सांस्कृतिक अस्मिता के सारथी


तालाबों ने समाजोत्थान एवं सुखद सांस्कृतिक परिवेश के साथ जन को एकता के सूत्र में पिरोए रखने में अपनी अहम भूमिका अदा की। बीकानेर में स्थिति विभिन्न समुदायों के तालाब और उनके आगोर परिसर व मन्दिर-बगीचियों में जाति, धर्म, लिंग, वर्ण के भेद से परे सम्यक व्यवहार को आज भी आचरण में देखा जा सकता है। संसोलाव तालाब के किनारे पहाड़ीनाथ परिसर में आज भी दोपहर के समय आप यह नजारा आसानी से देख सकते हैं कि जहाँ इसी समाज द्वारा निर्मित विभिन्न विकृत नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं।

संस्कृति व्यक्ति को अपने आगोश में समेटने और जीवन को परिष्कृत करने वाले परिवेश का नाम है। संस्कृति एक तरह से जीवनयापन का एक ढब भी है जिसमें उस समाज की भाषा, ज्ञान-विज्ञान, खान-पान, रहन-सहन, उसके कलानुभव, शिष्टाचार आदि विभिन्न घटक शामिल हैं।

हमारी अपनी परम्परा से प्राप्त संस्कार इसका चरित्र बनाते हैं। यह बात अलग, अलहदा है कि प्रायः इसके बनने व बिगड़ने को कला क्षेत्र से ही जोड़कर देखा जाता रहा है, जो किसी भी प्रकार से न्यायसंगत नहीं है। किसी भी नगर या राष्ट्र की सांस्कृतिक अस्मिता की बात जब की जाती है तो उसके मानी होते हैं उस राष्ट्र या नगर के लोगों के जीने के ढब और उसके पीछे काम कर रही दृष्टि।

जीवन के जीने के ढब के पीछे जो दृष्टि कार्य कर रही है, उसकी भूमिका समाज के लिये निर्णायक है क्योंकि उसी के अनुरूप समाज के स्वरूप का निर्धारण होगा। दृष्टि की उदात्तता और गहराई एक श्रेष्ठ समाज की अमूल्य पूँजी होती है जिसके सहारे वह समाज युगों-युगों तक अपनी संस्कृति के सातत्य को बरकरार रखता है।

अब प्रश्न उठता है कि आखिर इस दृष्टि का विकास समाज में कैसे होता है? या एक सभ्य समाज स्वयं अपनी विकास-प्रक्रिया में इसे कैसे प्राप्त करता है? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि किसी भी संस्कृति के स्वरूप-निर्धारण में विभिन्न घटक उत्तरदायी होते हैं। वे घटक उस संस्कृति के परिवेश से जुड़े होते हैं।

वस्तुतः किसी भी संस्कृति के परिवेश में वहाँ का सामान्य जीवन, जीवनमूल्य, कलात्मक रुचियाँ, व्यवहार, आचार-विचार, भौगोलिक परिस्थितियाँ एवं समन्वयात्मक प्रवृत्ति का योग होता है। जो संस्कृति अपनी सामान्य प्रक्रिया में इन सब का समन्वयात्मक स्वरूप ग्रहण कर इनमें ऐक्य स्थापित करने की ओर अग्रसर होती है, वही उदात्त दृष्टि वाली संस्कृति कही जाएगी।

संस्कृति एवं सांस्कृतिक परिवेश की उपर्युक्त स्थापनाओं के केन्द्र में बीकानेर को रखा जाये तो कह सकते हैं कि विगत पाँच सौ वर्षों में शहर ने राजस्थान प्रदेश में अपनी विशिष्ट पहचान इसी सांस्कृतिक परिवेश या कला से जीवन को जीने के अपने ढब से बनाई है। बीकानेर आध्यात्मिक और धार्मिक नगरी रही है। यहाँ के सांस्कृतिक परिवेश में धर्म का स्थान अधिक उच्च एवं महत्त्वपूर्ण है। यहाँ के लोग शान्त, सौम्य और मिलनसार रहे हैं।

आज भी प्रदेश के अन्य जिलों की तुलना में इन गुणों के रहते यहाँ का माहौल अपने-आप में एक मिसाल है। ऐसा नहीं है कि यहाँ एकाधिक समुदाय नहीं थे, ऐसा भी नहीं है कि यहाँ जातियों की बहुतायत नहीं थी और ऐसा भी नहीं है कि यहाँ विभिन्न धर्मों का प्रचलन नहीं रहा।

इन सबकी उपस्थिति शहर के अतीत से लेकर वर्तमान तक लक्षित की जा सकती है। परन्तु यहाँ की संस्कृति की आबोहवा में कुछ ऐसा था कि जिसने व्यक्ति-को-व्यक्ति से जोड़े रखा, समाज-को-समाज से, धर्म-को-धर्म से। किसी भी प्रकार की कटुता यहाँ लोगों के विचारों व व्यवहार में नहीं रही। वरन इसके बरअक्स मानवीयता ने सेतु रूप में कार्य करते हुए समाजोत्थान-यज्ञ के क्रम को जारी रखा।

तालाबों ने समाजोत्थान एवं सुखद सांस्कृतिक परिवेश के साथ जन को एकता के सूत्र में पिरोए रखने में अपनी अहम भूमिका अदा की। बीकानेर में स्थिति विभिन्न समुदायों के तालाब और उनके आगोर परिसर व मन्दिर-बगीचियों में जाति, धर्म, लिंग, वर्ण के भेद से परे सम्यक व्यवहार को आज भी आचरण में देखा जा सकता है।

संसोलाव तालाब के किनारे पहाड़ीनाथ परिसर में आज भी दोपहर के समय आप यह नजारा आसानी से देख सकते हैं कि जहाँ इसी समाज द्वारा निर्मित विभिन्न विकृत नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। जब एक पुष्करणा ब्राह्मण जाति का वयोवृद्ध शिला पर भांग घोटता है और पानी लाने वाला कोई गिरि-पुरी होता है। और बाद में भांग पीने वालों में स्वामी, सुथार एवं अन्य की उपस्थिति को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस दृश्य को देखते ही सहज भाव से मधुशाला में बच्चन की ये पंक्तियाँ स्मृति में कौंध उठती हैं:

मन्दिर-मस्जिद बैर करा दे
मेल कराती मधुशाला


यहाँ मधुशाला के स्थान पर तालाब को रखा जाये तो गलत नहीं होगा।

इसी प्रकार किसी भी तालाब की आगोर की सुरक्षा में उस तालाब विशेष का गठित प्रन्यास तो देखभाल करता ही था, साथ ही समाज के किसी भी वर्ग विशेष का कोई भी बाल, युवा, वृद्ध उसे नुकसान पहुँचाने वालों को इस प्रकार फटकारता मानों उसने आगोर को नहीं, वरन घर को क्षति पहुँचाई हो। यही नहीं, तालाबों पर भिन्न-भिन्न समाजों के मेलों के आयोजनों का क्रम भी चलता रहता। प्रायः सावन-भाद्रपद के सोमवार तो मेलों के लिये अघोषित किन्तु सर्वविदित दिन थे ही।

इन दिनों आप बीकानेर के किसी भी तालाब पर चले जाएँ, लोगों का सपरिवार आगमन, पूजा-अर्चना के बाद प्रकृति के खुले परिवेश में विचरण, बालकों का गऊ घाट पर पानी से कलोल, माताओं-बहनों का जनाना घाटों पर जमाव, पुरुषों द्वारा तालाब के तकिए से गंठे लगाना आदि को आसानी से देखा जा सकता है। हर्षोलाव पर आज भी श्रावण के सोमवार ऐसे ही किसी पुराने परिदृश्य की याद को ताजा कर देते हैं।

यही नहीं, करीब-करीब 15 से 20 तालाबों पर मेलों का आयोजन होता था। इसकी एक सूची परिशिष्ट में दी गई है। इसमें खास बात यह थी कि मेला भले किसी भी तलाई पर हो रहा हो, भले किसी जाति-समुदाय का हो, इसमें व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। प्रायः देखने में आया कि मेला किसी अन्य समाज और जाति-विशेष का, लेकिन सहभागिता पूरे समाज की और व्यवस्था भी समाज के किसी खास वर्ग व जाति की नहीं वरन पूरे समाज की थी। उदाहरण के लिये, खरनाडा तलाई, जो ब्राह्मण सुनारों की है, लेकिन ज्येष्ठ शुक्ला 12 से पूर्णिमा तक तेला मेले, शिवरात्रि के मेले, सूरजरोटे के मेले के आयोजन वहाँ समय-समय पर होते थे।

सर्वजाति के लोग इनमें शरीक होते थे और व्यवस्था वहाँ के प्रन्यासियों के साथ समाज के अन्य वरिष्ठ लोग देखते थे। अनुमानतः खरनाडा पर मेला होने पर ब्राह्मण सुनार समाज व्यवस्था में प्रमुखतः होना चाहिए, मगर ऐसा नहीं था। इन तालाबों ने साम्प्रदायिक वैमनस्य के माहौल को कभी नहीं पनपने दिया। यह तथ्य आश्चर्यजनक है कि गेमनापीर का मेला, जो मुस्लिम सम्प्रदाय से सम्बद्ध है, लौटते वक्त संसोलाव पर रुकता था और इन्हें तालाब में स्नान आदि की इजाजत भी होती थी।

इस मेले की देखभाल का जिम्मा यहाँ का स्थानीय ब्राह्मण समाज करता था। इस तरह से यहाँ हिन्दू-मुस्लिम अपने-अपने मेलों-मगरियों के अवसर पर स्वयं के खर्चे से निःशुल्क पीने के पानी, भोजन एवं अन्यान्य आध्यात्मिक व्यवहार की वस्तुओं की व्यवस्था भी करते थे, जिससे एक-दूसरे की संस्कृति को समझने में बड़ी मदद मिलती थी।

इस सम्बन्ध में रोचक तथ्य यह भी है कि व्यासों की बगीची, कसाइयों की तलाई एवं चूनगरान तालाब की आगोर एक-दूसरे से इतनी करीब थी कि कह सकते हैं लगभग एक ही थी, क्योंकि पानी जो बहकर आता, वह रास्ता तीनों का एक ही था, इसलिये तीनों जातियों के लोग मिल-जुलकर आगोर क्षेत्र की देखभाल करते थे। यह अपने आप में सांस्कृतिक सौहार्द्र एवं परिवेश की समृद्धि का सर्वोत्कृष्ट नमूना था। ये मेले संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया को देखने का एक साधन हो सकते थे, जिनके माध्यम से संस्कृति की विराटता और उसके नैतिक पक्ष को आसानी से समझा जा सकता है।

तालाब पर जाने वाले युवावर्ग को अपने समाज के वरिष्ठ लोगों से मुक्त संवाद का सुअवसर मिलता था, जिससे वे संस्कार, शिक्षा और अनुभव के अमूल्य रत्न प्राप्त किया करते थे। बुजुर्ग अपने जीवन के विविध अनुभवों से उपजे ज्ञान के द्वारा उनकी जीवन दृष्टि को और ज्यादा प्रखर बनाने में सहयोग करते थे। यही नहीं, वहाँ अनुशासन एवं मर्यादा का पालन भी अपरिहार्य था।

आज के जैसी उन्मुक्तता और उच्छृंखलता देखने-सुनने में नहीं आती थी क्योंकि लोग धार्मिक वृत्ति के थे और तालाब पवित्र स्थान माना जाता था। अतः किसी भी प्रकार के कुत्सित विचार एवं व्यवहार का सर्वथा अभाव ही था। बुजुर्ग व्यक्ति युवाओं को नेष्टा ठीक करने, पाल बाँधने और तालाब में आई गन्दगी को बाहर करने की सलाह समय-समय पर दिया करते थे। साथ ही इनके महत्त्व को भी प्रतिपादित करते थे ताकि युवावर्ग में दायित्व को भावना पनपे। यही दायित्व की भावना उन्हें एक बेहतर इंसान बनने में मदद करती थी।

तालाब भाईचारे और सौहार्द्र के केन्द्र थे। विभिन्न तालाबों पर समाज के सभी समुदायों के व्यक्तियों को गोठ करते देख हम अपनत्व को महसूस कर सकते थे। गोठों पर मित्र मंडली द्वारा आयोजित सामूहिक भोज, जिसमें सारा कार्य वह समूह-विशेष ही करता था, प्रायः तालाबों पर ही होती थी। गोठें निमित्त तो होती थी भोजन की, लेकिन उनका उद्देश्य तालाब के प्रति और व्यापक अर्थों में मानवीय सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के प्रति सजगता के रूप में देखा जा सकता है।

पेड़, पशु पक्षी आगोर का हिस्सा ही थे क्योंकि उनका स्वच्छंद विचरण इस परिक्षेत्र में होता रहता था। हरिण, मोर, खरगोश और लोमड़ी आदि को आसानी से अपने निज स्वरूप में अठखेलियाँ करते पा सकते थे। इस तरह प्रकृति के चक्र का सन्तुलन अपने मूल स्वरूप एवं क्रम में बना रहता था।

प्रकृति के साथ बना यह रागात्मक रिश्ता मनुष्य से प्रकृति को होने वाले नुकसान से बचाता था। पेड़ पर्यावरण सन्तुलन कायम करने में मदद करते थे। साथ ही कई प्रकार की प्रजातियों की वनस्पतियों से आयुर्वेदिक औषिधियों का निर्माण भी होता था जिससे उस जमाने में कई गम्भीर एवं असाध्य रोग ठीक हो जाते थे। कहा जा सकता है कि प्राकृतिक वातावरण शुद्ध होने के कारण मानसिक सन्ताप भी ज्यादा असर नहीं डाल पाते थे। परिणामस्वरूप व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रहता था।

उस जमाने में स्वीमिंग पूल तो नहीं थे, पर उनकी कमी भी तालाबों ने कभी महसूस नहीं होने दी। जतोलाई तो एक तरह से नौसिखिए तैराकों का ट्रेनिंग सेंटर था और घड़सीसर के बारे में तो यह प्रसिद्ध था कि जिसने घड़सीसर तैरकर पार कर लिया वह श्रेष्ठ तैराक मान लिया जाता।

हर्षोलाव पर श्री शंकरलाल हर्ष माणक हर्ष द्वारा निरन्तर कई वर्षों तक तैराकी प्रतियोगिताएँ आयोजित की गईं, जिससे बीकानेर के कई अच्छे तैराकों को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का न केवल अवसर ही मिला वरन कालान्तर में उन्होंने प्रदेश में अपने दमखम का परचम भी फहराया। हर्षोलाव पर तो बाकायदा बाद में जम्पिंग स्टैंड आदि बनाकर उसे आधुनिक रूप दिया गया।

तैराकी सीखने के लिये लोग आज की भाँति स्वीमिंग क्लब नहीं जाते थे, जहाँ पहले पंजीयन करवाएँ, फिर नियमित फीस और उसके बाद भी आधा-अधूरा कौशल, उसमें भी आप कितना सीख पाते हैं, यह आप पर निर्भर है। यहाँ तो जतोलाई, हरोलाई, चेतोलाई आदि छोटे तालाब एक तरह से बच्चों के वास्ते ही थे या कह लें, नौसिखियों के लिये ही थे। वहाँ कोई प्रशिक्षक नहीं होता था वरन वरिष्ठ नागरिक ही यह भूमिका अदा करते थे।

सुरक्षा प्रहरी भी उन्हीं का कोई साथी-संगी होता था। वे अपने कौशल का हस्तान्तरण अपने से अगली पीढ़ी को कर बहुत आनन्दित होते थे। कुछ तलाइयाँ का जल केवल पीने के लिये ही काम आता था, अतः वरिष्ठजन इस बात का विशेष ख्याल रखते थे कि भूल से भी कोई उनमें नहाए नहीं और कई जगह नहाने की छूट भी शामिल थी लेकिन साबुन लगाना वर्जित था। अगर कोई साबुन लगाकर नहाना चाहता तो पहले घाट से अधिक दूर बाल्टी से पानी ले जाकर रख लेता फिर स्नान को उद्दत होता।

मेले-मगरिए आये दिन होते रहने से एक समाज के लोग दूसरे समाज की संस्कृति या जीवनशैली को करीब से पहचान लेते थे। अतः उन्हें एक-दूसरे को समझने, उनके साथ सामंजस्य बिठाने में कभी कोई कठिनाई नहीं होती थी। समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग के प्रति वफादार था। उनमें बलिदान की भावना थी। समानता का बोलबाला था।

प्रेम की हवा में विश्वास के फूल खिलते थे और संस्कृति की बगिया सरसाई रहती थी। सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया की भावना यहाँ की जन-संस्कृति के जीवन-व्यवहार में स्पष्ट परिलक्षित की जा सकती थी। लोग स्थानीयता, जातीयता और अलगाववाद की भावना से कोसो दूर थे। बुजुर्गों से बातचीत करने पर पता चला कि ये पद पिछले बीस-तीस साल से ही सुनने में आ रहे हैं। यह 20-30 वर्ष का समय ही ताल-संस्कृति के क्षरण का रहा है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि ताल-संस्कृति के नष्ट होने से संस्कृति के स्वरूप पर विपरित असर पड़ा है। तालाब भाईचारे और सौहार्द्र के केन्द्र थे। विभिन्न तालाबों पर समाज के सभी समुदायों के व्यक्तियों को गोठ करते देख हम अपनत्व को महसूस कर सकते थे। गोठों पर मित्र मंडली द्वारा आयोजित सामूहिक भोज, जिसमें सारा कार्य वह समूह-विशेष ही करता था, प्रायः तालाबों पर ही होती थी। गोठें निमित्त तो होती थी भोजन की, लेकिन उनका उद्देश्य तालाब के प्रति और व्यापक अर्थों में मानवीय सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के प्रति सजगता के रूप में देखा जा सकता है।

संस्कृति के विभिन्न अवयव मिलकर एक-दूसरे के पूरक होने का उपक्रम करते थे। यही संस्कृतिजन्य विविधता और इसमें व्याप्त ऐक्य की भावना हमारी संस्कृति के समग्र स्वरूप का निर्धारण करती थी। गोठ वाले चाहे किसी भी तालाब पर गोठ कर रहे हो, पहले-पहल उनकी एक मंडली, जो पाक-कला में निष्णात होती थी, वह सारे समूह के वास्ते भोजन तैयार करने में जुट जाती।

ईंधन के लिये लकड़ियाँ आगोर परिसर की ही प्रयुक्त की जाती थी, लेकिन किसी हरे-भरे पेड़ को तोड़कर नहीं बल्कि जो टूटी-सूखी डालियाँ यत्र-तत्र बिखरी होती थीं उन्हें ही एकत्र कर अपना काम साधा जाता था। इसमें दो फायदे थे- एक तो आगोर की सफाई हो जाती थी, दूसरा, बलीता (जंगल में बिखरी लकड़ियाँ, भोजन बनाने के लिये उपयुक्त ईंधन) मिल जाता था। इसी प्रकार किसी सघन छाया वाले वृक्ष को ओट में बैठकर या तालाब पर रसोई बनाने के उपयुक्त स्थान पर समूह के लिये खाना तैयार करना शुरू किया जाता था। फिर शुरू होता था सामाजिक दायित्व।

सभी मिलकर आगोर की विभिन्न दिशाओं में उसी विभिन्न अनावश्यक बोरटियों को काटकर एवं गन्दगी व कचरा अगर भूलवश भी किसी ने इस परिक्षेत्र में डाल दिया है, तो उसकी सफाई करते-करवाते। किसी पेड़, पशु-पक्षी को उचित मानवीय संरक्षण की आवश्यकता होती तो सुविधानुसार वह भी उपलब्ध करवाते। तत्पश्चात बारी आती नहाने की। यहाँ भी समूह नहाने के वास्ते सीधे तालाब में छलांग नहीं लगाता वरन वह अपे कर्तव्यसागर की इन बूँदों को दूषित करने वाले अपशिष्ट पदार्थों को, जो घाटों के ईर्द-गिर्द आ गए हों, ढूँढता था, फिर होती जल में कलोल।

हम कह सकते हैं कि मानवीय संस्कृति के उत्तम चरित्र का यह चित्र सावण-भादवे में ही नहीं वरन सामान्य दिनों में भी किसी समुदाय या समूह द्वारा आयोजित गोठ के अवसर पर तालाबों की आगोर पर देखा जा सकता था। लेकिन नगरीकरण की वक्र दृष्टि ने इस संस्कृति एवं इससे बने सस्कारित चरित्र को गहरे तक आहत किया है। इसी कारण नगर का वातावरण, जो एक हवा व सौ दवा का पर्याय माना जाता था, कालान्तर में दूषित हो गया।

सुनने में यह भी विचित्र लगेगा कि एक समय में जब ताल-संस्कृति और उसके विभिन्न घटक अपने पूर्व यौवन पर थे, तब दूरदराज प्रदेशों के वैद्य, चिकित्सक यहाँ पर हवा-पानी बदलने के लिये रोगियों को भेजते थे। उनके परामर्श से रोगी बीकानेर में सावण-भादवे के महीनों में आते थे। और वाकई यह वातावरण के जादुईपन का ही असर था कि महानगर में भी जिस गम्भीर रोग से ग्रसित होकर स्वयं को अवसादग्रस्त महसूस करते थे, यहाँ की आबोहवा से रूबरू होते ही तरोताजा हो जाते और अपनी बीमारी को भूलकर, स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर पुनः अपने कार्य सम्पादन हेतु वे मूल स्थान पर चले जाते थे। उनके यहाँ आने से स्थानीय तांगा व्यवसायियों की कमाई पर फर्क पड़ता था।

वे जितनी मजदूरी तीन माह में करते थे उससे अधिक तो इन एक-आध माह में ही हो जाया करती थी क्योंकि उनके घूमने के साधन के रूप में देशी साधन तांगा ही सवारी का आरामदायक एवं उत्तम साधन था। महानगरों की तरह जहर उगलने वाली अब की तरह की टैक्सियाँ उस समय यहाँ नहीं थीं अतः रोगी या सेठ-साहूकार स्टेशन से उतरते ही तांगा बुक कर लेते थे। फिर लम्बा नियमित भ्रमण या आसपास मन्दिर आदि तक रोजाना उसी में सवार होकर आया-जाया करते थे।

आज से 27 वर्ष पहले साप्ताहिक मरुदीप के सम्पादक के तौर पर श्री नन्दकिशोर आचार्य एवं स्तम्भकार डॉ. श्रीलाल मोहता ने टैम्पो संस्कृति का विरोध किया था। इनका मानना था कि ये टैक्सियाँ तांगा व्यवसाय को निगल जाएँगी। साथ ही पर्यावरण को प्रदूषित करेंगी, अतः इसका होना इस शहर के लिये शुभ संकेत नहीं है। आज यह सच साबित हो रहा है।

इस प्रकार पर्यटन से होने वाला परोक्ष-अपरोक्ष लाभ भी शहर को व यहाँ के निवासियों को मिलता रहा। कालान्तर में संस्कृति के ह्रास ने इसको प्रभावित किया। परिणामस्वरूप औद्योगिकीकरण के बढ़ते प्रभाव ने तांगा व्यवसाय को ही उठा दिया और वही शहर, जो स्वस्थ होने के लिये संस्तुत था, अब स्वयं बीमारियों के घर में तब्दील होता चला गया।

मींडजी की बगीची के रास्ते को, जो संसोलाव तालाब के पीछे करमीसर सड़क के नाम से विख्यात था, आजकल व्यंग्यार्थ में शुगर रोड कहा जाता है क्योंकि वहाँ घूमने वाला भला-चंगा कोई विरला ही होता है। अक्सर सारे-के-सारे भ्रमणार्थी मधुमेह, खून के दबाव, हृदयाघाट आदि से ग्रस्त ही होते हैं। मधुमेह के मरीजों की संख्या इनमें सर्वाधिक होती है अतः इसे सुगर रोड कहा जाता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि शहर भी वही है और लोग भी वहीं हैं, लेकिन आबोहवा वह नहीं रही, जीने का ढंग वह नहीं रहा और इसके चलते शहर के इस चरित्र में सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सजगता का अभाव हुआ और उससे होने वाले नुकसान की भरपाई दिन-ब-दिन दूभर होती जा रही है, जो समाज के लिये एक चिन्तनीय विषय हो गया है। अगर इस क्रम को संस्कृति के सभी अवयवों द्वारा मिलकर किसी रचनात्मक तरीके से रोका नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब स्वच्छ वातावरण वाला यह शहर कहानियों किस्सों में सुनने को ही मिलेगा, हकीकत में नहीं।

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, लेकिन इतिहास में समय ने जितना तीव्रतम परिवर्तन इस समय अपने चरित्र में किया है उतना किसी अन्य कालखण्ड में शायद ही किया हो। ऐसे मुश्किल समय में, जब चीखना-चिल्लाना, अवसाद, वचनस्खलना आदि ही मानव चरित्र की नियति बन गई हो, तब अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप को, यह कह लें कि सांस्कृतिक अस्मिता को उसके मूल स्वरूप में बचा पाएँ तो मानवता के लिये एक अप्रतिम उपहार होगा।

 

जल और समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्र.सं.

अध्याय

1

जल और समाज

2

सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास

3

पुरोवाक्

4

इतिहास के झरोखों में बीकानेर के तालाब

5

आगोर से आगार तक

6

आकार का व्याकरण

7

सृष्टा के उपकरण

8

सरोवर के प्रहरी

9

सांस्कृतिक अस्मिता के सारथी

10

जायज है जलाशय

11

बीकानेर के प्रमुख ताल-तलैया

 

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