हरेक लहर किनारे तक आती है और वापस लौट जाती है। यह एक प्रकार का ज्वार-भाटा ही है। यह क्षणजीवी है। बड़ा ज्वार-भाटा बारह-बारह घंटों के अंतर से आता है। वह भी एक तरह की बड़ी लहर ही है। बारह घंटों का ज्वार भाटा जिसकी लहर है, वहा ज्वार-भाटा कौन सा है? अक्षय-तृतीया का ज्वार यदि वर्ष का सबसे बड़ा ज्वार हो, तो सबसे छोटा ज्वार कब आता है?
हम जो श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं वह भी एक तरह का ज्वार-भाटा ही है। हृदय में धड़कन होती है और उसके साथ सारे शरीर में खून घूमता है, वह भी एक तरह का ज्वार-भाटा ही है। बाल्यकाल, जवानी और बुढ़ापा भी बड़ा ज्वार-भाटा है। इस प्रकार ज्वार-भाटे का क्रम विशाल से विशालतर होकर सारे विश्व तक पहुंच सकता है। जहां देखें वहां ज्वार-भाटा ही ज्वार-भाटा है। राष्ट्रों का ज्वार भाटा होता है। संस्कृतियों का ज्वार-भाटा होता है। धार्मिकता में भी ज्वार-भाटा होता है। हरेक भाटे के बाद ज्वार को प्रेरणा देने वाले तो हैं। रामचंद्र और कृष्णचंद्र जैसे अवतारी पुरुष। समुद्र के ज्वार भाटे को प्रेरणा देने वाले चंद्र पर से ही क्या राम और कृष्ण को चंद्र की उपमा दी गई होगी? कवि कहते हैं कि दोनों का रूप-लावण्य आह्लादक था, इसी पर से उन्हें चंद्र की उपमा दी गयी है। और कवि जो कहते हैं वह ठीक ही होना चाहिये। मगर ऐसा क्यों न कहा जाय कि धर्म के भाटे को रोकने वाले और नये ज्वार को गति देनेवाले वे दोनों धर्मचंद्र थे, इसीलिए उन्हें चंद्र की उमपा दी गई है? यह कारण अब तक भले न बताया गया हो, मगर आज, से तो हम यहीं मानेंगे कि धर्म-सागर के चंद्र के नाते ही उनका नाम रामचंद्र और कृष्णचंद्र रखा गया है।
जल के स्थान पर स्थल और स्थल के स्थान पर जल जो कर सकता है, वह ‘अघटित-घटना-पटीयसी’ ईश्वर की माया कहलाती है। इस माया का यहां हमें रोज दर्शन होता है। फिर भी हम भक्त-नम्र क्यों नहीं होते? अद्भुत वस्तु रोज होती है, इसलिए क्या वह निःसार हो गई? मेरे जीवन पर तीन चीजों ने अपने गांभीर्य से अधिक से अधिक असर डाला हैः हिमालय के उत्तुंग पहाड़, कृष्ण-रात्रि का रत्नजटित गहरा आकाश और विश्वात्मा का अखंड-स्रोत गाने वाला महार्णव तीन हजार साल पहले या दो हजार साल पहले (हजार का यहां हिसाब ही नहीं) भगवान बुद्ध के भिक्षु तथागत का संदेश देश-विदेश में पहुंचाकर इसी समुद्र-तट पर आये होंगे। सोपारा से लेकर कान्हेरी तक, वहां से धारापुरी तक और थाना जिले व पूना जिले- की सीमा पर स्थित नाणाघाट, लेण्याद्रि, जुन्नर आदि स्थानों तक, कार्ला और भाजा के प्राचीन पहाड़ों तक और इस तरफ नासिक की पांडव-गुफाओं तक शांति सागर जैसे बौद्ध भिक्ष जिस समय विहार करते थे, उस समय का भारतीय समाज आज से भिन्न था। उस समये के प्रश्न आज से भिन्न थे। उस समय की कार्य-प्रणाली आज से भिन्न थी किन्तु उस समय का सागर तो यही था। उन दिनों भी यह इसी प्रकार गरजता होगा। होगा क्या, गरजता था। और ‘दृश्यमात्र नश्वर है, कर्म ही एक सत्य है; जिसका संयोग होता है उसका वियोग निश्चित है; जो संयोग-वियोग से परे हो जाते हैं, उन्हीं को शाश्वत निर्वाण-सुख मिलता है।’- यह संदेश आज की तरह उस समय भी महासागर देता था। आज वह जमाना नहीं रहा। महासागर का नाम भी बदल गया। मगर उसका संदेश नहीं बदला। ज्वार-भाटे से जो परे हो गये, उन्हीं को शाश्वत शांति मिलने वाली है। वे ही बुद्ध हैं। वे ही सु-गत हैं। वे सदा के लिए चले गये। ज्वार फिर से आयेगा। भाटा फिर से आयेगा। परन्तु वे वापस नहीं आयेंगे। तथागत सचमुच सु-गत हैं।
बोरडी, 7 मई, 1927
हम जो श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं वह भी एक तरह का ज्वार-भाटा ही है। हृदय में धड़कन होती है और उसके साथ सारे शरीर में खून घूमता है, वह भी एक तरह का ज्वार-भाटा ही है। बाल्यकाल, जवानी और बुढ़ापा भी बड़ा ज्वार-भाटा है। इस प्रकार ज्वार-भाटे का क्रम विशाल से विशालतर होकर सारे विश्व तक पहुंच सकता है। जहां देखें वहां ज्वार-भाटा ही ज्वार-भाटा है। राष्ट्रों का ज्वार भाटा होता है। संस्कृतियों का ज्वार-भाटा होता है। धार्मिकता में भी ज्वार-भाटा होता है। हरेक भाटे के बाद ज्वार को प्रेरणा देने वाले तो हैं। रामचंद्र और कृष्णचंद्र जैसे अवतारी पुरुष। समुद्र के ज्वार भाटे को प्रेरणा देने वाले चंद्र पर से ही क्या राम और कृष्ण को चंद्र की उपमा दी गई होगी? कवि कहते हैं कि दोनों का रूप-लावण्य आह्लादक था, इसी पर से उन्हें चंद्र की उपमा दी गयी है। और कवि जो कहते हैं वह ठीक ही होना चाहिये। मगर ऐसा क्यों न कहा जाय कि धर्म के भाटे को रोकने वाले और नये ज्वार को गति देनेवाले वे दोनों धर्मचंद्र थे, इसीलिए उन्हें चंद्र की उमपा दी गई है? यह कारण अब तक भले न बताया गया हो, मगर आज, से तो हम यहीं मानेंगे कि धर्म-सागर के चंद्र के नाते ही उनका नाम रामचंद्र और कृष्णचंद्र रखा गया है।
जल के स्थान पर स्थल और स्थल के स्थान पर जल जो कर सकता है, वह ‘अघटित-घटना-पटीयसी’ ईश्वर की माया कहलाती है। इस माया का यहां हमें रोज दर्शन होता है। फिर भी हम भक्त-नम्र क्यों नहीं होते? अद्भुत वस्तु रोज होती है, इसलिए क्या वह निःसार हो गई? मेरे जीवन पर तीन चीजों ने अपने गांभीर्य से अधिक से अधिक असर डाला हैः हिमालय के उत्तुंग पहाड़, कृष्ण-रात्रि का रत्नजटित गहरा आकाश और विश्वात्मा का अखंड-स्रोत गाने वाला महार्णव तीन हजार साल पहले या दो हजार साल पहले (हजार का यहां हिसाब ही नहीं) भगवान बुद्ध के भिक्षु तथागत का संदेश देश-विदेश में पहुंचाकर इसी समुद्र-तट पर आये होंगे। सोपारा से लेकर कान्हेरी तक, वहां से धारापुरी तक और थाना जिले व पूना जिले- की सीमा पर स्थित नाणाघाट, लेण्याद्रि, जुन्नर आदि स्थानों तक, कार्ला और भाजा के प्राचीन पहाड़ों तक और इस तरफ नासिक की पांडव-गुफाओं तक शांति सागर जैसे बौद्ध भिक्ष जिस समय विहार करते थे, उस समय का भारतीय समाज आज से भिन्न था। उस समये के प्रश्न आज से भिन्न थे। उस समय की कार्य-प्रणाली आज से भिन्न थी किन्तु उस समय का सागर तो यही था। उन दिनों भी यह इसी प्रकार गरजता होगा। होगा क्या, गरजता था। और ‘दृश्यमात्र नश्वर है, कर्म ही एक सत्य है; जिसका संयोग होता है उसका वियोग निश्चित है; जो संयोग-वियोग से परे हो जाते हैं, उन्हीं को शाश्वत निर्वाण-सुख मिलता है।’- यह संदेश आज की तरह उस समय भी महासागर देता था। आज वह जमाना नहीं रहा। महासागर का नाम भी बदल गया। मगर उसका संदेश नहीं बदला। ज्वार-भाटे से जो परे हो गये, उन्हीं को शाश्वत शांति मिलने वाली है। वे ही बुद्ध हैं। वे ही सु-गत हैं। वे सदा के लिए चले गये। ज्वार फिर से आयेगा। भाटा फिर से आयेगा। परन्तु वे वापस नहीं आयेंगे। तथागत सचमुच सु-गत हैं।
बोरडी, 7 मई, 1927
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