चोराबरी झील त्रासदी को अगर एक शांतिपूर्ण ढंग से रची गई साजिश कहा जाए तो शायद कुछ गलत नहीं होगा। इस विध्वंस की आशंका वो लगभग नौ साल पहले ही जताई गई थी। परंतु सरकार ने अपनी ही एजेंसी द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट की अनदेखी कर आपदा को रोकने के लिए कोई कदम उठाने की जहमत नहीं उठाई। पिछले वर्ष केदारनाथ में आई भयावह आपदा में हिमालयन सुनामी ने ऐसा कहर बरपाया कि उसने अपनी चपेट में हजारों जिंदगियों को ले लिया। आज भी जगह-जगह पर खुदाई कर मलबे में दबे शवों को निकाले जाने की बात सामने आती है। क्या इस तरह की संवेदनशील घटनाओं से उन वैज्ञानिकों का दिल नहीं दहलता जिन्होंने इस त्रासदी के पूर्वानुमान को सिरे से ठुकरा दिया था और इतनी बड़ी प्राकृतिक घटना से आम जनों की जान नहीं बचा सके।
ग्लेशियर की निगरानी करने वाली सरकारी एजेंसी ‘वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लेशियर ज्योलॉजी’ के ग्लेशियोलॉजी विभाग के प्रमुख डीपी डोभाल ने वर्ष 2004 में एक रिपोर्ट के जरिए सरकार को चेताया था कि चोराबरी झील कभी भी ब्लॉस्ट कर सकती है। इस रिपोर्ट को एक दैनिक समाचार-पत्र ने भी प्रमुखता से उजागर किया लेकिन सरकारी तंत्र ने इधर ध्यान देकर कोई प्रभावी कदम उठाने की जगह रिपोर्ट तैयार करने वाले वैज्ञानिक को ‘रिपोर्ट लीक’ करने के लिए प्रताड़ित किया। इस बाबत ‘न्यूज बेंच’ ने जब श्री डोभाल से संपर्क साधा तो उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि हां, मैंने इस रिपोर्ट को तैयार किया था। साथ ही इससे होने वाले खतरे को भी सामने लाया था। परंतु इस रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया। डोभाल अब इस मुद्दे पर बात करने के इच्छुक नहीं दिखते।
इस स्थिति में सवाल यह उठता है कि 2013 में हुए इस भयंकर त्रासदी का कारण क्या रहा होगा। इस संदर्भ में तैयार किए गए लगभग सभी रिपोर्ट एक ही कारण की ओर इशारा करते हैं। कारण यह बताया जा रहा है कि यह आपदा बादलों के फटने तथा हिमस्खलन से आई। परंतु आमजन द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं गया। आम लोग इस मुद्दे को काफी लंबे समय से उठा रहे थे। यह बात अलग है कि वे ग्लोबल वार्मिंग तथा क्लाइमेट चेंज जैसी तकनीकी भाषा में अपनी बात नहीं कह पा रहे थे, परंतु वे जिस भी भाषा में कह रहे थे, शायद सही ही कह रहे थे।
डीपी डोभाल की बातचीत से साफ झलकता है कि वह किस तरह से विभागीय दबाव तथा उत्पीड़न के शिकार हुए हैं। वह बताते हैं कि 13 जून (2013) से लगातार हुई बारिश के चलते देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट और चोराबरी झील के वॉच टॉवर का संपर्क कट चुका था जिससे, झील में खतरनाक स्तर से पानी के ऊपर बढ़ने का पता नहीं चल पाया। उन्होंने आगे बताया कि हम चोराबरी ग्लेशियर की तरफ से झील की निगरानी रख रहे थे। झील की कुल गहराई 18 से 20 मीटर है तथा बादल फटने से पहले जल स्तर मात्र 4 से 5 मीटर ही था। परंतु 13 जून को हुई लगातार और मूसलाधार बारिश ने अचानक से जल स्तर को बढ़ा दिया। मुझे इस बात की सूचना दी गई थी कि जल स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है और मैंने अपने कर्मचारियों को निर्देश दिया कि वे सावधानीपूर्वक निगरानी करें। लेकिन तेज और लगातार बारिश ने 14 जून तक सभी संपर्क सूत्रों को नष्ट कर दिया, जिससे हमें आगे की कोई जानकारी नहीं मिल पाई।
हालांकि क्लाइमेट हिमालय नामक एनजीओ के डायरेक्टर तथा पर्यावरण विशेषज्ञ के.एन वाजपेयी ने इस बात को अनर्गल बताते हुए कहा कि मैंने 17 जून की सुबह करीब साढ़े सात बजे वहां के स्थानीय लोगों से फोन पर बात की थी। ऐसे में डोभाल कैसे कह सकते हैं कि 14 जून को ही फोन सेवा के बाधित हो जाने से संपर्क नहीं हो पाया। यदि संपर्क सेवा बाधित भी हो गई थी तो उनके कर्मचारी चार किलोमीटर नीचे आकर डोभाल को सूचित क्यों नहीं किए। बाजपेयी ने यह भी बताया कि 16 जून की रात में पहाड़ी के नीचे स्थानीय लोगों को पहाड़ पर रह रहे अपने संबंधियों से फोन पर बातचीत करते देखा गया था। बाजपेयी ने बताया कि डोभाल और उनकी टीम को ऊंची पहाड़ियों से कुछ गिरने की आवाज का पता चला था, लेकिन इस बात का पता उन्हें पिछले कुछ सप्ताह से चल रहा था।
बाजपेयी के तथ्यों की पुष्टि करते हुए स्थानीय आरटीआई कार्यकर्ता रमेश मुमुक्षु ने ‘न्यूज बेंच’ से बातचीत में बताया कि वर्ष 2013 में इस क्षेत्र में काफी गर्मी पड़ी थी। हालांकि यह अविश्वसनीय है कि भू-तल से 3000 मीटर ऊपर भी इतनी गर्मी पड़ रही थी। उन्होंने बताया कि हम इस दौरान तीर्थ यात्रा पर थे और रात में भी कंबल का उपयोग नहीं हो रहा था। इससे स्पष्ट है कि गर्मी की वजह से पहाड़ का बर्फ पिघल रहा था और इसकी आवाज लोगों तक पहुंच भी रही थी।
जिस प्राकृतिक आपदा कि लिए डोभाल अब भूस्खलन को जिम्मेदार ठहरा हैं, ‘न्यूज बेंच’ ने उन्हें गलत साबित कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि हजारों साल से एक जगह पर पड़ी बड़ी चट्टान तथा उस पर जमी बर्फ अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण अपनी जगह से फिसल गई और यह जाकर पहले से भरी झील में गिरी जिस कारण से इतना बड़ा हादसा हुआ। गर्मी के कारण बर्फ पिघल चुका था और झील पहले से ही भरी हुई थी। यह चट्टान तेज रफ्तार से झील में गिरी जिस कारण से झील से तेज जल तरंगें निकलीं। प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो 17 जून की सुबह केदारनाथ मंदिर के ऊपर ठीक दाहिने ओर चट्टान झील में गिरी और इतना बड़ा हादसा हुआ।
‘न्यूज बेंच’ ने डोभाल को बातों का सबूत के साथ खंडन करते हुए 17 जून को झील में गिरे चट्टान की तस्वीरें भी दिखाईं जो शायद उन्हें नकली प्रतीत हुईं। अपनी बात रखते हुए उन्होंने समझाने की एक और कोशिश की और बताया कि पहाड़ी के नीचे हुई बारिश के कारण ग्लेशियर पर बर्फबारी होती रही, जिससे लगातार भूस्खलन होता रहा। उन्होंने यह भी दावा किया कि पहाड़ों पर लगातार भूस्खलन होता रहता है।
झील से नीचे लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित केदारनाथ शहर तथा पहाड़ी के नीचे के बाशिंदों ने बताया कि जब गर्मी काफी पड़ रही थी, उस समय पहाड़ से कुछ टूटने की आवाज प्रायः सुनाई देती थी। इस बाबत डोभाल से जब ‘न्यूज बेंच’ ने सवाल किया तो उन्होंने सीधा कहा, ‘ये गली-कूची के लोग कुछ भी बोलते रहते हैं।’ अब सवाल यह उठता है कि क्या ये गली-कूचों के लोग सचमुच कुछ भी बोल देते हैं? शायद नहीं। चिराग नामक एक एनजीओ में कार्यरत गंगा जोशी और भुपल बिष्ट ने ‘न्यूज बेंच’ को बताया, ‘यह बात बिल्कुल सच है कि 2013 में यहां पर इतनी गर्मी पड़ी थी कि इन ऊंची पहाड़ियों पर भी सीलिंग फैन दिखने लगे थे।’
ऐसे में जब इस आपदा के जुड़े विभिन्न पहलुओं पर नजर डाली जाए तो यह स्पष्ट होता है कि ग्लोबल वार्मिंग तथा स्थानीय माइक्रो-लेवल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघलता रहा। वैसे भी इस झील के बारे में तो सन 2004 में ही ऐसी संभावना जताई गई थी कि यह झील कभी भी ध्वस्त हो सकती है। पर, इस रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लेशियर ज्योलॉजी में ग्लेशिओलॉजी विभाग के हेड डोभाल को प्रताड़ित किए जाने के बाद इस संस्था ने चोराबरी झील मामले में जोखिम उठाने का कार्य ढीला कर दिया। अब डोभाल कहते हैं कि यह एक छोटी झील थी और इसमें बहुत कम पानी था।
इन क्षेत्रों में बादलों का फटना कोई नई बात नहीं होती। ‘न्यूज बेंच’ ने जिन-जिन बुद्धिजीवियों जैसे मुमुक्षु, बाजपेयी, बिष्ट तथा जोशी से बात की, सबों ने एक ही राय रखी। इन सबों ने बताया कि बादल फटना इस क्षेत्र के लिए कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। इन इलाकों में बादल फटते रहते हैं और समय-समय पर क्षति होती रहती है। वास्तविकता तो यह है कि ग्लेशियर के गर्म होकर पिघलने से ही इतना बड़ा हादसा हुआ है। परंतु अफसोस तो यह है कि आज भी हमारे वैज्ञानिक इस बात पर अपनी सहमति नहीं देते और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को गंभीरतापूर्वक नहीं लेते।
ग्लेशियर की निगरानी करने वाली सरकारी एजेंसी ‘वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लेशियर ज्योलॉजी’ के ग्लेशियोलॉजी विभाग के प्रमुख डीपी डोभाल ने वर्ष 2004 में एक रिपोर्ट के जरिए सरकार को चेताया था कि चोराबरी झील कभी भी ब्लॉस्ट कर सकती है। इस रिपोर्ट को एक दैनिक समाचार-पत्र ने भी प्रमुखता से उजागर किया लेकिन सरकारी तंत्र ने इधर ध्यान देकर कोई प्रभावी कदम उठाने की जगह रिपोर्ट तैयार करने वाले वैज्ञानिक को ‘रिपोर्ट लीक’ करने के लिए प्रताड़ित किया। इस बाबत ‘न्यूज बेंच’ ने जब श्री डोभाल से संपर्क साधा तो उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि हां, मैंने इस रिपोर्ट को तैयार किया था। साथ ही इससे होने वाले खतरे को भी सामने लाया था। परंतु इस रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया। डोभाल अब इस मुद्दे पर बात करने के इच्छुक नहीं दिखते।
इस स्थिति में सवाल यह उठता है कि 2013 में हुए इस भयंकर त्रासदी का कारण क्या रहा होगा। इस संदर्भ में तैयार किए गए लगभग सभी रिपोर्ट एक ही कारण की ओर इशारा करते हैं। कारण यह बताया जा रहा है कि यह आपदा बादलों के फटने तथा हिमस्खलन से आई। परंतु आमजन द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं गया। आम लोग इस मुद्दे को काफी लंबे समय से उठा रहे थे। यह बात अलग है कि वे ग्लोबल वार्मिंग तथा क्लाइमेट चेंज जैसी तकनीकी भाषा में अपनी बात नहीं कह पा रहे थे, परंतु वे जिस भी भाषा में कह रहे थे, शायद सही ही कह रहे थे।
डीपी डोभाल की बातचीत से साफ झलकता है कि वह किस तरह से विभागीय दबाव तथा उत्पीड़न के शिकार हुए हैं। वह बताते हैं कि 13 जून (2013) से लगातार हुई बारिश के चलते देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट और चोराबरी झील के वॉच टॉवर का संपर्क कट चुका था जिससे, झील में खतरनाक स्तर से पानी के ऊपर बढ़ने का पता नहीं चल पाया। उन्होंने आगे बताया कि हम चोराबरी ग्लेशियर की तरफ से झील की निगरानी रख रहे थे। झील की कुल गहराई 18 से 20 मीटर है तथा बादल फटने से पहले जल स्तर मात्र 4 से 5 मीटर ही था। परंतु 13 जून को हुई लगातार और मूसलाधार बारिश ने अचानक से जल स्तर को बढ़ा दिया। मुझे इस बात की सूचना दी गई थी कि जल स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है और मैंने अपने कर्मचारियों को निर्देश दिया कि वे सावधानीपूर्वक निगरानी करें। लेकिन तेज और लगातार बारिश ने 14 जून तक सभी संपर्क सूत्रों को नष्ट कर दिया, जिससे हमें आगे की कोई जानकारी नहीं मिल पाई।
हालांकि क्लाइमेट हिमालय नामक एनजीओ के डायरेक्टर तथा पर्यावरण विशेषज्ञ के.एन वाजपेयी ने इस बात को अनर्गल बताते हुए कहा कि मैंने 17 जून की सुबह करीब साढ़े सात बजे वहां के स्थानीय लोगों से फोन पर बात की थी। ऐसे में डोभाल कैसे कह सकते हैं कि 14 जून को ही फोन सेवा के बाधित हो जाने से संपर्क नहीं हो पाया। यदि संपर्क सेवा बाधित भी हो गई थी तो उनके कर्मचारी चार किलोमीटर नीचे आकर डोभाल को सूचित क्यों नहीं किए। बाजपेयी ने यह भी बताया कि 16 जून की रात में पहाड़ी के नीचे स्थानीय लोगों को पहाड़ पर रह रहे अपने संबंधियों से फोन पर बातचीत करते देखा गया था। बाजपेयी ने बताया कि डोभाल और उनकी टीम को ऊंची पहाड़ियों से कुछ गिरने की आवाज का पता चला था, लेकिन इस बात का पता उन्हें पिछले कुछ सप्ताह से चल रहा था।
बाजपेयी के तथ्यों की पुष्टि करते हुए स्थानीय आरटीआई कार्यकर्ता रमेश मुमुक्षु ने ‘न्यूज बेंच’ से बातचीत में बताया कि वर्ष 2013 में इस क्षेत्र में काफी गर्मी पड़ी थी। हालांकि यह अविश्वसनीय है कि भू-तल से 3000 मीटर ऊपर भी इतनी गर्मी पड़ रही थी। उन्होंने बताया कि हम इस दौरान तीर्थ यात्रा पर थे और रात में भी कंबल का उपयोग नहीं हो रहा था। इससे स्पष्ट है कि गर्मी की वजह से पहाड़ का बर्फ पिघल रहा था और इसकी आवाज लोगों तक पहुंच भी रही थी।
जिस प्राकृतिक आपदा कि लिए डोभाल अब भूस्खलन को जिम्मेदार ठहरा हैं, ‘न्यूज बेंच’ ने उन्हें गलत साबित कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि हजारों साल से एक जगह पर पड़ी बड़ी चट्टान तथा उस पर जमी बर्फ अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण अपनी जगह से फिसल गई और यह जाकर पहले से भरी झील में गिरी जिस कारण से इतना बड़ा हादसा हुआ। गर्मी के कारण बर्फ पिघल चुका था और झील पहले से ही भरी हुई थी। यह चट्टान तेज रफ्तार से झील में गिरी जिस कारण से झील से तेज जल तरंगें निकलीं। प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो 17 जून की सुबह केदारनाथ मंदिर के ऊपर ठीक दाहिने ओर चट्टान झील में गिरी और इतना बड़ा हादसा हुआ।
‘न्यूज बेंच’ ने डोभाल को बातों का सबूत के साथ खंडन करते हुए 17 जून को झील में गिरे चट्टान की तस्वीरें भी दिखाईं जो शायद उन्हें नकली प्रतीत हुईं। अपनी बात रखते हुए उन्होंने समझाने की एक और कोशिश की और बताया कि पहाड़ी के नीचे हुई बारिश के कारण ग्लेशियर पर बर्फबारी होती रही, जिससे लगातार भूस्खलन होता रहा। उन्होंने यह भी दावा किया कि पहाड़ों पर लगातार भूस्खलन होता रहता है।
झील से नीचे लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित केदारनाथ शहर तथा पहाड़ी के नीचे के बाशिंदों ने बताया कि जब गर्मी काफी पड़ रही थी, उस समय पहाड़ से कुछ टूटने की आवाज प्रायः सुनाई देती थी। इस बाबत डोभाल से जब ‘न्यूज बेंच’ ने सवाल किया तो उन्होंने सीधा कहा, ‘ये गली-कूची के लोग कुछ भी बोलते रहते हैं।’ अब सवाल यह उठता है कि क्या ये गली-कूचों के लोग सचमुच कुछ भी बोल देते हैं? शायद नहीं। चिराग नामक एक एनजीओ में कार्यरत गंगा जोशी और भुपल बिष्ट ने ‘न्यूज बेंच’ को बताया, ‘यह बात बिल्कुल सच है कि 2013 में यहां पर इतनी गर्मी पड़ी थी कि इन ऊंची पहाड़ियों पर भी सीलिंग फैन दिखने लगे थे।’
ऐसे में जब इस आपदा के जुड़े विभिन्न पहलुओं पर नजर डाली जाए तो यह स्पष्ट होता है कि ग्लोबल वार्मिंग तथा स्थानीय माइक्रो-लेवल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघलता रहा। वैसे भी इस झील के बारे में तो सन 2004 में ही ऐसी संभावना जताई गई थी कि यह झील कभी भी ध्वस्त हो सकती है। पर, इस रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लेशियर ज्योलॉजी में ग्लेशिओलॉजी विभाग के हेड डोभाल को प्रताड़ित किए जाने के बाद इस संस्था ने चोराबरी झील मामले में जोखिम उठाने का कार्य ढीला कर दिया। अब डोभाल कहते हैं कि यह एक छोटी झील थी और इसमें बहुत कम पानी था।
इन क्षेत्रों में बादलों का फटना कोई नई बात नहीं होती। ‘न्यूज बेंच’ ने जिन-जिन बुद्धिजीवियों जैसे मुमुक्षु, बाजपेयी, बिष्ट तथा जोशी से बात की, सबों ने एक ही राय रखी। इन सबों ने बताया कि बादल फटना इस क्षेत्र के लिए कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। इन इलाकों में बादल फटते रहते हैं और समय-समय पर क्षति होती रहती है। वास्तविकता तो यह है कि ग्लेशियर के गर्म होकर पिघलने से ही इतना बड़ा हादसा हुआ है। परंतु अफसोस तो यह है कि आज भी हमारे वैज्ञानिक इस बात पर अपनी सहमति नहीं देते और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को गंभीरतापूर्वक नहीं लेते।
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