राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 : एक अध्ययन

पर्यावरणीय संसाधनों तथा उनके प्राप्ति प्रयोग के मामलों में अस्पष्ट या अपर्याप्त रूप से प्रवर्तित किए गए अधिकारों के संबंध में संस्थागत विफलता के परिणामस्वरूप पर्यावरणीय अवक्रमण होता हैं, क्योंकि तीसरे पक्षकार ही मुख्त रूप से इस तरह के अवक्रमण का अनुभव करते हैं और इस क्षति के लिए उतरदायी व्यक्तियों को कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। सामुदायिक तथा वैयक्तिक, दोनों स्तरों के इस तरह के अधिकार महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं, जो मानव तथा पर्यावरण के प्रयोग के संबंध में मध्यस्थता का कार्य करते हैं। हमारे जैसे बहुविध व प्रगतिशील समाज में आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा पर्यावरणीय क्षेत्रों से संबंधित अनेक चुनौतियां होती हैं। विकास से वंचित रहे लोगों की आजीविका की सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी देख-रेख, शिक्षा तथा उनके सशक्तिकरण जैसे उपायों द्वारा व्यापक स्तर पर फैली गरीबी को कम करने और लैंगिक असमानताओं को दूर करने की प्रमुख अनिवार्यता के मार्ग में ये सभी चुनौतियां वृहद् रूप में सामने आती हैं।

पर्यावरण प्रबंधन संबंधी, वर्तमान राष्ट्रीय वन नीति 1988, राष्ट्रीय संरक्षण कार्य नीति तथा पर्यावरण एवं विकास पर वक्तव्य, 1992 और प्रदूषण उपशमन संबंधी वक्तव्य, 1992 में निहित हैं। कुछ सेक्टर नीतियों जैसे-राष्ट्रीय कृषि नीति, 2000, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 और राष्ट्रीय जल नीति 2002 ने भी पर्यावरण प्रबंधन के क्षेत्र में अपना योगदान दिया है। इन सभी नीतियों के अंतर्गत संबंधित सेक्टरों के विशिष्ट संदर्भों में अविच्छिन्न विकास की आवश्यकता को मान्यता दी गई है तथा इस तरह के विकास कार्यों के संबंध में कार्य नीतियों को अंगीकार किया गया है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति का उद्देश्य मौजूदा जानकारी तथा संचित अनुभवों के आधार पर इसके कार्यक्षेत्र में वृद्धि करना तथा अभी जो कमियां हैं, उन्हें दूर करना है। यह नीति पूर्व की नीतियों को हटाने की बजाय उन्हें और पुख्ता करती हैं।

देश के समूचे राजनीतिक परिदृश्य में प्राकृतिक संसाधनों द्वारा अनेक पारिस्थितिकीय सेवाएं प्रदान करने के साथ-साथ आजीविका उपलब्ध कराने में निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को भी पहचान मिली है। विभिन्न सेक्टोरेल और क्रॉस पर्यावरणीय प्रबंधन के संबंध में साझे दृष्टिकोण के लिए एक व्यापक नीतिगत वक्तव्य तैयार करने की आवश्यकता कुछ समय से महसूस की जा रही है। जैसा कि हमारे सामने विकास संबंधी नई चुनौतियां आई हैं तथा विकास प्रक्रिया में पर्यावरणीय सरोकारों की केंद्रीय भूमिका के बारे में हमारी समझ बढ़ी है, इसलिए पूर्व के उद्देश्यों, नीतिगत तथा कार्य-नीतियों की पुनरीक्षा किए जाने की आवश्यकता है।

इस गत्यात्मकता के लिए एक विकासशील तथा लचीले नीतिगत ढांचे की आवश्यकता है, जिसमें मॉनीटरिंग व पुनरीक्षा के साथ-साथ जहां कहीं आवश्यक हो, इसमें संशोधन करने के लिए एक अंतर्निहित प्रणाली हो। मानव कल्याण की वृद्धि के संदर्भ में अविच्छिन्न विकास संबंधी सरोकारों की मोटेतौर पर जिन अर्थों में संकल्पना की गई है, उन्हें भारतीय विकास दर्शन के एक विषय के रूप में बार-बार प्रयोग किया जाता रहा है। आज के समय में तीन बुनियादी आकांक्षाओं के संबंध में आम राय है, प्रथमतया, सभी मानव उत्तमकोटि का जीवन जीने के योग्य बनें, दूसरा यह कि सभी लोग जैवमंडल की परिमितता का सम्मान करने में सक्षम बनें तथा तीसरा यह कि न तो अच्छे जीवन की अभिलाषा और न ही जैव भौतिक सीमाओं को मान्यता विश्व में बेहतर न्याय की तलाश में आड़े आए

इसके लिए देश की आर्थिक, सामाजिक तथा पर्यावरणीय आवश्यकताओं के मध्य संतुलन तथा सामंजस्य की आवश्यकता है। पर्यावरण संबंधी कई महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय पहलों में भारत भी उल्लेखनीय भूमिका अदा करता है। वह प्रमुख बहुपक्षीय समझौतों में एक पक्षकार है तथा अनेक पर्यावरणीय समस्याओं की परस्पर अंतर-संबद्धताओं और सीमापारीय विशेषता को मान्यता प्रदान करता है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति को अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में सकारात्मक योगदान देने के प्रति भारत की वचनबद्धता संबंधी एक वक्तव्य बनाए जाने की भी मंशा है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति संविधान के अनुच्छेद 47क तथा 51क (छ) में अधिदेशित तथा अनुच्छेद 21 की न्यायिक विवेचना द्वारा पुष्ट की गई स्वच्छ पर्यावरण के प्रतिक्रिया है। यह स्वीकार किया गया है कि स्वस्थ पर्यावरण बनाए रखना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक की भी जिम्मेदारी है। अत: देशभर में पर्यावरण प्रबंधन के क्षेत्र में एक सहभागिता की भावना महसूस की जानी चाहिए। हालांकि सरकार को अपने प्रयत्नों को बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक और सांस्थानिक पर्यावरणीय गुणवत्ता को बनाए रखने तथा उसमें बढ़ोतरी के प्रति अपने उतरदायित्व को स्वीकार करना चाहिए।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति उपर्युक्त विचारों/तथ्यों से अभिप्रेरित है तथा इसका उद्देश्य सभी विकासात्मक गतिविधियों में पर्यावरणीय विषयों को मुख्यधारा में शामिल करना है। इसमें देश के समझ मौजूदा तथा भविष्य में आने वाली प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियों, पर्यावरण नीति के उद्देश्यों, नितिगत कार्यवाही को रेखांकित करते हुए मानक सिद्धांतों, हस्तक्षेत संबंधी कार्यनीतिक थीमों, कार्यनीतिक थीमों को पूरा करने के लिए जरूरी वैधानिक व संस्थागत विकास के सामान्य संकेतों तथा कार्यान्वयन और समीक्षा संबंधी कार्य-तंत्रों आदि का संक्षेप में उल्लेख किया गया है। विशेषज्ञों तथा विविध स्टेक होल्डरों के साथ विस्तारपूर्वक परामर्श करके इसे तैयार किया गया है और इस प्रक्रिया का प्रलेखन भी किया गया है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति को नियामक सुधारों, पर्यावरणीय संरक्षण में संबंधित कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं और केंद्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों की एजेंसियों द्वारा कानून बनाने तथा उसकी पुनरीक्षा करने के कार्य में एक निर्देशिका के रूप में बनाए जाने की मंशा है। इस नीति की प्रमुख थीम यह है कि यद्यपि पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना सभी की आजीविका की सुरक्षा तथा बेहतरी के लिए आवश्यक है, तथापि संरक्षण के लिए सबसे सुरक्षित आधार यह सुनिश्चित करना है कि लोग उन संसाधनों के अवक्रमण की बजाए उनके संरक्षण द्वारा अपनी बेहतर आजीविका प्राप्त कर सकें। इस नीति का उद्देश्य विभिन्न स्टेक-होल्डरों अर्थात् सार्वजनिक एजेंसियों, स्थानियों, स्थानीय समुदायों, शैक्षणिक और वैज्ञानिक संस्थानों, निवेशक समुदाय, अंतरराष्ट्रीय विकास भागीदारों के मध्य पर्यावरणीय प्रबंधन के लिए उनके अपने-अपने संसाधन और क्षमताओं के नियंत्रण व उपयोग के मामले में सहभागिता विकसित करना भी है।

मुख्य पर्यावरणीय चुनौतियां : कारण एवं प्रभाव


देश के समक्ष जो प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियां हैं, वे पर्यावरणीय अवक्रमण तथा विभिन्न आयामों में मौजूद गरीबी तथा आर्थिक प्रगति के गठजोड़ से संबंधित हैं। ये चुनौतियां आंतरिक तौर पर पर्यावरणीय स्रोतों जैसे भूमि, जल, वायु तथा उनकी वनस्पतिजात और प्राणिजात की स्थिति से जुड़ी हुई हैं। पर्यावरण अवक्रमण के आसन्न कारकों में जनसंख्या वृद्धि, अनुपयुक्त प्रौद्योगिकी एवं उपभोग संबंधी विकल्प का चयन तथा गरीबी, जिससे लोगों और पारि-प्रणालियों के बीच के संबंध प्रभावित होते हैं, के साथ-साथ विकास-गतिविधियों जैसे गहन-कृषि, प्रदूषक उद्योग तथा अनियोजित शहरीकरण आदि शामिल हैं। तथापि, ये कारक केवल गंभीर कारण संबंधों के माध्यम से पर्यावरणीय अवक्रमण, विशेषकर संस्थागत विफलताओं को जन्म देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरणीय स्रोतों की प्राप्ति और उनके प्रयोग संबंधी अधिकारों के प्रवर्तन संबंधी पारदर्शिता में कमी आने के साथ-साथ पर्यावरणीय संरक्षण को हतोत्साहित करने वाली नीतियां (और जिनका उद्गम राजस्व व्यवस्था में हो सकता है), बाजार असफलता (जिसे विनियामक कार्य-क्षेत्रों में कमियों के साथ जोड़ा जा सकता है) तथा संचालन संबंधी बाधाएं पैदा हो सकती हैं।

पर्यावरणीय अवक्रमण विशेषकर निर्धन ग्रामीणों में गरीबी को बढ़ावा देने वाला एक प्रमुख कारक है। इस प्रकार का अवक्रमण मृदा की उपजाऊ शक्ति, स्वच्छ जल की मात्रा और गुणवत्ता, वायु गुणवत्ता, वनों, वन्य-जीवन तथा मत्स्य-पालन को प्रभावित करता है। प्राकृतिक संसाधानों, विशेषकर जैव विविधता पर ग्रामीण निर्धनों, मुख्यतया आदिवासी समाज की निर्भरता स्वतः सिद्ध है। विशेषरूप से महिलाओं पर प्राकृतिक संसाधनों के अवक्रमण का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि वह इन संसाधनों को एकत्र करने और इनके उपयोग के लिए तो सीधे रूप से उत्तरदायी है, लेकिन इनके प्रबंधन में उनका उत्तरदायित्व नगण्य है। ग्रामीण महिलाओं द्वारा इन संसाधनों को एकत्र करने में लगाए गए समय और श्रम के कारण उनके द्वारा अपने बच्चों के पालन-पोषण, उनकी शिक्षा-व्यवस्था, अपनी आय बढ़ाने के कौशल में वृद्धि करने अथवा लाभकारी आजीविका के अवसरों में हिस्सा लेने के लिए समय दे पाने की उनकी कार्यक्षमता पर सीधा असर पड़ता है।

पारिप्रणालियों की क्षमता के नुकसान से गरीब लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं। क्षमताओं में अधिक कमी से पारिप्रणालियां, जो आजीविका का आधार हैं, कमजोर हो सकती हैं, जिसकी वजह से परेशानी पैदा हो सकती हैं पर्यावरणीय स्रोतों के आधार पर गिरावट के परिणामस्वरूप यहां तक कि अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर दिखाई देने के बावजूद, कतिपय जन-समूह निराश्रय हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त अपशिष्ट शोधन तथा स्वच्छता में कमी, उद्योग तथा यातायातजनित प्रदूषण के कारण शहरी पर्यावरण के अवक्रमण से वायु, जल एवं मृदा की गुणवता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के साथ-साथ विभिन्न तरीकों से शहरी निर्धनों के स्वास्थ पर भी असर पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप उनकी रोजगार ढूंढने, उसे बनाए रखने तथा स्कूल जाने की क्षमता प्रभावित होती है। इन सभी कारणों से गरीबी की स्थिति बनी रहती है।

यदि संस्थागत विफलताएं निरंतर बनी रहें तो गरीबी स्वयं पर्यावरणीय अवक्रमण को बढ़ावा दे सकती है। गरीब व्यक्तियों के लिए अनेक पर्यावरणीय संसाधन, उत्पादन, तथा उपभोग के मामले में अन्य वस्तुओं (जैसे कृषि उत्पादों के मामले में जल, खाद्य पदार्थों के उपभोग के मामले में ईंधन लकड़ी) के पूरक हैं, जबकि कई पर्यावरणीय संसाधन आय अथवा खाद्य पदार्थों (जैसे-मत्स्य, गैर-काष्ठ वनोप्तपाद) के स्रोत हैं। यह अक्सर एकत्रित कारणों का एक स्रोत है, इससे बार-बार नए कारण संचित होते रहते हैं, जहां गरीबी, लिंग असमानताएं तथा पर्यावरणीय अवक्रमण परस्पर एक-दूसरे को बल प्रदान करते हैं। गरीबी तथा पर्यावरणीय अवक्रमण को जनसंख्या वृद्धि के कारण भी बल मिलता है, जो बदले में विविध कारकों की जटिल अन्योन्य-क्रिया तथा विकास अवस्थाओं पर निर्भर करती हैं। जनसंख्या वृद्धि के सामाजिक व आर्थिक संदर्भ का उल्लेख राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 में स्पष्ट रूप से किया गया है, जिसमें इस बात को स्वीकार किया गया है कि सतत् विकास के लिए जनसंख्या स्थिरीकरण एक अनिवार्य शर्त है।

इसके बदले में आर्थिक प्रगति तथा पर्यावरणीय अवक्रमण के बीच एक द्विभाजक संबंध रहता है। एक ओर यह प्रगति प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के कारण अत्यधिक पर्यावरणीय अवक्रमण को जन्म दे सकती है तथा दूसरी ओर संस्थागत असफलताओं द्वारा होने वाले प्रदूषण उत्सर्जन की स्थिति को और खराब कर सकती है। यदि पर्यावरणीय स्रोत आधार पर पड़ने वाले प्रभावों की अनदेखी की जाती है तो इससे राष्ट्रीय आय से संबंधित परंपरागत वित्तीय अनुमानों से गलत जानकारी प्राप्त होती है। दूसरी ओर आर्थिक प्रगति द्वारा पर्यावरणीय निवेशों के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराकर, उन्नत पर्यावरणीय आचरण के लिए सामाजिक दबाव बनाकर और संस्थागत व नीतिगत परिवर्तन लाकर पर्यावरणीय गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। विशेषकर औद्योगिक देशों में उपभोग संबंधी और असतत् पैटर्नों के कारण भी स्थानीय तथा भौगोलिक दोनों स्तरों पर पर्यावरण पर गंभीर दुष्परिणाम पड़ा है। भौगोलिक प्रभाव विकासशील देशों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं, जो कि गरीबी की ओर बढ़ा रहे हैं।

यह बात निरंतर स्पष्ट होती जा रही है कि पर्यावरण की खराब गुणवत्ता ने मानव-स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। ऐसा अनुमान है कि भारत में कुछ मामलों में लगभग 20 प्रतिशत बीमारियों के लिए पर्यावरणीय कारक जिम्मेदार हैं तथा अनेक पर्यावरण स्वास्थ्यकारक गरीबी के विभिन्न आयामों (अर्थात् कुपोषण, स्वच्छ ऊर्जा एवं जल की अनुपलब्धता) के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। यह दर्शाया गया है कि भीतरी वायु प्रदूषण को कम करने, सुरक्षित पेयजल के स्रोतों की सुरक्षा, मृदा को संदूषित होने से बचाना, उन्नत सफाई उपाय और बेहतर जन-स्वास्थ्य प्रणाली जैसे हस्तक्षेपों की सहायता से स्वास्थ्य संबंधी कई गंभीर समस्याओं को कम करने के प्रभावी अवसर प्राप्त हो सकते हैं। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सार्वजनिक और निजी व्यवहार से संबंधित बेहतर पद्धतियों के संबंध में व्यापक जागरुकता फैलाए व शिक्षा दिए बिना पर्यावरण सुरक्षा संबंधी इन उपायों से अपेक्षित प्राप्त कठिन होगा।

पर्यावरणीय संसाधनों तथा उनके प्राप्ति प्रयोग के मामलों में अस्पष्ट या अपर्याप्त रूप से प्रवर्तित किए गए अधिकारों के संबंध में संस्थागत विफलता के परिणामस्वरूप पर्यावरणीय अवक्रमण होता हैं, क्योंकि तीसरे पक्षकार ही मुख्त रूप से इस तरह के अवक्रमण का अनुभव करते हैं और इस क्षति के लिए उतरदायी व्यक्तियों को कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। सामुदायिक तथा वैयक्तिक, दोनों स्तरों के इस तरह के अधिकार महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं, जो मानव तथा पर्यावरण के प्रयोग के संबंध में मध्यस्थता का कार्य करते हैं।

पारंपरिक तौर पर गांवों के साझे जल के स्रोतों, चराई भूमि, स्थानीय वनों तथा मत्स्य उद्योग आदि को स्थानीय समुदायों द्वारा विभिन्न मानदंडों, जिसमें गैर-अनुमत आचरण के सिए शासतियां भी शामिल हैं, के माध्यम से शोषण के प्रति सुरक्षा प्रदान की गई है। तथापि, विकास प्रक्रिया, शहरीकरण तथा मुत्यु दर में तेजी से गिरावट के परिणामस्वरूप जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है तथापि सरकारी कार्यवाइयों के कारण व्यक्तिगत अधिकारों के सामुदायिक अधिकारों से अधिक सुदृढ़ होने के हालात बनने और ऐसा होने पर, बाजार ताकतों को इस तरह के परिवर्तनों के लिए दबाव की अनुमति मिलने, जिनसे प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव पड़ने की संभावना होने से भी इन मानकों के स्तर में गिरावट आ सकती है। यदि कमजोर मानदंडों की वजह से सामुदायिक संसाधनों तक इस प्रकार दखल जारी रहा तो इससे संसाधनों का अवक्रमण होने के साथ-साथ समुदाय की आजीविका भी प्रभावित होगी।

नीति की विफलता विभिन्न स्रोतों, जिनमें राजकोषीय साधनों का प्रयोग जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक प्रयोग को प्रोत्साहन प्रदान करने वाले विभिन्न संसाधनों के प्रयोग हेतु बाह्य तथा आंतरिक आर्थिक रियायतें आदि शामिल हैं, से हो सकती है। अनुचित नीति साझे तौर पर प्रबंधन की गई प्रणलियों के परिवर्तन के कारण बन सकती है, जिसके पर्यावरणीय परिणाम प्रतिकूल हो सकते हैं।

अन्य प्रमुख चुनौतियां, उभरते भूमंडलीय पर्यावरणीय सरोकारों जैसे जलवायु परिवर्तन, समताप मंडलीय ओजोन ह्रास तथा जैव विविधता की हानि से उत्पन्न होती हैं। इसका हल इन समस्याओं के संबंध में देशों के साझे, लेकिन अलग-अलग उतरदायित्व के सिद्धांत में प्रचालन में लाने से हो सकता है। इन भूमंडलीय पर्यावरणीय मुद्दों की अनुक्रिया में बहुपक्षीय शासन-पद्धतियों तथा कार्यक्रमों से विकासशील देशों के विकास के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इसके अतिरिक्त भूमंडलीय प्राकृतिक संसाधनों में हिस्सेदारी आवश्यक रूप से सभी देशों में समान प्रति आय की हिस्सेदारी आधार पर होनी चाहिए।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के उद्देश्य


इस नीति के मुख्य उद्देश्यों का विवरण नीचे दिया गया है। ये उद्देश्य प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियों की वर्तमान अवधारणओं से संबंधित हैं, तद्नुसार ये समय के साथ क्रमिक रूप से निर्धारित किए जा सकते हैं-

1. महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण – उन महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय प्रणालियों, संसाधनों तथा प्राकृतिक व मानव निर्मित मूल्यवान धरोहरों की सुरक्षा तथा संरक्षण करना, जो जीवन-रक्षक आजीविका/आर्थिक तथा मानव कल्याण की व्यापक संकल्पना के लिए अनिवार्य है।

2. वर्तमान पीढ़ी में समता : गरीबों के लिए आजीविका सुरक्षा- समाज के सभी तबकों के लिए पर्यावरणीय संसाधनों तक पहुंच तथा गुणवत्ता की समानता सुनिश्चित करना, विशेष तौर पर यह सुनिश्चित करना कि निर्धन समुदाय जो आजीविका के लिए पर्यावरणीय संसाधनों पर सर्वाधिक निर्भर है, उन्हें ये संसाधन अवश्य मिलें।

3. पीढ़ियों में समता- वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं तथा अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए पर्यावरणीय संसाधनों का न्यायोचित प्रयोग सुनिश्चित करना।

4. आर्थिक तथा सामाजिक विकास में पर्यावरणीय सरोकारों का एकीकरण- आर्थिक तथा सामाजिक विकास के उद्देश्य से पर्यावरणीय सराकारों को योजनाओं, कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं के रूप में एकीकृत करना।

5. पर्यावरणीय संसाधनों के प्रयोग में दक्षता – प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभावों के न्यूनीकरण के लिए आर्थिक उत्पादन की प्रति इकाई प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग में कमी करके उनका सही प्रयोग सुनिश्चित करना।

6. पर्यावरणीय संचालन- पर्यावरणीय संसाधनों के प्रयोग के प्रबंधन तथा विनियमन के संबंध में बेहतर संचालन (पारदर्शिता, न्यायोचितता, जवाबदेही, समय तथा लागत में कमी, सहभागीता तथा नियंत्रण की स्वतंत्रता) के सिद्धांत को लागू करना।

7. पर्यावरण संरक्षण के लिए संसाधनों में बढ़ोतरी- स्थानीय समुदायों, सार्वजनिक एजेंसियों, शैक्षणिक और अनुसंधान समुदाय, निवेशकों और बहुपक्षीय और द्विपक्षीय विकास पार्टनरों के मध्य परस्पर लाभकारी बहुहितधारक सहभागिताओं के माध्यम से पर्यावरणीय संरक्षण हेतु वित्त, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन कौशल, पारंपरिक ज्ञान तथा सामाजिक पूंजी आदि को शामिल करते हुए अधिक संसाधन प्राप्ति सुनिश्चित करना।

सिद्धांत


यह नीति इस तथ्य को सामने रखकर तैयार की गई है कि केवल वही विकास अविच्छिन्न हो सकता है, जिसमें पारिस्थितिकीय दबावों और न्याय की अनिवार्यताओं पर भी ध्यान दिया गया हो। उपरोक्त उद्देश्यों को केंद्र, राज्य तथा स्थानीय सरकार के स्तरों पर विभिन्न सार्वजनिक प्राधिकरणों के विभिन्न कुशल कार्यनीति हस्तक्षेपों द्वारा प्राप्त किया जाना है। ये उद्देश्य विभिन्न साझेदारियों के भी आधार रूप होंगे। उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए वैधानिक व्यवस्था और कानूनी सिद्धांत विकसित करने के अलावा, इन कार्यनीतिक हस्तक्षेपों का निर्धारण स्पष्ट रूप से उल्लिखित सिद्धांतों तथा उनके अनुप्रयोग की लागतों, तकनीकों और प्रशासनिक पहलुओं की तुलना में उनकी प्रासंगिकता और व्यावहार्यता के अनुसार आधारित होना चाहिए। तदनुसार, निम्न सिद्धांत में नीति संबंधी विभिन्न कारकों की गतिविधियों में मार्गदर्शन कर सकते हैं। इनमें से प्रत्येक सिद्धांत में नीति उद्घोषणाओं, विधिशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय कानून या अंतरराष्ट्रीय सरकारी पद्धतियों से सुस्थापित वंश-परंपरा विद्यमान है।

1. सभी मानव अविच्छिन्न विकास सरोकारों के केंद्र बिंदु हैं- सभी मानव अविच्छिन्न विकास सरोकारों के केंद्र बिंदु हैं। उन्हें प्रकृति के साथ तालमेल रखते हुए स्वस्थ और गतिशील जीवन जीने का हक है।

2. विकास का अधिकार – वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों की विकासात्मक तथा पर्यावरणीय आवश्यकताओं की समान रूप से पूर्ति के लिए विकास का अधिकार अवश्य दिया जाना चाहिए।

3. पर्यावरणीय सुरक्षा विकास प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग-अविच्छिन्न विकास के लिए पर्यावरणीय सुरक्षा विकास प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग होगी तथा इसे इससे अलग करके नहीं रखा जा सकता।

4. एहतियाती दृष्टिकोण- जहां प्रमुख पर्यावरणीय संसाधनों को गंभीर अथवा अपूर्णीय क्षति के वास्तविक खतरा हो, वहां पर्यावरणीय अवक्रमण के निवारण के लिए लागत-प्रभावी उपायों के आस्थगम के लिए पूर्ण वैज्ञानिक सुनिश्चितता की कमी को कारण नहीं बनाया जाएगा।

5. आर्थिक क्षमता- पर्यावरणीय संरक्षण से संबंधित विभिन्न सार्वजनिक कार्यों में आर्थिक क्षमता प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा।

इस सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि पर्यावरणीय संसाधनों की सेवाओं को आर्थिक महत्व प्रदान किया जाए तथा वैकल्पिक कार्यविधियों का विश्लेषण करते समय इसे अन्य वस्तुओं और सेवाओं के आर्थिक महत्व के बराबर महत्व दिया जाए। इस सिद्धांत के अन्य प्रभाव निम्न प्रकार हैं-

(क) प्रदूषणकर्ता द्वारा क्षतिपूर्ति-किसी एक पक्ष की उत्पाद तथा उपयोग संबंधी गतिविधियों का प्रभाव उस तीसरे पक्ष पर हो सकता है, जिसका मूल गतिविधि के साथ प्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक संबंध नहीं है। ऐसे प्रभाव को बहिर्भाविता कहते हैं। यदि बहिर्भाविता की लागतों (या लाभों) का दायित्व मूल क्रिया के लिए उत्तरदायी पक्ष पर नहीं पड़ता तो उत्पादन अथवा उपभोग तथा गहिर्भाविता के संपूर्ण-क्रम का परिणामी स्तर अपर्याप्त होगा। इस प्रकार की स्थिति में बहिर्भाविता के दोषी को इसकी लागत (या लाभ) के वहन के लिए उत्तरदायी बनाकर आर्थिक क्षमता को पुनः बहाल किया जाना चाहिए। तदनुसार इस नीति के अंतर्गत प्रोत्साहन आधारित नीतिगत साधनों का उपयोग करते हुए पर्यावरणीय लागतों के आंतरिकीकरण को बढ़ावा दिया जाएगा, जिसमें इस विचार को ध्यान में रखा जाएगा कि प्रदूषणकर्ता सार्वजनिक हितों का पूरा ध्यान रखते हुए तथा अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश के स्वरूप के बिगाड़े बिना सिद्धांत तौर पर प्रदूषण की लागत को स्वयं वहन करेगा।

(ख) लागत न्यूनीकरण- जहां कहीं किसी प्रक्रिया के पर्यावरणीय लाभों को विधियों या अवधारणात्मक कारणों की वजह से आर्थिक मूल्य के लिए आरोपित नहीं किया जा सकता हो, वहां (जैसा कि ‘अतुलनीय हस्तियां’ के मामलों में (नीचे लिखे) किसी भी मामलों में लाभ प्राप्त करने की आर्थिक लागतें की जानी चाहिए।)

(ग) संसाधन उपयोग में दक्षता ऐसे नीतिगत साधनों का प्रयोग करके भी हासिल की जा सकती है, जो प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग व उपभोग को न्यूनतम करने के लिए प्रोत्साहित करने वाले हों। दक्षता का यह सिद्धांत लागतों और देरियों को न्यूनतम करने हेतु अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं और क्रियाविधियों को स्ट्रीमलाइन करते हुए पर्यावरणीय संचालन से जूड़े मामलों पर भी लागू होता है।

6. अतुल्य महत्व की हस्तियां-कतिपय अन्य बेजोड़ प्राकृतिक व मानव निर्मित हस्तियों के अलावा, मानव स्वास्थ्य, जीवन तथा पर्यावरण की दृष्टि से जीवन-रक्षक प्रणालियों को होने वाले जोखिमों को, जो बड़ी संख्या में व्यक्ति के जीवन को प्रभावित कर सकती हैं, अतुल्य माना जा सकता है। वह इस अर्थ में कि कोई व्यक्ति अथवा समाज इन जोखिमों को किसी तरह का धन अथवा परंपरागत वस्तुओं और सेवाओं के बदले में स्वीकार नहीं करेगा। तदनुसार एक परंपरागत लागत लाभ का संगणन इनके मामले में लागू नहीं होगा और ऐसी एंटिटीज को उनके संरक्षण के लिए सामाजिक संसाधनों के आवंटन में प्रत्यक्ष अथवा तात्कालिक आर्थिक लाभों पर विचार किए बिना प्राथमिकता दी जाएगी।

7. समता-समता अथवा न्याय के मुख्य में यह अपेक्षा की गई है कि मानवों के बीच असंगत मतभेदों के आधार पर उनके साथ अलग-अलग तरह से व्यवहार नहीं किया जा सकता। समानता संबंधी मानकों में अंतर संदर्भ अर्थात् हकदारियों और बाध्यताओं के निर्धारण के लिए निष्पक्ष नियमों से संबंधित प्रक्रियात्मक समता और हकदारियों और बाध्यताओं के विभाजन के संदर्भों, निष्पक्ष परिणामों से संबंधित अंतिम परिणाम के मामले में समता के अनुसार होना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रत्येक संदर्भ विभेद समाजों के भीतर न्याय से संबंधित पीढ़ीगत समता के आधार पर और विशेष रूप से अभावग्रस्त लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करते हुए तथा पीढ़ियों के बीच न्याय प्रक्रिया से संबंधित पीढ़ीगत समता के अनुसार होना चाहिए। इस नीति के संदर्भ में समता का आशय हकदारियों से संबंधित तथा पर्यावरणीय संसाधनों के प्रयोग के संबंध में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में संबंधित जनता की भागीदारी से है।

इस नीति के संदर्भ में समता का तात्पर्य संबंधित जन-समुदाय को पर्यावरणीय संसाधनों के उपयोग तथा निर्णय प्रक्रिया में भाग लेने हेतु समान हकदारी देने से है।

8. वैधानिक उत्तरदायित्व – मौजूदा पर्यावरणीय शिकायत निस्तारण-तंत्र प्रमुख रूप से आपराधिक उत्तरदायित्व सिद्धातों पर आधारित है, जो कि पूरी तरह प्रभावी साबित नहीं हुआ है। इसमें सुधार की आवश्यकता है।

पर्यावरणीय क्षति से संबंधित नागरिक उत्तरदायिता पर्यावरण की दृष्टि से हानिप्रद क्रियाकलापों को रोकेगी और पर्यावरण क्षति के शिकार लोगों की प्रतिपूर्ति करेगी। अवधाराणात्मक रूप से विधिक उत्तरदायिता को प्रदूषण करने वाला ही चुकाएगा भी। नीति का विधिक सिद्धांत, जो आर्थिक कार्यक्षमता के सिद्धांत से लिया गया है, के एक प्रतिरूप के रूप में देखे जा सकते हैं। नागरिक उत्तरदायिता के स्थान पर निम्नलिखित वैकल्पिक दृष्टिकोण लागू हो सकते हैं –

(क) दोष आधारित उत्तरदायिता – दोष आधारित उत्तरदायिता व्यवस्था में यदि कोई पक्ष पूर्व निर्धारित किसी कानूनीय कर्तव्य का उल्लंघन करता है तो उसे इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। उदाहरण के लिए पर्यावरणीय मानक।

(ख) कठोर उत्तरदायिता – कठोर उत्तरदायिता के अंतर्गत किन्हीं क्रियाकलापों अथवा कार्यवाही न कर पाने, जिसमें आवश्यक नहीं कि किसी कानून अथवा सुरक्षा कर्तव्य का उल्लंघन हुआ हो, के परिणामस्वरूप होने वाली क्षति से पीड़ित व्यक्ति को क्षतिपूर्ति करने की बाध्यता है।

9. सार्वजनिक न्याय (पब्लिक ट्रस्ट) का सिद्धांत- राज्य को सभी प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण स्वामित्व प्राप्त नहीं है, बल्कि वह मात्र उन संसाधनों का एक ट्रस्टी है। ये संसाधन सार्वजनिक उपयोग और मनोरंजन के लिए हैं, लेकिन इनका उपयोग बड़ी संख्या में लोगों के न्यायसंगत हितों की रक्षा अथवा रणनीतिक राष्ट्रीय हितों के मामलों के लिए आवश्यक शर्तों को पूरा करने के अधीन है।

10. विकेंद्रीकरण- विकेंद्रीकरण के अंतर्गत केंद्रीय प्राधिकरणों से राज्य और स्थानीय प्राधिकरणों को सत्ता का हस्तांतरण होता है, ताकि स्थानीय स्तर पर क्षेत्राधिकार संपन्न सार्वजनिक प्राधिकरणों को विशिष्ट पर्यावरणीय मामलों को देखने हेतु शक्तियां प्रदान की जा सकें।

11. एकीकरण-एकीकरण का आशय पर्यावरणीय मामलों को सैक्टोरल नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल करने, सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञान को पर्यावरण से जुड़े नीतिगत अनुसंधान कार्य के साथ जोड़ने तथा पर्यावरण नीतियों के क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी केंद्रीय, राज्य और स्थानीय स्वशासन स्तर की सरकारों की विभिन्न एजेंसियों के बीच संगत संबंधों को सुदृढ़ बनाने से हैं।

12. पर्यावरण मानकों का निर्धारण- पर्यावरणीय मानक जहां लागू हों, वहां उन्हें आर्थिक और सामाजिक विकास की स्थिति को परिलक्षित करने में सक्षम होना चाहिए। किसी एक समाज या संदर्भ में अपनाए गए मानक आर्थिक और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य हो सकते हैं, यदि उन्हें अन्य समाज या संदर्भ में विभेद किए बिना लागू किया जाए। पर्यावरणीय मानकों को निर्धारित करने में अनेक बातों पर ध्यान देना होगा। जैसे मानव स्वास्थ्य के लिए जोखिम, अन्य पर्यावरणीय हस्तियों को जोखिम, तकनीकी व्यवहार्यता अनुपालन की लागत तथा रणनीतिक मामले आदि।

13. निवारक कार्यवाही- अवक्रमित पर्यावरणीय संसाधनों को बहाल करने की कोशिश करने की अपेक्षा सबसे पहले पर्यावरणीय नुकसान की घटनाओं को होने से रोकना अधिक महत्वपूर्ण है।

14. पर्यावरणीय प्रतिकार- संकटापन्न अथवा खतरे में पड़ी प्रजातियां और प्राकृतिक प्रणालियां जो जीवन को सतत् बनाए रखने, आजीविका प्रदान करने अथवा आम जनता की भलाई के लिए विशेष महत्व रखती हैं, का बचाव करने के लिए सभी का साझा दायित्व है। यदि किसी हालत में ऐसे समुचित सार्वजनिक हित में कुछ विशिष्ट मामलों में संरक्षण नहीं प्रदान किया जा सके तो ऐसी परिस्थिति में ऐसे कार्यों के प्रस्तावकों द्वारा लागत प्रभावी प्रतिकारात्मक उपाय किए जाएं ताकि संबंधित लोगों के लिए खोई हुई, पर्यावरणीय सेवाएं यथाशीघ्र बहाल की जा सकें।

व्याख्याता-डाइट, एम-18, पंपहाउस कॉलोनी, एसईसीएल, पोस्ट व जिला कोरबा-495677

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