राष्ट्रीय हरित अधिकरण की वर्तमान आवश्यकता

राष्ट्रीय हरित अधिकरण की वर्तमान आवश्यकता
राष्ट्रीय हरित अधिकरण की वर्तमान आवश्यकता

हमारे धर्म ग्रंथ उपनिषद एवं साहित्यिक कृतियां सनातन मानवीय व्यवस्था के साक्षी हैं और उनमें वर्णित न्याय सिद्धान्त पर्यावरण के प्रत्येक घटक को संपूर्ण संरक्षण प्रदान करते हैं। हमारा जीवन दर्शन धर्म व न्याय शास्त्र से निर्देशित है। चेतना के स्थान पर भौतिकता को प्रश्रय हमें अमानवीय बना रहा है और हमें न्याय से दूर ले जा रहा है। हमने प्रकृति के नाजुक तानेबाने को स्वयं के लाभ के लिए इतना ज्यादा नुकसान पहुँचाया है कि इसके कुप्रभाव से मानव अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगा है। हमने पर्यावरण न्याय के सभी पूर्ववर्ती नियमों की अवमानना व अवहेलना की है। सामान्य न्याय प्रक्रिया में समय लगने के कारण तथा पर्यावरण विवादों के त्वरित निबटारे हेतु राष्ट्रीय हरित अधिकरण की स्थापना से पर्यावरण को न्याय की आस बंधी है। देखना यह है कि पर्यावरण की याचिका की सुनवाई कितनी त्वरित व ईमानदारी से होती है। वस्तुतः यही होगा पर्यावरणीय न्याय का व्यवहारिक पक्ष है ।

विगत कुछ दशकों में पर्यावरण एवं प्रकृति को मनुष्य ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसीलिए तो सभ्यता के विकास के साथ ही न्याय एवं अन्याय का दर्शन सामने आया है और हमारा न्याय शास्त्र समृद्ध होता गया। किन्तु न्याय को अभी तक वह दिशा नहीं मिल सकी जैसी कि मिलनी चाहिए थी। न्याय व्यवस्था हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्थाओं से जुड़ा पहलू है। अब हमारे समक्ष पर्यावरणीय न्याय की नवीन अवधारणा एवं अधिकरण है। किन्तु न्याय की रक्षा के लिए हमें अपने अन्तर्मन को जगाना होगा तभी सत्य और न्याय की तुलना में पर्यावरण संरक्षित रह सकेगा । हमें यह भी संज्ञान में रखना होगा कि प्रकृति का रक्षक परमात्मा भी न्यायकारी है।केन्द्र सरकार ने 19 अक्टूबर 2010 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन किया। न्यायाधिकरण का गुख्यालय राजधानी दिल्ली में है तथा इरसकी चार बेंच भी स्थापित की गई हैं। आज भारत विश्व के उन चुनिंदा राष्ट्रों में शामिल हो गया है जहां पर्यावरण से संबंधित मामलों के निपटारे हेतु राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधिकरण है। हरित न्यायाधिकरण स्वतंत्र रूप से कार्य करता है। इसमें पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी हस्तक्षेप नहीं होता है। पर्यावरण संरक्षण में कोई भी पक्ष प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से याचिका प्रस्तुत कर सकता है। न्यायाधिकरण को यह भी अधिकार है कि वह स्वयं संज्ञान लेकर जनहित याचिकाओं पर गौर करेगा। न्यायाधिकरण व्यक्तिगत रूप से तथा कंपनी पर दण्डात्मक कार्यवाही कर सकता है।

सन 1997 में रियो डि जेनेरियो में हुई ग्लोबल यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेस ऑन एनवायरनमेंट एण्ड डेवलपमेंट के फैसले को स्वीकार करने के बाद इस कानून के निर्माण की जरूरत महसूस की गई और इस दिशा में प्रयास हुए।आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के बाद भारत तीसरा देश है जहां हरित न्यायाधिकरण जैसी संस्था काम कर रही है। न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के दायरे में देश में लागू पर्यावरण और जैव विविधता के सभी नियम कानून आते हैं। पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने हेतु बहुत से कानून हैं किन्तु ज्यों ही नया कानून सामने आता है, उल्लंघनकर्ता द्वारा उसका तोड़ भी ढूंढ लिया जाता है और वर्तमान परिदृश्य में पीड़ित न्याय की गुहार लगाता हुआ धन व संसाधनों की कमी के कारण अंततः हार जाता है। यहां मेरा यह मानना है कि हम संवैधानिक न्याय प्रक्रिया को भले ही धोखा दे दें, किन्तु नैसर्गिक न्याय (विधि के न्याय) के दण्ड से हम बच नहीं सकते, क्योंकि प्रकृति में स्वनियामक सता है। अतः प्रकृति के साथ किया गया अन्याय और भी अधिक विध्वंसकारी हो जाता है।

अधिकरण का गठन तब तक कारगर नहीं होता जब तक कि हमारा अन्तर्मन न जागे और हम प्रकृति के तानेबाने से खिलवाड़ करना बंद न करें। प्रश्न उठता है कि क्या विश्व का निर्माण मानव ने किया है; कदाचित नहीं। इसका चितेरा तो परब्रह्म परमात्मा है। हम जो कुछ भी प्रकृति को देते हैं, वह वहीं तो हमें वापस करती है अथवा जो कुछ प्रकृति हमें देती है, वही हम उसे अर्पित कर सकते हैं। प्रकृति दर्शन और जीवन एक अनुगूँज हैं। हम जो बोलते हैं, वही तो गूँजता है। हम जो स्थिति बनाएंगे, वही तो हमें प्रतिबिंबित होगी।

प्रकृति के शाश्वत नियम को समझना ही नैसर्गिकता है। प्रकृति विमुखता धर्म विरुद्धता है। हमें हमारी प्रकृति को निर्जरा बनाना ही होगा। हमारी प्रवृत्तियां पाप और पुण्य के द्वारा ही निर्देशित होती हैं। हमें इन्हें संवारना होगा अर्थात् पाप करने से बचना होगा। हमारे जो कृत्य प्रकृति एवं पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते है  उन्हें त्यागना ही होगा। हमें आसक्ति और विरक्ति के बीच रहकर मध्य मार्ग अपनाना होगा, तभी विकास विनाश का अंतर समझ में आयेगा। जड़ हो अथवा सब कुछ बहुरंगी प्रकृति के असीम रंगमंच का हिस्सा है। अब वक्त आ गया है जब विकास कार्य भ्रष्टाचार और प्रकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के जनपक्षीय नीतियाँ बनाई जाएं तथा लोकतांत्रिक तरीके विरोध कर पर्यावरण नीतियों में विचलन न आने दिए जाए। अगर हम चाहते हैं कि हमारी हरित विरु अविरल एवं निर्मल रहे, हमारी नदियां सदानीरा रहें और पेड़ प्रहरी धर्म निभाते रहे तो हमें उन सर्वमान्य  का पालन करना होगा जो प्रकृति ने बनाए हैं, न मानव ने।

पर्यावरण अथवा जनहित हेतु अगर या लगाई जाए तो यह स्वागत योग्य कदम है, परंतु कभी यह भी परिलक्षित होता है कि कतिपय तत्व क की आड़ में निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु परियोजनाअ ख़िलाफ दुष्प्रचार करते हैं तथा हरित अधिकरण प्रकरण दर्ज कराते हैं जिससे जनहित के कई कार्य अधोसंरचना निर्माण, ऊर्जा आदि क्षेत्र की परियोज लंबित होती हैं। इससे इनकी लागत बढ़ जाती है अंततः आमजन को ही वहन करनी पड़ती हैं। अतः सामाजिक व गैर सरकारी संगठन सिर्फ प्रकरण ही न कराएं बल्कि जन-जागरण व व्यक्ति के चरित्र प्रकृति प्रेम जगायें ताकि प्रकरणों की संख्या ही कम रहे।  

स्रोत:- हिंदी पर्यावरण पत्रिका, पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय 

 

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Post By: Shivendra
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