भारतीय प्रतिरोध में इस बार पहले जैसी धार नहीं थी। इसकी वजह यही है कि भारत भी अब विकास के प्रचलित रास्ते पर ही चल रहा है। यही स्थिति अब कमोबेश चीन की भी है। ऐसे में विकसित देशों का विरोध करना एक तरह से खुद का विरोध करने जैसा ही हो सकता है। कुल मिलाकर रियो सम्मेलन में एक तरह की रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं हो सका और विकसित देश हमेशा की तरह अपनी जिम्मेदारी से नजरें चुराते दिखाई दिए।
जलवायु में हो रहे विनाशकारी बदलावों के मद्देनजर टिकाऊ वैश्विक विकास के लिए हरित कार्ययोजना तैयार करने के लिए ब्राजील के ‘रियो द जेनेरो’ शहर में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में दुनिया के सौ से भी ज्यादा देशों के तीन दिन तक चले सम्मेलन का अगर कोई स्पष्ट संदेश है तो वह यह कि वायुमंडल में हो रहे विनाशकारी बदलाव से समूची पृथ्वी पर मंडरा रहे आफत के बादलों के बावजूद खुदगर्ज इन्सान विकास के नाम पर अपनी आत्महंता हरकतें छोड़ने को राजी नहीं है। लगभग बीस बरस पहले ‘पृथ्वी सम्मेलन’ के नाम से दुनिया की आबोहवा को फिर से साफ-सुथरा बनाने की कवायद समुद्र किनारे बसे इसी शहर में शुरू हुई थी। तब दुनिया के 178 देशों के राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष यहां जुटे थे। उसके बाद इस तरह के सम्मेलन क्योटो (जापान), कोपेनहेगन (डेनमार्क), कानकुन (मेक्सिको) और डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में भी हो चुके हैं।हर सम्मेलन में विकसित देशों की ओर से कोई न कोई ऐसा पेंच फंसाया जाता रहा जिससे कोई कारगर समझौता संभव नहीं हो पाया। दरअसल, धरती पर मंडरा रहे पर्यावरणीय गंभीर खतरे के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार पूर्ण रूप से विकसित और अमीर मुल्क ही हैं, लेकिन वे अब भी अपनी करनी से बाज नहीं आ रहे हैं। बीस साल बाद हुए रियो सम्मेलन की दास्तान भी इससे अलग नहीं है। रीयो डी जेनेरियो में भी ‘द फ्यूचर वी वांट’ नामक जो दस्तावेज तैयार किया गया है। वह भी बहुत ज्यादा उम्मीद जगाने वाला नहीं है। इस दस्तावेज में बढ़ती जनसंख्या वाले विश्व में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के उपायों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। दुनिया की मौजूदा आबादी सात अरब है जिसके 2050 तक बढ़कर नौ अरब हो जाने का अनुमान है।
तेजी से बढ़ती आबादी का पर्यावरण पर नकारात्मक असर हो रहा है। 1992 में हुए रियो सम्मेलन में पहली बार जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गरीबी जैसे मसलों पर चर्चा शुरू की गई थी। लेकिन हकीकत यह है कि बीते दो दशकों के दौरान समूची दुनिया की आबोहवा लगातार पटरी से उतरती गई है। इस अवधि के दौरान वैश्विक आबादी में लगभग 1.6 अरब की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि 30 करोड़ हेक्टेयर प्राकृतिक वन क्षेत्र नष्ट हुआ है और कार्बन उत्सर्जन में 50 फीसदी का इजाफा हुआ है। इस सबके पीछे मुख्य वजह है दुनिया भर में बढ़ता बिजली उत्पादन। इस दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं का विस्तार भी हुआ है लेकिन इसी के चलते दुनिया भर में अमीरी-गरीबी के बीच की खाई भी लगातार चौड़ी और गहरी होती गई है।
आज पूरी दुनिया में हर छह में से एक व्यक्ति कुपोषण का शिकार है। हालांकि रियो में भारत की ओर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गरीबी के मुद्दे को उठाया भी तथा इस दिशा में धनी देशों को उनके असहयोग भरे रवैये के लिए आड़े हाथों भी लिया, लेकिन भारतीय प्रतिरोध में इस बार पहले जैसी धार नहीं थी। इसकी वजह यही है कि भारत भी अब विकास के प्रचलित रास्ते पर ही चल रहा है। उसके पास भी कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं है। यही स्थिति अब कमोबेश चीन की भी है। ऐसे में विकसित देशों का विरोध करना एक तरह से खुद का विरोध करने जैसा ही हो सकता है। कुल मिलाकर रियो सम्मेलन में एक तरह की रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं हो सका और विकसित देश हमेशा की तरह अपनी जिम्मेदारी से नजरें चुराते दिखाई दिए।
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