सागर के आगर

talab
talab


तालाब एक बड़ा शून्य है अपने आप में।
लेकिन तालाब पशुओं के खुर से बन गया कोई ऐसा गड्ढा नहीं कि उसमें बरसात का पानी अपने आप भर जाए। इस शून्य को बहुत सोच- समझ कर, बड़ी बारीकी से बनाया जाता रहा है। छोटे से लेकर एक अच्छे बड़े तालाब के कई अंग- प्रत्यंग रहते थे। हरेक का अपना एक विशेष काम होता था और इसीलिए एक विशेष नाम भी। तालाब के साथ- साथ यह उसे बनाने वाले समाज की भाषा और बोली की समृद्धि का भी सबूत था। पर जैसे- जैसे समाज तालाबों के मामले में गरीब हुआ है, वैसे- वैसे भाषा से भी ये नाम, शब्द धीरे- धीरे उठते गए हैं।

बादल उठे, उमड़े और पानी जहां गिरा, वहां कोई एक जगह ऐसी होती है जहां पानी बैठता है। एक क्रिया है : आगौरना, यानी एकत्र करना। इसी से बना है आगौर। आगौर तालाब का वह अंग है, जहां से उसका पानी आता है। यह वह ढाल है, जहां बरसा पानी एक ही दिशा की ओर चल पड़ता है। इसका एक नाम पनढाल भी है। आगौर को मध्य प्रदेश के कुछ भागों में पैठू, पौरा या पैन कहते हैं। इस अंग के लिए इस बीच में हम सबके बीच, हिंदी की पुस्तकों, अखबारों, संस्थाओं में एक नया शब्द चल पड़ा है- जलागम क्षेत्र। यह अंग्रेजी के कैचमेंट से लिया गया अनुवादी, बनावटी और एक हद तक गलत शब्द है। जलागम का अर्थ वर्षा ऋतु रहा है।

आगौर का पानी जहां आकर भरेगा, उसे तालाब नहीं कहते। वह है आगर। तालाब तो सब अंग- प्रत्यंगों का कुल जोड़ है। आगर यानी घर, खजाना। तालाब का खजाना है आगर, जहां सारा पानी आकर जमा होगा। राजस्थान में यह शब्द तालाब के अलावा भी चलता है। राज्य परिवहन की बसों के डिपो भी आगर कहलाते हैं। आगरा का नाम भी इसी से बना है। आगर नाम के कुछ गांव भी कई प्रदेशों में मिल जाएंगे।

आगौर और आगर, सागर के दो प्रमुख अंग माने गए हैं। इन्हें अलग- अलग क्षेत्रों में कुछ और नामों से भी जाना जाता है। कहीं ये शब्द मूल संस्कृत से घिसते- घिसते बोली में सरल होते दिखते हैं तो कहीं ठेठ ग्रामीण इलाकों में बोली को सीधे संस्कृत तक ले जाते हैं। आगौर कहीं आव है, तो कहीं पायतान, यानी जहां तालाब के पैर पसरे हों। आयतन है जहां यह पसरा हिस्सा सिकुड़ जाए यानी आगर। इसे कहीं- कहीं भराव भी कहते हैं। आंध्र प्रदेश में पहुंच कर यह परिवाह प्रदेशम् कहलाता है। आगर में आगौर से पानी आता है पर कहीं- कहीं आगर के बीचों- बीच कुआं भी खोदते हैं। इस स्रोत से भी तालाब में पानी आता है। इसे बोगली कहते हैं। बिहार में बोगली वाले सैकड़ों तालाब हैं। बोगली का एक नाम चूहर भी है।

जल के इस आगर की, कीमती खजाने की रक्षा करती है पाल। पाल शब्द पालक से आया होगा। यह कहीं भींड कहलाया और आकार में छोटा हुआ तो पींड। भींड का भिंड भी है बिहार में। और कहीं महार भी। पुश्ता शब्द बाद में आया लगता है। कुछ क्षेत्रों में यह पार है। नदी के पार की तरह किनारे के अर्थ में। पार के साथ आर भी है- आर, पार और तालाब के इस पार से उस पार को आर- पार या पार- आर के बदले पारावार भी कहते हैं। आज पारावार शब्द तालाब या पानी से निकल कर आनंद की मात्रा बताने के लिए उपयोग में आ रहा है, पर पहले यह पानी के आनंद का पारावार रहा होगा।

पार या पाल बहुत मजबूत होती है पर इस रखवाले की भी रखवाली न हो तो आगौर से आगर में लगातार भरने वाला पानी इसे न जाने कब पार कर ले और तब उसका प्रचंड वेग और शक्ति उसे देखते ही देखते मिटा सकता है। तालाब को टूटने से बचाने वाले इस अंग का नाम है अफरा। आगर तो हुआ तालाब का पेट। यह एक सीमा तक भरना ही चाहिए, तभी तालाब का साल- भर तक कोई अर्थ है। पर उस सीमा को पार कर ले तो पाल पर खतरा है। पेट पूरा भर गया, अफर गया तो अब उसे खाली करना है। यह काम अफरा करती है और पेट को फटने से, तालाब को, पाल को टूटने से बचाती है।
इस अंग के कई नाम हैं। अफरा कहीं अपरा भी हो जाता है। उबरा, ओबरा भी है जो शायद ऊबर, उबरने, बचने- बचाने के अर्थ में बने हैं। राजस्थान में ये सब नाम चलते हैं। अच्छी बरसात हुई और तालाब में पानी इतना आया कि अपरा से निकलने लगे तो उसे अपरा चलना और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में इसे चादर चलना भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ में इस अंग का नाम है छलका- पाल को तोड़े बिना जहां से पानी छलक जाए।

इस अंग का पुराना नाम उच्छवास था, उसे छोड़ देने के अर्थ में। निकास से यह निकासी भी कहलाता है। पर ठेठ संस्कृत से आया है नेष्टा। यह राजस्थान के थार क्षेत्र में, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर में सब जगह, गांवों में, शहरों में बिना एक मात्रा भी खोए नेष्टा ही कहलाता है। सीमा पार कर सिंध में भी यह इसी नाम से चलता है। यह दक्षिण में कालंगल है तो बुंदेलखंड में बगरन यानी जहां से तालाब का अतिरिक्त पानी बगर जाए, निकल जाए।
नेष्टा को पहले वर्ष छोटा बनाते हैं। पाल से भी बहुत नीचा। नई पाल भी पानी पिएगी, कुछ धंसेगी, सो तालाब में पानी ज्यादा रोकने का लालच नहीं करते। जब एक बरसात में मामला पक्का हो जाता है तो फिर अगले वर्ष नेष्टा थोड़ा और ऊपर उठाते हैं। तब तालाब ज्यादा पानी रोक सकता है।

नेष्टा मिट्टी के कच्चे पाल का कम ऊंचा भाग है लेकिन पानी का मुख्य जोर झेलता है इसलिए इसे पक्का यानी पत्थर चूने का बनाया जाता है। नेष्टा का अगल- बगल का भाग अर्धवृत्त की गोलाई लिए रहता है ताकि पानी का वेग उससे टकराकर टूट सके। इस गोलाई वाले अंग का नाम है नाका। यदि यही अंग तालाब के बदले बंधान पर बने यानी किसी छोटी नदी- नाले के प्रवाह को रोकने के लिए बनाए गए छोटे बांध पर बने तो उसे ओड़ कहते हैं पंखे के आकार के कारण इसे पंखा भी कहते हैं।

नेष्टा है तो शुद्ध तकनीकी अंग, लेकिन कहीं- कहीं ऐसा भी नेष्टा बनाया जाता था कि तकनीकी होते हुए भी वह कला- पक्ष को स्पर्श कर लेता था। जिन सिद्धस्त गजधरों का पहले वर्णन किया गया है, उनके हाथों से ऐसे कलात्मक काम सहज ही हो जाते थे। राजस्थान के जोधपुर जिले में एक छोटा- सा शहर है फलौदी। वहां शिवसागर नामक एक तालाब है। इसका घाट लाल पत्थर से बनाया गया है। घाट पर एक सीधी रेखा में चलते- चलते फिर एकाएक सुंदर सर्पाकार रूप ले लेता है। यह अर्धवृत्ताकार गोलाई तालाब से बाहर निकलने वाले पानी का बेग काटती है। ज्यामिति का यह सुंदर खेल बिना किसी भोंडे तकनीकी बोझ के, सचमुच खेल- खेल में ही अतिरिक्त पानी को बाहर भेजकर शिवसागर की रखवाली बड़े कलात्मक ढंग से करता है।

वापस आगौर चलें। यहीं से पानी आता है आगर में। सिर्फ पानी लाना है और मिट्टी तथा रेत को रोकना है। इसके लिए आगौर में पानी की छोटी- छोटी धाराओं को यहां- वहां से मोड़कर कुछ प्रमुख रास्तों से आगर की तरफ लाया जाता है और तालाब में पहुंचने से काफी पहले इन धाराओं पर खुरा लगाया जाता है। शायद यह शब्द पशु के खुर से बना है- इसका आकार खुर जैसा होता है। बड़े- बड़े पत्थर कुछ इस तरह जमा दिए जाते हैं कि उनके बीच में सिर्फ पानी निकले, मिट्टी और रेत आदि पीछे ही जम जाए, छूट जाए।

रेगिस्तानी क्षेत्र में रेत की मात्रा मैदानी क्षेत्रों से कहीं अधिक होती है। इसलिए वहां तालाब में खुरा अधिक व्यवस्थित, कच्चे के बदले पक्के भी बनते हैं। पत्थरों को गारे चूने से जमा कर बाकायदा एक ऐसी दो मंजिली पुलिया बनाई जाती है, जिसमें ऊपरी मंजिल की खिड़कियों, या छेदों से पानी आता है, उन छेदों के नीचे से एक नाली में जाता है और वहां पानी सारा भार कंकर- रेत आदि छोड़कर साफ होकर फिर पहली मंजिल के छेदों से बाहर निकल आगौर की तरफ बढ़ता है। कई तरह के छोटे- बड़े, ऊंचे- नीचे छेदों से पानी छानकर आगर में भेजने वाला यह ढांचा छेदी कहलाता है।

इस तरह रोकी गई मिट्टी के भी कई नाम हैं। कहीं यह साद है, गाद है, लद्दी है, तो कहीं तलछट भी। पूरी सावधानी रखने के बाद भी हर वर्ष पानी के साथ कुछ न कुछ मिट्टी आगर में आ ही जाती है। उसे निकालने के भी अवसर या तरीके बहुत व्यवस्थित रहे हैं। उनका ब्यौरा बाद में। अभी फिर पाल पर ही चलें। पाल कहीं सीधी, कहीं अर्ध चंद्राकार, दूज के चांद की तरह बनती है तो कहीं उसमें हमारे हाथ की कोहनी की तरह एक मोड़ होता है। यह मोड़ कोहनी ही कहलाता है। जहां भी पाल पर आगौर से आने वाले पानी का बड़ा झटका लग सकता है, वहां पाल की मजबूती बढ़ाने के लिए उस पर कोहनी दी जाती है।

जहां संभव है, सामर्थ्य है, वहां पाल और पानी के बीच पत्थर के पाट लगाए जाते हैं। पत्थर जोड़ने की क्रिया जुहाना कहलाती है। छोटे पत्थर गारे से जोड़े जाते थे और इस घोल में रेत, चूना, बेलफल (बेलपत्र), गुड़, गोंद और मेथी मिलाई जाती थी। कहीं- कहीं राल भी। बड़े वजनी पत्थर छेद और कील पद्धति से जोड़े जाते थे। इसमें एक पत्थर में छेद छोड़ते और दूसरे में उसी आकार की कील अटा देते थे। कभी- कभी बड़े पत्थर लोहे की पत्ती से जोड़ते थे। ऐसी पट्टी जोंकी या अकुंडी कहलाती थी। पत्थर के पाट, पाल की मिट्टी को आगर में आने से रोकते हैं। पत्थरों से पटा यह इलाका पठियाल कहलाता है। पठियाल पर सुंदर मंदिर, बारादरी, छतरी और घाट बनाने का चलन है।

तालाब और पाल का आकार काफी बड़ा हो तो फिर घाट पर पत्थर की सीढ़ियां भी बनती हैं। कहीं बहुत बड़ा और गहरा तालाब है तो सीढ़ियों की लंबाई और संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ जाती है। ऐसे में पाल की तरह इन सीढ़ियों को भी मजबूती देने का प्रबंध किया जाता है। ऐसा न करें तो फिर पानी सीढ़ियों को काट सकता है। इन्हें सहारा देने बीच- बीच में बुर्जनुमा, चबूतरे जैसी बड़ी सीढ़ियां बनाई जाती हैं। हर आठ या दस सीढ़ियों के बाद आने वाला यह ढांचा हथनी कहलाता है।

ऐसा ही किसी हथनी दीवार में एक बड़ा आला बनाया जाता है और उसमें घटोइया बाबा की प्रतिष्ठा की जाती है। घटोइया देवता घाट की रखवाली करते हैं। प्राय: अपरा की ऊंचाई के हिसाब से इनकी स्थापना होती है। इस तरह यदि आगौर में पानी ज्यादा बरसे, आगर में पानी का स्तर लगातार ऊंचा उठने लगे, तालाब पर खतरा मंडराने लगे तो घटोइया बाबा के चरणों तक पानी आने के बाद, अपरा चल निकलेगी और पानी का बढ़ना थम जाएगा। इस तरह घाट की, तालाब की रखवाली देवता और मनुष्य मिलकर करते रहे हैं।

तालाबों की तरह नदियों के घाटों पर भी घटोइया बाबा की स्थापना होती रही है। बाढ़ के दिनों में जो बड़े- बूढे़, दादा- दादी घाट पर खुद नहीं जा पाते, वे वहां से वापस लौटने वाले अपने नाती- पोतों, बेटे- बेटियों से बहुत उत्सुकता के साथ प्राय: यही प्रश्न पूछते हैं, ``पानी कहां तक चढ़ा है? घटोइया बाबा के चरणों तक आ गया?´´ उनके पांव पानी पखार ले तो बस सब हो गया। इतना पानी आगर में हो जाए तो फिर काम चलेगा पूरे साल भर।

पूरे साल भर आगर की जल राशि को, खजाने को आंकने- मापने का काम करते हैं उनमें अलग- अलग स्थानों पर लगने वाले स्तंभ। नागयष्टि बहुत पुराना शब्द है। यह नए खुदे तालाबों में जल स्तर नापने के काम आता था। इस पर अक्सर नाग का अलंकरण नहीं हुआ, वैसे स्तंभ केवल यष्टि भी कहलाते थे। धीरे- धीरे घिसते- घिसते यही शब्द `लाठ´ बना। यह स्तंभ भी कहलाता है और जलथंब या केवल थंभ भी। कहीं इसे पनसाल या पौसरा भी कहा जाता है। ये स्तंभ अलग- अलग जगह लगाते हैं, लगाने के अवसर भी अलग होते हैं। और प्रयोजन भी कई तरह के।

स्तंभ तालाब के बीचोबीच, अपरा पर, मोखी पर, यानी जहां से सिंचाई होती है वहां पर तथा आगौर में लगाए जाते हैं। इनमें फुट, गज आदि नीरस निशानों के बदले पद्म, शंख, नाग, चक्र जैसे चिन्ह उत्कीर्ण किए जाते हैं। अलग- अलग चिन्ह पानी की एक निश्चित गहराई की सूचना देते हैं। सिंचाई के लिए बने तालाबों के स्तंभ के एक विशेष चिन्ह तक जल स्तर उतर आने के बाद पानी का उपयोग तुरंत रोक कर उसे फिर संकट के लिए सुरक्षित रखने का प्रबंध किया जाता रहा है। कहीं- कहीं पाल पर भी स्तंभ लगाए जाते हैं। पर पाल के स्तंभ के डूबने का अर्थ है `पाले´ यानी प्रलय होना।

स्तंभ पत्थर से बनते थे और लकड़ी के भी। लकड़ी की जात ऐसी चुनते थे, जो मजबूत हो, पानी से सड़े- गले नहीं। ऐसी लकड़ी का एक पुराना नाम क्षत्रिय काष्ठ था। प्राय: जामुन, साल, ताड़ तथा सरई की लकड़ी इस काम में लाई जाती रही है। इसमें साल की मजबूती की कई कहावतें रही हैं जो आज भी डूबी नहीं हैं। साल के बारे में कहते हैं कि ``हजार साल खड़ा, हजार साल पड़ा और हजार साल सड़ा।´´ छत्तीसगढ़ के कई पुराने तालाबों में आज भी साल के स्तंभ लगे मिल जाएंगे। रायपुर के पुरातत्व संग्रहालय में कहावत से बाहर निकल कर आया साल के पेड़ का सचमुच सैकड़ों साल से भी पुराना एक टुकड़ा रखा है। यह एक जल स्तंभ का अंश है जो उसी क्षेत्र में चंद्रपुर अब जिला बिलासपुर के ग्राम किरानी में हीराबंध नामक तालाब से मिला है। हीराबंध दूसरी शताब्दी पूर्व के सातवाहनों के राज्य का है। इस पर राज्य अधिकारियों के नाम खुदे हैं जो संभवत: उस भव्य तालाब के भरने से जुड़े समारोह में उपस्थित थे।

परिस्थिति नहीं बदले तो लकड़ी खराब नहीं होती। स्तंभ हमेशा पानी में डूबे रहते थे, इसलिए वर्षों तक खराब नहीं होते थे।
कहीं- कहीं पाल या घाट की एक पूरी दीवार पर अलग- अलग ऊंचाई पर तरह- तरह की मूर्तियां बनाई जाती थीं। वे प्राय: मुखाकृति होती थीं। सबसे नीचे घोड़ा तो सबसे ऊपर हाथी। तालाब का बढ़ता जलस्तर इन्हें क्रम से स्पर्श करता जाता था और सबको पता चलता जाता कि इस बार पानी कितना भर गया है। ऐसी शैली के अमर उदाहरण हैं जैसलमेर के अमर सागर की दीवार पर घोड़े, हाथी और सिंह की मूर्तियां।

स्तंभ और नेष्टा को एक दूसरे से जोड़ देने पर तो चमत्कार ही हो जाता है। अलवर से कोई सौ किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों के ऊपर आबादी से काफी दूर एक तालाब है श्याम सागर। यह संभवत: युद्ध के समय सेना की जरूरत पूरी करने के लिए 15वीं सदी में बनाया गया था। इसमें किनारे पर वरुण देवता का एक स्तंभ है। स्तंभ की ऊंचाई के हिसाब से ही उससे कोई एक फर्लांग की दूरी पर श्याम सागर की अपरा है। बढ़ते जल स्तर ने वरुण देवता के चरण छुए नहीं कि अपरा चलने लगती है और तालाब में फिर उससे ज्यादा पानी भरता नहीं। वरुण देवता कभी डूबते नहीं।

स्तंभ तालाब के जल- स्तर को बताते थे पर तालाब की गहराई प्राय: `पुरुष´ नाप से नापी जाती थी। दोनों भुजाएं अगल- बगल पूरा फैलाकर खड़े हुए पुरुष के एक हाथ से दूसरे हाथ तक की कुल लंबाई पुरुष या पुरुख कहलाती है। इंच फुट में यह कोई छह फुट बैठती है। ऐसे 20 पुरुष गहराई का तालाब आदर्श माना जाता रहा है। तालाब बनाने वालों की इच्छा इसी `बीसी´ को छूना चाहती है। पर बनाने वालों के सामर्थ्य और आगौर- आगर की क्षमता के अनुसार यह गहराई कम- ज्यादा होती रहती है।

प्राय: बीसी या उससे भी ज्यादा गहरे तालाबों में पाल पर तरंगों का वेग तोड़ने के लिए आगौर और आगर के बीच टापू छोड़े जाते रहे हैं। ऐसे तालाब बनाते समय गहरी खुदाई की सारी मिट्टी पाल पर चढ़ाने की जरूरत नहीं रहती। ऐसी स्थिति में उसे और भी दूर, यानी तालाब से बाहर लाकर फेंकना भी कठिन होता है। इसलिए बीसी जैसे गहरे तालाबों में तकनीकी और व्यावहारिक कारणों से तालाब के बीच टापू जैसे एक या एकाधिक स्थान छोड़ दिए जाते थे। इन पर खुदाई की अतिरिक्त मिट्टी भी डाल दी जाती थी। तकनीकी मजबूती और व्यावहारिक सुविधा के अलावा लबालब भरे तालाब के बीच में उभरे ये टापू पूरे दृश्य को और भी मनोरम बनाते थे।

टापू, टिपुआ, टेकरी और द्वीप जैसे शब्द तो इस अंग के लिए मिलते ही हैं पर राजस्थान में तालाब के इस विशेष भाग को एक विशेष नाम दिया गया है- लाखेटा।
लाखेटा लहरों का वेग तो तोड़ना ही है, वह तालाब और समाज को जोड़ता भी है। जहां कहीं भी लाखेटा मिलते हैं, उन पर उस क्षेत्र के किसी सिद्ध संत, सती या स्मरण रखने योग्य व्यक्ति की स्मृति में सुंदर छतरी बनी मिलती है। लाखेटा बड़ा हुआ तो छतरी के साथ खेजड़ी और पीपल के पेड़ भी लगे मिलेंगे।

सबसे बड़ा लाखेटा? आज इस लाखेटा पर रेल का स्टेशन है, बस अड्डा है और एक प्रतिष्ठित माना गया औद्योगिक क्षेत्र भी बसा है, जिसमें हिन्दुस्तान इलैक्ट्रो ग्रेफाइट्स जैसे भीमकाय कारखाने लगे हैं। मध्य रेलवे से भोपाल होकर इटारसी जाते समय मंडीद्वीप नामक यह स्थान एक जमाने में भोपाल ताल की लाखेटा था। कभी लगभग 250 वर्गमील में फैला यह विशाल ताल होशंगशाह के समय में तोड़ दिया गया था। आज यह सिकुड़ कर बहुत छोटा हो गया है फिर भी इसकी गिनती देश के बड़े तालाबों में ही होती है। इसके सूखने से ही मंडीद्वीप द्वीप न रह कर एक औद्योगिक नगर बन गया है।

प्रणाली और सारणी तालाब से जुड़े दो शब्द हैं, जिन्होंने अपने अर्थों का लगातार विस्तार किया है। कभी ये तालाब आदि से जुड़ी सिंचाई व्यवस्था के लिए बनी नालियों के नाम थे। आज तो शासन की भी प्रणाली है और रेलों का समय बताने वाली सारणी भी!
सिंचाई की प्रमुख नाली जहां से निकलती है वह जगह मुख है, मोखा है और मोखी भी है। मुख्य नहर रजबहा कहलाती है।
बहुत ही विशिष्ट तालाबों की रजबहा इस लोक के राज से निकल कर देवलोक को भी छू लेती थी। तब उनका नाम रामनाल हो जाता था। जैसलमेर के धुत रेगिस्तानी इलाके में बने घने सुंदर बगीचे `बड़ा बाग´ की सिंचाई जैतसर नामक एक बड़े तालाब से निकली रामनाल से ही होती रही है। यहां की अमराई और बाग सचमुच इतना घना है कि मरुभूमि में आग उगलने वाला सूरज यहां आता भी होगा तो सिर्फ ठंडक लेने और वह भी हरे रंग में रंग कर।

रजबहा से निकने वाली अन्य नहरें बहतोल, बरहा, बहिया, बहा और बाह भी कहलाती है। पानी निकलने के रास्ते पर बाद में बस गए इलाके का नामकरण भी इन्हीं के आधार पर हुआ है। जैसे आगरा की बाह नामक तहसील।


सिंचाई के लिए बने छोटे से छोटे तालाबों में भी पानी निकालने का बहुत व्यवस्थित प्रबंध होता रहा है। पाल के किसी हिस्से में से आर- पार निकाली गई नाली का एक सिरा तालाब की तरफ से डाट लगाकर बंद रखा जाता है। जब भी पानी निकालना हो, डाट खोल दिया जाता है। लेकिन ऐसा करने में किसी को पानी में कूदना पड़ेगा, उस गहराई तक जाकर डाट हटाना होगा और फिर इसी तरह बंद करना पड़ेगा। इस साहसिक काम को सर्व सुलभ बनाता है डाट नामक अंग।

डाट पाल से तालाब के भीतर की बना एक छोटा-सा लेकिन गहरा हौजनुमा ढांचा होता है। यह वर्गाकार हौज प्राय: दो से तीन हाथ का होता है। पानी की तरफ की दीवार में जरूरत के हिसाब से दो- तीन छेद अलग- अलग ऊंचाई पर किए जाते हैं। छेद का आकार एक बित्ता या उतना, जितना किसी लकड़ी के लट्ठे से बंद हो जाए। सामने वाली दीवार में फिर इसी तरह छेद होते हैं, लेकिन सिर्फ नीचे की तरफ। इनसे पाल के उस पार नाली से पानी बाहर निकाला जाता है। हौज की गहराई आठ से बाहर हाथ होती है और नीचे उतरने के लिए दीवार पर एक- एक हाथ पर पत्थर के टुकड़े लगे रहते हैं।

इस ढांचे के कारण पानी की डाट खोलने तालाब के पानी में नहीं उतरना पड़ता। बस सूखे हौज में पत्थरों के टुकड़ों के सहारे नीचे उतर कर जिस छेद को खोलना है, उसकी डाट हटाकर पानी चालू कर दिया जाता है। पाल की तरफ वाली नाली से वह बाहर आने लगता है। डाट से मिलते- जुलते ढांचे राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गोवा तक मिलते हैं। नाम जरूरत बदल जाते हैं जैसे : चुकरैंड, चुरंडी, चौंडा, चुंडा और उरैंड। सभी में पानी बाहर उड़ेलने की क्रिया है और इसीलिए ये सारे नाम उंडेलने की ही झलक दिखाते हैं।

तालाब से नहर में उंडेला गया पानी ढलान से बहाकर दूर- दूर ले जाया जाता है। पर कुछ बड़े तालाबों में, जहां मोखी के पास पानी का दबाव बहुत ज्यादा रहता है, वहां इस दबाव का उपयोग नहर में पानी ऊपर चढ़ाने के लिए भी किया जाता है। इस तरह मोखी से निकला पानी कुछ हाथ ऊपर उठकर फिर नहर की ढाल पर बहते हुए न सिर्फ दूर तक जाता है, वह कुछ ऊपर दूर तक जाता है, वह कुछ ऊपर बने खेतों में भी पहुंच सकता है।

मुख्य नहर के दोनों ओर थोड़ी- थोड़ी दूरी पर कुएं भी बनाए जाते हैं। इनमें रहट लगाकर फिर से पानी उठा लिया जाता है। तालाब, नहर और कुआं तथा रहट की यह शानदार चौकड़ी एक के बाद एक कई खेतों को सिंचाई से जोड़ती चलती है। यह व्यवस्था बुंदेलखंड में चंदेलों- बुंदेलों के समय बने एक- एक हजार एकड़ के बरुआ सागर, अरजर सागर में आज भी काम दे रही है। बरुआ सागर ओरछा के नरेश उदित सिंह ने और अरजर सुरजन सिंह ने क्रमश: सन् 1737 तथा 1671 में बनवाए थे। इनकी नहरें आज उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग की प्रतिष्ठा बढ़ा रही हैं।


पानी की तस्करी? सारा इंतजाम हो जाए पर यदि पानी की तस्करी न रोकी जाए तो अच्छा खासा तालाब देखते ही देखते सूख जाता है। वर्षा से लबालब भरा, शरद में साफ सुथरे नीले रंग में डूबा, शिशिर में शीतल हुआ, बसंत में झूमा और फिर ग्रीष्म में? तपता सूरज तालाब का सारा पानी खींच लेगा। शायद तालाब के प्रसंग में ही सूरज का एक विचित्र नाम `अंबु तस्कर´ रखा गया है। तस्कर हो तो सूरज जैसा और आगर यानी खजाना बिना पहरे के खुला पड़ा हो तो चोरी होने में क्या देरी?

इस चोरी को बचाने की पूरी कोशिश की जाती है, तालाब के आगर को ढालदार बना कर। जब पानी कम होने लगता है तो कम मात्रा का पानी ज्यादा क्षेत्र में फैले रहने से रोका जाता है। आगर में ढाल होने से पानी कम होते हुए भी कम हिस्से में अधिक मात्रा में बना रहता है और जल्दी वाष्प बनकर नहीं उड़ पाता। ढालदार सतह में प्राय: थोड़ी गहराई भी रखी जाती है। ऐसे गहरे गड्ढे को अखाड़ा या पियाल कहते हैं। बुंदेलखंड के तालाबों में इसे भर कहते हैं। कहीं- कहीं इसे बंडारौ या गर्ल के नाम से भी जाना जाता है। इस अंग का स्थान मुख्य घाट की ओर रखा जाता है या तालाब के बीचोबीच। बीच में गहरा होने से गर्मी के दिनों में चारों ओर से तालाब सूखने लगता है। ऐसे में पानी घाट छोड़ देता है यह अच्छा नहीं दिखता। इसलिए मुख्य घाट की तरफ पियाल रखने का चलन ज्यादा रहा है। तब तीन तरफ से पानी की थोड़ी-बहुत तस्करी होती रहती है, लेकिन चौथी मुख्य भुजा में पानी बराबर बना रहता है।

ग्रीष्म ऋतु बीती नहीं कि बादल फिर उमड़ने लगते हैं। आगौर से आगर भरता है और सागर फिर बराबर बना रहता है।

सूरज पानी चुराता है तो सूरज ही पानी देता है।

Tag- Aaj Bhi Khare Hain Talab, Anupam MishraAnupam Mishra, Aaj Bhi Khare Hain Talab, Aaj Bhi Khare Hain Talab in Hindi, Anupam Mishra in Hindi, Aaj Bhi Khare Hain Talab, Anupam Mishra, Talab in Bundelkhand, Talab in Rajasthan, Tanks in Bundelkhand, Tanks in Rajasthan, Simple living and High Thinking, Honest society, Role Models for Water Conservation and management, Experts in tank making techniques
 

 

Path Alias

/articles/saagara-kae-agara

Post By: admin
×