सांसत में धरती

इस धरती की सतह का सत्तर प्रतिशत हिस्सा सड़कों, खदानों और बढ़ते शहरीकरण की भेंट चढ़- गया है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि 2050 तक हमारे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो जाएगी और हम भयानक बीमारियों की गिरफ़्त में होंगे। दुनिया की आधी से अधिक नदियां प्रदूषित होंगी और इनका जल स्तर घट जाएगा। सदा नीरा यमुना और गंगा के हालात हमारे सामने हैं। संताप हरती इनकी ‘कल कल’ ध्वनि सुनने को कान आतुर-व्याकुल ही रह रहे हैं। भारतीय परंपरा और विश्वास कहता है कि मां की सेवा करने वाला सत्पुरुष कहलाता है। वह दीर्घायु, यश, कीर्ति, बल, पुण्य, सुख, लक्ष्मी और धनधान्य को प्राप्त करता है। यदि कोई मानता हो तो, यह भी कहा गया है कि ऐसा पुरुष स्वर्ग का अधिकारी भी हो सकता है। अब स्वर्ग किसने देखा है और अगर किसी ने देखा है तो आकर कब बताया है कि स्वर्ग कैसा होता है? पर, अगर कोई सत्पुरुष है, तो क्या यही कम है? सत्पुरुष होने के साथ जो बातें जुड़ी हैं और जिनका जिक्र हमने किया है क्या वहीं स्वर्गिक नहीं है? यही स्वर्ग है। स्वर्ग या नरक - सब इस धरती पर है। संपूर्ण प्राणी जगत इसी धरती के अंग है। इसी में सब समाए हुए हैं। हम कह सकते हैं कि यही धरती सब को अपने में समाए हुए हैं, सहेजे हुए हैं। इसीलिए धरित्री है। सबको अपने में धारण किए हैं। यही धरती का धर्म है।

यह धरती तो अपना धर्म निभा रही है, पर जिस धरती को हम मां कहते हैं, क्या हम मनुष्य भी अपना धर्म निभा रहे हैं? इसी धरती में रत्नगर्भा खनिज संपदा है। इसी धरती के पेट में से असंख्य वनस्पतियां प्रस्फुटित होती हैं, असंख्य जीव-जंतु हैं, जल है जैन मतानुसार छह प्रकार के जीव माने गए हैं। ये हैं- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। इस मतानुसार पृथ्वी भी जीव है। मिट्टी से लेकर हीरा, पन्ना, सोना और कोयला वगैरह सभी जीव हैं। माना गया है कि मिट्टी के एक छोटे से कण में भी असंख्य जीवों का वास है। पृथ्वीकाय की तरह ही शेष पांच जीव-निकाय भी जीवंत हैं। इनकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इसीलिए अहिंसा में विश्वास रखने वालों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि सभी जीव-निकायों को वे ठीक से समझें।

हम यह तो मानें कि यह ‘जैविक संपदा’ है, जो इस धरती ने धारण किए हैं। हम थोड़ा सीमित करें और अगर भारत की भूमि पर ही अपने को अवलंबित करें तो पाएंगे कि भारत एक विशाल जैविक क्षेत्र है। संपूर्ण विश्व में बारह जैविक क्षेत्र हैं। भारत भूमि इन्हीं में से एक विशाल जैविक क्षेत्र है और इसीलिए इस भूमि को रत्न-गर्भा कहा गया है। अनुमान है कि कोई सात हजार किस्म की वनस्पतियां भारत की धरती पर पाई जाती रही हैं। यह माना गया है कि हमारे किसान कोई तीस हजार प्रकार के अनाज इस धरती पर पैदा करते हैं। एक हजार किस्म के आम यहां पैदा होते हैं और हजारों किस्म की जड़ी-बूटियां यह धरती उपजाती है। हमारी जैविक संपदा का यह छोटा-सा ब्यौरा है। यही जैविक संपदा नष्ट हो रही है।

हम थार मरूस्थल के उस क्षेत्र को भी लें, जहां घने रेतीले टिब्बे हैं। जहां रेत ही रेत हैं, वहां भी जैव-संपदा अपार रही है। ‘स्कूल ऑफ डेजर्ट साइंसेज’ के निदेशक और जोधपुर विश्व विद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष वृक्षमित्र डॉ. एसएम मोहनोत बताते हैं कि इस मरुस्थल का ‘फ्लोरा-फोना’ बड़ा ही समृद्धशाली रहा है। मोहनोत के मुताबिक कोई आठ सौ प्रकार की वनस्पतियां इस मरुक्षेत्र में पाई जाती रही हैं। कोई ढाई सौ प्रकार के पशु-पक्षी और पैंसठ तरह के स्तनधारी जीव इस मरुभूमि पर रहे हैं। यह सच है कि यहां बरसात का अनुपात बहुत कम है। पालतू पशुओं की गणना तो लाखों में जाकर अभी भी बैठती है। जहां अधिकतम बरसात और अत्यधिक पशुधन हो तो यह एक तरह से, बल्कि साफतौर पर विरोधाभासी लगता है। यह लेखक इसे ही थार का पर्यावरण कहता है। यह प्रकृति का संतुलन है। पर यह संतुलन बिगड़ने लगा है। बिखरने लगा है। इसे कौन बिगाड़ रहा है? कौन है जो इस संतुलन के साथ छेड़-छाड़ कर रहा है? इसके कारणों को समझना कठिन नहीं है।

इस धरती का सबसे अधिक शक्तिशाली जीव मनुष्य है। यही इसे हानि पहुंचा रहा है। एक अंतहीन लालच में फंसा मनुष्य इस असंतुलन के मूल में है। एक नमूना इसका भी हम देख लें-

इस धरती की सतह का सत्तर प्रतिशत हिस्सा सड़कों, खदानों और बढ़ते शहरीकरण की भेंट चढ़- गया है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि 2050 तक हमारे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो जाएगी और हम भयानक बीमारियों की गिरफ़्त में होंगे। दुनिया की आधी से अधिक नदियां प्रदूषित होंगी और इनका जल स्तर घट जाएगा। सदा नीरा यमुना और गंगा के हालात हमारे सामने हैं। संताप हरती इनकी ‘कल कल’ ध्वनि सुनने को कान आतुर-व्याकुल ही रह रहे हैं। यह भी माना जा रहा है कि मिट्टी और वनस्पति का क्षरण होगा, कृषि पैदावार और क्षेत्र घट जाएंगे। हालात भुखमरी के हो जाएंगे। माना यह भी गया है कि नब्बे फीसद संसाधनों का उपयोग मात्र पांच फीसद आबादी करेगी और दो-तिहाई लोग ऐसे होंगे जो गुजारा करने लायक भी नहीं रहेंगे। यह आकलन संयुक्त राष्ट्र संघ का है, जिसे कोई ग्यारह सौ वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। यह ब्यौरा है कि जो सर्वाधिक सक्षम है, विनाश का सबसे बड़ा निमित्त भी वही है। कह सकते हैं कि धरती अपना धर्म नहीं छोड़ रही, इस धरती पर खड़े हम मनुष्य ही अपने धर्म से च्युत हो रहे हैं।

पृथ्वी को बीमार होने से बचाएंपृथ्वी को बीमार होने से बचाएंऐसे धर्म-च्युत हम लोग बाईस अप्रैल को धरती दिवस (अर्थ डे) मनाने वाले हैं। हर साल यह दिन आता है। उस 2011 में भी, जब जापान (11 मार्च, 2011) में सुनामी आई थी। इस सुनामी और भूकंप में जापान के बीस हजार लोग मौत के शिकार हो गए थे और पांच लाख से अधिक बेघर। फिर भी दुनिया भर के लोग बाईस अप्रैल को अर्थ डे मनाने वाले हैं। हर साल मनाते आए हैं।

आचार्य विनोबा भावे एक पते की बात कहते थे। वे मानते थे कि मन में विकार पैदा हो सकता है, पर ‘चित्त’ में चिंतन चलता रहता है, जो निरहंकार होता है। इसलिए वे सामूहिक चित्त की बात करते हैं। वे कहते हैं कि किसी एक का मन मर जाए (लालच) में फंस जाए) तो सामूहिक प्रेरणा से उसे जगाया जा सकता है। बाईस अप्रैल की घटना इसी सामूहिक प्रेरणा की याद दिलाता है। न्यूयार्क की सड़क पर पसरी बेशुमार भीड़ जब थमी थी तो सामूहिक प्रेरणा का प्रस्फुटन उससे हुआ था, पर उस भीड़ से पहले जो चिल्लाया था, कहा था- यह धरती मर रही है, इसे बचाओ। यह चिल्लाने वाला कोई एक ही था। वह ‘एक’ आज कहां बचा है? और न ‘सामूहिक’ प्रेरणा के ही दर्शन हो रहे हैं।

भारतीय संस्कृतिक के विद्वान पंडित विद्यानिवास मिश्र ‘क्षमया पृंथिवीसमः’ में कहते हैं कि- ‘पृथ्वी का धर्म क्षमा है, जिससे यह उपमा बनी-क्षमया पृथिवीसमः।’ और इसी एक धर्म के कारण अनेक उलट-फेर, आंधी-पानी, प्लव-विप्लव और सुख-दुख झेल कर भी वह धरा बनी हुई है। पंडित मिश्र ने जहां पृथ्वी का धर्म क्षमा बता कर सब कुछ झेल जाने की बात कही है, वहीं अपने इस आलेख में वे आगे कहते हैं- ‘अपने देश की पृथ्वी को कर्मभूमि की संज्ञा दी है, उसको भोगभूमि का अधिकार हमने जानबूझ कर नहीं दिया।’ वे यह भी कहते हैं कि ‘हमने पृथ्वी को धात्री स्वीकार किया है, जिसके ऋण से हम कभी मुक्त होने की चाहना नहीं करते।’

जिस पृथ्वी को कर्मभूमि और धात्री के रूप में स्वीकार किया जाता है, उस पर लगने वाले नस्तर से अगर कोई आहत नहीं होता है तो क्या वह कृतघ्नता की श्रेणी में नहीं आता? इसी कृतघ्नता से युक्त होने, बचने का स्मरण हमें बाईस अप्रैल दिलाता है। ‘पृथ्वी दिवस’ का यही अभिप्रेय है।

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