‘‘रेगिस्तान में मुख्यतः दो प्रकार की वनस्पतियां मिलती हैं; अस्थायी (एफीमेरलस) जो शुष्क स्थिति में बीज के रूप में जीवित रहते हैं तथा चिरस्थायी (पैरीनियलस) जो जल के अभाव में भी हरे-भरे रहते हैं।’’ - अर्थ, जेम्स एफ. लुहर, डोर्लिंग किंडरस्ले लि., 2003
रेगिस्तान वनस्पतियों के लिए रुचिकर प्राकृतिक वास नहीं होते हैं यहां का तेज प्रकाश तथा उच्च तापमान पौधों के पनपने के लिए उत्साहवर्धक नहीं होता है। सूर्य की प्रखर किरणें पौधों में उपस्थित रंगीन पदार्थों (पिगमेंट) को नष्ट करती हैं जबकि उच्च तापमान पौधों में होने वाली रासायनिक क्रियाओं को प्रभावित करता है, इसके अलावा जल की कमी तो सबसे अधिक कष्टकारक होती है। वाष्पीकरण अत्यधिक होने के कारण रेगिस्तान में पाए जाने वाले पेड़-पौधों के लिए जल का भंडारण तथा उसका उपयोग करना विशेष समस्या होती है।रेगिस्तान में प्राकृतिक वास करने वाले पौधों को जीरोफाइट्स यानी शुष्क भूमि के पौधे कहते हैं। रेगिस्तानी वनस्पतियों का वर्गीकरण तीन मुख्य अनुकूलन प्रवृत्ति के आधार पर गूदेदार, सूखा सहनशील और सूखे से बचाव के आधार पर किया गया है। इनमें से प्रत्येक भिन्न अनुकूलन के लिए प्रभावी हैं। कुछ परिस्थितियों में अन्य वनस्पतियां नष्ट हो जाती हैं लेकिन इन गुणों को अपनाकर रेगिस्तानी वनस्पतियां अच्छे से पनपती हैं।
रेगिस्तानी वनस्पतियों को कठिन परिस्थितियों में भी जीवन यापन के आधार पर तीन वर्गों इवेर्डस, ऐवार्डस तथा सहनशील वनस्पतियों में बांटा गया है।
इवेर्डस
इवेर्डस सूखे के दौरान बीज की अवस्था मे जीवित रहते हैं और वर्षा होने के साथ अंकुरित होते हैं फिर पौधे का रूप धारण कर जल्द ही वृद्धि कर बीज बनते हैं और शीध ही उनके पौधे रूपी जीवन का अंत भी हो जाता है। पौधे के मृत हो जाने पर इसके बीज वर्षा होने पर फिर से अंकुरित होने को तैयार रहते हैं। इनको अल्पकालिक (इफेम्रलस) भी कहते हैं। कभी-कभी ये कुछ ही दिन जीवित रहते है। इनके बीज या कंद मिट्टी में वर्षों तक सुषुप्त अवस्था में रहते हैं और तब कभी बारिश होती है तब वे अंकुरित होकर वृद्धि करते हैं।
ऐवार्डस
ऐवार्डस जल की हानि रोकने के लिए एक विशेष आवरण की रचना कर लेते हैं। सहनशील पौधे (पैरिनियल अथवा स्थायी पौधे) रेगिस्तान में जीवित रह सकने में समर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए गूदेदार पौधे और नागफनी वनस्पतियां अपनी विशिष्ट कोशिकाओं जिन्हें रसधानी भी कहा जाता है, में पानी को भंडारित कर सकते हैं। कुछ रेगिस्तानी वनस्पतियां बहुत ही कम जल उपलब्धकता में भी जीवित रह सकती हैं। इन वनस्पतियों की कोशिकाओं में न के बराबर क्षति होती है जिससे पानी की आपूर्ति होने पर ये पुनः फलने-फूलने लगती हैं।
सहनशीलता
सूखा प्रतिरोधी गुण वनस्पतियों के अकाल में भी बिना सूखे जीवित रहने की क्षमता को प्रदर्शित करता है। इस वर्ग की वनस्पतियां सूखे में अपनी पत्तियां गिरा कर लंबे समय के लिए प्रसुप्त अवस्था में चली जाती हैं। पौधों में जल की अधिकतर हानि पत्तियों की सतह से होने वाले प्रस्वेदन या वाष्पोत्सर्जन से होती है। इसलिए पत्तियों के झड़ जाने से तनों में जल संग्रहित हो जाता है। कुछ ऐसे पौधे जिनकी पत्तियों में रेजिनी आवरण होने से जलहानि नहीं होती, उनमें पत्तियां नहीं झड़ती हैं। रेगिस्तानी पौधों में आर्द्र स्थलों में पाए जाने वाले पौधों की तुलना में अधिक गहराई से पानी सोखने के लिए जड़ें अधिक फैली हुई होती हैं।
रेगिस्तान के अधिकतर पौधे सूखे और लवणता के प्रति सहनशील होते हैं। लाइकेन (शैवाल और फफूंद के मिले-जुले गुणों वाला) जैसे पौधों को पुनःप्रकरित (रिसुरेक्शन) पौधे कहते हैं। ये पौधे पानी की अनुपलब्धता में सूखे और मृत से प्रतीत होते हैं लेकिन पानी मिलते ही पुनः जीवन्त हो उठते हैं।
कीनोपोडिसी परिवार के पौधे उच्च लवणता में भी जीवित रह सकते हैं। ऐसे पौधों को लवणमृदोद्भिद (हेलोफायटस) कहते हैं। कीनोपोडिएसी परिवार की ऐट्रिप्लेक्स प्रजाति, जिन्हें लवणझाड़ी (साल्ट बु्रश) कहते हैं, में भी लवणीय मृदा में पनपने की अद्भुत गुण होता है।
अनुकूलन
नागफनी (केक्टस) रेगिस्तान की पर्याय वनस्पति बन गई है। लेकिन इसके अलावा यहां अन्य प्रकार के पौधे भी हैं जिन्होंने शुष्क वातावरण में पनपने में सिद्धता हासिल की है। गैरनागफनी परिवार के अन्य पौधों में मटर और सूरजमुखी परिवार आते हैं। ठंडे रेगिस्तान में घास और झाडि़यों की अधिकता होती है। रेगिस्तानी पौधे एक-दूसरे से संबंधित जीवन के लिए निम्नांकित दो मुख्य आवश्यक अनुकूलन दर्शाते हैं:
• जल संग्रह और भंडारण की योग्यता
• जल हानि को कम करने का गुण
रेगिस्तान के पौधों को विषम परिस्थतियों में अपने को अनुकूल बनाना होता है। इस अनुकूलन की क्रिया में पेड़-पौधों को लाखों वर्षों का समय लगा है। पेड़-पौधों को रेगिस्तान में जीवित रहने हेतु अपने को अनुकूल बनाने की प्रक्रिया तीन प्रकार की होती हैः मारफोलॉजिक्ल यानि आकृति मूलक, एनाटॉमिकल यानि संरचनात्मक तथा फिजियोलॉजिकल यानि जीवित अवस्था में पौधों की कार्य प्रणाली से संबंधित।
कुछ जड़े धरती की गहराई से जल शोषित करने हेतु, अपने तने से 3 से 6 गुनी लंबी हो जाती हैं। कुछ अन्य पौधों ने हल्की से हल्की वर्षा से जल संचय करने के लिए रेन रुट यानि वर्षा-जड़ों की रचना की है। ये वर्षा-जड़ें जाल की भांति धरती की सतह से थोड़ा ही नीचे पौधों के भागों पर जड़ी हुई सी रहती हैं। कुछ रेगिस्तानी पौधे अपनी पत्तियों का आकार नियंत्रित कर उनसे होने वाली जल हानि को कम कर सकते हैं। कुछ पौधों में पत्तियों का आकार बहुत छोटा होने के कारण, पत्तियां प्रकाश संश्लेषण क्रिया में अपना योगदान नहीं दे पातीं है। कुछ विशेष प्रजातियां जैसे कि यूफोरलिया कैडूसीफोलिया (थार रेगिस्तान), फोयूक्यूरिया स्पलेन्डेन्स और ओपुन्टीया स्पलेन्डेन्स (सोनाराम रेगिस्तान) के पौधों के तने के भाग में ही प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है, जिससे कि पौधों को आहार प्राप्त होता है।
गूदेदार पौधे जल को अपनी पत्तियों, शाखाओं और तने में भंडारित करते हैं। यह कहा जा सकता है कि गूदेदार पौधे अपनी शाखाओं और तने का उपयोग जल के भंडारगृह के रूप में करते हैं। इन पौधों के गूदेदार हिस्से सामान्यतया भूमि के ऊपर स्थित होते हैं। गूदेदार पौधों को पानी को भंडारित करने वाले पौधे के स्थान के अनुसार गूदेदार पत्ती, गूदेदार तना तथा गूदेदार जड़ों में वगीकृत किया जाता है। गूदेदार पौधे वर्षा होने पर पानी की विशाल मात्रा को लंबे समय के लिए अवशोषित कर लेते हैं। सोनारन रेगिस्तान में पाया जाने वाला सैगुआरो नागफनी का पौधा एक या दो बार की भारी बारिश की बौछारों से करीब एक टन पानी को अपने में भंडारित कर लेता है। 15 मीटर ऊंचा और 9 से 10 टन वजनी सैगुआरो नागफनी अपने विशाल आकार के कारण ही पानी की इतनी अधिक मात्रा को अपने में भंडारित कर पाने में सफल होता है।
पत्तियों में अनुकूलन
रेगिस्तानी पौधे पत्तियों या तनों पर पतले, मोमी उपत्वचा और रेजिन सतह वाले होते हैं। इन पौधों की कांटेदार प्रवृत्ति इनको तेज गर्मी में भी खड़ा रखती है। बहुत अधिक संख्या में कांटेदार सतह वाष्पोत्सर्जन को कम करने में सहायक होती है। रेगिस्तानी पौधे के कांटे और बाल जैसे रेशे उन्हें छाया प्रदान कर सूर्य की गर्मी से बचाते हैं। इन पौधों की चिकनी और चमकीली पत्तियां अधिक विकरित ऊर्जा को परावर्तित कर पौधों को ठंडा रखती हैं। पत्तियों पर बाल जैसे रेशे हवा की हलचल और सूर्य की गर्मी से होने वाले वाष्पोत्सर्जन में कमी क्रते हैं। चमकीली पत्तियां अधिक ऊर्जा को विकरित कर पौधे को ठंडा रखने में सहायक होती है। पत्तियों पर उपस्थित रेशे सूर्य की गर्मी और हवा की हलचल से होने वाले वाष्पोसर्जन में कमी कर नमी की हानि को कम करते हैं। इसमें कोई संशय नहीं कि रेगिस्तानी पौधों की कांटेदार प्रकृति उन्हें शाकाहारियों से भी बचाती है।
स्टोमेटा यानि रंध्रों और पत्तियों पर पाए जाने वाले छोटे-छोटे छिद्रों से होने वाली पानी की कमी वाष्पोत्सर्जन कहलाती हैं आर्द्र स्थानों की तुलना में रेगिस्तानी पौधों की पत्तियों में रंध्रों का घनत्व कम ही होता है।
अधिकतर रेगिस्तानी पौधे छोटी और मुड़ी हुई पत्तियों वाले होते हैं जिससे सतही क्षेत्रफल कम होने से वाष्पोत्सर्जन द्वारा होने वाली जल की हानि कम हो। अन्य पौधे सूखे के समय अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। अधिकतर रेगिस्तानी पौधों में या तो पत्तियां होती ही नहीं हैं या बहुत ही कम संख्या में होती हैं। पौधों की छोटी या कम पत्तियों से वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल हानि कम होती है क्योंकि सूर्य से आती गर्मी और हवा के लिए खुला सतही क्षेत्र कम ही उपलब्ध हो पाता है। फिर भी इस प्रक्रिया में रंध्रों की संख्या कम होती है। यह रेगिस्तानी पौधों में शारीरिक अनुकूलन का उदाहरण है।
प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में पौधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड और जल की उपस्थिति में अपना भोजन (ग्लुकोज के रूप् में) बनाते हैं। स्टोमेटा पौधों में कार्बन डाइऑक्साइड को प्रवेश करने और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में सह उत्पाद के रूप में मुक्त होने वाली ऑक्सीजन को बाहर निकलने देते हैं।
गूदेदार पौधे जल संरक्षण की समस्या को हल करने के लिए अपने रंध्र केवल रात में ही खोलते हैं। रात में तापमान कम होने से वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल की हानि कम होती है। यह दो आवश्यकताओं के संतुलन की समस्या को हल करते हैं। एक जब दिन के गर्म समय में रंध्र बंद रहते हैं तब और दूसरा ये रंध्र जल संरक्षण की आवश्यकता के लिए रात में खुलते हैं तब, यह कार्बन डाइऑक्साइड के संतुलन के संकट को दूर करते हैं। रात में यह कार्बन डाइऑक्साइड को रंध्रों से अवशोषित तो कर लेते हैं लेकिन सूर्य प्रकाश की अनुपस्थिति में इनमें प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया नहीं होती है। इस समस्या के निदान के लिए रेगिस्तानी पौधे रात में अवशोषित की गई कार्बन डाइऑक्साइड को भंडारित कर दिन में प्रकाश संश्लेषण के लिए उसका उपयोग करते हैं।
प्रकाश संश्लेषण के लिए रात में अवशोषित कार्बन डाइऑक्साइड को भंडारित कर दिन में उपयोग करने की घटना सर्वप्रथम गूदेदार परिवार के क्रस्यूलेसी, जिसे क्रस्यूलेसीन अम्ल उपापचयी अथवा केम (CAM) प्रकाश संश्लेषण भी कहते हैं, में देखी गई थी।
इसके अलावा रेगिस्तानी वनस्पतियों में वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल की कम हानि की एक अन्य विधि भी है जो कार्बन डाइऑक्साइड के कुशल अवशोषण की तकनीक पर आधारित है। अधिकतर रेगिस्तानी घासें रात में कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बनिक अम्ल के रूप में भंडारित क्रती हैं। लेकिन क्रस्यूलेसियन परिवार के पौधों के समान यह प्रक्रिया यहीं नहीं रुकती है। रेगिस्तानी घासें अपनी पत्तियों के अंदरूनी हिस्सों में स्थित विशिष्ट कोशिकाओं में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर लेती है; जो आवश्यकतानुसार उपयोग की जाती है।
कभी-कभी पत्तियां नाममात्रा के जल स्रोत से अद्भुत अनुकूलन का गुण प्रदर्शित करती हैं। नामीब रेगिस्तान का वीलविस्टकशीया पौधा दो स्थायी पत्तियों को रखता है। ये पत्तियां पौधे के संपूर्ण जीवनकाल में वृद्धि करती हैं। ये लगातार दो से चार मीटर लंबे और तीक्ष्ण आकार में विभक्त हो जाती हैं। यह पौधा अपनी विशिष्ट संरचना और पत्तियों के कारण रेगिस्तान में रोज रातों में बनने वाली ओस की नमी से पानी को अवशोषित करता है। अटाकामा रेगिस्तान में टिलेन्सशिआ लैटीफोलिया पौधे में किसी प्रकार की जड़ नहीं होती। इसकी दृढ़, कंटीली पत्तियां तारकीय आकृति में गेंद समान संरचना वाली होती है। जो पत्तियों द्वारा पानी और पोषक तत्वों का अवशोषण करती हैं। तने रहित, गूदेदार और बारहमासी पौधे को जीवित पत्थर (लिथोपोस या पत्थर वनस्पतियां) कहते हैं। इनकी पत्तियां अद्भुत अनुकूलन दर्शाती हैं। ये वनस्पतियां नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका के अर्ध रेगिस्तानी क्षेत्रों में मिलती हैं। यह मिट्टी म दबे होते हैं और केवल इनकी ऊपरी सतह दिखती है। इस प्रकार मिट्टी इन पौधों में सूर्य की गर्मी से बचने के लिए ढाल का काम करती है। प्रत्येक पौधें में पतली पत्तियां जोड़ों में होती हैं। इन पौधों की पत्तियां मोटी व रसीली होती हैं। जल भंडारण इकाई में परिवर्तित होकर इन्हें रेगिस्तान की शुष्क परिस्थिति में जीवन यापन के लिए अनुकूल बनाती हैं।
जड़ अनुकूलन
रेगिस्तानी काष्ठीय वनस्पतियां गहरे जल स्रोतों तक पहुंचने के लिए लंबी जड़ व्यवस्था या यदा-कदा होने वाली वर्षा या ओस से नमी ग्रहण करने के लिए उथली जड़ों को रखती हैं। खरबूजा और रक्वाश जैसे रेगिस्तानी पौधों में लंबी गहरी जड़ें जल स्तर तक पहुंचती है। कुछ नागफनी प्रजाति के पौधों में रेशों की भांति जड़ें सतह से कुछ से. मी. नीचे तक फैली रहती हैं जिससे यह ओस और यदा-कदा होने वाली वर्षा से पानी एकत्रित करती हैं। क्रिओसोट में दोहरी जड़ व्यवस्था गहरी और मूलक (रेडियल) होती है, जिससे यह सतही और भू-जल से जल की आपूर्ति करता है।
बालू टिब्बों के पास वाली रेगिस्तानी वनस्पतियों को टिब्बों की हलचल की समस्या का सामना करना पड़ता है। गतिशील बालू टिब्बों से वनस्पतियों की जड़ें उखड़ सकती हैं। इसके बाद रेगिस्तानी पौधों को टिब्बा क्षेत्रों में अनुकूलन की आवश्यकता होती है। इसलिए इन क्षेत्रों में पाए जाने वाली घासों और झाडियों में जडे़ं लंबी होती हैं। किसी क्षेत्र के टिब्बें में अधिक वनस्पतियों के गहरी जड़े जमा लेने से वह टिब्बा स्थिर हो जाता है। बहुत वर्षों से रेगिस्तान कठोर और सुषुप्त रहे हैं। लेकिन थोड़ी सी वर्षा से वहां जीवन खिल उठता है। वर्षा के बाद यहां जंगली फूलों से सारा क्षेत्र रंग-बिरंगा हो जाता है। रेगिस्तानी पौधे विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए अनुकूलन दर्शाते हैं और इनकी सहायता से जल को संरक्षित करते हैं। रेगिस्तानी पौधों का विभिन्न जैविक प्रक्रियाओं जैसे प्रतिमलेरिया, प्रतिजीवाणु, एंटी-वाइरल एवं कैंसर कोशिकाओं के विरुद्ध विषाक्तता की जांच के लिए प्रयोग चल रहे हैं। इसके अलावा प्रायोगिक परिस्थतियों के अंतर्गत इन वनस्पतियों की प्रदूषित मिट्टी और जल से बचाव की अदभुत क्षमता का पता लगाया जा रहा है। रेगिस्तानी वनस्पतियों में कुछ विशेष गुणों के कारण उच्च तापमान वाले अतिलवणीय स्थानों पर भी पनपने की क्षमता होती है।
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