रावतभाटा परमाणु संयंत्र: सुरक्षा के प्रति लापरवाही

रावतभाटा परमाणु संयंत्र देश का दूसरा परमाणु विद्युत संयंत्र है। इसके चार दशक से अधिक के इतिहास ने हमारे सामने कई मूलभूत प्रश्न खड़े किए हैं। इनमें व्यक्तिगत स्वास्थ्य से लेकर संयंत्र की असफलता की स्थिति में होने वाला महाविनाश भी शामिल है। उम्मीद थी कि फुकुशिमा विध्वंस के पश्चात सरकारी ढर्रा बदलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

भारत में मुंबई के पास तारापुर में पहला परमाणु बिजली संयंत्र लगा था। दूसरा राजस्थान के कोटा जिले में रावतभाटा में लगा। इसकी छः इकाई अब तक पूरी हो चुकी हैं और 700 मेगावाट की सातवीं और आठवीं इकाइयों का निर्माण चल रहा है। ताप बिजली संयंत्र की तरह परमाणु बिजली संयंत्र में भी बड़ी मात्रा में पानी की जरुरत होती है। पानी को गर्म करके उसकी भाप की ताकत से ही टरबाइन घुमाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त परमाणु विखंडन से निकली जबरदस्त गर्मी को नियंत्रित करने एवं संयंत्र को ठंडा रखने के लिए भी काफी मात्रा में पानी की जरुरत होती है। इसीलिए इन संयंत्रों को समुद्र, बड़ी नदी या जलाशय के किनारे ही लगाया जाता है। रावतभाटा में संयंत्रों को चंबल नदी पर निर्मित राणाप्रताप सागर बांध से बने जलाशय के किनारे स्थापित किया गया है।

इसकी दो इकाइयां करीब चार दशक पुरानी हो चुकी हैं। जिनके अनुभव से परमाणु-बिजली कार्यक्रम की समीक्षा में मदद मिल सकती है। परमाणु-बिजली इकाईयों से लगातार कम मात्रा में वातावरण में रेडियोधर्मिता निकलती है, जिसे अधिकारियों द्वारा सुरक्षित मात्रा कहा जाता है। किन्तु इस मात्रा का भी इंसानों व पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर हो सकता है। हालांकि इस असर को दिखाई देने में भी कई साल लग सकते हैं। इसलिए भारत में इनका असर तारापुर और रावतभाटा में ही दिखाई दे सकता है।

करीब 21 वर्ष पहले रावतभाटा के पूर्व सरपंच रतनलाल गुप्ता की अध्यक्षता में ‘परमाणु प्रदूषण संघर्ष समिति’ का गठन हुआ था, जिसने इस विषय पर स्थानीय लोगों का एक सम्मेलन बुलाया था। इसी समय गुजरात के सूरत जिले में स्थित संपूर्ण क्रांति विद्यालय एवं अणुमुक्ति समूह की ओर से काकरापार से रावतभाटा तक एक साइकिल-यात्रा का भी आयोजन किया गया। (गुजरात में काकरापार में उस समय परमाणु-बिजली कारखाना बन रहा था)। इस साइकिल-यात्रा का नेतृत्व वयोवृद्ध सर्वोदयी नारायण देसाई, संघमित्रा देसाई व सुरेंद्र गाडेकर ने किया था। तत्पश्चात अणुमुक्ति समूह ने रावतभाटा के पास के गांवों के निवासियों के स्वास्थ्य का सर्वेक्षण किया, तो उसमें चौंकाने वाली जानकारी सामने आई। इस सर्वेक्षण से पता चला कि वहां पर शरीर में गांठें (ट्यूमर, जो केन्सर वाली भी हो सकती हैं), जन्मजात विकलांगता, गर्भपात, प्रसव मौतें, जन्म के तुरंत बाद शिशु मृत्यु, बांझपन आदि की मात्रा सामान्य से काफी ज्यादा है। इस रिपोर्ट से जाहिर हुआ कि किसी परमाणु बिजली कारखाने में कोई दुर्घटना न होने पर भी धीमी रेडियोधर्मिता से स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। किन्तु परमाणु प्रतिष्ठान, केन्द्र सरकार तथा राजस्थान सरकार ने इस सर्वेक्षण के नतीजों पर आगे जांच व अध्ययन करने के बजाय इसे सिरे से नकार दिया। इस बीच समिति के अध्यक्ष रतनलाल गुप्ता स्वयं आहार-नली के कैन्सर से पीडि़त हो गए और 2008 में उनका निधन हो गया।

जापान में फुकुशिमा के परमाणु-बिजली कारखाने की दुर्घटना ने नए सिरे से आशंकाएं पैदा की। रावतभाटा में भी हलचल शुरु हुई और परमाणु प्रदूषण संघर्ष समिति फिर से हरकत में आई। दिवंगत अध्यक्ष के भतीजे ओमप्रकाश गुप्ता ने कमान सम्हाली। रावतभाटा में परमाणु बिजली के खतरों को लेकर एक सभा व संगोष्ठी हुई। इस संगोष्ठी में गुजरात से आए वैज्ञानिक डॉ० सुरेन्द्र गाडेकर, मध्यप्रदेश से समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुनील, चित्तौड़गढ़ से आए प्रयास संस्था के डॉ० नरेन्द्र गुप्ता तथा खेमराज, आदि ने परमाणु-बिजली कार्यक्रम के खतरों, विसंगतियों तथा दुनिया भर के अनुभवों पर विस्तार से अपनी बात रखी। कई ग्रामवासियों ने अपनी बात रखी। ‘राजस्थान अणु बिजली परियोजना’ की ओर से पांच-छः अधिकारी भी शामिल हुए। उनके सामने समिति की ओर से कई सवाल रखे गए, जिसका जवाब देने का प्रयास उन्होंने किया और अपना पक्ष रखा।

संगोष्ठी में परियोजना अधिकारियों ने स्वीकारा कि परमाणु-बिजली संयंत्र के आसपास रहने वाली आबादी के स्वास्थ्य की नियमित जांच व निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है। सिर्फ संयंत्र में काम करने वाले कर्मचारियों के स्वास्थ्य की ही नियमित जांच की जाती है। इसका कारण उन्होंने बताया कि चूंकि कर्मचारियों पर ही रेडियोधर्मिता का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पाया गया, इसलिए बाहर की आबादी पर कोई प्रभाव होने का सवाल ही नहीं उठता। किन्तु इस बारे में दो तथ्यों को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। (क) ग्रामीणों और कर्मचारियों के जीवनस्तर में काफी फर्क है। ग्रामीणों में कुपोषण, गरीबी और चिकित्सा सुविधाओं की कमी है। इसलिए रेडियोधर्मिता का ज्यादा असर उन पर हो सकता है। (ख) बीस साल पहले अणुमुक्ति के सर्वेक्षण में ग्रामीणों के ऊपर ऐसी बीमारियों का प्रकोप ज्यादा पाया गया था, जिनका सीधा संबंध रेडियोधर्मिता से हो सकता है। डॉ० नरेन्द्र गुप्ता ने जोर देकर कहा कि यह परमाणु प्रतिष्ठान की घोर लापरवाही तथा गैर जिम्मेदारी है और वह कम से कम अब तो 20 कि.मी. क्षेत्र की आबादी के स्वास्थ्य की नियमित निगरानी, जांच व इलाज का काम शुरु करे।

परियोजना अधिकारियों ने जोर देकर कहा कि फुकुशिमा या चेर्नोबिल जैसी दुर्घटना की रावतभाटा में कोई संभावना नहीं है। रावतभाटा के संयंत्रों का डिजाईन फुकुशिमा और चेर्नोबिल दोनों से अलग है। यह भूकम्प वाला क्षेत्र नहीं है तथा समुद्र नहीं होने से यहां सुनामी का भी खतरा नहीं है। किन्तु उनकी इस बात पर किसी को भरोसा नहीं हुआ।

लेखक ने एक और बड़े खतरे की ओर इशारा किया। रावतभाटा के परमाणु-बिजली संयंत्र चंबल नदी पर बने राणाप्रताप सागर जलाशय के किनारे बने हैं। इनके ऊपर मात्र 30 किलोमीटर की दूरी पर गांधीसागर बांध है, जिसका विशाल जलाशय देश के सबसे बड़े मानव-निर्मित जलाशयों में से एक है। चंबल नदी घाटी योजना का मुख्य जलसंचय (85 प्रतिशत) वहीं होता है। कभी यह बांध टूटता है, तो प्रलय आ जाएगी और यहां भी फुकुशिमा हो जाएगा। यह खतरा काल्पनिक नहीं है। अर्थशास्त्री डॉ. रामप्रताप गुप्ता पिछले कई सालों से इसके बारे में लिख व चेता रहे हैं कि जितनी अधिकतम पूर या बाढ़ (7.5 लाख क्यूसेक यानी घनफुट प्रति सेकेन्ड) के लिए गांधीसागर बांध डिजाइन किया गया है, कम से कम दस बार ऐसे मौके आए हैं जब बांध में इससे ज्यादा पानी आ गया था।

रावतभाटा में परमाणु बिजली संयंत्र की पहली इकाई को स्थायी रूप से बंद कर दिया गया है (तथा दूसरी इकाई भी बंद होने के कगार पर है) और वह एक विशाल रेडियोधर्मी कबाड़ के रूप में बदल गई है। इस कबाड़ का क्या होगा, इसका कोई जवाब अधिकारियों के पास नहीं था। बंद होने पर भी उनसे प्रदूषण का खतरा बना रहेगा। रावतभाटा में एक परमाणु ईंधन परिशोधन संयंत्र भी लगाया जा रहा है। इसके लिए स्थानीय आबादी से पूछने या सहमति लेने या इनको पूरी जानकारी देने की जरुरत भी नहीं समझी गई है। परमाणु-बिजली इकाईयों के अलावा एक भारी पानी संयंत्र भी रावतभाटा में है।

रावतभाटा से जो सवाल और चिन्ताएं उभरी हैं, अगर उन्हें दूर नहीं किया गया, तो देश के पूरे परमाणु कार्यक्रम पर बड़े सवालिया निशान लग जाएंगे।

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