सामुदायिक वन प्रबंधन का अनूठा प्रयोग

गांव वालों के प्रयास से जंगलों को मिला नवजीवन


इस पंचायत में एक गांव है- कठारा। यह गांव मूलतः आदिवासियों का गांव है। आदिकाल से ही इनका जल, जंगल और जमीन से भावनात्मक लगाव रहा है। जल, जंगल और जमीन के प्रति गहरी आस्था उनकी परंपरा रही है। दरअसल जिरवा पंचायत के लोगों के लिए कठारा गांव के आदिवासी ही प्रेरणास्रोत बने। पंचायत के लोगों ने वनों के संरक्षण व संवर्धन की कला इन्हीं आदिवासियों से सीखी।

आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर जिस तरह से जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। उसका दुष्परिणाम हम सबके सामने है। जंगलों को बचाने के लिए कोई ठोस उपाय कारगर सिद्ध नहीं हो रहा है। ऐसे में झारखंड के चतरा स्थित सिमरिया के जिरवा पंचायत के लोगों ने तकरीबन पांच सौ हेक्टेयर क्षेत्र में जंगलों को पुनर्जीवित कर सामुदायिक वन प्रबंधन का अनूठा प्रयोग किया है। गांव वालों के प्रयास से यहां के जंगलों में सखुआ, आसन व चकोड़ी के हजारों वृक्ष अपने यौवन पर इतरा रहे हैं। चतरा जिले के सिमरिया प्रखंड के जबड़ा-सलगी सड़क के दोनों ओर समृद्ध होते जंगलों को देखकर मन पुलकित हो जाता है। कभी जंगलों के सघन छांव में बसने वाले चतरा जिले में ऐसे दृश्य अब दुर्लभ हो चुके हैं। आज जब हर तरफ जंगलों का तेजी से ह्रास हो रहा है और इसे बचाने में वन विभाग विफल साबित हो रहा है,तो जिरवा पंचायत के लोगों ने यह चमत्कार कैसे किया?

जबड़ा-सलगी के रास्ते में मिले इसी पंचायत के इंद्रनाथ भोक्ता के अनुसार महज दस से पंद्रह वर्ष पहले की बात है। यहां के जंगल वीरान हो चुके थे। मवेशियों के चरने-विचरने भर भी जंगल शेष नहीं रह गया था। जंगल के नाम पर कटे वृक्षों के ठूठ और झाड़ ही बचे थे। गांव वालों को जलावन और छप्पर छारने के लिए बांस-बल्ली की भी समस्या खड़ी हो गई थी। जंगलों के उजड़ने से उनके जीवन में एक साथ कई तरह के संकट खड़े हो गए थे। उन्हीं दिनों गांव वालों को यह अहसास हुआ कि जीवन के लिए जंगल कितना जरूरी है। फिर उन्होंने वनों को संरक्षित-सवंर्धित करने का फैसला किया। पंचायत के सभी गांव-समुदाय की बैठक बुलाई गई। बैठक में सभी लोगों ने एक स्वर से जंगल बचाने-बढ़ाने का प्रण किया। तय किया कि न हम जंगल उजाड़ेंगे और न दूसरों को उजाड़ने देंगे। उन्होंने वन भूमि को वन देवी और वृक्षों को भाई माना। इनकी रक्षा के लिए वन देवी की पूजा और वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा शुरू की। बैठक में बनाए गए नियम-कानून का सख्ती से पालन करने का भी फैसला किया। इसका उल्लंघन करने वालों के लिए दंड भी तय किया। गांव वालों का सामूहिक प्रयास रंग लाया और दशक-डेढ़ दशक में ही फिर से क्षेत्र में जंगल आबाद हो गए।

जिरवा पंचायत का यह इलाका चतरा जिले के दक्षिणी वन प्रमंडल के अंतर्गत है। इन गांवों में वन विभाग ने संयुक्त वन प्रबंधन के तहत वन समितियां भी गठित कर रखी है। लेकिन इन समितियों के बारे में गांव वालों को कई खास जानकारी नहीं है। झारखंड में वन विभाग ने संयुक्त वन प्रबंधन को 2001 में अपनाया। इसका मूल उद्देश्य जंगलों के आस-पास के गांवों में वन समितियां गठित कर जंगलों की सुरक्षा की जिम्मेवारी गांव वालों को ही सौंपना है। चतरा जिले के कुछ इलाके में संयुक्त वन प्रबंधन के तहत जंगलों को बचाने-बढ़ाने का प्रयास हो भी रहे हैं। लेकिन जिरवा पंचायत में संयुक्त वन प्रबंधन के तहत कोई काम नहीं हो रहा है। यहां के लोगों ने अपने बूते पर ही जंगलों को पुनर्जीवित कर एक मिसाल पेश किया है।

इस पंचायत के अंतर्गत कठारा, कुरूमडाड़ी, अर्सेल, जिरवा, टुनदाग, सलगी व शेरेगडा गांव आते हैं। जंगलों की सुरक्षा की जिम्मेवारी इन सभी गांवों की है। गांवों के लोगों ने जंगलों को कई भागों में विभक्त कर रखा है। जंगल का जो भाग जिस गांव से सटा है, उसकी देखभाल उसी गांव की जिम्मेवारी है। पंचायत के मुखिया मनोरंजन सिंह के अनुसार इस क्षेत्र में वन विभाग के अधिकारी नहीं आते हैं। विभाग द्वारा गांवों में गठित वन समितियों की कभी कोई बैठक नहीं होती है। लेकिन जंगलों की सुरक्षा को लेकर समुदाय की बैठक हर एक या दो महीने के अंतराल पर होती रहती है। इन बैठकों में जंगलों की सुरक्षा में कोताही बरतने या किसी व्यक्ति द्वारा जंगलों या वृक्षों को नुकसान पहुंचाए जाने जैसे मामले पर चर्चा की जाती है। ऐसी बैठकों में किसी व्यक्ति को दोषी पाए जाने पर उसे दंडित भी किया जाता है। दोषी व्यक्ति पर पांच सौ रुपए तक जुर्माना लगाया जा सकता है। गांव के लोगों ने यह भी तय कर रखा है कि जब जंगल पूरी तरह तैयार हो जाएंगे तो भी वन्य उत्पादों का दुरूपयोग नहीं किया जाएगा। गांव के लोग वनों से वन्य उत्पादों की निकासी उतनी ही मात्रा में करेंगे, जिसकी भरपाई एक नियत समय के भीतर खुद हो जाएगी।

इस पंचायत में प्रत्येक वर्ष वन देवी की पूजा की परंपरा है। यह परंपरा जंगलों से लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने के उद्देश्य से शुरू किया गया है। वन देवी की पूजा के अवसर पर गांवों के पुरुष व महिलाएं वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधते हैं और उनकी सुरक्षा का संकल्प लेते हैं। इसके लिए विशेष अनुष्ठान आयोजित किया जाता है। इस कार्य में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पेशे से शिक्षक बसंत सिंह के अनुसार वनों की सुरक्षा के लिए लोग ईमानदारी से तभी आगे आएंगे, जब उनमें वनों के प्रति प्रेम होगा। लोगों में जंगलों के प्रति प्रेम और सहानुभूति की भावना जागृत करने के लिए इस क्षेत्र में वन देवी की पूजा और वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा शुरू की गई है। इस परंपरा के निर्वाह के लिए आयोजित अनुष्ठान में गांव के मुखिया और चार महिलाएं आठ घंटे का उपवास रखते हैं। इसके बाद जंगल में ही वन देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। इस अवसर पर सभी गांव के लोग इकट्ठा होते हैं और पंडित मंत्रोचारण कर पूजा की रश्म पूरा करते हैं। पूजा संपन्न होते ही सभी लोगों के बीच प्रसाद का वितरण होता है। इसके बाद शुरू होता है वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने और उनकी सुरक्षा के लिए संकल्प लेने का सिलसिला। वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने के लिए सालू के लाल रंग के कपड़े का इस्तेमाल किया जाता है। इस कोमल कपड़े को वृक्षों की टहनियों में लोग उतने ही प्रेम से बांधते हैं, जैसे रक्षाबंधन के मौके पर कोई बहन अपने भाई को राखी की डोरी बांधती हैं।

इस पंचायत में एक गांव है- कठारा। यह गांव मूलतः आदिवासियों का गांव है। आदिकाल से ही इनका जल, जंगल और जमीन से भावनात्मक लगाव रहा है। जल, जंगल और जमीन के प्रति गहरी आस्था उनकी परंपरा रही है। दरअसल जिरवा पंचायत के लोगों के लिए कठारा गांव के आदिवासी ही प्रेरणास्रोत बने। पंचायत के लोगों ने वनों के संरक्षण व संवर्धन की कला इन्हीं आदिवासियों से सीखी। जब पंचायत के लोगों ने वनों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया तो आदिवासी समुदाय के लोगों ने उसमें अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने पंचायत के दूसरे समुदाय के साथ मिलकर अपने परंपरागत वन संरक्षण व संवर्धन के तरीके को विकसित किया और जंगलों को नवजीवन देने में अहम भूमिका निभाई। पंचायत के मुखिया मनोरंजन सिंह ने बताया कि जब भी जंगलों को बचाने-बढ़ाने की बात चली, आदिवासी समुदाय के लोगों ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जंगलों को पुनर्जीवित करने में इनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

जिरवा पंचायत में सामुदायिक वन प्रबंधन के सफल होने के कई कारण है। वनों के संरक्षण के लिए इच्छा शक्ति के साथ वनों के प्रति गहरा लगाव और आस्था भी जरूरी है। सरकार चाहे लाख वन समितियां बना लें, पर समितियों में शामिल लोगों में अगर वनों के प्रति प्रेम न हो तो फिर उसका कोई फायदा नहीं है। वनों के आस-पास रहने वालों को यह अहसास कराना जरूरी है कि वन मानव जीवन के लिए कितना आवश्यक है।

(लेखक झारखंड में स्वंतत्र पत्रकार के रूप में कार्य करते हैं)

Path Alias

/articles/saamaudaayaika-vana-parabandhana-kaa-anauuthaa-parayaoga

Post By: Hindi
×