प्रथम चरण – लक्ष्य समूह कौन
20 प्रतिशत ग्रामीण ऐसे हैं, जिन्होंने लगभग 80 प्रतिशत भूजल का दोहन किया है। खनन किए गए नलकूपों में सर्वाधिक हिस्सेदारी इन 20 प्रतिशत बड़े किसानों की ही है। अतः सर्वप्रथम ऐसे किसानों को चिन्हित किया गया, जिनके पास में कृषि जोत रकबा 10 एकड़ या इससे अधिक है एवं जिन्होंने सर्वाधिक नलकूप खनन कराए हैं। प्रारंभिक सर्वेक्षण उपरांत ऐसे किसानों की संख्या जिले में लगभग 5 हजार प्राप्त हुई वास्तविकता में यही वो लक्ष्य समूह है, जो भूजल की भयावह स्थिति के लिए जिम्मेदार है एवं जिसकी सामाजिक जिम्मेदार जल संरक्षण की सबसे ज्यादा बनती है। वस्तुतः अभी तक पानी बचाने के लिए जितने भी कार्यक्रम / अभियान चलाए गए, उनमें पानी को कृषि के लिए एक आवश्यक इनपुट के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सका था एवं इसकी उपलब्धता या अभाव की वजह से किसान की आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में विचार नहीं किया गया है।
उपरोक्त अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में देवास जिले में फरवरी, 2006 में कृषि में पानी की आर्थिक उपादेयता को निरूपित करते हुए सीधे जल संरक्षण को किसान के आर्थिक विकास का मूल आधार माना गया तथा “रेवासागर” “भागीरथ कृषि अभियान” के नाम से एक कार्यक्रम प्रतिपादित किया गया।
मृदा विज्ञान के ज्ञान के संदर्भ में यह महसूस किया गया कि, देवास जिले का अधिकांश भाग काली मिट्टी से युक्त है, जिसमें वर्षा का सतही जल आसानी से नहीं रिस सकता है, यानि वर्षा के समय पानी भूभाग पर गिरेगा, मगर पर्याप्त रिसाव नहीं होकर सीधे नदी-नालों के माध्यम से सागर में चला जाएगा। मतलब साफ है कि जहां एक ओर प्रत्येक ट्यूबवेल के माध्यम से जमीन में सिंचित जल का दोहन बढ़ रहा है, वहीं दूसरी और पर्याप्त मात्रा में वर्षा होने के बाद भी तुलनात्मक रूप से कम पानी भूजल स्तर को बढ़ाने या यथावत रखने के लिए जमीन में जाता है। यही कारण है कि, भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है इससे जहां एक और नलकूप खनन की तथा उसे पानी दोहन की कीमत बढ़ रही है, वहीं दूसरी और प्रतिवर्ष नलकूप असफल होने की संख्या भी हजारों में होती जा रही है। पिछले 10-15 वर्षों में बहुत बहुत से किसानों ने अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा नए नलकूप खनन, पुराने कुओं के गहरीकरण एवं बिजली के बिल के रूप में गवा दिया। कई ऐसे उदाहरण भी है, जिसमें किसानों ने अपनी पूरी खेती की कीमत के बराबर या उससे ज्यादा राशि नलकूप खनन एवं पानी की व्यवस्था में खर्च कर दी है, यही एक आर्थिक कटु सच्चाई थी, जिसके आधार को ध्यान में रखते हुए, नवीन अवधारणा पर विचार किया गया।
विशेष रणनीति के तहत “पानी के अर्थशास्त्र” को प्रतिपादित करते हुए जिले के किसानों को अधिक से अधिक सतही जल संग्रहण एवं उपयोग पर जोर देते हुए एक अभिनव प्रयास किया गया, जो रेवासागर के रूप में परिलक्षित हुआ। इस सारे अभियान के मूल में उन किसानों को रखा गया, जिन्हें वास्तविक रूप से भूजल की इस भयावह स्थिति के अपराधी मान सकते हैं।
लगभग 20 प्रतिशत ग्रामीण ऐसे हैं, जिन्होंने लगभग 80 प्रतिशत भूजल का दोहन किया है। खनन किए गए नलकूपों में सर्वाधिक हिस्सेदारी इन 20 प्रतिशत बड़े किसानों की ही है। अतः सर्वप्रथम ऐसे किसानों को चिन्हित किया गया, जिनके पास में कृषि जोत रकबा 10 एकड़ या इससे अधिक है एवं जिन्होंने सर्वाधिक नलकूप खनन कराए हैं। प्रारंभिक सर्वेक्षण उपरांत ऐसे किसानों की संख्या जिले में लगभग 5 हजार प्राप्त हुई वास्तविकता में यही वो लक्ष्य समूह है, जो भूजल की भयावह स्थिति के लिए जिम्मेदार है एवं जिसकी सामाजिक जिम्मेदार जल संरक्षण की सबसे ज्यादा बनती है।
सामाजिक दृष्टिकोण से विचार करें तो इन्हीं किसानों की जिम्मेदारी भूजल संपत्ति बढ़ाने की भी है। शुरुआती चर्चाओं के उपरांत ये समर्थ कृषक भी सरकार की ओर अपेक्षा का भाव लिए खड़े थे। सरकार की ओर से मदद हो तो ही हम कुछ कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। हम अपनी जान से प्यारी जमीन तालाब के लिये क्यों छोड़े तथा गाढ़ी कमाई क्यों लगाएं? पानी के अर्थशास्त्र की अवधारणा के द्वारा इन्हीं शंकाओं का उत्तर देते हुए कृषकों को रेवासागर बनाने हेतु प्रेरित किया गया।
क्रं. | विषय | पहले | अब |
1 | पानी बचाने का सिद्धांत | सामाजिक उद्देश्य | लोक उद्देश्य |
2 | जबादारी किसकी | सामाजिक | व्यक्तिगत |
3 | पानी किसकी सम्पत्ति | सामाजिक | व्यक्तिगत |
4 | रणनीति | समाज को केंद्र में रखकर | उपभोक्ता पर केंद्रित |
5 | प्रेरणा | बिखरे समुदाय को प्रेरणा | व्यक्तिगत प्रेरणा |
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