रियो+20: स्थगित सरोकारों का सम्मेलन

रियो के पहले सम्मेलन में पूरी दुनिया के देशों के समक्ष जब धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने का एजेंडा रखा गया था, तब से लेकर आजतक विचित्र यह है कि चर्चा के लिए बहुत सारे ऐसे मुद्दों को स्वतंत्र विषय मान लिया गया है जो मूलत: विकास की मौजूदा दृष्टि के दुष्परिणाम ज्यादा हैं। इस विषय को उजागर कर रहे हैं नरेश गोस्वामी

रियो दि जेनेरियो में बीस साल बाद फिर पृथ्वी सम्मेलन हो रहा है। 1992 का पहला शिखर सम्मेलन भी यहीं आयोजित किया गया था। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान-की मून इसे एक विरल अवसर मान रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र सूचना केंद्र से जारी उनके वक्तव्य में यह अफसोस साफ तौर पर देखा जा सकता है कि जो काम बीस बरस पहले शुरू किया जा सकता था वह आज तक नहीं हो पाया है। इसी कारण रियो के वर्तमान सम्मेलन को वे विकास के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण से जुड़े उन निर्देशों को दुरुस्त करने का दूसरा मौका मान रहे हैं।

उनका कहना है कि यह एक ऐसा अवसर है जो एक पीढ़ी को एक ही बार मिलता है। पहले सम्मेलन में प्रतिभागी देशों में धरती के संसाधनों जमीन, पानी और हवा के संरक्षण को लेकर एक आमसहमति बनी थी। उस समय यह बात शिद्दत से मानी गई थी कि अगर धरती के मौजूदा स्वरूप को बचाना है तो विकास के ढांचे को बदलना होगा। इस इच्छा को टिकाऊ विकास का नारा दिया गया यानी विकास ऐसा हो जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इस जिम्मेदारी के साथ किया जाए ताकि आगामी पीढिय़ों को इन साधनों का टोटा न पड़े। तब से लेकर टिकाऊ विकास का यह नारा एक ऐसा अनुष्ठान बन गया है जिसे विकसित और विकासशील देश अपने हिसाब और स्वार्थ से इस्तेमाल करते रहे हैं। सच यह है कि यह नारा ठोस कारवाई का एक स्थानापन्न बनकर रह गया है मसलन, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2011 में कार्बन उत्सर्जन की दर पिछले वर्ष के मुकाबले 3.2 प्रतिशत बढ़ गई है।

इस खतरनाक वृद्धि का मुख्य कारण यह बताया जा रहा है कि इस बीच उन नीतियों पर अमल नहीं किया गया जिन्हें धरती का ताप घटाने के लिए जरूरी माना गया था। इससे जाहिर होता है कि विकास का मॉडल आज भी मूलत: वैसा ही है जो बीस साल पहले था। यह ठीक है कि इस बीच ऊर्जा के अक्षय स्रोतों का इस्तेमाल किया जाने लगा है। अर्थव्यवस्था को लेकर एक विमर्श खड़ा किया गया है जिसे ग्रीन इकॉनॉमी कहा जा रहा है। लेकिन कुल मिलाकर वैश्विक आर्थिकी के प्रबंधक इस बुनियादी समझ को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि दुनिया और मानवीय अस्तित्व को सिर्फ आर्थिक सिद्धांतों और नियमों से नहीं चलाया जा सकता। अनंत उपभोग और अनियंत्रित उत्पादन कुछ देशों और समाजों के लिए तो संभव हो सकता है लेकिन दुनिया की अधिसंख्य जनता के लिए वह अभाव और तबाही का कारण बनता है। गौर करें कि अमेरिका की सदारत में विकास के जिस विचार ने बाकी विकल्पों को ग्रस लिया है वह मूलत: ऊर्जा के अंतहीन इस्तेमाल पर आधारित है। पहले यह सिर्फ पेट्रोल के दोहन तक सीमित था लेकिन पिछले बीस सालों में ऐसी तमाम फसलों और खाद्यान्नों को भी आजमाया जा रहा है जिनसे पेट्रोल के सीमित भंडार की भरपाई की जा सकती है। याद करें कि रियो के पहले सम्मेलन में पूरी दुनिया के देशों के समक्ष जब धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने का एजेंडा रखा गया था तो अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने सम्मेलन की स्वइच्छाओं पर पाटा फेरते हुए जनमत को डपट दिया कि अमेरिकी जीवन शैली पर कोई सवाल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

पता नहीं इन विषयों पर बात करते हुए कहीं से यह आवाज भी उठेगी कि जब तक विकास के मौजूदा मॉडल को विकेंद्रित करके जन केंद्रित नहीं बनाया जाता और दुनिया के हर समुदाय और देश को अपनी तरक्की की राह चुनने की आजादी नहीं दी जाती तब तक इस तरह के वैश्विक आयोजन किसी अगले सम्मेलन की पूर्वपीठिका ही बनते रहेंगे।

अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका विकास की किसी भी ऐसी धारणा को पनपने नहीं देता, जिसमें उसे अपने हितों और आदतों को छोडऩा पड़े। यहां अमेरिका का यह प्रसंग इसलिए उठाया जा रहा है कि विश्व के ऊर्जा संकट के लिए एक देश के रूप में सबसे ज्यादा जिम्मेदार वही है। इसलिए, 130 देशों के राष्ट्राध्यक्षों, पचास हजार कारोबारियों, निवेशकों और एक्टिविस्टों के इस संगम को देखकर फौरी तौर पर उत्साह तो पैदा होता है लेकिन इससे यह सवाल ओझल नहीं हो जाता कि दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी की गरीबी और साधनहीनता के लिए विकास का यह ढांचा ही जिम्मेदार है।

प्रसंगवश, संयुक्त राष्ट्र की सूचनाओं के अनुसार मौजूदा सम्मेलन में टिकाऊ विकास से लेकर ऊर्जा की व्यवस्था जैसे छब्बीस विषयों पर चर्चा की जाएगी। विचित्र यह है कि चर्चा के लिए बहुत सारे ऐसे मुद्दों को स्वतंत्र विषय मान लिया गया है जो मूलत: विकास की मौजूदा दृष्टि के दुष्परिणाम ज्यादा हैं। और उन पर कोई भी बहस इस ऐतबार से की जानी चाहिए ताकि विश्व जनमत विराट पूंजी, मनुष्य विरोधी तकनीकी और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर आधारित विकास के इस एकायामी मॉडल के खिलाफ संगठित हो सकें। उन पर अलग से चर्चा करने का मतलब अर्थहीन ब्योरों का पहाड़ खड़ा करना है।

बहरहाल, कार्यक्रम के तहत सम्मेलन के पहले दो दिन गैरसरकारी संगठनों के प्रस्तावों और विचार विमर्श के लिए नियत किए गए हैं ताकि यहां से उभरे मुद्दों और सरोकारों को राष्ट्राध्यक्षों व सरकारी प्रतिनिधियों के सामने रखा जा सके। पता नहीं इन विषयों पर बात करते हुए कहीं से यह आवाज भी उठेगी कि जब तक विकास के मौजूदा मॉडल को विकेंद्रित करके जन केंद्रित नहीं बनाया जाता और दुनिया के हर समुदाय और देश को अपनी तरक्की की राह चुनने की आजादी नहीं दी जाती तब तक इस तरह के वैश्विक आयोजन किसी अगले सम्मेलन की पूर्वपीठिका ही बनते रहेंगे।

(लेखक टिप्पणीकार हैं।)

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