तालाब एवं समाज के अन्तः सम्बन्धों, रखवाली से लेकर इसकी व्यवस्था में जन-भागीदारी ने इन जलाशयों को समाज की जीवनरेखा बना दिया। समाज ने जन्मोत्सव से लेकर मृत्युपर्यन्त तक गहरा रिश्ता स्थापित करके इनको जीवन का अभिन्न अंग बनाकर ऊँचे आसन पर प्रतिष्ठापित कर दिया। जन समुदाय ने सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयोजनों से जोड़कर इन्हें आस्था का केन्द्र बनाकर महिमा मण्डित कर दिया। इस प्रकार इसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना जा सकता है।
जल और समाज डॉ. ब्रजरतन जोशी की कृति रेगिस्तानी क्षेत्र में जल-संग्रहण एवं उसकी तकनीक का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस ग्रन्थ में डॉ. जोशी ने क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप से तालाबों के इतिहास को रेखांकित करने के साथ-साथ उसके लिये भूमि के चयन से लेकर उसके निर्माण की तकनीक एवं उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री का समावेश करके इतिहास के विभिन्न पक्षों पर शोध करने वालों को स्रोत सामग्री का खजाना उपलब्ध करवा दिया है।मेरी दृष्टि में जल संग्रहण की तकनीकी विद्या के इतिहास पर इससे प्रकाश पड़ता है। इतिहास के इस आयाम पर शोध करने वालों को इससे काफी सहायता उपलब्ध हो सकती है। हालांकि लेखक का यह अध्ययन जलाशयों के मौखिक सर्वेक्षण एवं मौखिक साक्ष्यों पर अधिक निर्भर है। लेकिन इससे शोधार्थियों के लिये इसकी महत्ता किसी भी प्रकार से कम नहीं होती है। बल्कि इससे सम्बन्धित लिखित साक्ष्यों की अनुपलब्धता इसके महत्त्व को बढ़ा देती है।
यह ग्रन्थ स्थल-विज्ञान (Topology) के ज्ञान जैसे वैज्ञानिक विषय के अध्ययन के बारे में भी काफी महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध करवाता है। तालाब निर्माण से पूर्व भू-संरचना का ज्ञान पहली आवश्यकता माना जाता है, जो तालाब के स्थायित्व के लिये प्रथम शर्त है। इसके अतिरिक्त मिट्टी की प्रकृति का ज्ञान एवं विभिन्न उपायों से परीक्षण करके जलाशयों के लिये उपयुक्त भूमि का चयन किया जाता था।
जलीय अभियांत्रिकी के बारे में काफी सूक्ष्म जानकारियों का संकलन इस अध्ययन में किया गया है। तालाब के अंगों का अध्ययन इसी विषय के अन्तर्गत आता है।
इंजीनियर जलाशयों के अंग उनकी उपयोगिता के अनुसार निर्धारित करते थे, उदाहरणार्थ – स्वच्छ पानी के लिये गहरे खड्डे छोड़ना, पानी को रोकने हेतु पाल, पानी के निकास के लिये नेष्टा एवं जलाशयों के मध्य बेरियों का निर्माण। इनको इतना गहरा खोदा जाता था ताकि बरसात का पानी सूखने पर भूजल को काम में लिया जा सके। इनको बनाने के दो उद्देश्य थे- प्रथम, वर्षा के जल के रिसाव से भूजल स्तर को बढ़ाना एवं द्वितीय, जलाशय के सूखने पर भूजल का उपयोग में आना।
इनके अतिरिक्त पैठ भी एक महत्त्वपूर्ण अंग होता था जो वास्तव में स्टाप वाल्सनुमा दीवार होती थी जिसका मुख्य उद्देश्य आगार में स्वच्छ पानी पहुँचाना था। कहीं-कहीं खाडिये तथा हौद भी बनाए जाते थे जिनका उद्देश्य भी स्वच्छ एवं निर्मल पानी पहुँचाना था। इन सारे अंगों का माध्यम हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग का हिस्सा है। इस दृष्टि से लेखक द्वारा संकलित सूचनाएँ काफी उपयोगी हैं।
सिविल इंजीनियरिंग की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण सामग्री है। तालाब के आकार का निर्धारण, घाटों की अवस्थिति, दीवारों की चिनाई की पद्धति एवं जलाशय में उपयोग में आने वाली सामग्री आदि इसी विषय के अंग हैं। कई तालाबों की बनावट देखकर उसके निर्माता इंजीनियर की निपुणता का अनुमान लगाया जा सकता है। सामग्री का निर्धारण स्थानीयता के आधार पर होता था। बीकानेर के तालाबों में रोड़ा, खारा चूना, बजरी एवं सुरखी का उपयोग सामान्यतः होता था। डॉ. जोशी की पुस्तक सिविल इंजीनियरिंग के अध्ययन के लिये महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध करवाती है।
जल स्थापत्य जैसे विषय को भी लेखक ने छूने का प्रयास किया है। तालाबों की पाल पर निर्माण कार्य जैसे जनाना घाट, महल एवं मन्दिर आदि में उपयुक्त पत्थरों की कटाई एवं विभिन्न प्रकार की संरचनाओं को उकेरना आदि वास्तुकला का एक दिलचस्प पहलू है। जनाना घाट की बनावट, जैसे जाली का सौन्दर्य, स्थापत्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस पर और भी सामग्री संकलन अपेक्षित है।
इसके अतिरिक्त तालाब एवं समाज के अन्तः सम्बन्धों, रखवाली से लेकर इसकी व्यवस्था में जन-भागीदारी ने इन जलाशयों को समाज की जीवनरेखा बना दिया। समाज ने जन्मोत्सव से लेकर मृत्युपर्यन्त तक गहरा रिश्ता स्थापित करके इनको जीवन का अभिन्न अंग बनाकर ऊँचे आसन पर प्रतिष्ठापित कर दिया। जन समुदाय ने सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयोजनों से जोड़कर इन्हें आस्था का केन्द्र बनाकर महिमा मण्डित कर दिया। इस प्रकार इसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना जा सकता है।
जल और समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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