चेन्नई में जन्मे, पले-बढ़े और जीवन के आखिरी पड़ाव पर खड़े लोगों के लिये भी इस बार की बारिश और बाढ़ विस्मयकारी थी। एक दिन में इतनी बारिश तो पिछले सौ साल में भी नहीं हुई थी। ऐसे में बाढ़ की विभीषिका से चेन्नई को तो दो- चार होना ही था। चिन्ता की बात ये है कि साल 2015 में जिस अल नीनो प्रभाव को वैज्ञानिक इस भारी बरसात का कारण मान रहे हैं, उसके खतरे अभी भी खत्म नहीं हुये हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि चेन्नई के इस सैलाब से हमें क्या सबक मिला?
अब बहस इस बात पर हो रही है कि क्या केवल जलवायु परिवर्तन से मौसम में आये बदलाव ही इसकी वजह हैं या आम नागरिक और हमारी व्यवस्था इसके लिये जवाबदेह है। चेन्नई की बाढ़ तो कम से कम यही कहती है कि ये त्रासदी प्राकृतिक कम मानवीय ज्यादा है। वकील अनंत कृष्ण मीडिया में कहते सुने गए ‘‘आप सीधा सरकार पर आरोप नहीं लगा सकते, क्योंकि लोगों ने भी तालाबों की तलहटी पर ऊँचे-ऊँचे मकान बना लिये हैं। इसलिये जब भी बारिश होती है, निचले इलाके में पानी भर जाता है। यह सब हमारी ही वजह से हुआ है। इसकी जिम्मेदारी हमें खुद लेनी होगी। हम अपनी करनी का फल भोग रहे हैं।’’
जाहिर है, केवल भारी बारिश की वजह से ही चेन्नई और तमिलनाडु के दूसरे शहर सप्ताह भर से ज्यादा सैलाब की जद में नहीं रहे। यदि जल निकासी की पारम्परिक व्यवस्था कारगर और दुरुस्त बनी रहती तो शायद ये नौबत ही नहीं आती। तब इस जल विप्लव से एक हद तक बचा जा सकता था। चेन्नई सहित दक्षिण के कई शहरों में सैलाब का समंदर जिस तरह घर और सड़कों को अपनी आगोश में लिये रहा वो प्राकृतिक स्रोतों पर कब्जा जमाते मानव के ख़ूँख़ार विकासवादी पंजे की खनक मात्र है जो कभी मुम्बई तो कभी चेन्नई के रूप में जब-तब दस्तक दे रहा है।
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का वीभत्स रूप नवम्बर के आखिरी और दिसम्बर के पहले सप्ताह में भारत के चौथे महानगर चेन्नई में देखने को मिला जब सप्ताह भर तक यह शहर दुनिया से कटा रहा। तटीय शहर टापू बनकर शेष दुनिया से अलग-थलग पड़ा नजर आया। विकसित और सुसंपन्न भद्र लोक और हाशिये पर खड़े समाज के दूसरे लोग इस अचानक पैदा हुई समस्या से एक जैसे परेशान हुये।
महानगर के स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, सरकारी और निजी आॅफिस बंद रहे। रेल, सड़क और हवाई यातायात बाधित हो गया। संचार के दूसरे साधनों ने काम करना बंद कर दिया। घरों में पानी भरने से लोग कैद होने को मजबूर हो गये। जो जहाँ था, वहीं ठहर-सा गया। आलम ये रहा कि एयरपोर्ट पर खड़े प्लेन तैरते नजर आये तो कई फ्लाईओवर भी आधे डूबे हुये दिखे। निचले इलाके के घरों में आठ से दस फीट तक पानी भर गया। सड़क किनारे और झुग्गी-झोपड़पट्टी के लोगों के लिये तो यह सैलाब कहर बनकर टूटा। लगातार बारिश से वे पहले से बेहाल थे।
पहली दिसम्बर वाली बारिश ने रही-सही कसर निकाल दी। ऐसे में वे जाएँ तो जाएँ कहाँ। हर तरफ जब जान बचाने के लिये जद्दोजहद हो रही हो तो ऐसे में भोजन-पानी की बात पूछना भी बेमानी है। सो हजारों लोग सुरक्षित आशियाने की खोज में गर्दन भर पानी में चलते-तैरते और जीने की जुगत बिठाते नजर आये। इस जमात के सैकड़ों लोग जहाँ-तहाँ बह गये। कोई मेन हॉल में समा गया तो कोई पानी में डूब कर बारिश की भेंट चढ़ गया। एक अनुमान के मुताबिक इस सीजन में अब तक हुई बारिश से केवल तमिलनाडु में साढ़े तीन सौ लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी है। उनके घरों में खाने-पीने के सामान या तो खराब हो गये या फिर खत्म हो गये। एक शब्द में कहें तो आफत की इस बारिश ने सम्पन्न लोगों को परेशान तो किया लेकिन मुश्किल में डाला बेहद गरीबों को।
अमीरों को केवल कामकाज में रुकावटें आई, लेकिन सड़क पर गुजर-बसर करने वालों की तो जान पर ही बन आई। ये हिसाब लगाना बाकी है कि ऐसे कितने बेघर-बार लोग इस विभीषिका की भेंट चढ़े। आपदा का हाल ये रहा कि एक सप्ताह तक शहर का बड़ा इलाका जलमग्न रहा। हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया। इस काम में सेना सहित आपदा से निबटने वाली दूसरी एजेंसियों की मदद लेनी पड़ी। आफत की इस बारिश में हजारों मकान ध्वस्त हो गये। अब तक हुये आकलन के अनुसार निम्न आय वर्ग के लोगों के पचास हजार मकान क्षतिग्रस्त हुये हैं। अधिकारियों का कहना है कि बारिश और बाढ़ से दो लाख एकड़ में फैली धान, गन्ना और अन्य फसलें बर्बाद हो गई।
एसोचैम का आकलन है कि 15000 करोड़ का नुकसान हुआ है। वैसे कुछ सरकारी संगठन एक लाख करोड़ रुपये के नुकसान की बात कह रहे हैं। मुख्यमन्त्री जयललिता ने केन्द्र सरकार से दो हजार करोड़ के राहत पैकेज की माँग की और पीएम नरेन्द्र मोदी ने बाढ़ का जायजा लेने के बाद 940 करोड़ की फौरी राहत स्वीकृत कर दी।
चेन्नई समेत पूरे तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के निचले हिस्से में नवम्बर महीने के पहले हफ्ते से भारी बारिश शुरू हुई। लौटती हुई मानसून ने सबसे पहले 8 से 10 नवम्बर के बीच दस्तक दी। ठीक तीन दिन बाद 13 नवम्बर को इतनी बरसात हुई कि सरकारी आँकड़े के मुताबिक 55 लोगों की मौत हो गई। इसी तरह नवम्बर के आखिर तक बारिश का सिलसिला जारी रहा। सरकार और आम लोग इस उम्मीद में बैठे रहे कि बारिश का दौर थम जायेगा। राहत-बचाव कार्य चलाने या कहीं और जाने की नौबत नहीं आयेगी। लेकिन एक दिसम्बर को 490 मिलीमीटर की बारिश ने तो सारा रिकार्ड तोड़ दिया। चेन्नई में इस बारिश के असर को इस रूप से भी समझ सकते हैं कि पिछले 137 साल से लगातार प्रकाशित हो रहे ‘द हिन्दू’ अखबार का प्रकाशन पहली बार प्रभावित हुआ। प्रेस में पानी भर जाने से अखबार नहीं छप सका।
चेन्नई जैसे ही हालात तमिलनाडु के तिरुवल्लूर, कांचीपुरम और कड्डालोर में भी हैं। लेकिन चेन्नई के संकट के सामने उनके दर्द दब से गये। सरकार और दूसरी एजेंसियों का सारा जोर राजधानी पर ही केन्द्रित नजर आया। बंगाल की खाड़ी के कोरोमंडल तट पर बसा तमिलनाडु का यह इलाका दक्षिण-पश्चिम मानसून के प्रभाव से बचा रह जाता है। इस तटीय इलाके में मानसून के लौटने के दौरान उत्तर-पूर्वी हवाओं के चलते बारिश होती है। यह महीना सितम्बर से दिसम्बर के बीच का होता है। कभी-कभार बंगाल की खाड़ी से उठने वाला चक्रवात भी चेन्नई तक पहुँच जाता है और भारी वर्षा का कारण बनता है। ऐसी ही भारी बारिश साल 2005 में भी हुई थी, जब सीजन में औसतन 1300 मिलीमीटर की जगह 2570 मिलीमीटर बारिश रिकॉर्ड की गई थी। लेकिन इस बार तो नवम्बर ने ही नानी की याद दिला दी। दिसम्बर को याद करके ही लोग दहल जा रहे हैं।
पड़ोसी राज्य कर्नाटक के बेंगलुरु, मैसूर और चित्रदुर्ग जैसे शहर को भी भारी बारिश का सामना करना पड़ा। आंध्र में स्थित विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल तिरुपति बालाजी का दर्शन आम श्रद्धालुओं के लिये शायद पहली बार रोकना पड़ा। तिरुमला पर्वत की सप्त पहाड़ियों पर इतनी बारिश हुई कि ऊपर चढ़ने के रास्ते, जिसे घाट रोड कहा जाता है, भूस्खलन से जगह-जगह बाधित हो गया। एक फायदा ये हुआ कि तिरुमला पहाड़ी पर मौजूद सारे जलस्रोत लबालब भर गये, जो कई सालों से कभी नहीं भर पाये थे।
ऐसा माना जाने लगा है कि इस बार की बारिश जलवायु परिवर्तन के गम्भीर परिणामों का एक भयावह सच तो है ही, इससे हुई तबाही ने मानव समाज की खतरनाक गलतियों के नतीजों को भी रेखांकित किया है। विकास की आपाधापी में हमारा समाज सरकार की शह पर प्राकृतिक तन्त्रों को बेतरह और बेदर्दी से बर्बाद कर रहा है। अंधाधुंध शहरीकरण की रफ्तार ने नदियों और ताल-तलैयों के स्वाभाविक निकास के रास्ते को अवरुद्ध कर दिया है जो सदियों से बारिश के अतिरिक्त पानी को पचा लेने की क्षमता रखते थे।
चेन्नई की बाढ़ ने नगरीकरण पर नये सिरे से विचार के लिये रास्ते दिखाये हैं। सवाल है कि आखिर क्यों कुछ मिनटों की बारिश में ही दिल्ली, मुम्बई और चेन्नई जैसे शहर परेशान हो जाते हैं। उसकी गलियाँ पानी से भर जाती हैं। गाड़ियाँ और सामान तैरने लगते हैं। क्या कोई कह सकता है कि चेन्नई जैसी बारिश दूसरे किसी बड़े शहर में हो तो ऐसी स्थिति नहीं होगी। हाँ, चेन्नई की स्थिति थोड़ी और अलग है। शहर के बीचो-बीच कूवम नदी बहती है, जो अब बिल्कुल प्रदूषित है। महानगर के दक्षिण में अड्यार नदी है। दोनों को बकिंघम नहर जोड़ती है। शहर की जलापूर्ति रेड हिल्स, चेम्बरामबक्कम और शोलावरम जैसे झीलों से होती है। पीने का पानी सैकड़ों किलोमीटर दूर कई दूसरी नदियों से भी चेन्नई पहुँचाया जाता है। इस बार बारिश के दौरान पहले से लबालब नदियों ने और पानी लेने से मना कर दिया। नतीजतन सारा पानी गलियों और सड़कों पर फैला और घरों में घुसा। सीवर के गंदे पानी और बारिश के जल का ऐसा कॉकटेल तैयार हुआ कि स्थिति नारकीय हो गई।
एक तरफ भारी बारिश से निबटने में सरकार की उजागर हुई अक्षमता को लोग कोस रहे हैं, तो दूसरी ओर जानकार कह रहे हैं कि चेन्नई के साथ ऐसी परेशानी नहीं होनी चाहिये थी। क्योंकि ये शहर रेनवाटर हार्वेस्टिंग के मामले में अन्य भारतीय शहरों के लिये एक मॉडल है। साल 2003 से ही सरकारी स्तर पर सख्त निर्देश जारी कर सभी मकानों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य बना दिया गया है। पिछली सदी के अंतिम वर्षों में भारी सूखे की समस्या और भूमिगत जल के पाताल में चले जाने के बाद सरकार ने ये सख्त निर्णय लिया था। उम्मीद की जा रही थी कि यह शहर 129 मिलियन क्यूबिक मीटर वर्षा के पानी की हार्वेस्टिंग करेगा। साथ ही भूजल के स्तर को बढ़ाने के लिये शहर में स्टोर्म वाटर ड्रेन सिस्टम बनाया गया। बारिश का पानी ठहर सके इसके लिये शहर के प्राकृतिक झीलों और ताल-तलैयों को बेहतर बनाने के प्रयास हुये।
लेकिन इस बार की बारिश बताती है कि सूखा और बाढ़ से बचाने की सरकार द्वारा की गई कोशिशें सफल नहीं रही। बाढ़ के दौरान ही अखबारों में चेन्नई के दो सैटेलाइट मैप प्रकाशित हुये जो पिछले 15 साल के भीतर शहर में आये बदलाव को साफ तौर पर दिखा रहे हैं। जानकार बताते हैं कि 1980 में चेन्नई में 600 जल-निकाय थे, लेकिन 2008 में जारी मास्टर प्लान में उनके नामोनिशान भी नहीं बचे हैं। गिनती के झील बचे हैं और वे भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। झीले कैसे सिमट रही है इसका आँकड़ा भी बड़ा दिलचस्प और चौंकाने वाला है। पिछली सदी के अस्सी के दशक में 19 झीलों का क्षेत्रफल 1,130 हेक्टेयर था जो महज बीस साल बाद अब घटकर 645 हेक्टेयर हो गया है। जाहिर है उनके जल संचय की क्षमता में भारी कमी आई है। शहर के जल निकाय क्षेत्रों पर अवैध झुग्गियों की भरमार है।
एक मोटे अनुमान के अनुसार उनकी संख्या तीस हजार से ऊपर है। शहर के अधिकांश नाले और झीलों पर अवैध कब्जा हो गया है। पल्लीकरनायी मार्सलैंड की बदहाली को भी इस बाढ़ की बड़ी वजह माना जा रहा है। शहर के समीप इस मार्सलैंड पर बड़े-बड़े घर, अपार्टमेंट और सड़कें बन गईं हैं जो वर्षा के जल का सबसे बड़ा संग्रहण स्रोत था। मद्रास हाईकोर्ट ने हाल में ही इस झील के आस-पास हुये अतिक्रमण को हटाने का निर्देश दिया था। एक अन्य आँकड़े से भी शहर की ड्रेनेज सिस्टम का अंदाजा लगाया जा सकता है। चेन्नई में 2847 किलोमीटर सड़कें हैं, लेकिन स्टॉर्म वाटर ड्रेनेज सिर्फ 855 कि.मी. है। ऐसे में थोड़ी सी तेज बारिश भी शहर में जल जमाव की स्थिति पैदा कर देती है। ऊपर से शहर पर जनसंख्या का बोझ लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
वैसे चेन्नई का समाज इस संकट की घड़ी में एकजुट नजर आया। पहली बार सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका की खूब सराहना हुई। सैकड़ों लोग इसके जरिये सुरक्षित निकाले गये और उन तक राहत सामग्री पहुँची। मीडिया में आ रही खबरें बता रही हैं कि संकट की घड़ी में कैसे लोगों ने एक-दूसरे की जान बचाई। पड़ोसियों ने दूसरे पड़ोसी की सहायता की। अपने घरों में आश्रय दिया और जीने की आस जगाये रखी। सेना और एनडीआरएफ की टीम के कमाल के काम की चहुँओर प्रशंसा हुई। घर की छत पर फँसी एक गर्भवती महिला को हेलिकॉप्टर से लिफ्ट कर अस्पताल पहुँचाने वाला वीडियो टीवी चैनलों और सोशल मीडिया में वायरल हुआ। कहीं जरुरतमंदों के बीच राहत बाँटती आरएसएस के स्वयंसेवकों की टोली दिखी तो कहीं मन्दिर साफ करते जमात-ए-इस्लामी हिन्द के युवकों की तस्वीर ने चर्चा बटोरी।
चेन्नई के अस्पताल में मॉरच्यूरी में काम करने वाले एक अदने से सरकारी कर्मचारी ने 20 हजार रुपया बाढ़ राहत कोष में जमा कराई। महाराष्ट्र के अहमदनगर की सेक्स वर्करों ने एक लाख रुपए की आर्थिक सहायता चेन्नई के बाढ़ पीड़ितों को सौंपी। जयललिता ने जहाँ बिजली बिल माफ करने की घोषणा की तो सुषमा स्वराज ने डैमेज पासपोर्ट फिर से बनाने के लिये विशेष पासपोर्ट मेला लगाने का ऐलान किया। फिल्म जगत से जुड़े लोग और औद्योगिक घराने भी आपदा की घड़ी में चेन्नई के साथ नजर आये। इससे उलट बाढ़ की बेबसी में दूसरे पहलू भी नजर आये, जब कारोबारियों ने जरूरी चीजों के कई गुने ज्यादा दाम वसूलकर मुनाफे कमाये। आॅटो रिक्शा और टैक्सी चालकों ने थोड़ी-सी दूरी के लिये भी लोगों से ऊँची कीमत वसूल कर मौके का फायदा उठाया। सत्ताधारी एआईएडीएमके के कार्यकर्ताओं ने राहत के पैकेटों पर अम्मा की तस्वीरें जबरन चस्पा करने की कोशिश की, आदि- आदि। लेकिन राज्य में बीते सौ सालों की सबसे तेज बारिश से मची तबाही से अब लोग उबरने लगे हैं। जिंदगी फिर से पटरी पर लौटने लगी है।
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