रेत की माफियागीरी और लुप्त होती रेत की दास्तां


शहरीकरण की वर्तमान ढाँचागत अवधारणा में रेत की माँग भरपूर है, लेकिन उसकी उत्पादन की क्षमता लगातार समाप्त होती जाती है; क्योंकि नदियों का महाजाल ही इसका उत्पादन स्थल है और देश, दुनिया की नदियाँ निरन्तर क्षय की ओर बढ़ रही हैं।

इस वर्ष जब भारत सरकार ने सरदार सरोवर बाँध का अन्तिम गेट बन्द करने का निर्णय लिया तो नर्मदा बचाओ आन्दोलन के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई। नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने इस निर्णय के प्रतिरोध में अपने देशव्यापी समर्थकों को घाटी में आने का न्यौता दिया और अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी से भी साथ आने की गुहार लगाई।

जब घाटी के गाँव-गाँव में बाँध के खिलाफ नारे लग रहे थे और आन्दोलन से निपटने में प्रशासन के हाथ-पाँव फूल रहे थे। उसी वक्त मध्य प्रदेश के कई टेलीविजन चैनलों ने यह समाचार प्रसारित किया कि बडवानी के कलेक्टर ने प्रेस को बताया है कि “सरकार ने एक जेसीबी जब्त की है और यह जेसीबी नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेता मेधा पाटकर की है तथा आन्दोलन के लोग अवैध रेत खनन में लिप्त हैं।” इस समाचार ने खलबली मचा दी और देश, दुनिया में आन्दोलन के समर्थकों में रोष व्याप्त हो गया। दरअसल, बडवानी जिला प्रशासन ने नर्मदा बचाओ आन्दोलन द्वारा रेत माफिया के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान से ध्यान हटाने के लिये यह ओछी हरकत की।

ज्ञातव्य है कि यह आन्दोलन नर्मदा नदी से अवैध रेत खनन को रोकने और रेत खनन माफिया पर कानूनी कार्रवाई करने के लिये लगातार दबाव बनाता रहा है। खनन माफिया को पकड़वाने के लिये आन्दोलन की ओर से दबिश दी जाती रही है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने इसके विरुद्ध राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) में मुकदमा भी किया हुआ है जहाँ से प्रशासन को अवैध खनन रोकने और उस पर कानूनी कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए गए हैं। लेकिन प्रशासन के लोग खुद ऐसे खनन में लिप्त हैं और सत्ता के शिखर से भी इन पर हाथ न डालने का संकेत है। इसकी वजह से जिला प्रशासन और राज्य सरकार इन्हें खुले आम सह देते हैं और कानूनी शिकंजे से बचाते रहते हैं। नर्मदा नदी की रेत के अवैध खनन से आज हर दिन करोड़ों रुपए का व्यापार हो रहा है। इसकी वजह से माफिया समूह नर्मदा नदी का खुला दोहन हो रहा है। इस लूट में हर राजनैतिक समूह अपना हिस्सा ले रहा है।

दूसरी घटना। उत्तराखण्ड में रेत माफिया से पवित्र गंगा नदी की मुक्ति के लिये कई वर्षों से साधू समाज और नागरिक समूह लड़ाई लड़ रहे हैं। स्वामी निगमानन्द ने इसके खिलाफ अनिश्चितकालीन अन्न-जल त्याग किया। सरकार ने उनकी माँगों पर गौर नहीं किया और उनकी जान चली गई। उनके बाद मैत्री सदन आश्रम के दूसरे साधु स्वामी शिवानन्द ने रेत खनन माफिया के खिलाफ अभियान चला रखा है। जब-जब यह आन्दोलन तेज होता है तत्कालीन सरकार उसे समाप्त कराने के लिये अपने तमाम तिकड़म लगाती है- चाहे आज की बीजेपी सरकार हो या पूर्ववर्ती सरकारें। इस मुनाफे के कारोबार में सभी पार्टियों और उनकी सरकारों की साझेदारी है और सब के हाथ सने हुए हैं।

बुन्देलखण्ड का उदाहरण थोड़ा अलग है। वहाँ कानून के पालनहारों ने सरकारी कानून का सहारा लेकर उर्मिल नदी को रेत माफिया के हवाले कर दिया है। इस नदी का 70 किलोमीटर का फैलाव सिर्फ छतरपुर जिले में है। इस पर कई ‘चेक-डैम’ बने हैं जो सूखे से लड़ने में मदद देते रहते हैं। इसी नदी पर उत्तर प्रदेश सरकार ने भी उर्मिल बाँध बाँधा हुआ है, जिससे महोबा और चरखारी के इलाकों में सिंचाई की सुविधा मिली हुई है। उर्मिल नदी की बदौलत ही मध्यप्रदेश का एक बहुत बड़ा इलाका लोगों को लहलहाती फसल देता है। इस नदी के आस-पास कोई भी वैधानिक रेत खनन नहीं है, क्योंकि रेत खनन कानूनी रूप से मना है लेकिन रेत माफिया ने भ्रष्ट राजनैतिक नेताओं और सरकारी पदाधिकारियों की मदद से इसमें सेंध लगा दी है। रेत माफिया ने इस नदी के किनारे रेत डम्प करने का लाइसेंस ले लिया है।

वे लोग यहाँ रेत डम्पिंग की आड़ में उर्मिल नदी से अवैध रेत खनन करते हैं और हर दिन हजारों ट्रक अवैध रेत की निकासी और बिक्री जारी है। इसमें नेताओं और सरकारी पदाधिकारियों की चाँदी हो रही है। एक ओर बुन्देलखण्ड पानी के अभाव में खेती-किसानी की मार झेलने और अकाल के थपेड़े खाने के लिये अभिशप्त है, दूसरी ओर बचे हुए नदी-स्रोतों को माफिया के हवाले कर दिया गया है। इस सन्दर्भ में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने कई बार सरकार को नोटिस भी दिया है और निर्देश भी। रेत माफिया के साथ कई पार्टियों के नेताओं के भी नाम उजागर होते रहे हैं। इसके बावजूद सरकार कोई भी कदम नहीं उठाती दिख रही है।

यह धन्धा सिर्फ उत्तराखण्ड और मध्य प्रदेश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हर गाँव, कस्बा, शहर, राज्य और राष्ट्र तक इसका विस्तार है। रेत का कण देखने में छोटा है, किन्तु इसकी जड़ें काफी गहरी और फैली हुई हैं। अब रेत का अस्तित्व खतरे में है। आज पेट्रोलियम पदार्थ से भी ज्यादा इसकी माँग है। कहा जाता है कि दुनिया में पानी की खपत पहले नम्बर पर है, उसके बाद रेत का ही नम्बर आता है। भारत के सभी राज्यों और सभी केन्द्र शासित प्रदेशों में अगर किसी खनिज की माँग है तो सबसे पहला नम्बर रेत का ही है। आज मुम्बई, बंगलुरु, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गुरुग्राम जैसे जितने भी शहर बन रहे हैं या विस्तारित हो रहे हैं, वहाँ सबसे ज्यादा खपत होने वाला खनिज रेत ही है। भारत के नगरों पर राज्यवार नजर डालने से रेत की माँग और पूर्ति का परिदृश्य थोड़ा साफ होता है। हैदराबाद में हर दिन दो हजार ट्रक रेत पहुँचती है। यहाँ आने वाली रेत मुख्य रूप से गुंटूर, कृष्णा, श्रीकाकुलम और पूर्वी गोदावरी जिले की नदियों के अवैध खनन से आता है।

जब आन्ध्र की नयी राजधानी अमरावती का निर्माण आरम्भ हुआ है तो अन्दाज लगाया जा सकता है कि यहाँ हर दिन कितनी रेत की माँग होगी और वह कहाँ से आएगी? कर्नाटक में जब एक आईएएस पदाधिकारी ने अवैध खनन को रोकने का प्रयास किया तो उसे जान गँवानी पड़ी और यह स्थापित करना भी मुश्किल हुआ कि इसके मारे जाने के पीछे रेत माफिया का ही हाथ था। केरल में रेत खनन की वजह से पम्पा और मणिमाला नदी का अस्तित्व ही समाप्त हुआ लगता है। इसकी वजह से पीने के पानी का अभाव बढ़ गया है। हरियाणा और दिल्ली के साथ जिन राज्यों से यमुना गुजरती है, उसकी हालत तो बड़े गन्दे नाले की ही है। उत्तर प्रदेश में दुर्गा शक्ति नागपाल ने रेत माफिया से पंगा लिया था। उसका हश्र सभी को मालूम ही है।

आज आधुनिक शहर के निर्माण के लिये रेत की माँग बेतहाशा बढ़ती जा रही है, लेकिन इसके निर्माण का स्रोत सूख गया है। नदी रेत का निर्माण स्थल है। यहाँ पहाड़ों के पत्थर टूट-टूट और घिस-घिसकर रेत में परिवर्तित होते जाते हैं। यह रेत नदी के जल प्रवाह से दोनों किनारों पर जमा होती रहती है। इससे नदियों के मजबूत किनारों का निर्माण होता है। रेत के बनने में हजारों वर्ष लगते हैं। यह पानी के बहाव को इधर-उधर जाने से रोकती है और सोखती भी है, जिससे पानी की सतह ऊपर की ओर बनी रहती है, भूजल लगातार रिचार्ज होते रहता है। शहरीकरण की वर्तमान ढाँचागत अवधारणा में रेत की माँग भरपूर है, लेकिन उसकी उत्पादन की क्षमता लगातार समाप्त होती जाती है; क्योंकि नदियों का महाजाल ही इसका उत्पादन स्थल है और देश, दुनिया की नदियाँ निरन्तर क्षय की ओर बढ़ रही हैं।

आज के आर्थिक ढाँचे को बनाए और चलाए रखने के लिये कंक्रीट के जंगल खड़ा करते जाना एक जरूरी कार्य है जिसमें एक हिस्सा सीमेंट के साथ छह से बारह गुना रेत लगती है। इससे यह अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं कि प्रकृति प्रदत्त यह खनिज लुप्त होते जाने के कितना करीब है और हम सब उसमें भागीदार हैं। कुछ लोग इसके विकल्प के रूप में औद्योगिक उत्पाद और विभिन्न प्रकार की छाई में तलाशने का सुझाव देते हैं। लेकिन इसके उत्पादन से होने वाला प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आता है, जिसके कारण इस ओर बढ़ना भी सरल नहीं है। एक दूसरी राय - वर्तमान ढाँचागत अवधारणा को पूरी तरह बदलकर पर्यावरण-अनुकूल ढाँचा अपनाने का है जिससे सभी सामग्री का पुनर्जीवन आसानी से होता रहे और प्रकृति-असन्तुलन भी न्यूनतम किया जा सके।

 

रेत से जुड़ी है सिंगापुर की चमक-दमक


दुनिया के लोगों ने तेल के लिये युद्ध देखा और झेला है। लेकिन रेत जैसी चीज भी इतनी महत्त्वपूर्ण और महँगी हो सकती है और उसके लिये भी युद्ध की हालत पैदा हो सकती है - इसकी कल्पना अटपटी लगती है और आश्चर्य पैदा करती है। सिंगापुर का नाम किसके लिये अंजाना होगा! लेकिन शायद ही किसी को पता हो कि सिंगापुर की चमक-दमक के पीछे रेत का बड़ा हाथ है। सिंगापुर भारी मात्रा में रेत आयात करता है और इसका भण्डारण उसी तरह से करता है जैसे कुछ देश सामरिक रणनीति के हिसाब से तेल का भण्डारण करते हैं। पिछले 50 वर्षों में सिंगापुर ने अपनी धरती का 22 प्रतिशत विस्तार कर लिया है और यह सब रेत की वजह से सम्भव हुआ है। सिंगापुर चारों ओर से पानी से घिरा है और उसके विस्तार की सम्भावना नगण्य थी। लेकिन रेत की मदद से उसने अपना विस्तार कर लिया।


आज से कुछ वर्ष पूर्व तक रेत आयात करना सरल था। उस समय वह पड़ोसियों से रेत आसानी से मंगा लेता था। परन्तु 1997 में मलेशिया ने रेत देने से मना कर दिया और 2007 में इंडोनेशिया व कम्बोडिया ने 2009 में वियतनाम ने भी सिंगापुर को रेत बेचने से इंकार कर दिया। अब रेत खनन का व्यवसाय एक राजनैतिक खनन में मुद्दा बन गया। इसका परिणाम यह हुआ कि रेत खनन का पूरा व्यवसाय ही भूमिगत और माफिया के हाथों में चला गया। इसका स्थानीय स्तर पर पर्यावरणीय क्षति और जीविकोपार्जन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया जिसमें यहाँ के राजनेता और अधिकारी संलिप्त पाए गए। रेत खनन के कारण स्थानीय मछुआरों का रोजगार छीन गया और इंडोनेशिया, सिंगापुर के बीच सीमा विवाद बढ़ गया। एक वक्त ऐसा आया जब सिंगापुर को एक टन रेत के लिये 190 डॉलर भुगतान करना पड़ा।


पर्यावरणविदों का यह भी आकलन है कि अगर इंडोनेशिया में इसी गति से रेत खनन होता रहा तो आने वाले दशक में इस देश के उत्तरी समुद्री इलाके के दर्जनों आइलैंड विलुप्त हो जाएँगे। रेत की तस्करी में शामिल लोगों को सिंगापुर आने-जाने में कोई भी असुविधा नहीं है, क्योंकि उनके बोट को नेवी या कस्टम की जाँच के बगैर ही जाने दिया जाता है। यह सब गतिविधि रात के अंधेरे में होती है। रेत माफिया रात में संकरे बैराज से यहाँ पहुँचते हैं और रेत लेकर सीधा सिंगापुर पोर्ट आ जाते हैं, जहाँ वे रेत अन्तरराष्ट्रीय दलालों को बेच देते हैं।


इंडोनेशिया में हर साल तीन सौ मिलियन क्यूबिक मीटर रेत का अवैध खनन होता है और इसका ताल्लुक अन्तरराष्ट्रीय रेत तस्करों से है। दुनिया में रेत खनन और इसकी तस्करी के मुद्दे पर काम कर रहे विशेषज्ञों का आकलन है कि रेत माफिया के अंडरग्राउंड गैंगवार कभी भी बड़े युद्ध में तब्दील हो जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा।

 

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