साफ पानी पर बोतलबंद डाका

शेयर बाजार हमें सिखाता है कि आपको कल्पनाशील होना चाहिए. यह कल्पनाशीलता किसी भी ऊंचाई तक जा सकती है.

इसलिए साफ पानी के बारे में आपको भी कुछ कल्पनाएं करनी चाहिए. एक ऐसी दुनिया की कल्पना करिए जहां सारा साफ पानी बोतलों में बंद है. बहुत से लोग भले ही इस बात से इत्तेफाक न रखें लेकिन कुछ लोगों को पता है कि यह संभव हो सकता है. शीर्ष शीतलपेय कंपनियां इस तरह की कल्पना कर रही हैं और संभावना भी टटोल रही हैं कि भविष्य में साफ पानी और बोतल एक दूसरे के पर्याय कैसे बन जाएं. वैसे भी साफ पानी करोड़ों लोगों के लिए सपना हो गया है ऐसे में राजनीतिक दल कुछ बेहतर काम कर सकते हैं. उन्हें राष्ट्रीय स्वच्छ पेयजल योजना पर काम करना चाहिए. आजकल जैसे राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी जा रही है उसी तरह चौबीसों घण्टे साफ पानी उपलब्ध कराने की योजना पर काम किया जाना चाहिए. इससे राजनीतिक दलों को अपने वोटबैंक का नया और स्थाई आधार मिल जाएगा.

राष्ट्रीय स्वच्छ पेयजल योजना को लागू करने के लिए निजी घरानों और बोतलबंद पानी के व्यापारियों की मदद ली जा सकती है. क्योंकि हम कंपनियों को सब्सिडी देने के अभ्यस्त हैं इसलिए ऐसे पानी को सब्सिडी पर आम आदमी को उपलब्ध कराया जाए जो उन्हें पीने के लिए मिलता है. पहले भी शहर का आदमी खरीदकर पानी पीने का अभ्यस्त तो है ही. गरीब और निम्नमध्यवर्गीय शहरी अपनी आय का 33 प्रतिशत हिस्सा पानी पर खर्च करता है. शहरों की सरकारी जल वितरण प्रणाली जो पैसा वसूलती है वह तो है ही लेकिन उनसे अलग शहरों में पानी माफिया का अपना अलग व्यावसायिक प्रभुत्व है. वे गरीब के सीने पर बैठकर पानी का पैसा वसूल लेते हैं. अगर ऐसा कुछ प्रयास किया जाता है तो कम से कम गरीब आदमी को पैसा देने के बाद साफ पानी तो नसीब हो सकेगा.

अभी भी बोतलबंद पानी के लिए पानी का निजीकरण सबसे बुरा काम समझा जा रहा है लेकिन हकीकत में क्या हो रहा है? भारतीय रेल अपने रेलनीर ब्राण्ड से पानी क्यों बेचती है या फिर दिल्ली जल बोर्ड बोतलबंद पानी की सप्लाई क्यों करता है? इस बात में कोई आश्चर्य करने की जरूरत नहीं है कि आनेवाले दिनों में बहुत से सरकारी विभाग सार्वजनिक पानी पर अपना दावा ठोंक दे और वे भी पानी को बोतल में बंद करके उसका व्यापार शुरू कर दें. जो भी हो एक बात तय है. आनेवाले दिनों में आम आदमी की खास संपत्ति पानी पर डाका पड़नेवाला है. फिर वह डाका निजी कंपनियों के द्वारा डाला जाए या फिर सार्वजनिक निकायों द्वारा. लूटपाट तो होगी.

निसंदेह निजी कंपनियों का पलड़ा भारी है क्योंकि उनके पास अकूत पैसा है और वे राजनीतिक दखल भी रखते हैं. ऐसे में देश के दूरदराज के इलाकों में अगर पानी सप्लाई के नाम पर ब्राण्डेड पानी सब्सिडी पर मुहैया होने लगे तो इसमें बहुत चकित होने की जरूरत नहीं है. अगर यह होता है तो कंपनी के पास यह तर्क तो होगा ही कि वह पानी का व्यापार करके रोजगार पैदा कर रही है. क्योंकि बड़ी कंपनी में हर एक नयी नौकरी वितरण प्रणाली में 15 नयी नौकरियां पैदा करती है. सरकार और नेतालोग सीना ठोंककर कह सकेंगे कि राष्ट्रीय स्वच्छ पेयजल गारन्टी योजना के द्वारा हमने पानी का निजीकरण करके इतना रोजगार पैदा किया और इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकेगा.

अब कल्पना से परे उन हकीकतों को भी जान लीजिए जिनके आधार पर इन कल्पनाओं ने जन्म लिया है. हर कंपनी में एक विभाग होता है जिसे कारपोरेटे सोशल रिस्पांसबिली (सीआर) का काम दिखाना होता है. इसके लिए कंपनी कुछ ऐसा काम करती है जिससे उसका मानवीय चेहरा लोगों के सामने आये. पानी बेचनेवाली कंपनियां सीआर के नाम पर पानी के लिए पीड़ित 50 इलाकों में सैकड़ों सामुदायिक जल परियोजना को पैसा दे रही हैं. इसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है? मैं तो सोच ही रहा हूं आप भी सोचिए.

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