रियो के 20 साल बाद भी पृथ्वी को बचाने की चुनौती बाकी

ब्राजील की राजधानी रियो में फिर से पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन हो रहा है। सैकड़ों देशों के नेता ग्रीन इकॉनमी, स्थाई विकास और पर्यावरण संबंधी चुनौतियों के साथ ही पृथ्वी पर बढ़ती पर्यावरणीय संकट से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा करेंगे। संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में होने वाला यह चौथा पृथ्वी सम्मेलन है। पहले पृथ्वी सम्मेलन में तय किये गये मुद्दे अभी तक कोई तार्किक परिणति नहीं पा सके, फिर उन्हीं को आधार बनाकर इस बार का पृथ्वी सम्मेलन हो रहा है। ऐसे में भला क्या उम्मीद की जाय और तब जबकी कई बुनियादी मुद्दों पर देशों के बीच मतभेद हों। पहले पृथ्वी सम्मेलन से लेकर अब तक के सफर की जानकारी दे रहे हैं चंदन मिश्र।

* 1992 में पहली बार पृथ्वी सम्मेलन (अर्थ समिट) ब्राजील के रियो डि जेनेरियो शहर में आयोजित किया गया था।

* 172 देशों के प्रतिनिधियों ने स्थायी विकास आदि मुद्दे को लेकर इस महासम्मेलन में हिस्सा लिया था।

* 1997 अर्थ समिट में स्वीकार किये गये यूएनएफसीसी के आधार पर क्योटो प्रोटोकॉल लाया गया।

* 20 साल बाद यह पृथ्वी सम्मेलन ब्राजील के रियो में ही होने के कारण इसका नाम रियो+20 रखा गया है।

रियो+5 और रियो+10 सम्मेलन
वर्ष 1997 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के बाद एक विशेष बैठक का आयोजन किया, जिसे रियो+5 के नाम से जाना जाता है। यह बैठक एजेंडा 21 को लागू करने की दिशा तक उठाए गये कदमों के मूल्यांकन के लिए बुलायी गयी थी। एजेंडा-21 के तहत पहली बैठक में उन सभी कारकों को सूचीबद्ध किया गया था, जिसे टिकाऊ विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके बाद, साल 2002 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किया गया था। रियो में हुए पहले पृथ्वी सम्मेलन के दस साल बाद इस सम्मेलन के होने के कारण अनौपचारिक तौर पर इसे रियो+10 पृथ्वी सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्मेलन के घोषणापत्र में कहा गया कि टिकाऊ और समावेशी विकास के लिए गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण संबंधी समस्याओं पर नियंत्रण बहुत जरूरी है। इन समस्याओं को दूर करने के लिए विशेष कार्यनीति बनाने और उसे क्रियान्वित करने पर जोर दिया गया। हालांकि, ये सभी लक्ष्य अभी तक पूरे नहीं हो पाये हैं।

ठीक 20 साल पहले वर्ष 1992 में हमारी धरती पर मंडरा रहे संकट से निपटने के लिए साझी रणनीति बनाने के मकसद से दुनियाभर के नेता ब्राजील के शहर रियो डि जेनोरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन में एकत्र हुए थे। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिग जैसी समस्याओं को लेकर गहरी चिंता जतायी गयी थी और इनसे लड़ने के लिए मिलकर प्रयास करने का संकल्प लिया गया था। 172 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर आयोजित इस वैश्विक सम्मेलन में शिरकत की थी। बीस साल बाद यह संकल्प पूरा होता नहीं दिखाई देता। एक बार फिर दुनिया के शीर्ष नेता रियो डि जेनोरियो में पृथ्वी सम्मेलन में भागीदारी कर रहे हैं।

20 से 22 जून तक आयोजित होने वाले इस सम्मेलन को ही रियो+20 का नाम दिया गया है। रियो ग्रीन समिट आज की दुनिया के सामने मंडरा रहे सबसे गंभीर चुनौतियों का हल निकालने पर केंद्रित है। इसमें हमारे आस-पास का बदहाल होता पर्यावरण, वैश्विक जलवायु परिवर्तन, मौसमी बदलाव के कारण खाद्यान्न उत्पादन में कमी, ऊर्जा स्रोतों का अनिश्चित भविष्य और पेयजल की समस्या सबसे अहम हैं।

विकास के नये मॉडल पर था जोर


1992 के पृथ्वी सम्मेलन में दुनिया के नेता हमारी पृथ्वी को भविष्य के लिए अधिक सुरक्षित बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना पर सहमत हुए थे। इस सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी- यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी। पर्यावरण को बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल भी इसी सम्मेलन का परिणाम था।

उस वक्त यह तय किया गया था कि आर्थिक विकास और बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमारी धरती के सबसे मूल्यवान संसाधनों- जमीन, हवा और पानी के संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाये जाने चाहिए। इस सम्मेलन में यह तय किया गया था कि पुराने आर्थिक मॉडल की जगह नये मॉडल के विकल्प को तलाशा जाये। एक ऐसा मॉडल जिससे टिकाऊ विकास सुनिश्चित हो सके।

अब भी वही सवाल हैं सामने?


पहले रियो सम्मेलन के दो दशक पूरे हो चुके हैं, लेकिन आज भी दुनिया उन्हीं सवालों से जूझ रही है, जो उस वक्त हमारे सामने थे। बल्कि स्थितियां और गंभीर ही हुई हैं। इस बीच दुनिया की आबादी बढ़कर सात अरब हो गयी है। ग्लोबल तापमान में वृद्धि का सिलसिला जारी है। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्नेत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं। इसके बावजूद हमने अंधाधुंध विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है। टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है। इस चुनौती से निपटने के लिए साल के शुरू में जीरो ड्राफ्ट की घोषणा की गयी।

जीरो ड्राफ्ट होगा महत्वपूर्ण


रियो+20 और यूएनसीएसडी (यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेंस ऑन सस्टेनेबल डेवलपमेंट) सम्मेलन के वार्ता मसौदे को जीरो ड्राफ्ट कहा गया है। इसका शीर्षक है- भविष्य जो हम चाहते हैं। नवंबर 2011 में सदस्य देशों, संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ और पर्यवेक्षक संगठनों की मदद से इस मसौदे को तैयार किया गया था। इसे 11 जनवरी 2012 को सार्वजनिक किया गया। अब अंतिम मसौदे को इस बैठक में अपनाया जायेगा।

क्या है ड्राफ्ट में : इस ड्राफ्ट को पांच वर्गो में बांटा गया है- प्रस्तावनाएं, राजनीतिक प्रतिबद्धता का नवीकरण, सतत विकास के संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन, सतत विकास के लिए संस्थागत ढांचा और पालन और कार्यवाही के लिए रूपरेखा।

जीरो ड्राफ्ट पर मतभेद


कई जानकारों के मुताबिक, इस मसौदे में जिन विषयों को चुना गया है, वह संकट के सही कारणों को नहीं बतलाते। नतीजतन, उन्हें दूर करना काफी मुश्किल है। इसमें हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन पर स्पष्ट सोच दिखाई नहीं पड़ती है।

जीरो ड्राफ्ट के सार को देखने से लगता है कि प्रकृति और विकास के बीच सामंजस्य को केंद्र में रखते हुए यह दस्तावेज तैयार नहीं किया गया है, बल्कि आर्थिक विकास ही हमारी प्राथमिकता बनी हुई है।

जी-77 देशों की मांग


जी-77 विकासशील देशों का एक समूह है। शुरू में इसके 77 संस्थापक देश थे, लेकिन अब इसके सदस्यों की संख्या 132 तक हो चुकी है। इन देशों का मानना है कि विकसित देशों द्वारा पहले किये गये वादों और प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए, जबकि विकसित देश इसके प्रति उदासीन नजर आते हैं। जी-77 गरीबी उन्मूलन व सामाजिक विकास के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्थागत ढांचों में मूलभूत बदलाव भी चाहता है, ताकि विकासशील देशों का मजबूत प्रतिनिधित्व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो सके। विकसित देश व्यापक स्तर पर नये सिरे से इस बदलाव के पक्ष में नहीं हैं।

रियो+20 में भारत की भूमिका


विश्व स्तर पर होने वाले सबसे बड़े सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करेंगे। रियो सम्मेलन में शामिल भारतीय दल के एक अधिकारी का कहना है कि मौजूदा सम्मेलन का आधार 20 साल पहले का रियो घोषणा पत्र है। उसी आधार पर जलवायु परिवर्तन आदि विषयों पर चर्चा होनी है, लेकिन अब विकसित देश उन सभी नियमों को हटाना चाहते हैं, जो उनके खिलाफ जाते हैं। भारत इस मुद्दे पर विकासशील देशों के समूह जी-77 के साथ है।

भारत ‘हरित अर्थव्यवस्था’ ग्रीन इकोनॉमी का पक्षधर है, जो इस सम्मेलन का लक्ष्य भी है, लेकिन वह चाहता है कि इसमें विकासशील और विकसित दोनों देशों की भूमिका अनुपातिक हो। इसके अलावा भारत चाहता है कि पहले रियो सम्मेलन के दौरान तय किये गये सभी वादों को पूरा करने की दिशा में भी ठोस कदम उठाये जायें। भारत सीबीडीआर यानी कॉमन, बट डिफरेंशिएटेड रिसपांसिबिलिटी का भी समर्थन करता है। यह स्थायी विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, दो 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के तौर पर सामने आया था।

अब कितनी है उम्मीद


1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में ही भविष्य के विकास के तरीके को लेकर तसवीर खींची गयी थी। उस सम्मेलन के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है।

क्योटो प्रोटोकॉल अपना लक्ष्य पूरा करने में नाकाम रहा है और क्योटो से आगे का रास्ता धुंधला बना हुआ है। कोपेनहेगेन और डरबन सम्मेलनों में भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका। आगे की राह चुनौती भरी है। दुनिया को ऐसे वक्त शक्तिशाली नेतृत्व की जरूरत है, जो फिलहाल दिखाई नहीं देता।

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