चटगाँव का हार्वर बड़ा प्रसिद्ध है। पहले इसके बारे में बहुत सुना था। इस प्रकार हम सब छोटे बच्चों सहित समुद्र के किनारे गए। हम में से बहुतों ने समुद्र को पहली बार इतने निकट से देखा। लहरों के बाद लहरें। समुद्र के अद्भुत दर्शन हुए। जहां तक हमारी नज़रें जा सकती थी दूर सफेद फेन भी दिखाई दे रही थी। बीच-बीच में जहाज़ों और नावों की आवाजाही भी बहुत थी। तट पर समुद्री शीप, शंख एवं मालाओं की दुकान भी खूब सजी-धजी थी। हिंदुकुश हिमालय की ग्रामीण कृषक महिलाओं के संगठन हिमवंती ने अगस्त 2002 के तीसरे सप्ताह में बंग्लादेश के रंगामाटी में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, संवर्द्धन और उपयोग में महिलाओं की भागीदारी पर एक चर्चा रखी थी। इसके निमित मैं बंग्लादेश गया था। यद्यपि इसके पहले भी मैं एक बार चटगाँव गया था और उस समय भी रंगामाटी तक गया था लेकिन वह मात्र एक दिनी कार्यक्रम था।
इस बार मैं दिल्ली से 9 बजे कोलकाता पहुंच गया था। वहां हवाई अड्डे पर मुझे अरुणाचल प्रदेश से आयी जौरजुम मिल गईं थीं, इसलिए साथ होने से बोरियत नहीं हुई। चार घंटे तक रुकने के बाद जहाज़ ने उड़ान भरी और हम 2.30 बजे ढाका पहुंच गए थे। हवाई अड्डे पर इधर-उधर देखा तो कोई भी परिचित नहीं मिला। हमें बताया गया था कि आयोजकों में से कोई हमें हवाई अड्डे पर मिल जाएगा। ढाका से हमें बस से उसी दिन चटगांव जाना था। मैंने और जौरजुम ने ढाका हवाई अड्डे के बाहर भीतर कई चक्कर लगाए, कोई नहीं मिला। टेलीफोन भी नहीं मिल रहा था। हमने बैंक से कुछ टका ले लिए थे। एक से दो होने से हमें परेशानी तो नहीं हुई। बाद में बाहर गेट पर आ गए। 6 बजे शाम को हमें बंग्लादेश की हिमवंती से संबंधित श्रीमती टुकटुक जी मिल गई, तो संतोष हुआ। थोड़ी देर बाद काठमांडों का दल भी पहुंच गया था। इस दल में हिमवंती की अंतरराष्ट्रीय संयोजिका श्रीमती मायादेवी खनाल तथा कमला शर्मा के साथ उसकी दूध पीती बेटी के अलावा सलाहकार श्री खगेंद्र बहादुर भी थे। हवाई अड्डे से उनके साथ पाकिस्तान की श्रीमती शुसन और उसका डेढ़ वर्ष का बेटा भी आया था। हिमवंती ग्रामीण कृषक महिलाओं का संगठन है। इसलिए पहले से बच्चों को भी साथ लाने की छूट है। इसके लिए गोष्ठी के समय किसी को उनकी देखरेख की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती है।
अब हमारा दल बढ़ गया था। शहर में एक होटल में दो घंटे तक रुकने का प्रबंध किया गया था। मेरे सामने शाकाहारी भोजन की समस्या थी। बाकी लोग तो सामिष वाले थे। होटल में मैंने अनुनय-विनय करके अपने सामने ही हरे साग की रसदार सब्जी बनवाई। फिर चावल खाकर संतोष करना पड़ा। यहां पर शाकाहार का तो सामान्य होटलों में मतलब ही समझ में नहीं आता है।
पता चला कि बस रात के ग्यारह बजे छूटेगी। मैं पिछली रात भी ठीक से सोया नहीं था। हम सब एक दुकान के सामने बस स्टाप पर जमा हो गए। मैं वहां पर एक घंटे तक सोया रहा। आखिर में 11.30 बजे बस छूटी। इस बस में चटगाँव और उससे पहले के गाँवों के यात्री भी थे। यद्यपि सीटें आरामदेह थी। फिर भी हल्ला और रास्ते में यात्रियों के उतरने से बार-बार बस रुक रही थी। इसलिए नींद आने का सवाल ही नहीं था। वर्षों बाद रात की बस से चलने का अनुभव भी था। मैं पहले ऋषिकेश से दिल्ली रात्रि की बस से आया-जाया करता था, लेकिन एक बार रात को बस के खराब होने के अनुभव से मैंने रात की बस से चलना छोड़ दिया था। उसके बाद जब कभी रेल नहीं मिली तो दिन की बस से सफर किया। यहां पर यह भी पता चला कि ढाका से रात को एक बस 11 बजे चलकर सुबह 10 बजे कोलकाता पहुँचाती है। साथ ही सूमो भी चलती हैं पर सीमा पर परेशानी उठानी पड़ती है।
रात के अंधेरे को चीरती हुई बस आगे बढ़ती जा रही थी। जहां पर कोई यात्री उतरता, वहां आस-पास टिमटिमाता प्रकाश दिख जाता था, लेकिन हम अंधेरे में रास्ते का दृश्य देखने से वंचित ज़रूर रह गए। साढ़े चार पांच बजे के बीच जब धीरे-धीरे उजाला होने लगा तो शहर के छोर पर थे और 6 बजे के लगभग हम चटगाँव बस अड्डे पर पहुंच गए। बस अड्डे पर ही हम मुंह हाथ धोकर तैयार हो गए लेकिन महिलाओं को ज़रूर दिक्कत हुई। मुख्य रूप से बच्चे वाली बहिनों को बस अड्डे के पास ही हल्का नाश्ता कराया गया। टुकु जी ने सामान किसी परिचित के यहां रखवा दिया था। इसके बाद हम समुद्र के दर्शन करने गए।
चटगाँव का हार्वर बड़ा प्रसिद्ध है। पहले इसके बारे में बहुत सुना था। इस प्रकार हम सब छोटे बच्चों सहित समुद्र के किनारे गए। हम में से बहुतों ने समुद्र को पहली बार इतने निकट से देखा। लहरों के बाद लहरें। समुद्र के अद्भुत दर्शन हुए। जहां तक हमारी नज़रें जा सकती थी दूर सफेद फेन भी दिखाई दे रही थी। बीच-बीच में जहाज़ों और नावों की आवाजाही भी बहुत थी। तट पर समुद्री शीप, शंख एवं मालाओं की दुकान भी खूब सजी-धजी थी। मेरी दाड़ी को देखकर मुझसे हर कोई सलाम-अलैकुम कह देता था। मैं भी वालेकुम-सलाम कहकर जबाव दे देता। जब पता पूछते तो मेरे हिंदुस्तानी कहने पर खुशी जाहिर करते। यहां से हम कोतई नदी के किनारे-किनारे घूमते हुए वापस शहर लौटे।
दिन का भोजन एक अच्छे रेस्तरां में किया। इस रेस्तरां में भी मांसाहारी पकवान ही था। बहुत समझाने के बाद सब्जी बनी। फिर एक नान, सब्जी एवं सलाद ले करके काम चलाया। एक बजे की बस से हमने चटगांव से प्रस्थान किया। कुछ दूर चलने के बाद धीरे-धीरे पहाड़ियां दिखने लगी। आगे हम घाटी के बीचों-बीच चल रहे थे। दोनों ओर धान से खेत बीच-बीच में सुपारी और केले के बागान भी मिले। छोटे-छोटे पोखर भी आस-पास दिखाई दे रहे थे, जिनमें सामान्य जालों से मछली पकड़ी जा रही थी। कटहल और हल्दी भी कहीं-कहीं बहुतायत में फैली हुई दिख रही थी।
जिस तालाब को हमने नाव द्वारा पार किया, उसके बीच-बीच में तथा किनारों पर पहाड़ की चोटियां हैं, जो डूबी नहीं हैं। उसके ऊपर सघन रूप से लकड़ी और बांस के घर बने हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सागर के बीच में छोटे द्वीप हैं। इनमें कई स्थान पर्यटकों के लिए सजाए गए हैं। जिनमें आधुनिक सुविधा से संपन्न रेस्तरां हैं। कुछ में जंगली जानवर भी रखे गए हैं। आगे चलकर हरियाली खूब दिख रही थी, जिनमें बांस भी बहुतायत में थे। पहाड़ियां शुरू हो गई थी। इधर प्राकृतिक जंगल काटकर टीकवुड का रोपण भी कई जगह देखने को मिला। रास्ते में दो स्थानों पर हमारे पासपोर्ट दर्ज हुए। रंगामाटी जाने के लिए अलग से परमिशन की आवश्यकता पड़ती है। यह विनियमित क्षेत्र के अंतर्गत आता है। रास्ते में हमें केले के ट्रक भर-भर कर चटगाँव और ढाका के लिए जाते दिखे। सड़क के आस-पास बांस के मकान भी सुंदर लग रहे थे।
5 बजे के आस-पास हम रंगामाटी पहुंचे यहां पर जिस होटल में ठहरे उसके दोनों ओर तालाब थे। थोड़ी देर बाद हम बाजार घूमने गए। स्थानीय कपड़ा रंग-बिरंगा सुंदर है। बांस का भी घरेलू उपयोगी सामान बहुत अच्छा है। कई नक्कासी के सामान भी देखे। फल एवं सब्जी के भाव पूछने पर जैसे ही उन्हें पता चला कि हम विदेशी हैं, तो सब्जी एवं फलों के भाव दुगुने हो गए। एक तरह से यह लूटने की वृत्ति थी।
अगले दिन मध्य रात्रि से ही भारी बारिश हो रही थी। दिन में भी बूंदाबांदी जारी रही। 9.30 बजे जिला पंचायत सभा कक्ष में संगोष्ठी आरंभ हुई। दीप प्रज्वलित किया गया। सर्वधर्म प्रार्थना के बाद चर्चा हुई। इसमें चकमा मुखिया राजा बैरिस्टर देवाशीष रॉय, रंगामाटी हिल्स डिस्ट्रिक्ट के अध्यक्ष डॉ. मानिक लाल देवान, अतिरिक्त जिला अधिकारी टुकू तालुकेदार के अलावा चकमा, मरमा तथा त्रिपुरा जनजाति समाज की एक सौ के लगभग महिलाओं ने भाग लिया। डॉ. जाफर अहमद खान अध्यक्ष जिला परिषद रंगामाटी भी शामिल हुए थे।
शाम को हम कलताई तालाब को नाव द्वारा पार करके राजा देवाशीष रॉय के घर पर गए। उनसे पता चला कि उनके पिता पूर्व राजा पाकिस्तान के सांसद थे और अब वहीं बस गए हैं। यह भी जानकारी मिली की राजा को कुछ हल्के-फुल्के अधिकार हैं, जो नाम मात्र के हैं।
जिस तालाब को हमने नाव द्वारा पार किया, उसके बीच-बीच में तथा किनारों पर पहाड़ की चोटियां हैं, जो डूबी नहीं हैं। उसके ऊपर सघन रूप से लकड़ी और बांस के घर बने हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सागर के बीच में छोटे द्वीप हैं। इनमें कई स्थान पर्यटकों के लिए सजाए गए हैं। जिनमें आधुनिक सुविधा से संपन्न रेस्तरां हैं। कुछ में जंगली जानवर भी रखे गए हैं।
पता चला कि यह तालाब कृत्रिम है। यह कलताई बांध परियोजना के अंतर्गत है, जिससे 230 मेगावाट बिजली पैदा होती है। इस परियोजना का निर्माण सन् 1961 से 1963 के बीच हुआ। इस परियोजना से 54 हजार एकड़ भूमि तालाब के अंदर समाई थी। बताते हैं कि एक लाख लोग बेघरबार हुए। यह बांध (तालाब) लगभग तीन सौ पचास वर्ग मील क्षेत्र में फैला है। इस इलाके में रहने वाले मुख्य रूप से चकमा, मरमा, त्रिपुरा जाति के लोग थे। ये लोग मुख्य रूप से खेतीहर थे। बताते हैं कि जब मकान, खेत, बाग आदि डूबे तो उनको मुआवज़े के रूप में कम रुपया दिया गया। मकान बनाने के लिए वहां से दूर ज़मीन दी गई। वहां दबंग लोगों के भय से वे रह नहीं पाए या गए ही नहीं। इस प्रकार से बहुत बड़ी आबादी का ठीक से विस्थापन न होने से वे न केवल दर-दर भटक रहे हैं अपितु चकमा बहुत बड़ी संख्या में पलायन कर भारत के अरुणाचल प्रदेश में चली गई है।
जो लोग वहां पर हैं वे मछली पकड़ने एवं अन्य मजदूरी का काम करके गुजारा कर रहे हैं। बांध के आस-पास बाहर के लोग भी काफी संख्या में आए बताए जाते हैं।
बताया गया कि बंग्लादेश का दसवां भाग पहाड़ी है। इन पहाड़ियों में 95 प्रतिशत जंगल बताए जाते हैं। 5 प्रतिशत पर ही खेती हो रही है। यहां पर भी अन्य मुल्कों की तरह जंगलों पर लोगों की निर्भरता अधिक है।
बांध के पार भी पहाड़ियों में अभी जंगल हैं। छंतरा ग्राम के पहाड़ों में प्राकृतिक स्रोतों की भरमार थी, किंतु लोगों की उदासीनता के कारण इन स्रोतों का क्षरण हुआ है। यह भी बताया गया कि यहां के जंगलों में कई बाहर के लोग बस गए हैं। यहां की औरतें बहुत कर्मशील हैं। पुरुषों से किसी भी बात में कम नहीं हैं, लेकिन औरतों की स्थिति अच्छी नहीं बताई जाती है। उनके योगदान का आदर नहीं है। घर एवं जंगल में भी प्रताड़ना की जानकारी मिली। त्रिपुरा जाति की औरतों को पैतृक संपत्ति पर अधिकार है।
बांध से प्रभावितों के विस्थापन एवं महिलाओं की स्थिति हमारे इन मुल्कों की लगभग एक जैसी है। इस प्रकार महिलाओं और विस्थापितों का दर्द एक सा दिख रहा है। इस प्रकार चार दिन तक रंगामाटी में प्रवास के दौरान वहां भी चकमा, त्रिपुरा और मरमा जाति की बहिनों के खट्टे-मीठे अनुभवों को संजोकर 23 अगस्त की शाम को वापसी के लिए प्रस्थान किया।
रंगामाटी से सायं के 6.30 बजे जौरजुम इटे और मैंने प्रस्थान किया। अगले दिन सुबह 3.30 पर हम ढाका पहुंचे। यहां पर ग्रीन पीक होटल में पहुंचे। पहले तो होटल वाले ने कमरा देने के लिए ना नुकर किया। बाद में तैयार हो गया। किराया तय हुआ 450 टका। लेकिन चार घंटे बाद हमने वह होटल छोड़ा तो 450 टका के स्थान पर 650 टका किराया हमसे वसूला गया। चुपचाप किराया देने के बाद हम हवाई अड्डे पर पहुंचे। वहां से जहाज़ दो घंटे देर से उड़ा। इस प्रकार ढाका से हमने 2.45 बजे पर प्रस्थान किया। 4 बजे कोलकाता पहुंचे, जहां से जोरजुम ने गुवाहाटी को प्रस्थान किया और मैं 7 बजे के जहाज़ से दिल्ली वापस लौटा।
इस बार मैं दिल्ली से 9 बजे कोलकाता पहुंच गया था। वहां हवाई अड्डे पर मुझे अरुणाचल प्रदेश से आयी जौरजुम मिल गईं थीं, इसलिए साथ होने से बोरियत नहीं हुई। चार घंटे तक रुकने के बाद जहाज़ ने उड़ान भरी और हम 2.30 बजे ढाका पहुंच गए थे। हवाई अड्डे पर इधर-उधर देखा तो कोई भी परिचित नहीं मिला। हमें बताया गया था कि आयोजकों में से कोई हमें हवाई अड्डे पर मिल जाएगा। ढाका से हमें बस से उसी दिन चटगांव जाना था। मैंने और जौरजुम ने ढाका हवाई अड्डे के बाहर भीतर कई चक्कर लगाए, कोई नहीं मिला। टेलीफोन भी नहीं मिल रहा था। हमने बैंक से कुछ टका ले लिए थे। एक से दो होने से हमें परेशानी तो नहीं हुई। बाद में बाहर गेट पर आ गए। 6 बजे शाम को हमें बंग्लादेश की हिमवंती से संबंधित श्रीमती टुकटुक जी मिल गई, तो संतोष हुआ। थोड़ी देर बाद काठमांडों का दल भी पहुंच गया था। इस दल में हिमवंती की अंतरराष्ट्रीय संयोजिका श्रीमती मायादेवी खनाल तथा कमला शर्मा के साथ उसकी दूध पीती बेटी के अलावा सलाहकार श्री खगेंद्र बहादुर भी थे। हवाई अड्डे से उनके साथ पाकिस्तान की श्रीमती शुसन और उसका डेढ़ वर्ष का बेटा भी आया था। हिमवंती ग्रामीण कृषक महिलाओं का संगठन है। इसलिए पहले से बच्चों को भी साथ लाने की छूट है। इसके लिए गोष्ठी के समय किसी को उनकी देखरेख की ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती है।
अब हमारा दल बढ़ गया था। शहर में एक होटल में दो घंटे तक रुकने का प्रबंध किया गया था। मेरे सामने शाकाहारी भोजन की समस्या थी। बाकी लोग तो सामिष वाले थे। होटल में मैंने अनुनय-विनय करके अपने सामने ही हरे साग की रसदार सब्जी बनवाई। फिर चावल खाकर संतोष करना पड़ा। यहां पर शाकाहार का तो सामान्य होटलों में मतलब ही समझ में नहीं आता है।
पता चला कि बस रात के ग्यारह बजे छूटेगी। मैं पिछली रात भी ठीक से सोया नहीं था। हम सब एक दुकान के सामने बस स्टाप पर जमा हो गए। मैं वहां पर एक घंटे तक सोया रहा। आखिर में 11.30 बजे बस छूटी। इस बस में चटगाँव और उससे पहले के गाँवों के यात्री भी थे। यद्यपि सीटें आरामदेह थी। फिर भी हल्ला और रास्ते में यात्रियों के उतरने से बार-बार बस रुक रही थी। इसलिए नींद आने का सवाल ही नहीं था। वर्षों बाद रात की बस से चलने का अनुभव भी था। मैं पहले ऋषिकेश से दिल्ली रात्रि की बस से आया-जाया करता था, लेकिन एक बार रात को बस के खराब होने के अनुभव से मैंने रात की बस से चलना छोड़ दिया था। उसके बाद जब कभी रेल नहीं मिली तो दिन की बस से सफर किया। यहां पर यह भी पता चला कि ढाका से रात को एक बस 11 बजे चलकर सुबह 10 बजे कोलकाता पहुँचाती है। साथ ही सूमो भी चलती हैं पर सीमा पर परेशानी उठानी पड़ती है।
रात के अंधेरे को चीरती हुई बस आगे बढ़ती जा रही थी। जहां पर कोई यात्री उतरता, वहां आस-पास टिमटिमाता प्रकाश दिख जाता था, लेकिन हम अंधेरे में रास्ते का दृश्य देखने से वंचित ज़रूर रह गए। साढ़े चार पांच बजे के बीच जब धीरे-धीरे उजाला होने लगा तो शहर के छोर पर थे और 6 बजे के लगभग हम चटगाँव बस अड्डे पर पहुंच गए। बस अड्डे पर ही हम मुंह हाथ धोकर तैयार हो गए लेकिन महिलाओं को ज़रूर दिक्कत हुई। मुख्य रूप से बच्चे वाली बहिनों को बस अड्डे के पास ही हल्का नाश्ता कराया गया। टुकु जी ने सामान किसी परिचित के यहां रखवा दिया था। इसके बाद हम समुद्र के दर्शन करने गए।
चटगाँव का हार्वर बड़ा प्रसिद्ध है। पहले इसके बारे में बहुत सुना था। इस प्रकार हम सब छोटे बच्चों सहित समुद्र के किनारे गए। हम में से बहुतों ने समुद्र को पहली बार इतने निकट से देखा। लहरों के बाद लहरें। समुद्र के अद्भुत दर्शन हुए। जहां तक हमारी नज़रें जा सकती थी दूर सफेद फेन भी दिखाई दे रही थी। बीच-बीच में जहाज़ों और नावों की आवाजाही भी बहुत थी। तट पर समुद्री शीप, शंख एवं मालाओं की दुकान भी खूब सजी-धजी थी। मेरी दाड़ी को देखकर मुझसे हर कोई सलाम-अलैकुम कह देता था। मैं भी वालेकुम-सलाम कहकर जबाव दे देता। जब पता पूछते तो मेरे हिंदुस्तानी कहने पर खुशी जाहिर करते। यहां से हम कोतई नदी के किनारे-किनारे घूमते हुए वापस शहर लौटे।
दिन का भोजन एक अच्छे रेस्तरां में किया। इस रेस्तरां में भी मांसाहारी पकवान ही था। बहुत समझाने के बाद सब्जी बनी। फिर एक नान, सब्जी एवं सलाद ले करके काम चलाया। एक बजे की बस से हमने चटगांव से प्रस्थान किया। कुछ दूर चलने के बाद धीरे-धीरे पहाड़ियां दिखने लगी। आगे हम घाटी के बीचों-बीच चल रहे थे। दोनों ओर धान से खेत बीच-बीच में सुपारी और केले के बागान भी मिले। छोटे-छोटे पोखर भी आस-पास दिखाई दे रहे थे, जिनमें सामान्य जालों से मछली पकड़ी जा रही थी। कटहल और हल्दी भी कहीं-कहीं बहुतायत में फैली हुई दिख रही थी।
जिस तालाब को हमने नाव द्वारा पार किया, उसके बीच-बीच में तथा किनारों पर पहाड़ की चोटियां हैं, जो डूबी नहीं हैं। उसके ऊपर सघन रूप से लकड़ी और बांस के घर बने हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सागर के बीच में छोटे द्वीप हैं। इनमें कई स्थान पर्यटकों के लिए सजाए गए हैं। जिनमें आधुनिक सुविधा से संपन्न रेस्तरां हैं। कुछ में जंगली जानवर भी रखे गए हैं। आगे चलकर हरियाली खूब दिख रही थी, जिनमें बांस भी बहुतायत में थे। पहाड़ियां शुरू हो गई थी। इधर प्राकृतिक जंगल काटकर टीकवुड का रोपण भी कई जगह देखने को मिला। रास्ते में दो स्थानों पर हमारे पासपोर्ट दर्ज हुए। रंगामाटी जाने के लिए अलग से परमिशन की आवश्यकता पड़ती है। यह विनियमित क्षेत्र के अंतर्गत आता है। रास्ते में हमें केले के ट्रक भर-भर कर चटगाँव और ढाका के लिए जाते दिखे। सड़क के आस-पास बांस के मकान भी सुंदर लग रहे थे।
5 बजे के आस-पास हम रंगामाटी पहुंचे यहां पर जिस होटल में ठहरे उसके दोनों ओर तालाब थे। थोड़ी देर बाद हम बाजार घूमने गए। स्थानीय कपड़ा रंग-बिरंगा सुंदर है। बांस का भी घरेलू उपयोगी सामान बहुत अच्छा है। कई नक्कासी के सामान भी देखे। फल एवं सब्जी के भाव पूछने पर जैसे ही उन्हें पता चला कि हम विदेशी हैं, तो सब्जी एवं फलों के भाव दुगुने हो गए। एक तरह से यह लूटने की वृत्ति थी।
अगले दिन मध्य रात्रि से ही भारी बारिश हो रही थी। दिन में भी बूंदाबांदी जारी रही। 9.30 बजे जिला पंचायत सभा कक्ष में संगोष्ठी आरंभ हुई। दीप प्रज्वलित किया गया। सर्वधर्म प्रार्थना के बाद चर्चा हुई। इसमें चकमा मुखिया राजा बैरिस्टर देवाशीष रॉय, रंगामाटी हिल्स डिस्ट्रिक्ट के अध्यक्ष डॉ. मानिक लाल देवान, अतिरिक्त जिला अधिकारी टुकू तालुकेदार के अलावा चकमा, मरमा तथा त्रिपुरा जनजाति समाज की एक सौ के लगभग महिलाओं ने भाग लिया। डॉ. जाफर अहमद खान अध्यक्ष जिला परिषद रंगामाटी भी शामिल हुए थे।
शाम को हम कलताई तालाब को नाव द्वारा पार करके राजा देवाशीष रॉय के घर पर गए। उनसे पता चला कि उनके पिता पूर्व राजा पाकिस्तान के सांसद थे और अब वहीं बस गए हैं। यह भी जानकारी मिली की राजा को कुछ हल्के-फुल्के अधिकार हैं, जो नाम मात्र के हैं।
जिस तालाब को हमने नाव द्वारा पार किया, उसके बीच-बीच में तथा किनारों पर पहाड़ की चोटियां हैं, जो डूबी नहीं हैं। उसके ऊपर सघन रूप से लकड़ी और बांस के घर बने हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सागर के बीच में छोटे द्वीप हैं। इनमें कई स्थान पर्यटकों के लिए सजाए गए हैं। जिनमें आधुनिक सुविधा से संपन्न रेस्तरां हैं। कुछ में जंगली जानवर भी रखे गए हैं।
पता चला कि यह तालाब कृत्रिम है। यह कलताई बांध परियोजना के अंतर्गत है, जिससे 230 मेगावाट बिजली पैदा होती है। इस परियोजना का निर्माण सन् 1961 से 1963 के बीच हुआ। इस परियोजना से 54 हजार एकड़ भूमि तालाब के अंदर समाई थी। बताते हैं कि एक लाख लोग बेघरबार हुए। यह बांध (तालाब) लगभग तीन सौ पचास वर्ग मील क्षेत्र में फैला है। इस इलाके में रहने वाले मुख्य रूप से चकमा, मरमा, त्रिपुरा जाति के लोग थे। ये लोग मुख्य रूप से खेतीहर थे। बताते हैं कि जब मकान, खेत, बाग आदि डूबे तो उनको मुआवज़े के रूप में कम रुपया दिया गया। मकान बनाने के लिए वहां से दूर ज़मीन दी गई। वहां दबंग लोगों के भय से वे रह नहीं पाए या गए ही नहीं। इस प्रकार से बहुत बड़ी आबादी का ठीक से विस्थापन न होने से वे न केवल दर-दर भटक रहे हैं अपितु चकमा बहुत बड़ी संख्या में पलायन कर भारत के अरुणाचल प्रदेश में चली गई है।
जो लोग वहां पर हैं वे मछली पकड़ने एवं अन्य मजदूरी का काम करके गुजारा कर रहे हैं। बांध के आस-पास बाहर के लोग भी काफी संख्या में आए बताए जाते हैं।
बताया गया कि बंग्लादेश का दसवां भाग पहाड़ी है। इन पहाड़ियों में 95 प्रतिशत जंगल बताए जाते हैं। 5 प्रतिशत पर ही खेती हो रही है। यहां पर भी अन्य मुल्कों की तरह जंगलों पर लोगों की निर्भरता अधिक है।
बांध के पार भी पहाड़ियों में अभी जंगल हैं। छंतरा ग्राम के पहाड़ों में प्राकृतिक स्रोतों की भरमार थी, किंतु लोगों की उदासीनता के कारण इन स्रोतों का क्षरण हुआ है। यह भी बताया गया कि यहां के जंगलों में कई बाहर के लोग बस गए हैं। यहां की औरतें बहुत कर्मशील हैं। पुरुषों से किसी भी बात में कम नहीं हैं, लेकिन औरतों की स्थिति अच्छी नहीं बताई जाती है। उनके योगदान का आदर नहीं है। घर एवं जंगल में भी प्रताड़ना की जानकारी मिली। त्रिपुरा जाति की औरतों को पैतृक संपत्ति पर अधिकार है।
बांध से प्रभावितों के विस्थापन एवं महिलाओं की स्थिति हमारे इन मुल्कों की लगभग एक जैसी है। इस प्रकार महिलाओं और विस्थापितों का दर्द एक सा दिख रहा है। इस प्रकार चार दिन तक रंगामाटी में प्रवास के दौरान वहां भी चकमा, त्रिपुरा और मरमा जाति की बहिनों के खट्टे-मीठे अनुभवों को संजोकर 23 अगस्त की शाम को वापसी के लिए प्रस्थान किया।
रंगामाटी से सायं के 6.30 बजे जौरजुम इटे और मैंने प्रस्थान किया। अगले दिन सुबह 3.30 पर हम ढाका पहुंचे। यहां पर ग्रीन पीक होटल में पहुंचे। पहले तो होटल वाले ने कमरा देने के लिए ना नुकर किया। बाद में तैयार हो गया। किराया तय हुआ 450 टका। लेकिन चार घंटे बाद हमने वह होटल छोड़ा तो 450 टका के स्थान पर 650 टका किराया हमसे वसूला गया। चुपचाप किराया देने के बाद हम हवाई अड्डे पर पहुंचे। वहां से जहाज़ दो घंटे देर से उड़ा। इस प्रकार ढाका से हमने 2.45 बजे पर प्रस्थान किया। 4 बजे कोलकाता पहुंचे, जहां से जोरजुम ने गुवाहाटी को प्रस्थान किया और मैं 7 बजे के जहाज़ से दिल्ली वापस लौटा।
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