सामाजिक उत्तरदायित्व और पीपीपी

पीपीपी परियोजना द्वारा जल आपूर्ति पर कड़ा राशनिंग लागू है।
पीपीपी परियोजना द्वारा जल आपूर्ति पर कड़ा राशनिंग लागू है।
इस अध्याय में सार्वजनिक सेवाओं के कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक पक्षों पर विचार करेंगे और देखेंगें जल क्षेत्र में समाज कल्याणकारी उत्तरदायित्वों पर पीपीपी का प्रभाव किस प्रकार पड़ सकता है। यहाँ समाज कल्याणकारी कर्तव्य महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि पानी एक अद्वितीय प्राकृतिक संसाधन है और मूलतः सार्वजनिक संसाधन है। अतः पानी अत्यधिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य और आर्थिक तथा राजनैतिक महत्त्व रखता है। जलप्रदाय व्यवस्थाएँ ’’प्राकृतिक एकाधिकार’’ होती हैं क्योंकि व्यवस्थाओं को प्रारंभिक रूप से स्थापित करने में बहुत बड़ी लागत आती है जैसे संचारण और वितरण पाईप लाइनों को बिछाने में इसलिए बाजार में प्रतिस्पर्धा की संभावना कम होती है। प्रतिस्पर्धा के अभाव में निजी कंपनी द्वारा उपभोक्ताओं के शोषण की स्थिति बन सकती है। सामाजिक दृष्टिकोण से पानी सार्वजनिक संसाधन है तथा इसके बगैर जीवन संभव नहीं और इसका कोई विकल्प भी नहीं है। पानी एक ऐसा सार्वजनिक संसाधन है जो अनन्य नही हो सकता है और जिसका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है (नॉन एक्सक्लूडेबल एण्ड नॉन रायवल) यह इसके विशेष लक्षण हैं। मानव जाति के लिए पानी अद्वितीय है और जीवन के लिए परमावश्यक स्थान रखता है विशेषकर, समाज के गरीब और पिछडे़ वर्गों के लिये। अतः पानी को मानव अधिकार के रूप में मानने की बढ़ती हुई माँग व उसका क्रियांवयन विभिन्न सामाजिक संस्थाओं और सरकारों द्वारा किया जा रहा है।

प्रावधान की जिम्मेदारी या वितरण सेवा


पीपीपी के अंतर्गत सामाजिक सेवाएँ उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी निजी भागीदार के ऊपर हस्तांतरित हो जाती है। परन्तु कई मामलों में यह सार्वजनिक प्राधिकरण के पास भी रह सकती है जो दोनों भागीदारों के बीच की अनुबंधीय शर्तों पर निर्भर करेगी। उदाहरणार्थ तिरूपुर जलप्रदाय परियोजना में, निजी कंपनी सेवा प्रदान करती है और थोक आपूर्ति का शुल्क सार्वजनिक संस्था से वसूल करती है। ऐसे प्रकरणों में नागरिकों को पानी उपलब्ध करवाने की जवाबदेही और जिम्मेदारी सार्वजनिक संस्था पर होती है, जो अनुबंधानुसार निजी कंपनी द्वारा सेवा प्रदान करने पर निर्भर रहता है। मैसूर, खण्डवा, नागपुर, हुबली-धारवाड़ आदि जगहों की जलप्रदाय परियोजनाओं में सेवा उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी निजी कंपनी को दी गई है। यह सामान्य रूप से अनुशंसित तरीका है क्योंकि इससे उम्मीद की जाती है कि निजी कंपनी द्वारा जल वितरण में अति प्रचारित कार्यक्षमता उपलब्ध हो सकेगी। तकनीकी और आर्थिक रूप से इसका यह मतलब है कि निजी कंपनी मुनाफे के लिए सार्वजनिक जलप्रदाय सेवा के संचालन की जिम्मेदारी स्वयं पर ले लेती हैं।

निजी क्षेत्र के लिए पीपीपी आकर्षक है क्योंकि ऐसी परियोजनाएँ उन्हें लम्बे समय (जैसे 25 वर्षों का अनुबंध) के लिए सुनिश्चित एवं सतत आय और मुनाफा प्रदान करती हैं। अंतर्निहित लाभेच्छा के कारण सामान्यतः निजी क्षेत्र समाज के सम्पन्न वर्गों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जो सेवाओं के बदले उपभोक्ता शुल्क चुका सकते हैं। आम जनता, विशेषकर समाज के हाशिए पर स्थित और आर्थिक रूप से पिछडे़ वर्गों जिनकी भुगतान क्षमता कम होती है, को आवश्यक सेवा प्रदान करने में निजी क्षेत्र की रुचि कम होती है। अर्जेंटीना का टुकुमान और सान्ता फे प्रांत, मलेशिया का केलान्टन, पोर्टोरिको और साउथ अफ्रीका में कोनकोबे, गिनी में कोनाक्री आदि जैसे अनेक स्थान ऐसी घटनाओं के साक्षी हैं, जहाँ निजी कंपनियों ने जलप्रदाय की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है। यह अनुभव किया गया है कि निजी कंपनियों ने गरीब वर्गों को उनकी कम भुगतान क्षमता के कारण अनुबंधानुसार आवश्यक सेवा प्रदान करना टाला है उनकी उपेक्षा की है या आपूर्ति हेतु मना कर दिया है।

भारत जैसे देश में स्थितियाँ ज्यादा चिंताजनक हो सकती हैं जहाँ बीते कुछ सालों की ऊँची सकल घरेलू उत्पाद दरों के बावजूद भारी आर्थिक असमानताएँ व्याप्त हैं। विश्व बैंक के विश्लेषणों में दर्शाया गया है कि भले ही प्रतिदिन एक डॉलर से कम पर जीने वाले लोगों की संख्या 1981 की 29.6 करोड़ से घटकर 2005 में 26.7 करोड़ हो गई हो फिर भी प्रतिदिन 1.25 डॉलर से कम पर जाने वाले लोगों की संख्या 42.1 करोड़ से बढ़कर 45.6 करोड़ हो गई है।

तिरूपुर जैसी परियोजना में पाया गया है कि निजी कंपनी ने अधिकांश मामलों में ग्राम पंचायतों की पानी की माँग को अनदेखा किया है और पर्याप्त आपूर्ति से मना कर दिया है। जबकि औद्योगिक उपयोग के लिए पानी चैबीसों घण्टे दिया जा रहा है।

तिरूपुर जलप्रदाय और मलनिकासी परियोजना (एनटीएडीसीएल) के अध्ययन दर्शाते हैं कि यह परियोजना ’’जल की उपलब्धता, गुणवत्ता, भेदभावरहित पहुँच और सूचना प्रसार के अंतर्राष्ट्रीय मानकों’’ का उल्लंघन करती है।

यह देखना भी दिलचस्प होगा कि तिरूपुर परियोजना के अनुबंध में पानी की मात्रा का पुनर्निर्धारण किस प्रकार किया गया है-‘‘एनटीएडीसीएल को उपर्युक्त प्राकृतिक पानी (जिस अवस्था में नदी में उपलब्ध हो) की मात्रा के पुनर्निर्धारण का संपूर्ण अधिकार है कि अगर घरेलू जरूरतों के लिए निर्धारित पानी की मात्रा को नहीं लिया जाए या तिरूपुर नगरपालिका या मार्ग के गाँवो द्वारा उसका मूल्य न चुकाया जाए तो वह सेवा क्षेत्र में अन्य खरीददार को पानी दे सकेगा’’।

आगे भी यह कहा है कि ‘‘तिरूपुर नगरपालिका, मार्ग के गाँवों और औद्योगिक इकाईयों को पीने योग्य अनुबंधित जलप्रदाय करने के बाद बचने वाले जल का एनटीएडीसीएल को अपने विवेक से प्रदाय या निपटान करने का पूरा अधिकार होगा’’। इसका मतलब यह है कि तिरूपुर नगरपालिका और गाँवो की जल आपूर्ति के पश्चात अनुबंध के अनुसार एनटीएडीसीएल जैसा चाहे वैसे बचे हुए पानी की मात्रा का पुनर्निर्धारण और निपटान कर सकता है। प्रभावी रूप से अनुबंध एनटीएडीसीएल को तिरूपुर शहर और गाँवों के जल संकटग्रस्त लोगों में इस शेष बचे पानी को प्रदाय करने के लिए बाध्य नहीं करता है। अनुबंध निजी कंपनी को खुली छूट देता है कि वह अधिशेष पानी को अपने निजी लाभार्जन के लिए व्यावसायिक स्तर पर बेच सके बजाय इस जिम्मेदारी के कि वह लोगों को सेवाप्रदाय करे।

अन्य अध्ययनों में दर्शाया गया है कि ’’भागीदारीपूर्ण निर्णय प्रक्रिया, समुचित जलप्राप्ति, शिकायत निपटान प्रक्रिया, पारदर्शिता और जवाबदेही की दृष्टि से पीपीपी मॉडल का कार्य बहुत दयनीय रहा है और अध्ययनांतर्गत अधिकांश गाँवों के समुदाय इससे बेहद नाखुश हैं’’।

हाल ही में ऐसी रिपोर्टें आई हैं कि एनटीएडीसीएल ने कोयम्बतूर (तमिलनाडु) व उसके आसपास के पानी की किल्लत वाले क्षेत्र के उद्योगों को अतिरिक्त पानी को बेचने का प्रस्ताव रखा है। रिपोर्ट में कंपनी के एक अधिकारी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि वे प्रतिदिन 3 करोड़ लीटर जलप्रदाय कर सकते हैं।

सामुदायिक कल्याण एवं समानता


पीपीपी मॉडल में निजी कंपनी को दाम चुकाकर उपयोग करने और लागत वसूली के व्यावसायिक सिद्धांत पर आधारित सेवा प्रदान करने का विकल्प दिया जाता है। चूँकि कंपनी को अपनी सम्पूर्ण लागत मूल्य और संचालन व्यय वसूलना होता है इसलिए वह उपयोगकर्ता से शुल्क प्राप्त कर सेवा प्रदान करती है अर्थात जो भी मूल्य चुकाने में समर्थ होगा उसे सेवा दी जाएगी। ऐसा मॉडल बाजार में निजी उत्पादों और सेवाओं के लिए तो ठीक है परन्तु, पानी और स्वच्छता जैसी सार्वजनिक सेवाओं के मामलों में यह अत्यंत विवादास्पद और सामाजिक रूप से विघटनकारी हो सकती है। यह भारत जैसे विकासशील देश में और भी गंभीर हो सकता है, जहाँ जनसांख्यिकी (डेमोग्राफिक), भुगतान क्षमता, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ पश्चिमी देशों से बिल्कुल अलग हैं। इसके अलावा यहाँ वर्ग, जाति, धर्म, और संप्रदाय जैसे कारकों की वजह से स्थितियाँ बहुत तेजी से अनियंत्रित हो सकती हैं।

 इसलिए ऐसी विविधता वाले परिवेश में पीपीपी परियोजनाओं के क्रियांवयन के लिए सावधानीपूर्वक पड़ताल और मूल्यांकन की आवश्यकता है। पानी और स्वच्छता की सेवाओं के निजीकरण से अधिकांश लोगों को उनके जीवित रहने के अतिआवश्यक संसाधन और मानव अधिकार से वंचित किया जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका में नेल्सप्रुईत और केपटाउन, फिलीपीन्स के मनीला और बोलीविया के अल अल्टो और ला पाज में जहाँ जलप्रदाय परियोजना का निजीकरण हुआ है, देखा गया है कि निजी कंपनियाँ अपने महँगे कनेक्शन और जलप्रदाय शुल्क के कारण गरीब क्षेत्रों को पानी देने में सामान्यतः अनिच्छुक रहती हैं। सामुदायिक और व्यापक जनकल्याण की दृष्टि से ऐसी अत्यंत आवश्यक सेवाएँ सार्वजनिक संसाधन के रूप में रहें और सार्वजनिक सेवा के रूप में प्रदान की जाए। वास्तव में ढाका (बांग्लादेश), नामपेन्ह (कंबोडिया) और पोर्टो अलेग्रे (ब्राजील) जैसे सार्वजनिक उपक्रमों के ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने दर्शा दिया है कि गरीबों के घरों में भी पानी के कनेक्शन कम खर्च में लगाए और कम शुल्क पर चलाए जा सकते हैं।

कल्याणकारी राज्य के सामाजिक दायित्व के दृष्टिकोण से भी यह आवश्यक है कि पानी और स्वच्छता जैसी सार्वजनिक सेवाएँ नागरिकों की समानता, न्याय और सम्मानजनक जीवन के महत्त्वपूर्ण लक्ष्य को हासिल करने के लिए विकसित की जाए। परन्तु वित्तीय स्थायित्व के सिद्धांत से ग्रस्त पीपीपी मॉडल में गरीबों और पिछड़े वर्गों को उनकी कम भुगतान क्षमता के कारण व्यवस्था से ही बाहर फेंका जा सकता हैं। ऐसा मॉडल किस प्रकार समानतापूर्ण व न्यायोचित जलप्रदाय और स्वच्छता व्यवस्था बनाने में सहयोग दे सकता है यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है और यह बहुत शंकास्पद है कि कैसे यह मॉडल संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित ’मिलेनियम डेवलपमेन्ट गोल्स’ (सहस्राब्दि विकास लक्ष्य) के लक्ष्य-10 को पूरा करने में सरकारों की मदद कर सकता है ? चूँकि इन मॉडलों का मुख्य लक्ष्य पानी व्यवस्था से उपभोक्ता शुल्क और पूर्ण लागत वसूली कर वित्तीय स्थायित्व प्राप्त करना है, इसलिए व्यापक समुदायिक और जन कल्याण के महत्त्वपूर्ण मुद्दों-समानता, न्याय और मानव अधिकार पर ध्यान नहीं दिया गया है।

सामुदायिक कल्याण में भारत की स्थिति


व्यापक सामुदायिक कल्याण, समानता और मानवीय विकास के लिए सार्वभौमिक जल और स्वच्छता सेवाएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा प्रतिवर्ष मानव विकास सूचकांक प्रकाशित किया जाता है, जो ’’खुशहाली की व्यापक परिभाषा को ’सकल घरेलू उत्पाद’ से परे जाकर देखता है। यह सूचकांक मानव विकास के समग्र परिमाण को त्रिविमीय पैमाने से देखता है-1) स्वस्थ और लम्बा जीवन (जन्म के समय अपेक्षित आयु) 2) शिक्षा (प्रौढ़ शिक्षा, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शालाओं में पंजीयन) 3) और डॉलर में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद पर आधारित क्रयशक्ति की समानता’’।

[img_assist|nid=30758|title=इन्दौर के कम आय वर्ग वाली बस्ती में जल आपूर्ति|desc=|link=none|align=left|width=200|height=149]मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 179 राष्ट्रों की सूची में 2007-08 के अपने 128 वें स्थान से नीचे उतरकर 2009-10 में 132 वें पर पहुँच गया है। इस पैमाने के अनुसार भारत अन्य देशों जैसे भूटान, कांगो, बोत्सवाना, बोलिविया, वियतनाम, श्रीलंका और फिलिस्तीन से भी पीछे है।

इसके बारे में पी॰ साँईनाथ लिखते हैं-


’’बुरी खबर यह है कि ये आँकड़ें अच्छे दिनों को दर्शाते हैं। यह वर्ष 2006 से संबंधित हैं (जब सेंसेक्स तेजी से बढ़ रहा था। वह पहली बार 10,000 और फिर 14,000 के अंक को भी पार कर गया था। 2006-07 में भारतीय अर्थ व्यवस्था भी 9.6% की दर से बढ़ रही थी और 2005.06 में 9.4% की दर से)। हमारी 132 वें क्रम की वरीयता की जड़ इन वैभव के दिनों में ही थी। इसी समय में हमारे यहाँ 53 अरबपति हुए। अतः यह अद्यतन मानव विकास सूचकांक संख्याएँ आर्थिक मंदी के प्रभाव को शामिल नहीं करती हैं अन्यथा यदि इन तत्वों को समाहित किया जाए तो तस्वीर और भी दयनीय होगी।’’

पीपीपी को प्रोत्साहित करने के लिए एक मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि यह तेजी से बुनियादी ढाँचा विकास कर देश को ऊँची सकल घरेलू उत्पाद दर प्राप्त करने में मदद करेगा। यदि इस आय को व्यापक सामुदायिक विकास के लिए खर्च न किया जाए तब तक सकल घरेलू उत्पाद और आर्थिक विकास दर में वृद्धि को न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। जब तक लाखों पिछड़े और गरीब लोगों को बेहतर जीवन, बेहतर शिक्षा और बेहतर क्रयशक्ति प्राप्त नहीं होती है, तब तक सारी आँकड़ेबाजी बेमानी है।

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