सागर से भारत की समस्याओं का समाधान

पृथ्वी विज्ञान उन नीतियों और कार्यक्रमों का समुच्चय है जो मौसम, कृषि, विमानन, शिपिंग, स्पोर्ट्स आदि पर मौसम का कुप्रभाव, मौसम आपदा, जीवित तथा गैरजीवित संसाधन, तटीय और मरीन पर्यावरण तन्त्र और जलवायु परिवर्तनों के क्षेत्रों में सूचना तथा जानकारी उपलब्ध कराकर महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।


पृथ्वी का लगभग 71 फीसद भाग महासागरों से आच्छादित है। इन महासागरों के अन्दर प्राणियों तथा खनिज संसाधनों का इतना विशाल भंडार है, जिसके बारे में हम अभी बहुत अधिक नहीं जानते हैं। दूसरे शब्दों में इनको ‘महासागर सम्पदा’ कहना न्यायोचित होगा। विशेषज्ञों की मानें तो जिस तरह से हमारे सामने दिनों-दिन खास, पोषण पर्यावरण, ऊर्जा तथा पेयजल की समस्या बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में समुद्र ही भविष्य में इन समस्याओं के समाधान में संकटमोचन हो सकते हैं। सच में समुद्रों का प्राणी जगत तथा अकूत खनिज सम्पदा भूमि से कहीं अधिक है।

समुद्र के अन्दर पाए जाने वाले पदार्थों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पहला वृहद संघटक जैसे क्लोरीन, सोडियम मैग्नेशियम, सल्फर, कैल्सियम, पोटैशियम आदि तथा दूसरे में लघु संघटक जैसे कार्बन, सिलिकॉन, फास्फोरस, आयोडिन, लोहा, ताम्बा, सोना इत्यादि। समुद्र में वृहद संघटकों की उपस्थिति अधिक है, जबकि लघुसंघटकों की उपस्थिति कम है। इसी प्रकार समुद्री संसाधनों को भी दो भागों में बाँटा गया है, पहला सजीव संसाधन, जो समुद्री जीवों से प्राप्त किए जाते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- मोती, प्रवाल तथा औषधियाँ। दूसरे श्रेणी में निर्जीव संसाधनों में ऊर्जा तथा खनिज शामिल हैं। समुद्र से मिलने वाले पेट्रोलियम परम्परागत ऊर्जा, समुद्र की लहरों से प्राप्त की जा सकती है। मौजूदा समय में भारत समुद्र से गैरपरम्परागत ऊर्जा के दोहन में यथोचित प्रगति नहीं कर पाए हैं।

धरती पर खाद्यान्न समस्या से निपटने में समुद्री खेती पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकती है। समुद्री मछलियाँ तो बड़ी संख्या में भोजन का स्रोत हैं ही, मगर इसके अलावा कई अन्य जीव भी हैं जिनको खेती की तरह पर्याप्त संरक्षण तथा संवर्धन देकर बढ़ाया जा सकता है तथा खाद्य पदार्थों के रूप में उनका उपभोग किया जा सकता है। समुद्री झींगा, फेनी, मोती, सीप, संखमीन इत्यादि ऐसे ही जीव हैं, जिन्हें खाद्य पदार्थों की खेती के रूप में बढ़ावा दिया जा सकता है। शाकाहारियों के लिए भी समुद्र में विभिन्न प्रकार के शैवाल, कवक तथा स्पंज पाए जाते हैं। जो पौष्टिक गुणों से भरपूर होते हैं। इन चीजों को खेती के रूप में संरक्षण एवं संवर्धन प्रदान कर न सिर्फ अपनी खाद्य तथा पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है बल्कि इनका अधिक उत्पादन कर निर्यात करके भी बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।

एक अनुमान के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष औसतन 10 हजार करोड़ रुपए मूल्य के समुद्री उत्पादों का निर्यात करता है, यह काफी नहीं है क्योंकि भारत के पास इतने समुद्री संसाधन उपलब्ध हैं कि अगर उनके सही संरक्षण-संवर्धन- प्रबन्धन तथा दोहन पर ध्यान दिया जाए, तो समुद्री उत्पादों में आत्मनिर्भरता के अलावा हम प्रतिवर्ष 25,000-30,000 करोड़ रुपए तक का औसतन निर्यात कर सकते हैं। समुद्री मछलियों तथा जीवों के अलावा समुद्री वनस्पतियों से अनेक प्रकार की औषधियाँ भी बनाई जा सकती हैं। समुद्री मछलियों से भोजन के अलावा दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले अनेक घरेलू सामान भी बनाए जाते हैं, जैसे सार्क मछली के चर्म से बनने वाले जूते, पर्श, बटन तथा समावंटी सामान, सार्डिन, हिल्सा, शार्क आदि समुद्री मछलियों का उपयोग रंग रोगन, लिनोलियम तथा कृत्रिम सामानों के उत्पादन में होता है। कुछ समुद्री मछलियों के तेल से मोमबत्ती व साबुन भी तैयार किये जाते हैं। सीपी, शंख, मोती तथा मूंगा की प्राप्ति भी समुद्री जीवों से होती है। यह तो बानगी भर है। सच तो यह है कि मानव की तमाम आवश्यकताओं को सदियों तक पूरा कर सकती है।

भारत में इस क्षेत्र में शोध तथा विकास कार्य व्यावहारिक, व्यावसायिक तथा प्रौद्योगिकी रूप में व्यापक स्तर पर उतनी गति नहीं पाए हैं जिसकी अपेक्षा की जाती है। दुर्भाग्यवश विभिन्न देशों द्वारा अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए जाने-अनजाने अथवा प्रत्यक्षव परोक्ष रूप से समुद्र में फैलाए जा रहे प्रदूषण से इस बात की आशंका बलवती हो गई है कि कहीं हमारी अतिस्वार्थ परखता तथा महत्वाकांक्षा समुद्र सम्पदा को ही न लील जाए। पृथ्वी को रत्नगर्भा कहा गया है और समुद्रों में डूबा पृथ्वी का भूभाग भी अनमोल रत्नों की खान है। अतः सामुद्रिक हितों पर कुठाराघात या उनका अतिक्रमण करके हम भी लम्बे समय तक खुशहाल जीवन नहीं जी सकते, क्योंकि हमारे अनावश्यक हस्तक्षेप से अगर समुद्र ने अपनी मर्यादा त्याग दी, तो फिर हमें प्रलय से कोई नहीं बचा सकता। भारत में समुद्री विज्ञान के क्षेत्र में कौन-कौन से निकाय स्थापित किए गए हैं और वे क्या-क्या कार्य कर रहे हैं। उन पर विस्तार से चर्चा जरूरी है।

पृथ्वी विज्ञान मन्त्रालय


पृथ्वी विज्ञान उन नीतियों और कार्यक्रमों का समुच्चय है जो मौसम, कृषि, विमानन, शिपिंग, स्पोर्ट्स आदि पर मौसम का कुप्रभाव, मौसम आपदा, जीवित तथा गैरजीवित संसाधन, तटीय और मरीन पर्यावरण तन्त्र और जलवायु परिवर्तनों के क्षेत्रों में सूचना तथा जानकारी उपलब्ध कराकर महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। पृथ्वी विज्ञान प्रणाली से सम्बन्धित मामलों की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए भारत सरकार ने 12 जुलाई 2006 को पृथ्वी विज्ञान मन्त्रालय की स्थापना की। मन्त्रालय का कार्यक्रम व्यापक शृंखला और बहुआयामी हैं तथा भारतीय उपमहाद्वीप और भारतीय सामुद्रिक क्षेत्र के लिए जलवायु, मौसम तथा प्राकृतिक खतरों की सटीक भविष्यवाणी करना है पृथ्वी विज्ञान के महत्त्वपूर्ण लक्षणों को रिकॉर्ड करना, प्रक्रिया, पर्यावरणीय तथा आर्थिक लाभों की सेवा का विकास किया गया है।

समुद्री विज्ञान तथा सेवाएँ


समुद्र विज्ञान तथा सेवा अभियान में मुख्यतः आधारभूत विकास, उत्पादों/सेवाओं का परिचालन, उत्पादन और प्रसारण, अवलोकन नेटवर्क की स्थापना तथा समुद्री मॉडल आदि का विकास शामिल है। सतह पर बहने वाली नौकाओं, धारा मापने के ऐसे फैलने वाले बाथीथर्मोग्राफ और ज्वार-भाटा मापकों के जरिए पूरे भारत से विभिन्न स्थानों के आँकड़े प्राप्त करने के लिए समुद्र समुद्र विज्ञान मन्त्रालय का एक व्यापक समुद्र अवलोकन कार्यक्रम है। अन्तरराष्ट्रीय एआरजीओ परियोजना के तहत 300 किलोमीटर के अन्तर पर पूरे विश्व के समुद्रों में 3000 एआरजीओ फ्लोट लगाए जाएँगे। भारत सहित अनेक देशों में हिन्द महासागर में 176 फ्लोट लगाए हैं जो काम कर रहे हैं।

भावी पीढ़ी के लिए समुद्र अहम


वर्ष 1987 में समुद्र में खनन के क्षेत्र में भारत को उत्कृष्ट निवेशक का दर्जा मिल चुका है और यह विशिष्ट दर्जा संयुक्त राष्ट्र द्वारा संस्थानों के दोहन तथा उपयोगिता के लिए दिया गया है। भारतीय वैज्ञानिकों ने रूसी वैज्ञानिकों की सहायता से 5200 मीटर नीचे की गहराई में पाए जाने वाले लवणों की पहचान का उपकरण विकसित किया है। साथ ही रूस के साथ 6000 मीटर की गहराई पर काम करने वाले रिमोट चालित वाहन के विकास की परियोजना पर भी काम चल रहा है।

भारत में समुद्र विज्ञान के क्षेत्र में किए जा रहे शोध तथा विकास कार्य उत्साहजनक तो हैं मगर इनको व्यावहारिक तथा व्यावसायिक रूप में व्यापक स्तर पर गतिशीलता प्रदान करना बाकी है। भारत की आबादी जब 2025 में चीन की आबादी से आगे निकल जाएगी, ऐसे में हमारी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने में शायद भू-संसाधनों के समाधान के लिए समुद्र सबसे बड़ा विकल्प बन सकता है मगर इसके लिए अभी से तेज प्रयास करने जरूरी है।

समुद्र अन्तरिक्ष तथा मत्स्य विज्ञान के विशेषज्ञों के समुद्रतटीय राज्यों के साथ संयुक्त प्रयासों से पीएफजेड इलाकों के मौसम के बारे में समय पर सटीक सलाह व सूचना देना सम्भव हो रहा है। समुद्री सतह के तापमान तथा क्लोरोफिल आदि के आधार पर लहरों के प्रवाह तथा मछलियों के पाए जाने की सम्भावित जगहों के बारे में पता लगाया जाता है। यह सलाह स्थानीय भाषाओं में तैयार की जाती है और 225 स्थानों पर बिना बादल वाले दिनों में सप्ताह में तीन बार (मंगल, बृहस्पत और शनिवार) को दी जाती है।

मछलीमार समुदायों को इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड, सूचना कियोस्क, रेडियो, समाचार पत्र, इमेल वेबसाइट, फैक्स तथा फोन से समय-समय पर सूचना दी जाती है। आईएनसीओआईएस अपने 60 पंजीकृत उपभोक्ताओं के अलावा समुद्री तथा समुद्र के अन्दर विकास की गतिविधियों के लिए वेबसाइट के जरिए सूचना भेजता है। इसने हिन्द महासागर स्थित फ्लोटो से प्राप्त आँकड़ों के संग्रहण तथा प्रसारण केन्द्र भी बनाया है। जनवरी 2010 में सामुद्रिक सूचना सेवा प्रणाली भारतीय सामुद्रिक अनुमान प्रणाली (आईएनडीओएफओएस) को आईएनसीओआईएस हैदराबाद द्वारा स्थापित किया गया है। वर्तमान में यह प्रणाली लहर, तरंगों, लहर दिशा, समुद्र सतह तापमान, सतह लहरों, मिश्रित परत गहराई तथा 5-7 दिन पूर्व 20 डिग्री पर अनुमानों को उपलब्ध कराता है। आईएनडीओएफओएस से लाभ लाने वाले हैं- पारम्परिक तथा मशीनीकृत मछुआरे, समुद्रतटीय समुदाय, कोस्टगार्ड, शिपिंग कम्पनियाँ, शिक्षा जगत तथा प्राकृतिक तेल व गैस उद्योग इत्यादि।

राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान


वर्ष 1993 में समुद्र विज्ञान मन्त्रालय के अधीन राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी) नामक एक स्वायत्त संस्था की स्थापना की गई।

इसकी स्थापना का उद्देश्य समुद्र ऊर्जा, गहरे समुद्र की प्रौद्योगिकी, समुद्री खनन, तटीय व पर्यावरणीय इंजीनियरिंग और समुद्री यांत्रिकी के क्षेत्र में परियोजना लागू करना तथा विकास करना है। इसमें तकनीकी विकास को ग्रहण करते हुए उच्च प्रशिक्षित कार्मिक तैयार किए गए हैं। एनआईओटी एक निरन्तर गति से व्यापक सामुद्रिक संसाधनों का उपयोग करने के लिए तकनीक की व्यापक शृंखला के विकास के लिए उपकरणों को विकसित करने के लिए कार्यरत है। इसकी गतिविधियों में से एक है- कम ताप पर तापीय विलवणीकरण प्रक्रिया से समुद्री जल से पेयजल प्राप्त करना। जिसके अन्तर्गत ताजा जल गर्म सतही सामुद्रिक पानी को निम्न रिक्त स्थितियों में प्रवाहित कर और इस वाष्पीकरण को गहरे सामुद्रिक शीतल जल का उपयोग किया जाता है। दुनिया की बढ़ती पेयजल की आवश्यकताओं को देखते हुए वैज्ञानिक समुद्री जल को पीने योग्य बनाने की सस्ती तकनीकें विकसित करने में संलग्न हैं।

समुद्र से पेयजल का दोहन


भारत में समुद्र तटीय भागों में बढ़ती पेयजल की समस्या को देखते हुए दो तरह के विलवणीकरण संयंत्र स्थापित किए गए हैं, (i) भूमि आधारित और (ii) समुद्र तट से दूर। भूमि आधारित संयंत्र लक्षद्वीप तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के लिए उपयुक्त हैं, जबकि तट से दूर के संयंत्र देश के मुख्य भाग के लिए ठीक है। लक्षद्वीप छोटा द्वीप है जिसमें मीठे पानी के स्रोत तालाब, नदियाँ आदि नहीं हैं। वहाँ अधिकांशतः वर्षा के पानी का ही इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि नलकूप के पानी में भी समुद्र का खारा पानी मिला होता है। इसलिए विलवणीकरण वहाँ के लोगों के लिए अच्छा विकल्प है। इसी प्रकार विलवणीकरण तकनीकों पर आधारित एक लाख लीटर प्रतिदिन क्षमता वाला एक संयंत्र ‘कावरती’ (लक्षद्वीप) में लगाया गया है। इसे एनआईओटी ने विकसित किया है जो अब तक एक करोड़ लीटर से अधिक पानी साफ कर चुका है।

भूमि आधारित संयंत्र उत्तरी चेन्नई ताप विद्युत गृह में मई 2009 में लगाया गया। गौरतलब है कि यह तकनीक पर्यावरण के अनुकूल है और बिजलीघर के बेकार ताप का सदुपयोग करके चलती है। इससे पूर्व अप्रैल 2007 में 10 लाख लीटर प्रतिदिन वाला एक संयंत्र चेन्नई से 40 किमी दूर लगाया गया।

समुद्र में खनन


वर्ष 1987 में समुद्र में खनन के क्षेत्र में भारत को उत्कृष्ट निवेशक का दर्जा मिल चुका है और यह विशिष्ट दर्जा संयुक्त राष्ट्र द्वारा संस्थानों के दोहन तथा उपयोगिता के लिए दिया गया है। भारतीय वैज्ञानिकों ने रूसी वैज्ञानिकों की सहायता से 5200 मीटर नीचे की गहराई में पाए जाने वाले लवणों की पहचान का उपकरण विकसित किया है। साथ ही रूस के साथ 6000 मीटर की गहराई पर काम करने वाले रिमोट चालित वाहन के विकास की परियोजना पर भी काम चल रहा है। अप्रैल 2010 में 5000 मीटर की गहराई पर एक प्रोटोटाइप प्रणाली को विकसित करके सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। इस प्रकार भारत समुद्र खनन में संलग्न उत्कृष्ट देशों की सूची में शामिल हो गया है।

मैंगनीज नोडल खनन कार्यक्रमों के तहत भारत का अगला कदम 6000 मीटर गहराई पर संचालन के लिए ‘काउलर’ को डिजाइन करना है। 6000 मीटर की चुनौतियों जैसे उच्च दाब, अत्यन्त मृदुल समुद्र बेड और समुद्री फ्लोर के विभिन्न उष्ण कटिबंधीय बेड का सामना करने के लिए सतह में चालन के समक्ष काउलर को डिजाइन करने के क्रम में यह आवश्यक है समुद्र सतह सम्पत्ति यथास्थिति में मापा गया है। इसने वैज्ञानिकों को उस यन्त्र को विकसित करने के लिए संकेत दिया है जो मिट्टी सम्पत्ति के लिए है। इसके अनुसार यन्त्र, रूस के साथ संयुक्त उद्यम में मिट्टी के गुणों को मापने के लिए विकसित किया गया है। यह पहली बार है जब यथास्थिति मिट्टी गुण माप के लिए यन्त्र को विकसित किया गया है और भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा 5200 मीटर की गहराई पर परीक्षण किया गया है।

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