ऐतिहासिक गढ़ीसर तालाब को बड़े हादसे से भले ही बचा लिया गया लेकिन इसे एक बदनामी के सबब से कोई नहीं बचा सका, क्योंकि यह आज भी एक ‘बदनाम झील’ के नाम से जानी जाती है। गढ़ीसर तालाब दिखने में अत्यंत ही कलात्मक है क्योंकि इस तालाब पर स्थापत्य कला के दर्शन होते हैं। तालाब के पत्थरों पर की गई नक्काशी, बेल-बूटों के अलावा उन्नत कारीगरी, बारीक जालीदार झरोखे व तक्षण कला के नमूने हैं।
देश के सबसे अंतिम छोर पर बसी ऐतिहासिक स्वर्ण नगरी ‘जैसलमेर’ सारे विश्व में अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। रेत के समंदर में बसे जैसल में तब दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान तक न था। राजा और प्रजा बेसब्री से वर्षाकाल का इंतज़ार करते थे। वर्षा के पानी को एकत्र करने के लिए वि.सं. 1391 में जैसलमेर के महारावल राजा जैसल ने किले के निर्माण के दौरान एक विशाल झील का निर्माण करवाया, जिसे बाद में महारावल गढ़सी ने अपने शासनकाल में पूरा करवाकर इसमें पानी की व्यवस्था की। जिस समय महारावल गढ़सी ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था उन्हीं दिनों एक दिन धोखे से कुछ राजपूतों ने ही उनकी हत्या झील के किनारे ही कर दी थी। तब तक यह विशाल तालाब ‘गढ़सीर’ के नाम से विख्यात था जो बाद में ‘गढ़ीसर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
जैसलमेर शहर के दक्षिण पूर्व में स्थित यह विशाल तालाब अत्यंत ही कलात्मक व पीले पत्थरों से निर्मित है। लबालब भरे तालाब के मध्य पीले पत्थरों से बनी राव जैसल की छतरी पानी में तैरती-सी प्रतीत होती है। गढ़ीसर तालाब 120 वर्ग मील क्षेत्रफल की परिधि में बना हुआ है जिसमें वर्षा के दिनों में चारों तरफ से पानी की आवक होती है। रजवाड़ों के शासनकाल में इसके मीठे पानी का उपयोग आम प्रजा व राजपरिवार किया करते थे। यहां के जल को स्त्रियां बड़े सवेरे सज-धज कर समूहों में लोकगीत गाती हुई अपने सिरों पर देगड़े व चरियां भर कर दुर्ग व तलहटी तक लाती थीं।
एक बार वर्षाकाल में मूसलाधार बारिश होने से गढ़सी तालाब लबालब भर गया और चारों तरफ रेगिस्तान में हरियाली छा गई। इससे राजा व प्रजा इतने रोमांचित हो उठे कि कई दिन तक जैसलमेर में उत्सव-सा माहौल रहा, लेकिन इसी बीच एक दु:खद घटना यह घटी कि अचानक तालाब के एक ओर की पाल ढह गई व पूरे शहर में पानी भर जाने के खतरे से राजा व प्रजा में भय व्याप्त हो गया। सारी उमंग खुशियां काफूर हो गयीं। उन दिनों जैसलमेर के शासक केसरी सिंह थे।
महारावल केसरी सिंह ने यह दु:खद घटना सुनते ही पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवाकर पूरी प्रजा को गढ़सी तालाब पर पहुंचने का हुक्म दिया व स्वयं भी हाथी पर सवार हो तालाब पर पहुंच गए। लेकिन इस बीच उन्होंने अपने नगर के समस्त व्यापारियों से अपने-अपने गोदामों से रूई के भरे बोरों को लेकर आने को कहा। रूई से भरी अनेक गाडिय़ां जब वहां पहुंचीं तो राव केसरी ने अपनी सूझ-बूझ से सबसे पहले बढ़ते पानी को रोकने के लिए हाथियों को कतारबद्ध खड़ा कर दिया और प्रजा से धड़ाधड़ रूई से भरी बोरियां डलवाकर उसके ऊपर रेत की तंगारियां डलवाते गए। देखते ही देखते कुछ ही घंटों में तालाब की पाल को फिर से बांध दिया गया तथा नगर को एक बड़े हादसे से बचा लिया गया। ऐतिहासिक गढ़ीसर तालाब को बड़े हादसे से भले ही बचा लिया गया लेकिन इसे एक बदनामी के सबब से कोई नहीं बचा सका, क्योंकि यह आज भी एक ‘बदनाम झील’ के नाम से जानी जाती है। गढ़ीसर तालाब दिखने में अत्यंत ही कलात्मक है क्योंकि इस तालाब पर स्थापत्य कला के दर्शन होते हैं। तालाब के पत्थरों पर की गई नक्काशी, बेल-बूटों के अलावा उन्नत कारीगरी, बारीक जालीदार झरोखे व तक्षण कला के नमूने हैं।
गढ़ीसर तालाब को और भी भव्यता प्रदान करने के लिए इसके ‘प्रवेश द्वार’ को यहीं की एक रूपगर्विता टीलों नामक वेश्या ने बनवाया था जिससे यह ‘वेश्या का द्वार’ के नाम से पुकारा जाता है। यह द्वार टीलों ने संवत 1909 में निर्मित करवाया था। लावण्य व सौंदर्य की मलिका टीलों वेश्या के पास बेशुमार दौलत थी जिसका उपयोग उसने अपने जीवनकाल में सामाजिक व धार्मिक कार्यों में किया। टीलों की सामाजिक व धार्मिक सहिष्णुता से बड़े-बड़े व्यापारी, सोनार व धनाढ्य वर्ग के लोग भी प्रभावित थे।
वेश्या टीलों द्वारा बनाये जा रहे द्वार को देखकर जब स्थानीय लोगों में यह कानाफूसी होने लगी कि महारावल के होते हुए भला एक वेश्या तालाब का मुख्य द्वार क्यों बनवाये। बड़ी संख्या में नगर के बाशिंदे अपनी फरियाद लेकर उस समय की सत्ता पर काबिज महारावल सैलन सिंह के पास गये। वहां पहुंच कर उन्होंने महारावल के समक्ष रोष प्रकट करते हुए कहा कि महारावल, टीलों गढ़ीसर तालाब का द्वार बनवा रही है और वह पेशे से वेश्या है। आम जनता को उस बदनाम औरत के बनवाये द्वार से गुजर कर ही पानी भरना पड़ेगा, इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या होगी? कहा जाता है कि महारावल सैलन सिंह ने प्रजा की बात को गंभीरता से सुनने के बाद अपने मंत्रियों से सलाह-मशविरा कर तुरंत प्रभाव से ‘द्वार’ को गिराने के आदेश जारी कर दिये।
लेकिन उस समय तक ‘मुख्य द्वार’ का निर्माण कार्य अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका था। जैसे ही टीलों को महारावल सैलन सिंह के आदेश की भनक लगी तो उसने भी अपनी सूझबूझ व बड़ी चालाकी से अपने समर्थकों की सहायता से ‘मुख्य द्वार’ के ऊपर भगवान विष्णु का मंदिर हाथों-हाथ बनवा दिया। मंदिर चूंकि हिन्दुओं की भावना व श्रद्धा का प्रतीक साबित हो गया, अत: किसी ने भी मुख्य द्वार को तोडऩे की हिम्मत न जुटायी। अंतत: वेश्या टीलों द्वारा बनाया गया भव्य कलात्मक द्वार बच गया, लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए ऐतिहासिक स्वर्ण नगरी जैसलमेर में गढ़ीसर तालाब के मुख्यद्वार के साथ वेश्या ‘टीलों’ का नाम भी जुड़ गया। गढ़ीसर तालाब का मुख्य द्वार गढ़ाईदार पीले पत्थरों से निर्मित है लेकिन इसके ऊपर की गई बारीक कारीगरी जहां कला का बेजोड़ नमूना है वहीं कलात्मक अलंकरण व पत्थरों पर की गई खुदाई विशेष रूप से चित्ताकर्षक है। जैसलमेर आने वाले हज़ारों देशी-विदेशी सैलानी ऐतिहासिक नगरी व रेत के समंदर में पानी से भरी सागर सदृश्य झील को देखकर रोमांचित हो उठते हैं।
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