।

-अथर्ववेद 10/8/1

इस वैदिक स्तुति में ब्रहा को ज्येष्ठ, भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के जगत् का अधिष्ठाता-नियंता मानते हुए नमन किया गया है, उसका स्वरूप केवल स्वः अर्थात् विशुद्ध अनंत आनंद बताया गया है। इसी प्रकार की अन्य स्तुतियों में भी विशुद्धता के आधार पर ब्रह्म की श्रेष्ठता स्थापित की गई है। ऋग्वेद के 10वें मंडल में 129वें सूक्त के प्रथम सात मंत्र, जो ‘नासदीय-सूक्त’, ‘सृष्टि-सूक्त’ अथवा ‘सृष्टियुत्पत्ति-सूक्त’ के नाम से जाने जाते हैं, सृष्टि के मूल-तत्व, गूढ़ रहस्य तथा सृष्टि की रचना जैसे गंभीर विषय से संबंधित हैं।

आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यत्र परः किं चनास।
-ऋग्वेद, 10/129/2

से स्पष्ट किया गया है कि ‘महाप्रलय के समय’ वायु से रहित उस दशा में एकमात्र ब्रह्म ही अपनी शक्ति के अनुप्राणित हो रहा था, उससे परे या भिन्न कोई और वस्तु नहीं थी। सृष्टि-सर्जना के संकल्प से स्वतः आर्विभूत इस तत्व को चारों ओर से जल ने घेर लिया और सत्-असत् के रूप में द्वंद्व प्रस्फुटित हुआ। इसी के एक अंश ‘रेतोधा’ और दूसरे अंश ‘महिमा’ में परस्पर आकर्षण के फलस्वरूप स्वाभाविक सृष्टि का अस्तित्व उपस्थित है। वेद में आए ‘स्वधा’ शब्द का अर्थ माया है, जो शक्तिमान में रहती है और स्वतंत्र न होने के कारण उसकी कोई सत्ता नहीं है। इसी माया से संयुक्त होकर ब्रह्म ने जीव का रूप धारण किया है। किंतु यह अत्यंत गूढ़ विषय है और प्रस्तुत प्रसंग में इतना संकेत ग्रहण करना ही पर्याप्त है कि ‘विशुद्धता’ के साथ माया का संयोग सृष्टि की रचना का प्रमुख हेतु है। नव-सृजन के उद्देश्य से जिस प्रकार दूध में जामन की अति-अल्पमात्रा ग्राह्य है, उसी प्रकार सत् के साथ असत् तथा अन्य ऐसे ही द्वंद्वों का परस्पर संयोजन मान्य किया जाता रहा। धीरे-धीरे संयोजनों की इस स्वतंत्रता ने स्वच्छंदता का रूप धारण कर लिया, जिसकी परिणति ‘प्रदूषण’ के रूप में हुई।

वस्तुतः प्रदूषण हानिकारक तत्वों के उत्सर्जन से उत्पन्न होता है और यह उत्सर्जन मानवीय अथवा जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक है। प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार सूर्य की ऊर्जा इन हानिकारक तत्वों का नाश करती है, किंतु इसकी भी अपनी निश्चित सीमा है। औद्योगिकरण तथा संश्लेषित पदार्थों के उपयोग आदि की आपाधापी से प्राकृतिक व्यवस्था का संतुलन नहीं रह पाता और निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए सार्वजनिक हित को दांव पर लगा दिया जाता है। प्राकृतिक संतुलन का ध्यान न रखते हुए, मौलिक पंच तत्वों की सात्विकता नष्ट करने वाला प्रत्येक कार्य प्रदूषण को जन्म देने वाला होता है।

विकास के प्रयासों में जाने-अनजाने जल, वायु, मृदा, ध्वनि तथा नाभिकीय ऊर्जा आदि की विशुद्धता को प्रभावित करने वाला प्रत्येक कार्य प्रदूषण को उत्पन्न करता है।

प्रदूषण को मुख्य रूप से ‘स्थानीय प्रदूषण’ तथा ‘वैश्विक प्रदूषण’ जैसे भागों में व्यक्त किया जा सकता है। प्राचीन समय में घरेलू उपयोग में कोयले के धुएं आदि को ही ‘स्थानीय प्रदूषण’ के रूप में देखा जाता था, किंतु वर्तमान विश्व की गतिविधियों, नाभिकीय परीक्षण एवं विकिरण, उद्योगों तथा वाहनों के उत्सर्जन से उत्पन्न ओजोन परत संकट, ध्वनि प्रदूषण के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव तथा जल प्रदूषण जनित बीमारियों ने ‘वैश्विक प्रदूषण’ का रूप ले लिया है, जो विश्व जन की स्वाभाविक चिंता का विषय बना हुआ है। क्लोरो-फ्लोरो कार्बन से आहत ओजोन-परत, सूर्य से आने वाले हानिकारक विकिरणों को रोकने में अक्षम होकर अपना उत्तरदायित्व पूरा करने में सफल नहीं है। प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार खाद्य-श्रृंखला जैसी कड़ियां विभिन्न घटकों में समन्वय करते हुए प्रदूषण का विस्तार रोकती रही हैं। सूर्य की ऊर्जा ग्रहण करने के लिए ‘प्रकाश संश्लेषण’ की क्रिया का महत्वपूर्ण स्थान है। ऊर्जा का एकमात्र स्रोत होने के कारण सूर्य ही संपूर्ण को ऊर्जा प्रदान करता है, किंतु पौधों में उपस्थित क्लोरोफिल अन्य प्राणियों में उपलब्ध नहीं होता, जिसके बिना वे सूर्य की ऊर्जा सीधे प्राप्त नहीं कर सकते और खाद्य श्रृंखला का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार मानव के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पेड़-पौधों की अनिवार्यता है। पेड़-पौधों के लिए जल तथा मृदा की उर्वरा-शक्ति महत्वपूर्ण है और सृष्टि के अन्य घटक भी परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। संपूर्ण तंत्र में से किसी छोटे-से-छोटे घटक की अनुपस्थिति अथवा अशुद्धि स्वाभाविक प्रक्रिया के संचालन में समर्थ नहीं होती और समग्र रूप में प्रदूषण का प्रभाव उपस्थित बना रहता है। स्कॉटलैंड के विज्ञान लेखक रॉबर्ट चैंबर्स का मत है कि ‘वन नष्ट होते हैं तो जल नष्ट होता है, पशु नष्ट होते हैं, उर्वरता विदा ले लेती है और तब ये पुराने प्रेत एक के पीछे एक प्रकट होने लगते हैं- बाढ़, सूखा, आग, अकाल और महामारी।’

‘प्रदूषण’ का स्वरूप समझने के लिए इसके विभिन्न रूपों-ध्वनि, जल, वायु एवं मृदा के बारे में संक्षिप्त चर्चा करना उचित होगा।

ध्वनि प्रदूषण


निश्चित अनुपात की आवृत्ति से युक्त ध्वनि, जब घटते या बढ़ते क्रम में उत्पादित होती है तो स्वाभाविक रूप से कर्णप्रिय होकर संगीत के रूप में जानी-पहचानी जाती है। इसके विपरीत किसी अनुशासन या नियम से अनाबद्ध ध्वनि, जिसे मात्र शोर या कोलाहल के रूप में जाना जाता है, ध्वनि-प्रदूषण को जन्म देती है। मनुष्य बिना किसी असुविधा के जो शोर सह सकता है, उसकी अधिकतम सीमा 80 डेसिबल है। इसके अधिक शोर में लंबे समय तक रहने से सुनने की शक्ति खत्म होने लगती है। अत्यधिक तीव्रता के पटाखों की आवाज भी सुनने की शक्ति पर विपरीत प्रभाव डालती है। वेदों में कहा गया है कि हम स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक तीखी ध्वनि से बचें, आपस में वार्ता करते समय धीमा एवं मधुर बोले-

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत श्वसा।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं बदत भद्रया।।

-अथर्ववेद, 3/30/3

अर्थात् ‘भाई-भाई से, बहन-बहन से अथवा परिवार में कोई भी एक-दूसरे से द्वेष न करे। सब सदस्य एकमत और एकव्रती होकर आपस में शांति से भद्र-पुरुषों के समान मधुरता से बातचीत करें।’

एक अन्य स्थान पर लेख है-
जिह्वाया अग्रे मधु में जिह्वमूले मधूलकम्।
ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।

-अथर्ववेद, 1/34/2

पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की धातुएं ही नहीं, जल, कंद-मूल आदि खाद्यान्न भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं, जिसका लाभ उठाते हुए वर्तमान में हम अपनी माता पृथ्वी से न्याय नहीं कर रहे हैं। अंधाधुंध शहरीकरण, औद्योगीकरण के लिए वनों की तेजी से कटाई की जा रही है। मिट्टी ढीली पड़ती जा रही है, खेत अनुपजाऊ हो रहे हैं, जल-जमाव के फलस्वरूप दलदल (वाटर लॉगिगं) पनप रही है। वनों की कमी से वर्षा भी अनियमित होने लगी है और यदि समय रहते उचित व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की गई तो स्थित की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

अर्थात् मेरी जीभ से मधुर शब्द निकले। भगवान् का भजन-पूजन कीर्तन करते समय मूल में मधुरता हो। मधुरता मेरे कर्म में निश्चय से रहे। मेरे चित्त में मधुरता बनी रहे।

वेदों के अतिरिक्त अन्य आर्ष ग्रंथों से भी ध्वनि प्रदूषण के उल्लेख मिलते हैं, किंतु बहुधा औद्योगिक क्षेत्र की विभिन्न अवांछित ध्वनियों को ही ध्वनि-प्रदूषण का कारण माना जाता रहा है। सामान्य जन-जीवन में ध्वनि की तीव्रता के प्रति संवेदनशील जागरूकता के बेहतर परिणाम हो सकते हैं और परस्पर वार्तालाप, टी.वी. व म्यूजिक सिस्टम की धीमी आवाज, वाहनों के हॉर्न, ध्वनि विस्तारक यंत्रों व पटाखों का सम्यक् उपयोग करते हुए इस संबंध में बनाए गए नियम-कायदों का पालन किया जाना सबके हित में होगा।

जल प्रदूषण


मानव तथा जीवधारियों के लिए खतरनाक तत्व जब झीलों, नदियों, समुद्र या अन्य जल भंडारों में पहुंचते हैं तो जल में घुलकर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। सहज प्रवाही गुण के कारण जल के प्रवाह से ये प्रदूषक तत्व एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंचने में सफल हो जाते हैं। इतना ही नहीं जल के साथ जीवधारियों के पाचन-तंत्र में पहुंचकर कई गंभीर बीमारियों का कारण बनते हैं। घरेलू कचरे, रासायनिक पदार्थों के धारक बर्तनों का जल-विसर्जन तथा साबुन-डिटर्जेंट की जल में निकासी के साथ-साथ उद्योगों के उच्छिष्ट आदि से जल प्रदूषण की स्थिति सतत् बनी रहती है, जिसका प्रभाव मनुष्य के साथ-साथ जानवरों, जल-जंतुओं, पक्षियों के साथ-साथ कृषि एवं वन क्षेत्र पर भी होता है। गंभीर प्रकृति के इस प्रदूषण से जल की शाश्वत शुद्धता तथा उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है।

वेदों में जल की महत्ता पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। प्राणिमात्र के रक्षक तथा दिर्घायु प्रदान करने वाले भाव निम्न ऋचा में स्पष्ट हैं-

शं नो देवीरभिष्टय आपो भवंतु पीतये।
शं योरभि स्त्रवंतु नः।।

- ऋग्वेद, 10/9/4

अर्थात् सुखमय जल हमारे अभीष्ट की प्राप्ति के लिए तथा रक्षा के लिए भी कल्याणकारी हो। जल हम पर सुख-समृद्धि की वर्षा करे।ऋग्वेद की ही अन्य ऋचा के अनुसार कृषि-कर्म में जल का महत्व दर्शाया गया है-

तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वय।
आपो जनयथा च नः।।

-ऋग्वेद, 10/7/3

अर्थात हे जल! तुम अन्य की प्राप्ति के लिए उपयोगी हो। तुम पर जीवन तथा नाना प्रकार की औषधियां, वनस्पतियां एवं अन्य आदि पदार्थ निर्भर हैं। तुम औषधि रूप हो।

अथर्ववेद की निम्न ऋचाओं में भी जल के महत्व का उल्लेख कर जल प्रदूषण के परिणामस्वरूप संभावित भयावहता की ओर संकेत किया गया है-

आपो भद्रा घृतमिदाप आसन्नग्नीषोमौ विभ्रत्याप इत्ताः।
तीव्रो रसो मधुपृचाभरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत।।
-अथर्ववेद, 3/13/5

आदित्पश्चाम्युत वा श्रृणोम्या मा घोषो वाङ्मासाम्मन्ये भेजानो अमृतस्य तार्हि अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा व।।
- अथर्ववेद, 3/13/6


अर्थात् याद रखिए, जल मंगलमय और घी के समान पुष्टिदाता है और वही मधुरता भरी जलधाराओं का स्रोत भी है। भोजन को पचाने में उपयोगी तीव्र रस है। प्राण और कांति, बल और पौरुष, प्रदान करने वाला तथा अमरता की ओर ले जाने वाला मूल तत्व है।‘देखने-सुनने और बोलने की शक्ति, पर्याप्त जल के उपयोग बिना नहीं आती। जल ही जीवन का आधार है। अधिकांश जीव जल में ही जन्म लेते हैं और उसी में रहते हैं। हे जलधारकों! मेरे निकट आओ। तुम अमृत हो।’

इस प्रकार जल का महत्व समझने के पश्चात् यह हमारी प्रथम जिम्मेदारी बनती है कि जल में किसी प्रकार का प्रदूषक उत्सर्जन न करें, न होने दें। यही नहीं, वर्तमान परिस्थितियों में जल-संकट की भयावहता को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण व संवर्धन की महती आवश्यकता समझना भी अनिवार्य है।

जीवधारियों के पाचन, रक्त-संचरण, उत्सर्जन और यहां तक कि लसिका-तंत्र की गतिविधियों के लिए जल की अहम् भूमिका होती है और प्रदूषित जल से हुए प्रतिकूल प्रभाव इन तंत्रों के सुचारू संचालन को अवरुद्ध कर जीवन को जोखिम में डालते हैं। यह जानने के बाद जल को प्रदूषित करने का दुस्साहस हमें नहीं करना चाहिए।

वायु प्रदूषण


वायु मंडल में जीवन के लिए एक या एक से अधिक प्रदूषक हानिकारक तत्वों की उपस्थिति वायु प्रदूषण के रूप में जानी जाती है। जीवधारियों को हानि पहुंचाने के साथ-साथ प्रदूषण का यह रूप, वायुमंडल की सर्वोच्च ओजोन-परत को भी क्षति पहुंचाता है और परिणामस्वरूप जलवायु व मौसम-चक्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव होता है। कार्बन के ऑक्साइड, धूलकण, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, सीसा, सल्फर व नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा अन्य लटकने वाले कणों के साथ रेडियोधर्मी व नाभिकीय कणों से हमारा वायुमंडल बुरी तरह प्रभावित होता है। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों तथा अन्य प्रकार की गैसों से उत्पन्न इस प्रदूषण का प्रभाव जीवधारियों के स्वास्थ्य, वनस्पति, पदार्थों तथा मौसम पर स्पष्ट अनुभव किया जाता है।

वायुमंडल में विभिन्न तत्वों का सहनीय और असहनीय मात्रा का प्रतिशत विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित किया गया है। अन्य मानकों के साथ-साथ यह भी तय किया गया है कि वायु में ऑक्सीजन की अधिकता तथा कार्बन डाइऑक्साइड की न्यूनता होनी चाहिए तथा तापक्रम 33.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होना चाहिए। जीवधारियों की शारीरिक क्रियाओं से ऑक्सीजन का कार्बन डाइऑक्साइड में परिवर्तन होता है और पेड़-पौधों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर ऑक्सीजन का उत्सर्जन करने की क्रिया के फलस्वरूप वायुमंडल में ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का संतुलन बना रह पाता है। इसी गुण के कारण पेड़-पौधों का महत्व सदियों से स्वीकारा जाता रहा है और अनवरत् ऑक्सीजन उत्सर्जन करने वाले तुलसी व पीपल की पूजा का विधान करते हुए वृक्षों को देवतुल्य स्वीकारा गया है।

मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखायम तु शंकरः।
पत्रे-पत्रे तु देवानाम् वृक्ष राज नमोस्तुते।।


वायु की शुद्धि को जीवन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हुए स्पष्ट किया गया है कि –

तनूनपादसिरो विश्ववेदा देवो देवेषु देवः।
पथो अनक्तु मध्या घृतेन।।

- यजुर्वेद, 27/12

अर्थात् उत्तम गुण वाले पदार्थों में उत्तम गुणवाली प्रकाश रहित तथा सबको प्राप्त होने वाली जो वायु शरीर में नहीं गिरती, वह कामना करने योग्य मधुर जल के साथ श्रोत्र आदि मार्ग को प्रकट करे, उसको तुम जानो।

अमूल्य वायु की महत्ता का वर्णन निम्न ऋचाओं में भी किया गया है-

वात आ वातु भेषज शंभु मयोभु नो हदे।
प्र ण आयुंषि तारिषत्।।
-ऋग्वेद, 10/186/1

आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।
दक्षं ते भद्रमाभार्ष परा यक्ष्मं सुवामि ते।।
-ऋग्वेद, 10/137/4


अर्थात् ‘याद रखिए, शुद्ध, ताजी वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है, वह उसे प्राप्त कराता है और हमारी आयु को बढ़ाता है।’

तथा-‘यह जानो कि शुद्ध वायु तपेदिक जैसे घातक रोगों के लिए औषधि रूप है। हे रोगी मनुष्य! मैं वैद्य तेरे पास सुखकर और अहिंसा कर रक्षण में आया हूं। तेरे लिए कल्याणकारण बल को शुद्ध वायु के द्वारा लाता हूं और तेरे जीर्ण रोग को दूर करता हूं।’

ह्दय रोग, तपेदिक तथा निमोनिया जैसे घातक रोगों में वायु को बाहरी साधनों से लेना जरूरी हो जाता है, किंतु यदि वायु प्रदूषित हो तो रोग-निवारण करने में सक्षम न होकर रोग-वृद्धि का कारण बन जाती है।

इतना जान-समझ लेने के बाद सामान्य जागरूक नागरिकों से अपेक्षा की जाती है। कि घर, उद्योग तथा वाहनों से उत्सर्जित धुएं की मात्रा में हर संभव कमी करने तथा वायु प्रदूषण को रोकने हेतु निर्धारित नियमों का पालन करेंगे।

मृदा प्रदूषण


पृथ्वी की सतह पर अप्राकृतिक क्रियाओं, घातक रसायनों व कीटनाशकों आदि के प्रयोग से होने वाला प्रदूषण ‘मृदा प्रदूषण’ के रूप में जाना जाता है। उर्वरा शक्ति में कमी के साथ-साथ पौष्टिक उत्पादनों के स्थान पर घातक उत्पादन इसी प्रदूषण का परिणाम है। विभिन्न प्रकार के कृषि उत्पाद, फल, औषधियां तथा वनस्पतियां इसी मृदा के सहारे उत्पन्न होते हैं, जिन पर हमारा भोजन तथा स्वास्थ्य निर्भर होता है। स्पष्ट है कि मृदा का प्रदूषण हमारे भोजन तथा स्वास्थ्य से सीधे संबंधित है, अतः इस पर भी गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना आवश्यक है-

माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः।

के माध्यम से पृथ्वी को माता के रूप में स्वीकारा गया है और सभी प्राणियों को उसका पुत्र कहा गया है। वेदों में पृथ्वी का महत्व बहुविधि वर्णित है, जिसका सार है-

यस्मान्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पञ्च कृष्टयः।
भूम् पर्जन्यपत्न्यै नमोsस्तु वर्ष मेदसे।।

-अयर्ववेद, 12/1/42

अर्थात ‘भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियों की माता भूमि और पिता मेघ हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर वह पृथ्वी में गर्भाधान करता है।’

पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की धातुएं ही नहीं, जल, कंद-मूल आदि खाद्यान्न भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं, जिसका लाभ उठाते हुए वर्तमान में हम अपनी माता पृथ्वी से न्याय नहीं कर रहे हैं। अंधाधुंध शहरीकरण, औद्योगीकरण के लिए वनों की तेजी से कटाई की जा रही है। मिट्टी ढीली पड़ती जा रही है, खेत अनुपजाऊ हो रहे हैं, जल-जमाव के फलस्वरूप दलदल (वाटर लॉगिगं) पनप रही है। वनों की कमी से वर्षा भी अनियमित होने लगी है और यदि समय रहते उचित व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की गई तो स्थित की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

प्रदूषण को इसी प्रकार के कई भागों में विभक्त कर व्यक्त किया जा सकता है, किंतु इसके मूल में उपस्थित भावना को समझकर निराकरण का प्रयास किया जाना आवश्यक है।

वस्तुतः प्रदूषण का प्रादुर्भाव मोह आदि षट्-विकारों की ही परिणति है। स्वार्थ, लापरवाही, अभिमान, असीमित कामना तथा मत्सर व क्रोध के परिणामस्वरूप अनियमित कार्य करने से प्रदूषण का अस्तित्व होता है। कोई भी मनुष्य प्रदूषण फैलाने के उद्देश्य से कार्य नहीं करता, किंतु षट्-विकारों से युक्त होने के कारण अनायास ही ऐसा करता चला जाता है, अतः षट्-विकारों का निवारण-नियंत्रण प्रथम आवश्यकता है, जिसके लिए वेदों में निम्नानुसार प्रार्थना की गई है-

उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहिश्र्वयातुमुत कोकयातुम।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इंद्र।।

-ऋग्वेद,7/104/22 तथा अथर्ववेद, 8/4/22

अर्थात् हे इंद्र! दिनभर अंधे रहकर उल्लू के समान आचरण करने वाले मोह की प्रवृति, भेड़िए (शुशुलूक) के समान आचरण कराने वाले क्रोध, कुत्ते के समान मत्सर, कोक (चकवा-चकवी के समान कामना, गरूड़ (सुपर्ण) के समान अभिमान तथा गीध के समान लोभ का आचरण कराने वाली राक्षसी वृतियों का अपने सदुपायों से विध्वंस कर उसी प्रकार पीस दे, जैसे पत्थर से मिट्टी के ढेले को पीस दिया जाता है।

भारतीय आर्ष ग्रंथों व वेदों में जन-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। धार्मिक आयोजनों के पश्चात् किया जाने वाला शांति पाठ अंतरिक्ष, पृथ्वी, द्युलोक, वनस्पतियों, औषधियों के साथ-साथ शांति को शांति की मर्यादा में रहने की कामना करता है।

स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरूषेभ्यः।
विश्वं सुभूतं सुविदतं नो अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम्।।

-अयर्ववेद, 1/31/4

इस मंत्र में स्वार्थ की जड़ पर कुठाराघात करते हुए चितवृतियों को शुद्ध तथा हृदय को विशाल करने का साधन बताया गया है। प्रत्येक बुरे कर्म की जड़ मनुष्य की इच्छाओं में रहती है, इसलिए ‘दूसरों के लिए भला हो’ ऐसी इच्छा उत्पन्न करनी चाहिए। मन जैसा सोचता है, वैसी ही इच्छा करता है और इच्छाएं ही कार्य रूप में परिणित होती हैं। इस मंत्र में माता, पिता, गौ, पुरूषों तथा संपूर्ण जगत् के कल्याण में ही स्वयं का कल्याण देखने का उपदेश है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ तथा ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना से ओत-प्रोत होकर दृढ़ इच्छाशक्ति संपन्न मनुष्य ऐसा कोई कार्य कर ही नहीं सकता, जिससे किसी प्रकार का प्रदूषण उत्पन्न हो। सनातन भारतीय आर्ष ग्रंथों की मूल भावना यही रही है कि सदैव दूसरों के कल्याण को प्राथमिकता दी जाए।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वय।
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम।।

कि मूल भावना गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में सरल शब्दों में व्यक्त की है-

परहित सरिस धरम नहि भाई।
परपीड़ा सम नहि अधमाई।।


यदि दूसरों के हित को प्रधानता देते हुए ऐसे कार्यों को रोकने का प्रयास होने लगे, जिससे दूसरों को पीड़ा पहुंचने की संभावना हो, तो प्रदूषण रोका जा सकेगा।

समग्र रूप से स्थिति इस प्रकार स्पष्ट होती है कि विकारों की परिणति से विभिन्न प्रकारों के प्रदूषण उपस्थित होते हैं, जो हमारे भविष्य के लिए भयावह परिस्थितियों का पर्याप्त आधार बनते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में अपने वर्तमान को संवारने की कपोल-कल्पना तथा आपाधापी में किए जाने वाले अनियंत्रित कृत्यों से प्रदूषण कर हम स्वतः ही अपने भविष्य को भयावह बनाने में लगे हुए हैं। संपूर्ण स्थिति का ज्ञान होने के बाद इस दिशा में गंभीरतापूर्णक मनन एवं पश्चाताप करते हुए सार्थक संयमित कार्यप्रणाली को अपनाने की आवश्यकता है, जो प्रदूषण रहित वायुमंडल व वातावरण प्रदान करने में सफल हो सके।

संदर्भ


1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. अथर्ववेद
4. रामचरितमानस
5. कल्याण के विभिन्न अंक
6. पर्यावरण अध्ययन, कक्षा 12, पाठ्यपुस्तक निगम, छतीसगढ़।
7. पर्यावरण-मित्र की बुलेटिन।
8. प्रदूषण से संबंधित विभिन्न पत्रिकाएं व समाचार-पत्र।

स्टॉफ ऑफिसर
छतीसगढ़ राज्य सूचना आयोग,
शंकरनगर, रायपुर

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