साझा भविष्य के लिए हिरोशिमा को याद रखें

मन को छू लेने वाली कहानी शोशो कावामोटो की है। वह बमबारी के तीन दिन बाद हिरोशिमा लौटकर अपने अभिभावकों को खोज रहे थे। लेकिन तब तक परमाणु बम ने उन्हें अनाथ बना दिया था। ग्यारह वर्षीय कावामोटो का एकमात्र शरणस्थल एक मंदिर था जहां मुफ्त में खाना मिलता था। लेकिन इससे उसका पेट भर नहीं पाता था। बाद में वह सड़क पर फिरने वाला अनाथ बन गया। उसे जिंदा रहने के लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता था और कई बार खोमचे वालों से चावल भी चुराने पड़ते थे। कभी उसे गुंडों के साथ काम करना पड़ता था जो कि बहुत से तरीकों से सड़क पर रहने वाले बच्चों का शोषण करते थे। मानव स्मृति बहुत छोटी होती है खासकर जब बात युद्ध और विध्वंस की हो। हम अनेकों बार भुगती गई इस मानवीय त्रासदी के अनगिनत किस्सों को अक्सर अमूर्तता में देखते हैं और उन्हेें उस समय की सच्चाई से नहीं जोड़ पाते। हमें घटनाओं की धुंधली झलक ही दिखाई देती है और हम उसे आंख खोलकर उसे नहीं देखते। हम लोग मानवता के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध और विध्वंस की त्रासद सच्चाईयों को थोड़े ही समय में भूल जाते हैं। हमारी स्मृति की यह नाजुक प्रवृत्ति अक्सर उन लोगों के हाथ का खिलौना बन जाती है जो कि सीमित समूह के लाभ हेतु त्रासदी की इस पूरी प्रक्रिया से मुंह मोड़ लेना चाहते हैं।

इस अनमनेपन की मुख्य वजह यह है कि हम युद्ध के दौरान भोगी गई पीड़ा का अंदाजा लगाने में असमर्थ रहते हैं। जब तक हम इस सच्चाई की अवहेलना करते रहेंगे तब तक हम कहीं नहीं पहुंचेंगे। यहीं पर हमारी स्मृति बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। यह बात जापान के हिरोशिमा नगर पर 6 अगस्त 1945 को हुई बमबारी में बचे 14 व्यक्तियों के संस्मरणों से सिद्ध होती है। ये सारे लोग उस समय मासूम किशोर ही थे और उन्होंने अत्यंत कष्ट से उस समय की अपनी यादों को पुनः टटोला है।

हिरोशिमा विध्वंस की 70वीं वर्षगांठ के ठीक पहले इस वर्ष मार्च में ‘‘हिरोशिमा-खामोशी का टूटना” (हिरोशिमा-ए साइलेंस ब्रोकन) का प्रकाशन हुआ है। इसमें उन चौदह हिरोशिमा परमाणु बम पीड़ितों की कहानी है जो कि सन् 1927 से 1939 के मध्य जन्में हैं। इन्होंने अपने शरीर और मन पर गंभीर घावों को लिए लंबा जीवन जिया है। इन सबको लम्बे उपचार का सहारा लेना पड़ा है। परंतु इन बचे हुए लोगों के साथ समाज ने जो भेदभावपूर्ण व्यवहार किया उसने इन्हें और भी अधिक चोट पहुंचाई है।

बमबारी के तुरंत बाद जापान में उलझन और अस्त-व्यस्तता का दौर था। लोगों के अनुसार युद्ध के बाद के समय में परमाणु बम से बचे लोग कलंक माने जाने लगे थे और जापान दूसरों के आधीन आ गया था। ये विजेता अपने काले कारनामें खुलने से खुश नहीं थे। इसके अलावा मर्मांतक घावों और विकृत शरीर लिए इन लोगों ने धीरे-धीरे स्वयं की स्मृति से भी दूर रहना सीख लिया था। बहुत से लोग तो इस संबंध में जीवन भर मौन ही रहे। मगर यह विश्व का सौभाग्य है कि बाद में इनमें से कुछ ने अपना मौन तोड़ा और अपने अनुभव हम सबके सामने रखे।

एक जली हुई औरत, एक मृत
बच्चा और एक अनाथ


टाडाशी किहारा को बमबारी के बाद का त्रासद समय हमेशा झकझोरता रहता है। घायल होने के बावजूद वह हिरोशिमा में फंसे लोगों की मदद करता रहा। रात में खोज के अपने अभियान में उसने एक औरत द्वारा पानी मांगने की कातर आवाज सुनी। आवाज अशक्त मगर भावप्रवण थी। नजदीक जाने पर पता चला कि बुरी तरह जली हुई वह औरत अपना स्तन बच्चे के मुंह में लगाए है। नजदीक जाने पर किहारा का वास्तविकता से सामना हुआ। उसने देखा कि बच्चा तो पहले ही मर चुका है लेकिन मां इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रही है और वह अभी भी अपने बच्चे को दूध पिला रही है। किहारा का कहना है, मैं उसके लिए कुछ भी नहीं कर सकता था। “मैंने हाथ जोड़कर उससे माफी मांगी और वहां से चला आया। यह घटना आज भी मेरे हृदय को कचोटती है।”

अपनी युवावस्था में किहारा यह तथ्य छुपाता रहा कि वह बम से बचा हुआ नागरिक है। लेकिन 65 वर्ष का होने के बाद उनका दिमाग बदला और उन्होंने निश्चय किया कि वे भावी पीढ़ियों को अपनी कहानी बताएंगे। अब वे चाहते हैं कि युवा लोग उस महिला, उसकी यातना और प्रेम को न भूलें।

गौरतलब है इस संकलन में अपनी बात रखने वाले सभी लड़के ही हैं जो उस समय अपनी किशोरावस्था में दमखम से भरपूर थे। परमाणु बम ने न केवल सुनहरे भविष्य के उनके सपनों को चूर-चूर कर दिया बल्कि उनके जीवन को इस तरह बदला कि वे अब स्वप्न में भी इस विषय पर नहीं सोचते।

इस तरह की मन को छू लेने वाली कहानी शोशो कावामोटो की है। वह बमबारी के तीन दिन बाद हिरोशिमा लौटकर अपने अभिभावकों को खोज रहे थे। लेकिन तब तक परमाणु बम ने उन्हें अनाथ बना दिया था।

ग्यारह वर्षीय कावामोटो का एकमात्र शरणस्थल एक मंदिर था जहां मुफ्त में खाना मिलता था। लेकिन इससे उसका पेट भर नहीं पाता था। बाद में वह सड़क पर फिरने वाला अनाथ बन गया। उसे जिंदा रहने के लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता था और कई बार खोमचे वालों से चावल भी चुराने पड़ते थे। कभी उसे गुंडों के साथ काम करना पड़ता था जो कि बहुत से तरीकों से सड़क पर रहने वाले बच्चों का शोषण करते थे।

उन्हें दुःख है कि हिरोशिमा बमबारी के इस दोहरे शोषण या विभीषिका के शिकार बच्चों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया, जबकि इस दौर में अनाथों को जबरदस्त तकलीफें झेलनी पड़ी थीं। उनसे हमें जानकारी मिलती है कि बमबारी के पहले हिरोशिमा से प्राथमिक विद्यालयों के 8600 विद्यार्थियों को वहां से हटाकर गांवों में भेज दिया गया था। उनमें से 2,700 अनाथ हो गए। इनमें से भी मात्र 700 भाग्यशाली बच्चों को अनाथालय में जगह मिली बाकियों को सड़क पर छोड़ दिया गया।

नया आतंक या खौफ


ऐसा क्या हुआ कि इन चौदह बचे हुए लोगों ने अपना स्वचयनित अकेलापन छोड़ा और अपनी लंबी चुप्पी भी तोड़ी? इसकी वजह है मार्च 2011 में हुआ फुकुशिमा परमाणु विध्वंस। इसके बाद से इन्होंने इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझा कि वे लोगों को बताएं कि परमाणु विनाश किस हद तक बर्बादी ला सकता है।

काटसुयकी शिमोई ने बताया कि एक टेलीविजन कार्यक्रम में फुकुशिमा के कामगारों को कार्य करते देख उन्हें अपने भाई की याद हो आई कि बमबारी के कुछ दिन बाद रेडियोधर्मिता (रेडिएशन) से किस प्रकार उनके भाई की मृत्यु हुई थी। उनका छोटा भाई अकिओ तब केवल 13 वर्ष का था और हिरोशिमा में बमबारी के समय अपने दोस्त नाकामुरा के साथ गाड़ी (स्ट्रीट कार) में घूम रहा था। कार तो पूरी तरह से नष्ट हो गई लेकिन उनका भाई और दोस्त दोनों बच गए और घर लौट आए। इसके बाद की कहानी इस प्रकार है, “करीब 20 दिन बाद मेरे भाई के बाल झड़ने लगे और उसके पूरे शरीर पर लाल चकतो उभर आए। उसके कंधे और बाजू धीरे-धीरे पतले से पतले होते गए और अंततः वे चापस्टिक (लकड़ी की सींक) जैसे हो गए। मेरा भाई तब केवल 13 साल का था लेकिन जब उसकी मृत्यु हुई तब वह एक बूढ़े व्यक्ति की तरह दिखने लगा था। बाद में मैंने सुना कि उसका दोस्त नाकामुरा भी उसी दिन चल बसा था।”

तकरीबन 55 बरस बाद शिमोई ने टेलीविजन पर फुकुशिमा परमाणु बिजली संयंत्र के एक कर्मचारी की बाजू पर ठीक वैसा ही निशान देखा जिसने उसके भाई को इतनी यंत्रणापूर्ण मौत दी थी।

परमाणु बम से बचे लोगों की गाथा को सामने लाने की पहल सोका गक्की हिरोशिमा शांति सम्मेलन ने की है। उनका विश्वास है कि परमाणु युग का अंत तब तक नहीं होगा जब तक कि इसके खिलाफ व्यापक लामबंदी नहीं होगी। इसलिए उन्होंने अब इसका अंग्रेजी संस्करण (हिरोशिमा- ब्रोकन साइलेंस) छापने का निश्चय किया है जिससे कि विश्व इस विभीषिका की 70वीं वर्षगांठ पर अतीत के इस खौफ को याद कर सके और हमारी आने वाली पीढ़ियों को इस मर्मांतक त्रासदी की पुनरावर्ती से बचा सके।

मोंजरुल हक एक बांग्लादेशी पत्रकार हैं जिनकी जापान पर बंगाली भाषा में तीन बंगाली किताबें हैं। वे विगत 20 वर्षों से जापान में रह रहे हैं। टोक्यो स्थित एक जापानी विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर भी हैं।

Path Alias

/articles/saajhaa-bhavaisaya-kae-laie-hairaosaimaa-kao-yaada-rakhaen

Post By: Shivendra
×