आज हम पानी की समस्या से जुझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कहीं भी और कभी भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में कुछ ऐसा होने वाला है जो पहले कभी नहीं हुआ। इस दौर में सबसे सस्ती कारों के साथ सबसे महंगी दालें मिलने वाली हैं – यही इस अकाल की सबसे भयावह तस्वीर होगी।
शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवेल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। एक बात साफ है कि लगातार गिरता जल स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। महाभारत युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ लेकर द्वारिका जा रहे थे। उनका रथ मरुप्रदेश पार कर रहा था। आज के जैसलमेर के पास त्रिकुट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया और फिर वे मांगने को कहा। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। सचमुच ऋषि ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवान वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अभाव न रहे। एक दौर था जब मरुभूमि को इस तरह के आशीर्वाद की जरूरत थी। मरुभूमि के अलावा पानी की कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन हमने पानी की अहमियत नहीं समझी। आज पानी हमें परेशान कर रहा है। आज हमारे समाज के बड़े हिस्से को इस आशीर्वाद की जरूरत पड़ती है।हमारा समाज अपने-अपने देवताओं से प्रार्थना करता रहता है कि उसके जीवन में पानी की कमी न रहे। आज हालत यह है कि हम पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कभी भी और कहीं भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल कोई पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में ऐसा कुछ होने वाला है, जो पहले कभी नहीं हुआ। इस दौर में सबसे सस्ती कारों के साथ सबसे महंगी दाल भी मिलने वाली है-यही इस अकाल की सबसे भयावह तस्वीर होगी। यह बात औद्योगिक विकास के विरुद्ध नहीं कही जा रही है। लेकिन इस महादेश के बारे में जो लोग सोच रहे हैं, उन्हें इसकी खेती, इसके पानी, अकाल, बाढ़ सबके बारे में सोचना होगा।
कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं। इन्हीं में एक बात यह भी है कि अकाल कभी अकेले नहीं आता। उससे बहुत पहले अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है। अच्छे विचार का अर्थ है, अच्छी योजनाएं, अच्छे काम। अच्छी योजनाओं का अकाल और बुरी योजनाओं की बाढ़। पिछले दौर में ऐसा ही कुछ हुआ है। देश को स्वर्ग बना देने की तमन्ना में तमाम नेताओं ने स्पेशल इकॉनमिक जोन सिंगूर, नंदीग्राम और ऐसी ही न जाने कितनी बड़ी-बड़ी योजनाओं पर पूरा ध्यान दिया। इस बीच यह भी सुना गया कि इतने सारे लोगों का खेती करना जरूरी नहीं है। एक जिम्मेदार नेता की तरफ से यह भी बयान आया कि भारत को गांवों का देश कहना जरूरी नहीं है। गांवों में रहने वाले शहरों में आकर रहने लगेगें, तो हम उन्हें बेहतर चिकित्सा, बेहतर शिक्षा और बेहतर जीवन के लिए तमाम सुविधांए आसानी से दे सकेंगे। इन्हें लगता होगा कि शहरों में रहने वाले सभी लोगों को ये सभी सुविधाएं मिल ही चुकी है। इसका उत्तर तो शहर वाले ही देंगे।
लेकिन इस बात को यहीं छोड़ दीजिए। अब हमारे सामने मुख्य चुनौती है अपनी फसलों को बचाना और आने वाली फसल की ठीक-ठीक तैयारी। दुर्भाग्य से इसका कोई बना-बनाया ढांचा सरकार के हाथ फिलहाल नहीं दिखता। देश के बहुत बड़े हिस्से में कुछ साल पहले तक किसानों को इस बात की खूब समझ थी कि मानसून के आसार अच्छे न दिखें, तो पानी की कम मांग करने वाली फसलें बो ली जाएं। इस तरह के बीज पीढ़ियों से सुरक्षित रखे गए थे। कम प्यास वाली फसलें अकाल का दौर पार कर जाती थी। लेकिन आधुनिक विकास के दौर ने, नई नीतियों ने किसान के इस स्वावलंबन को अनजाने में ही सही, पर तोड़ा जरूर है। लगभग हर क्षेत्र में धान, गेंहू, ज्वार, बाजरा के हर खेत में पानी को देखकर बीज बोने की पूरी तैयारी रहती थी। अकाल के अलावा बाढ़ तक को देखकर बीजों का चयन किया जाता था। पर 30-40 साल के आधुनिक कृषि विकास ने इस बारीक समझ को आमतौर पर तोड़ डाला है। पीढ़ियों से एक जगह रहकर वहां की मिट्टी, पानी, हवा, बीज, खाद-सब कुछ जानने वाला किसान अब छह-आठ महीनों में ट्रांसफर होकर आने-जाने वाले कृषि अधिकारी की सलाह पर निर्भर बना डाला गया है।
किसानों के सामने एक दूसरी मजबूरी उन्हें सिंचाई के अपने साधनों से काट देने की भी है। पहले जितना पानी मुहैया होता था, उसके अनुकूल फसल ली जाती थी। अब नई योजनाओं का आग्रह रहता है कि राजस्थान में भी गेंहूं, धान, गन्ना, मूंगफली जैसी फसलें पैदा होनी चाहिए। कम पानी के इलाके में ज्यादा पानी मांगने वाली फसलों को बोने का रिवाज बढ़ता ही जा रहा है। इनमें बहुत पानी लगता है। सरकार को लगता है कि बहुत पानी देने को ही तो हम बैठे हैं। ऐसे इलाकों में अरबों रुपयों की लागत से इंदिरा नहर, नर्मदा नहर जैसी योजनाओं के जरिए सैकड़ों किलोमीटर दूर का पानी सूखे बताए गए इलाके में लाकर पटक दिया जाता है। लेकिन यह आपूर्ति लंबे समय तक के लिए निर्बाध नहीं चल पाएगी।
आज हालत यह है कि हम पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कभी भी और कहीं भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल कोई पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में ऐसा कुछ होने वाला है, जो पहले कभी नहीं हुआ। अकाल कभी अकेले नहीं आता। उससे बहुत पहले अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है। अच्छे विचार का अर्थ है, अच्छी योजनाएं, अच्छे काम। अच्छी योजनाओं का अकाल और बुरी योजनाओं की बाढ़। इस साल, हर जगह जितना कम पानी बरसता है, उतने में हमारे स्वनामधन्य बांध भी पूरे नहीं भरते हैं। तब उनसे निकलने वाली नहरों में सब खेतों तक पहुंचाने वाला पानी कैसे बहेगा? सरकार घोषणा करती रहती है कि किसानों को भूजल का इस्तेमाल कर फसल बचाने के लिए करोड़ों रुपये की डीजल सब्सिडी दी जाएगी। यह योजना एक तो ईमानदारी से लागू नहीं हो पाती और अगर ईमानदारी से लागू हो भी गई तो अगले अकाल के समय दोहरी मार पड़ सकती है-मानसून का पानी नहीं मिला है और जमीन के नीचे का पानी भी फसल को बचाने के मोह में खींचकर खत्म कर दिया गया। तब तो अगले बरसों में आने वाले अकाल और भी भयंकर होंगे।
असल में सरकारों को अपने-अपने क्षेत्रों में ऐसे इलाके खोजने चाहिए, जहां कम पानी गिरने के बाद भी अकाल की उतनी काली छाया नहीं दिखती, बाकी क्षेत्रों में जैसा अंदेशा होता है। पूरे देश के बारे में बताना तो कठिन है। लेकिन राजस्थान में अलवर ऐसा इलाका है, जहां साल में 25-26 इंच पानी गिरता है। कभी-कभी तो उसका आधा ही गिरता है।
अभी दो साल पहले की बात है। देश भर में अकाल की काली छाया मंडरा रही थी। लेकिन अलवर पर उसका असर नहीं था। वहां के एक बड़े हिस्से में पिछले कुछ साल में हुए काम की बदौलत अकाल की छाया उतनी बुरी नहीं पड़ी। कुछ हिस्सों में तो अकाल को सुंदर भर चुके तालाबों की पाल पर बिठा दिया गया है। जयपुर और नागौर में भी ऐसी मिसालें हैं। जयपुर के ग्रामीण इलाकों में भी बड़ी आसानी से ऐसे गांव मिल जाएंगे, जहां कहा जा सकता है कि अकाल की परिस्थितियों के बावजूद फसल और पीने के लिए पानी सुरक्षित रखा गया है। जैसलमेर और रामगढ़ जैसे और भी सूखे इलाकों की ओर चलें, जहां चार इंच से भी कम पानी गिरा। लेकिन वहां भी कुछ गांव के लोगों की 10-20 साल की तपस्या के बूते पर आज इतना कह सकते हैं कि हमारे यहां पीने के पानी की कमी नहीं है। उधर महाराष्ट्र के भंडारा और उत्तराखंड के पौड़ी जिले में भी कुछ हिस्से ऐसे मिल जाएंगे। हरेक राज्य में ऐसी मिसालें खोजनी चाहिए और उनसे अकाल के लिए सबक लेने चाहिए। नेतृत्व को अकाल के बीच भी इन अच्छे कामों की सुगंध न आए तो वे इनकी खोज में अपने खुफिया विभागों को लगा ही सकते हैं।
पिछले सालों में कृषि वैज्ञानिकों और मंत्रालय से जुड़े अधिकारियों व नेताओं ने इस बात पर जोर दिया है कि कृषि अनुसंधान संस्थानों में, कृषि विश्वविद्यालयों में अब कम पानी की मांग करने वाली फसलों पर शोध होना चाहिए। उन्हें इतनी जानकारी तो होनी चाहिए थी कि ऐसे बीज समाज के पास बराबर रहे हैं। उनके लिए आधुनिक सिंचाई की जरूरत ही नहीं है। इन्हें बारानी खेती के इलाके कहा जाता है। 20-30 सालों में बारानी खेती के इलाकों को आधुनिक कृषि की दासी बनाने की कोशिशें हुई हैं। ऐसे क्षेत्रों को पिछड़ा बताया गया, ऐसे बीजों को और उन्हें बोने वालों को पिछड़ा बताया गया। उन्हें पंजाब-हरियाणा जैसी आधुनिक खेती करके दिखाने के लिए कहा जाता रहा है। आज हम बहुत दुख के साथ देख रहे हैं कि अकाल का संकट पंजाब-हरियाणा पर भी छा सकता है। एक समय था जब बारानी इलाके देश का सबसे स्वादिष्ट अन्न पैदा करते थे। दिल्ली-मुंबई के बाजारों में आज भी सबसे महंगा गेहूं. मध्य प्रदेश के बारानी खेती वाले इलाकों से आता है। अब तो हमें चेतना ही चाहिए। बारानी की इज्जत बढ़ानी चाहिए।
भगवान न करे कि सूखा या अकाल पड़े। लेकिन अगली बार जब अकाल पड़े तो उससे पहले अच्छी योजनाओं का अकाल न आने दें। उन इलाकों, लोगों और परंपराओं से कुछ सीखें जो इस अकाल के बीच में भी सुजलाम्, सफलाम्, बने हुए थे। अंग्रेजों के आने से पहले अपने समाज में पानी की उतनी कमी नहीं थी। समाज अपने स्तर पर ही पानी का इंतजाम कर लेता था। वह राज का मुंह नहीं ताकता था। अकेले मैसूर राज्य में ही 39 हजार तालाब थे। लेकिन उस गुणी समाज के हाथ से पानी का प्रबंध किस तरह छीना गया। उसकी एक झलक तब के मैसूर राज में देखने को मिलती है। सन् 1800 में मैसूर राज दीवान पूर्णैया देखते थे। कहा जाता था कि वहां किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे तो आधी इस तरफ जाती थी। और आधी उस तरफ जाती थी। दोनों तरफ उस बूंद को सहेज कर रखने वाले तालाब मौजूद थे। समाज के अलावा राज भी उसमें दिलचस्पी लेता था और इन उम्दा तालाबों की देखरेख के लिए हर साल कुछ लाख रुपये लगाता था।
अंग्रेजों से पहले करीब 350 तालाब दिल्ली में थे। उन्हें भी राजस्व के लाभ और हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए। उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। बीसवीं सदी के शुरुआत में ही तब के विवाह गीतों में उसका विरोध दिखाई देता है। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां गीत गाती थीं, ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियो।’ लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों के वॉटर वर्क्स से पानी आने लगा। राज बदला। अंग्रेज आए। 1831 में उन्होंने तालाबों को दी जाने वाली राशि को काट कर आधा कर दिया। किसी तरह 32 सालों तक तालाब चलते रहे लेकिन फिर 1863 में पीडब्ल्यूडी बनी और सारे तालाब लोगों से छीन कर उसे दे दिए गए। प्रतिष्ठा पहले हर ली थी। फिर धन, साधन छीने और अब स्वामित्व भी ले लिया। सम्मान, सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा। ऐसे में उससे सिर्फ अपने कर्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती? मैसूर के 39 हजार तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। पीडब्ल्यूडी से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया। तब वापस पीडब्ल्यूडी के पास आ गए तालाब। विभागों की अदला-बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राजस्व बढ़ाते गए अंग्रेज और रख-रखाव की राशि छांटते-काटते गए। अंग्रेज इस काम के लिए चंदा तक मांगने लगे। वह फिर जबरन वसूली तक चला गया।
अंग्रेजों से पहले करीब 350 तालाब दिल्ली में थे। उन्हें भी राजस्व के लाभ और हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए। उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। बीसवीं सदी के शुरुआत में ही तब के विवाह गीतों में उसका विरोध दिखाई देता है। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां गीत गाती थीं, ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियो।’ लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों के वॉटर वर्क्स से पानी आने लगा। पहले सभी बड़े शहरों में और फिर धीरे-धीरे छोटे शहरों में भी यही स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाइप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। यह बात उस समय नहीं लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे समझ में आने लगी थी। सन् 70 के बाद तो यह डरावने सपने में बदलने लगी थी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मुहल्ले, बाजार और स्टेडियम खड़े हो चुके थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता, तालाब हथियार कर बनाए गए नए मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता। और फिर वर्षा बीती नहीं कि इन शहरों में जल संकट के बादल छाने लगते। जिन शहरों के पास फिलहाल थोड़ा पैसा है। थोड़ी ताकत है। वे किसी और के पानी को छीन कर अपने नलों को किसी तरह चला रहे हैं। पर बाकी की हालत तो हर साल बिगड़ती ही जा रही है। कई शहरों के कलेक्टर फरवरी महीने में आस-पास के गांवों के बड़े तालाबों का पानी सिंचाई के कामों से रोक कर शहरों के लिए सुरक्षित कर लेते हैं।
शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवेल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। एक बात साफ है कि लगातार गिरता जल स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई छह सौ बरस पहले लाखा बंजारे के बनाए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहां नए समाज की पांच बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएं हैं। एक बंजारा आया और विशाल सागर बना कर चला गया। लेकिन नए समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर दर्जनों शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं। डिग्रियां बंट चुकी हैं। पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा नहीं पा रहा है। लेकिन उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब खड़े हैं। देश भर में कोई दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बांट रहे हैं। कई तरह से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मजबूती पत्थर की मजबूती से ज्यादा मजबूत है।
एक लोककथा याद आती है। कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौराई थे चार भाई। चारों सुबह जल्दी उठ कर अपने खेत पर काम करने जाते। दोपहर को कूड़न की बेटी आती, पोटली में खाना लेकर।
एक दिन घर से खेत जाते समय बेटी को एक नुकीले पत्थर से ठोकर लग गई। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने अपनी दरांती से उस पत्थर को उखाड़ने की कोशिश की। पर लो, उसकी दरांती तो पत्थर पर पड़ते ही लोहे से सोने में बदल गई और फिर बदलती जाती हैं, इस लंबे किस्से की घटनाएं बड़ी तेजी से। पत्थर उठा कर लड़की भागी-भागी खेत पर आती है। अपने पिता और चाचाओं को सब कुछ एक सांस में बता देती है। चारों भाईयों की सांस भी अटक जाती है। जल्दी-जल्दी सब घर लौटते हैं। उन्हें मालूम पड़ चुका है कि उनके हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं है पारस है। वे लोहे की जिस चीज को छूते हैं, वह सोना बनकर उनकी आंखों में चमक भर देती है। पर आंखों की यह चमक ज्यादा देर तक नहीं टिक पाती। कूड़न को लगता है कि देर-सबेर राजा तक यह बात पहुंच जाएगी और तब पारस छिन जाएगा। तो क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि वे खुद जाकर राजा को सब कुछ बता दें। किस्सा आगे बढ़ता है। फिर जो कुछ भी घटता है, वह लोहे को नहीं, बल्कि समाज को पारस से छुआने का किस्सा बन जाता है।
राजा न पारस लेता है न सोना। सब कुछ कूड़न को वापस देते हुए कहता है, ‘जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना। तालाब बनाते जाना।’ यह कहानी सच्ची है या ऐतिहासिक, नहीं मालूम, लेकिन देश के मध्य भाग में एक बहुत बड़े हिस्से में यह इतिहास को अंगूठा दिखाती हुई लोगों के मन में रमी हुई है। कुल मिलाकर अच्छा काम करते जाना है। पानी का अभाव नहीं होने देना है।
शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवेल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। एक बात साफ है कि लगातार गिरता जल स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। महाभारत युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र से अर्जुन को साथ लेकर द्वारिका जा रहे थे। उनका रथ मरुप्रदेश पार कर रहा था। आज के जैसलमेर के पास त्रिकुट पर्वत पर उन्हें उत्तुंग ऋषि तपस्या करते हुए मिले। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया और फिर वे मांगने को कहा। उत्तुंग का अर्थ है ऊंचा। सचमुच ऋषि ऊंचे थे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। प्रभु से प्रार्थना की कि यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवान वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अभाव न रहे। एक दौर था जब मरुभूमि को इस तरह के आशीर्वाद की जरूरत थी। मरुभूमि के अलावा पानी की कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन हमने पानी की अहमियत नहीं समझी। आज पानी हमें परेशान कर रहा है। आज हमारे समाज के बड़े हिस्से को इस आशीर्वाद की जरूरत पड़ती है।हमारा समाज अपने-अपने देवताओं से प्रार्थना करता रहता है कि उसके जीवन में पानी की कमी न रहे। आज हालत यह है कि हम पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कभी भी और कहीं भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल कोई पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में ऐसा कुछ होने वाला है, जो पहले कभी नहीं हुआ। इस दौर में सबसे सस्ती कारों के साथ सबसे महंगी दाल भी मिलने वाली है-यही इस अकाल की सबसे भयावह तस्वीर होगी। यह बात औद्योगिक विकास के विरुद्ध नहीं कही जा रही है। लेकिन इस महादेश के बारे में जो लोग सोच रहे हैं, उन्हें इसकी खेती, इसके पानी, अकाल, बाढ़ सबके बारे में सोचना होगा।
कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं। इन्हीं में एक बात यह भी है कि अकाल कभी अकेले नहीं आता। उससे बहुत पहले अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है। अच्छे विचार का अर्थ है, अच्छी योजनाएं, अच्छे काम। अच्छी योजनाओं का अकाल और बुरी योजनाओं की बाढ़। पिछले दौर में ऐसा ही कुछ हुआ है। देश को स्वर्ग बना देने की तमन्ना में तमाम नेताओं ने स्पेशल इकॉनमिक जोन सिंगूर, नंदीग्राम और ऐसी ही न जाने कितनी बड़ी-बड़ी योजनाओं पर पूरा ध्यान दिया। इस बीच यह भी सुना गया कि इतने सारे लोगों का खेती करना जरूरी नहीं है। एक जिम्मेदार नेता की तरफ से यह भी बयान आया कि भारत को गांवों का देश कहना जरूरी नहीं है। गांवों में रहने वाले शहरों में आकर रहने लगेगें, तो हम उन्हें बेहतर चिकित्सा, बेहतर शिक्षा और बेहतर जीवन के लिए तमाम सुविधांए आसानी से दे सकेंगे। इन्हें लगता होगा कि शहरों में रहने वाले सभी लोगों को ये सभी सुविधाएं मिल ही चुकी है। इसका उत्तर तो शहर वाले ही देंगे।
लेकिन इस बात को यहीं छोड़ दीजिए। अब हमारे सामने मुख्य चुनौती है अपनी फसलों को बचाना और आने वाली फसल की ठीक-ठीक तैयारी। दुर्भाग्य से इसका कोई बना-बनाया ढांचा सरकार के हाथ फिलहाल नहीं दिखता। देश के बहुत बड़े हिस्से में कुछ साल पहले तक किसानों को इस बात की खूब समझ थी कि मानसून के आसार अच्छे न दिखें, तो पानी की कम मांग करने वाली फसलें बो ली जाएं। इस तरह के बीज पीढ़ियों से सुरक्षित रखे गए थे। कम प्यास वाली फसलें अकाल का दौर पार कर जाती थी। लेकिन आधुनिक विकास के दौर ने, नई नीतियों ने किसान के इस स्वावलंबन को अनजाने में ही सही, पर तोड़ा जरूर है। लगभग हर क्षेत्र में धान, गेंहू, ज्वार, बाजरा के हर खेत में पानी को देखकर बीज बोने की पूरी तैयारी रहती थी। अकाल के अलावा बाढ़ तक को देखकर बीजों का चयन किया जाता था। पर 30-40 साल के आधुनिक कृषि विकास ने इस बारीक समझ को आमतौर पर तोड़ डाला है। पीढ़ियों से एक जगह रहकर वहां की मिट्टी, पानी, हवा, बीज, खाद-सब कुछ जानने वाला किसान अब छह-आठ महीनों में ट्रांसफर होकर आने-जाने वाले कृषि अधिकारी की सलाह पर निर्भर बना डाला गया है।
किसानों के सामने एक दूसरी मजबूरी उन्हें सिंचाई के अपने साधनों से काट देने की भी है। पहले जितना पानी मुहैया होता था, उसके अनुकूल फसल ली जाती थी। अब नई योजनाओं का आग्रह रहता है कि राजस्थान में भी गेंहूं, धान, गन्ना, मूंगफली जैसी फसलें पैदा होनी चाहिए। कम पानी के इलाके में ज्यादा पानी मांगने वाली फसलों को बोने का रिवाज बढ़ता ही जा रहा है। इनमें बहुत पानी लगता है। सरकार को लगता है कि बहुत पानी देने को ही तो हम बैठे हैं। ऐसे इलाकों में अरबों रुपयों की लागत से इंदिरा नहर, नर्मदा नहर जैसी योजनाओं के जरिए सैकड़ों किलोमीटर दूर का पानी सूखे बताए गए इलाके में लाकर पटक दिया जाता है। लेकिन यह आपूर्ति लंबे समय तक के लिए निर्बाध नहीं चल पाएगी।
आज हालत यह है कि हम पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। पूरी तरह सूखे से हम छुटकारा नहीं पा सके हैं। सूखा कभी भी और कहीं भी पड़ सकता है। सूखा या अकाल कोई पहली बार नहीं आएगा। लेकिन उस अकाल में ऐसा कुछ होने वाला है, जो पहले कभी नहीं हुआ। अकाल कभी अकेले नहीं आता। उससे बहुत पहले अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है। अच्छे विचार का अर्थ है, अच्छी योजनाएं, अच्छे काम। अच्छी योजनाओं का अकाल और बुरी योजनाओं की बाढ़। इस साल, हर जगह जितना कम पानी बरसता है, उतने में हमारे स्वनामधन्य बांध भी पूरे नहीं भरते हैं। तब उनसे निकलने वाली नहरों में सब खेतों तक पहुंचाने वाला पानी कैसे बहेगा? सरकार घोषणा करती रहती है कि किसानों को भूजल का इस्तेमाल कर फसल बचाने के लिए करोड़ों रुपये की डीजल सब्सिडी दी जाएगी। यह योजना एक तो ईमानदारी से लागू नहीं हो पाती और अगर ईमानदारी से लागू हो भी गई तो अगले अकाल के समय दोहरी मार पड़ सकती है-मानसून का पानी नहीं मिला है और जमीन के नीचे का पानी भी फसल को बचाने के मोह में खींचकर खत्म कर दिया गया। तब तो अगले बरसों में आने वाले अकाल और भी भयंकर होंगे।
असल में सरकारों को अपने-अपने क्षेत्रों में ऐसे इलाके खोजने चाहिए, जहां कम पानी गिरने के बाद भी अकाल की उतनी काली छाया नहीं दिखती, बाकी क्षेत्रों में जैसा अंदेशा होता है। पूरे देश के बारे में बताना तो कठिन है। लेकिन राजस्थान में अलवर ऐसा इलाका है, जहां साल में 25-26 इंच पानी गिरता है। कभी-कभी तो उसका आधा ही गिरता है।
अभी दो साल पहले की बात है। देश भर में अकाल की काली छाया मंडरा रही थी। लेकिन अलवर पर उसका असर नहीं था। वहां के एक बड़े हिस्से में पिछले कुछ साल में हुए काम की बदौलत अकाल की छाया उतनी बुरी नहीं पड़ी। कुछ हिस्सों में तो अकाल को सुंदर भर चुके तालाबों की पाल पर बिठा दिया गया है। जयपुर और नागौर में भी ऐसी मिसालें हैं। जयपुर के ग्रामीण इलाकों में भी बड़ी आसानी से ऐसे गांव मिल जाएंगे, जहां कहा जा सकता है कि अकाल की परिस्थितियों के बावजूद फसल और पीने के लिए पानी सुरक्षित रखा गया है। जैसलमेर और रामगढ़ जैसे और भी सूखे इलाकों की ओर चलें, जहां चार इंच से भी कम पानी गिरा। लेकिन वहां भी कुछ गांव के लोगों की 10-20 साल की तपस्या के बूते पर आज इतना कह सकते हैं कि हमारे यहां पीने के पानी की कमी नहीं है। उधर महाराष्ट्र के भंडारा और उत्तराखंड के पौड़ी जिले में भी कुछ हिस्से ऐसे मिल जाएंगे। हरेक राज्य में ऐसी मिसालें खोजनी चाहिए और उनसे अकाल के लिए सबक लेने चाहिए। नेतृत्व को अकाल के बीच भी इन अच्छे कामों की सुगंध न आए तो वे इनकी खोज में अपने खुफिया विभागों को लगा ही सकते हैं।
पिछले सालों में कृषि वैज्ञानिकों और मंत्रालय से जुड़े अधिकारियों व नेताओं ने इस बात पर जोर दिया है कि कृषि अनुसंधान संस्थानों में, कृषि विश्वविद्यालयों में अब कम पानी की मांग करने वाली फसलों पर शोध होना चाहिए। उन्हें इतनी जानकारी तो होनी चाहिए थी कि ऐसे बीज समाज के पास बराबर रहे हैं। उनके लिए आधुनिक सिंचाई की जरूरत ही नहीं है। इन्हें बारानी खेती के इलाके कहा जाता है। 20-30 सालों में बारानी खेती के इलाकों को आधुनिक कृषि की दासी बनाने की कोशिशें हुई हैं। ऐसे क्षेत्रों को पिछड़ा बताया गया, ऐसे बीजों को और उन्हें बोने वालों को पिछड़ा बताया गया। उन्हें पंजाब-हरियाणा जैसी आधुनिक खेती करके दिखाने के लिए कहा जाता रहा है। आज हम बहुत दुख के साथ देख रहे हैं कि अकाल का संकट पंजाब-हरियाणा पर भी छा सकता है। एक समय था जब बारानी इलाके देश का सबसे स्वादिष्ट अन्न पैदा करते थे। दिल्ली-मुंबई के बाजारों में आज भी सबसे महंगा गेहूं. मध्य प्रदेश के बारानी खेती वाले इलाकों से आता है। अब तो हमें चेतना ही चाहिए। बारानी की इज्जत बढ़ानी चाहिए।
भगवान न करे कि सूखा या अकाल पड़े। लेकिन अगली बार जब अकाल पड़े तो उससे पहले अच्छी योजनाओं का अकाल न आने दें। उन इलाकों, लोगों और परंपराओं से कुछ सीखें जो इस अकाल के बीच में भी सुजलाम्, सफलाम्, बने हुए थे। अंग्रेजों के आने से पहले अपने समाज में पानी की उतनी कमी नहीं थी। समाज अपने स्तर पर ही पानी का इंतजाम कर लेता था। वह राज का मुंह नहीं ताकता था। अकेले मैसूर राज्य में ही 39 हजार तालाब थे। लेकिन उस गुणी समाज के हाथ से पानी का प्रबंध किस तरह छीना गया। उसकी एक झलक तब के मैसूर राज में देखने को मिलती है। सन् 1800 में मैसूर राज दीवान पूर्णैया देखते थे। कहा जाता था कि वहां किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे तो आधी इस तरफ जाती थी। और आधी उस तरफ जाती थी। दोनों तरफ उस बूंद को सहेज कर रखने वाले तालाब मौजूद थे। समाज के अलावा राज भी उसमें दिलचस्पी लेता था और इन उम्दा तालाबों की देखरेख के लिए हर साल कुछ लाख रुपये लगाता था।
अंग्रेजों से पहले करीब 350 तालाब दिल्ली में थे। उन्हें भी राजस्व के लाभ और हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए। उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। बीसवीं सदी के शुरुआत में ही तब के विवाह गीतों में उसका विरोध दिखाई देता है। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां गीत गाती थीं, ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियो।’ लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों के वॉटर वर्क्स से पानी आने लगा। राज बदला। अंग्रेज आए। 1831 में उन्होंने तालाबों को दी जाने वाली राशि को काट कर आधा कर दिया। किसी तरह 32 सालों तक तालाब चलते रहे लेकिन फिर 1863 में पीडब्ल्यूडी बनी और सारे तालाब लोगों से छीन कर उसे दे दिए गए। प्रतिष्ठा पहले हर ली थी। फिर धन, साधन छीने और अब स्वामित्व भी ले लिया। सम्मान, सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा। ऐसे में उससे सिर्फ अपने कर्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती? मैसूर के 39 हजार तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। पीडब्ल्यूडी से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया। तब वापस पीडब्ल्यूडी के पास आ गए तालाब। विभागों की अदला-बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राजस्व बढ़ाते गए अंग्रेज और रख-रखाव की राशि छांटते-काटते गए। अंग्रेज इस काम के लिए चंदा तक मांगने लगे। वह फिर जबरन वसूली तक चला गया।
अंग्रेजों से पहले करीब 350 तालाब दिल्ली में थे। उन्हें भी राजस्व के लाभ और हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए। उसी दौर में दिल्ली में नल लगने लगे थे। बीसवीं सदी के शुरुआत में ही तब के विवाह गीतों में उसका विरोध दिखाई देता है। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां गीत गाती थीं, ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियो।’ लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेजों के वॉटर वर्क्स से पानी आने लगा। पहले सभी बड़े शहरों में और फिर धीरे-धीरे छोटे शहरों में भी यही स्वप्न साकार किया जाने लगा। पर केवल पाइप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। यह बात उस समय नहीं लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे समझ में आने लगी थी। सन् 70 के बाद तो यह डरावने सपने में बदलने लगी थी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मुहल्ले, बाजार और स्टेडियम खड़े हो चुके थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता, तालाब हथियार कर बनाए गए नए मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता। और फिर वर्षा बीती नहीं कि इन शहरों में जल संकट के बादल छाने लगते। जिन शहरों के पास फिलहाल थोड़ा पैसा है। थोड़ी ताकत है। वे किसी और के पानी को छीन कर अपने नलों को किसी तरह चला रहे हैं। पर बाकी की हालत तो हर साल बिगड़ती ही जा रही है। कई शहरों के कलेक्टर फरवरी महीने में आस-पास के गांवों के बड़े तालाबों का पानी सिंचाई के कामों से रोक कर शहरों के लिए सुरक्षित कर लेते हैं।
शहरों को पानी चाहिए, पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं। तब पानी ट्यूबवेल से ही मिल सकता है। पर इसके लिए बिजली,डीजल के साथ-साथ उसी शहर के नीचे पानी चाहिए। एक बात साफ है कि लगातार गिरता जल स्तर सिर्फ पैसे और सत्ता के बल पर थामा नहीं जा सकता। कुछ शहरों ने दूर बहने वाली किसी नदी से पानी उठा कर लाने के बेहद खर्चीले और अव्यावहारिक तरीके अपनाए हैं। पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई छह सौ बरस पहले लाखा बंजारे के बनाए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहां नए समाज की पांच बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएं हैं। एक बंजारा आया और विशाल सागर बना कर चला गया। लेकिन नए समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएं इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर दर्जनों शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं। डिग्रियां बंट चुकी हैं। पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा नहीं पा रहा है। लेकिन उपेक्षा की इस आंधी में कई तालाब खड़े हैं। देश भर में कोई दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बांट रहे हैं। कई तरह से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मजबूती पत्थर की मजबूती से ज्यादा मजबूत है।
एक लोककथा याद आती है। कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौराई थे चार भाई। चारों सुबह जल्दी उठ कर अपने खेत पर काम करने जाते। दोपहर को कूड़न की बेटी आती, पोटली में खाना लेकर।
एक दिन घर से खेत जाते समय बेटी को एक नुकीले पत्थर से ठोकर लग गई। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने अपनी दरांती से उस पत्थर को उखाड़ने की कोशिश की। पर लो, उसकी दरांती तो पत्थर पर पड़ते ही लोहे से सोने में बदल गई और फिर बदलती जाती हैं, इस लंबे किस्से की घटनाएं बड़ी तेजी से। पत्थर उठा कर लड़की भागी-भागी खेत पर आती है। अपने पिता और चाचाओं को सब कुछ एक सांस में बता देती है। चारों भाईयों की सांस भी अटक जाती है। जल्दी-जल्दी सब घर लौटते हैं। उन्हें मालूम पड़ चुका है कि उनके हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं है पारस है। वे लोहे की जिस चीज को छूते हैं, वह सोना बनकर उनकी आंखों में चमक भर देती है। पर आंखों की यह चमक ज्यादा देर तक नहीं टिक पाती। कूड़न को लगता है कि देर-सबेर राजा तक यह बात पहुंच जाएगी और तब पारस छिन जाएगा। तो क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि वे खुद जाकर राजा को सब कुछ बता दें। किस्सा आगे बढ़ता है। फिर जो कुछ भी घटता है, वह लोहे को नहीं, बल्कि समाज को पारस से छुआने का किस्सा बन जाता है।
राजा न पारस लेता है न सोना। सब कुछ कूड़न को वापस देते हुए कहता है, ‘जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना। तालाब बनाते जाना।’ यह कहानी सच्ची है या ऐतिहासिक, नहीं मालूम, लेकिन देश के मध्य भाग में एक बहुत बड़े हिस्से में यह इतिहास को अंगूठा दिखाती हुई लोगों के मन में रमी हुई है। कुल मिलाकर अच्छा काम करते जाना है। पानी का अभाव नहीं होने देना है।
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