बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा है- “Either write some thing worth reading or do something worth writing” (अर्थात या तो कुछ ऐसा सार्थक लिखो जो पढ़ा जाये अथवा कुछ ऐसा सार्थक करो जिस पर लिखा जाये।) ‘गाँधी मार्ग’ के कीर्ति शेष सम्पादक अनुपम मिश्र ने उपर्युक्त उक्ति के दोनों छोरों को नितान्त प्रामाणिकता से साधा था। वे मन-वचन-कर्म से गाँधीवादी थे। सादगी उनका स्वभाव था। उच्च विचार उनका संस्कार था। उनकी सोच, उनकी कार्य शैली, उनकी भाषा, उनकी वेशभूषा, उनका रहन-सहन, उनका खान-पान, सबके सब परम सात्विक, सर्वांश में भारतीय। इसीलिये वे समाज से जीवन्त सम्पर्क और संवाद रख पाये। जमीन से जुड़े थे, इसीलिये परम्परागत भारतीय ज्ञान को बूझ पाये। उन्होंने पोथियों से अधिक लोग में व्याप्त ज्ञान-विज्ञान को जाना और माना।
वे भारत के समाज में सदियों से व्यवहृत (और अब उपेक्षित) लोक विज्ञान की हामी थे जो व्यवहार की कसौटी पर खरा उतरता है। जो सिद्ध न हो ऐसे किसी दावे को अनुपम मिश्र ने न कभी माना, न कहा और न लिखा। आडम्बर और प्रदर्शन-प्रियता उनके आस-पास नहीं फटक पाये। भारतीय मनीषा जिस तरह की निष्काम साधना और सेवा की साधक है, वही अनुपम जी की कर्म साधना रही है। इसीलिये अप्रतिम विद्वता और असाधारण अवदान होते हुए भी वे निरभिमान मानस की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। वे पर-उपदेश कुशल नहीं थे, बल्कि आचरण-निष्ठ और व्यवहार-सिद्ध थे। तभी तो खरे थे।
अनुपम मिश्र प्रकृति और पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील, सजग और सचेष्ट थे। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के पर्यावरण प्रकोष्ठ के प्रभारी के रूप में उन्होंने प्रकृति-चिन्तन किया। विशेष रूप से जल को अध्ययन-मनन का विषय बनाया। इसके लिये पूरा देश घूमे। परिस्थितियों का अध्ययन किया। समस्याओं को जाना और उनके पीछे के कारणों को पहचाना। फिर यह पड़ताल की कि यह हमारा समाज परम्परा से प्रकृति के वरदानों को कैसे बरतता रहा है। संकट और चुनौतियों का सामना कैसे करता रहा है।
भविष्य के लिये, भावी पीढ़ियों के लिये प्रकृति-संरक्षण के क्या उपाय अपनाता रहा है। जाहिर है, अनुपम जी की धारणा देशव्यापी मैदानी अध्ययन-आकलन के बाद दृढ़ से दृढ़तर होती गई। परिणामतः विश्वास उपजा कि प्रकृति के उपादान भौतिक संसाधन नहीं हैं। उनका यथा आवश्यकता मितव्ययिता और संयम के साथ उपयोग किया जा सकता है, दोहन-शोषण-उपभोग नहीं। यही मानव और समूची सृष्टि के बचे रहने की अनिवार्य शर्त है।
अनुपम जी ने अल्प जल उपलब्धता वाले राजस्थान की जल परम्परा का गहन अध्ययन किया। निष्कर्ष रूप में ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ पुस्तक सामने आई। उन्होंने देश भर में तालाबों की संस्कृति, परम्परा और विज्ञान का अध्ययन किया। परिणामस्वरूप ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जैसे जल-गीता का जन्म हुआ। तेईस साल में इस पुस्तक के 19 भाषाओं में 40 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब की दो लाख से ज्यादा प्रतियाँ समाज ने अपनाई हैं। पाठक संख्या तो इससे सौ गुना ज्यादा ही होगी। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी कि पढ़ने वालों ने इस किताब का गहरी रुचि के साथ पारायण किया है। यह हिन्दी लेखकों के लिये स्पृहणीय है।
‘साफ माथे का समाज’, ‘देश का पर्यावरण’ और ‘हमारा पर्यावरण’ समेत उनकी 17 पुस्तकें प्रकाशित हैं। ‘गाँधी मार्ग’ पत्रिका भी अनुपम जी के अनुपम कृतित्व का एक साक्ष्य है।
सन 1972 में चम्बल के बागियों का ऐतिहासिक आत्म-समर्पण संत विनोबा भावे की प्रेरणा और लोकनायक जय प्रकाश नारायण के सान्निध्य में हुआ। तब अनुपम जी ने पूरे माहौल, उसकी पृष्ठभूमि, चम्बल के बीहड़ों का मिजाज तथा आत्मसमर्पण की घटना का विस्तार से विवरण लिपिबद्ध करने का काम किया।
प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र और श्रवण गर्ग की त्रिमूर्ति ने बड़ी मेहनत से यह दस्तावेज तैयार किया था। ‘चम्बल की बन्दूकें गाँधी जी के चरणों में’ शीर्षक यह दस्तावेज शासकों-प्रशासकों-पत्रकारों समेत पूरे समाज के लिये पठनीय और मननीय है।
अनुपम जी को ‘ग्राम विकास हेतु विज्ञान एवं तकनीक’ के लिये ‘जमनालाल बजाज पुरस्कार’ (2011), ‘इन्दिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार’, ‘चन्द्रशेखर आजाद राष्ट्रीय सम्मान’ (2007-08) से सम्मानित किया गया। सप्रे संग्रहालय के रजत जयंती सम्मान (2008-09) से उन्हें विभूषित करते हुए हम धन्य हुए। सच तो यह है कि अनुपम जी के पुरुषार्थ और परमार्थ के स्पर्श से इन सम्मानों की अर्थवत्ता पुष्ट हुई है
कभी अनुपम जी के कवि-पिता भवानी प्रसाद मिश्र ने लेखक समाज के सामने यह चुनौती उछाली थी - “जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख। और उसके बाद मुझसे बड़ा तू दिख।” अनुपम मिश्र की लेखनी के भाषा और भाव-प्रवाह ने पिता की इस चुनौती का अनुपम-निर्वाह कर दिखाया है। यही सचमुच पुत्र-धर्म है। श्रद्धांजलि।
(लेखक ‘आंचलिक पत्रकार’ के सम्पादक और सप्रे संग्रहालय के संस्थापक-संयोजक हैं।)
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Post By: RuralWater