राष्ट्रीय नदी संरक्षण-योजना

गंगा-कार्य योजना के प्रथम चरण से जो बात सामने आई वह है-ऊर्जा, जल तथा खाद के रूप में संसाधनों के घरेलू कचरे से प्राप्ति तथा चर्म उद्योगों से संबंधित कचरे से क्रोम नामक पदार्थ की प्राप्ति। ज्ञात हुआ है कि इलाहाबाद, वाराणसी तथा रामपुर में स्थापित मल-निस्तारण संयंत्रों की कुल ऊर्जा मांग का 33 प्रतिशत संयंत्रों से प्राप्त जैविक ईंधन (बायोगैस) से पूरा होता है। यह भी खुशी की बात है कि संयंत्रों से प्राप्त क्रोम की कीमत संयंत्रों की निर्माण लागत से अधिक पाई गई है। गंगा एवं यमुना, गंग-प्रवाह क्षेत्र की दो प्रमुख नदियां हैं। ये नदियां गंग-प्रवाह क्षेत्र में रहने वाले करोड़ों लोगों की जीवरेखा हैं, परंतु इस क्षेत्र में सिंचाई के लिए भूजल का अंधाधुंध दोहन तथा नदियों के किनारे बसे महानगरों एवं कारखानों से उत्सर्जित प्रदूषण, जलीय अवशिष्ट के कारण इन नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। भारत सरकार द्वारा आरंभ की गई कार्य-योजना के अंतर्गत नदियों में प्रवाहित किए जाने वाले शहरी एवं औद्योगिक कचरे के अंतर्विरोधन, प्रवाह-परिवर्तन तथा शोधन पर विशेष बल दिया गया है। नदियों में प्रदूषण-स्तर को कम करने तथा इनके प्रवहण-क्षेत्र से भूजल के दोहन को युक्तिसंगत बनाने के लिए बुनियादी और विशेष पहल की आवश्यकता है।

1. नदियों के किनारे अवस्थित शहरों, विशेष रूप से नदी तट पर बसे मुहल्लों में सामुदायिक शौचालयों के निर्माण तथा रख-रखाव एवं संचालन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
2. स्वच्छता से संबंधित विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उपलब्ध कराए जाने वाले संसाधनों को समन्वित करके सिर्फ स्वच्छता संबंधी योजना पर खर्च किया जाना चाहिए। ऐसा करने से नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के साथ-साथ शहरों के पर्यावरण में भी सुधार लाया जा सकेगा।
3. जिन शहरों में सीवर-प्रणाली (मल-जल प्रणाली) उपलब्ध हैं, वहां सिर्फ 40-से-50 प्रतिशत क्षेत्रों में ही सीवर प्रणाली उपलब्ध है। इन क्षेत्रों में सीवर लाइन डालने का कार्य बहुत खर्चीला है। इसलिए मानव-मल के निस्तारण के लिए दूसरी कम लागत वाली योजनाओं को अपनाने पर विचार किया जाना चाहिए।
4. सीवर-सिस्टम द्वारा मल-निस्तारण की प्रविधि को अपनाने का विचार करते समय स्थानीय परिस्थितियों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। मल-निस्तारण हेतु उपलब्ध संसाधनों का चरण वार उच्चीकरण, जो प्रारंभिक प्रणाली (फुट-पाउंड सिस्टम) से यंत्रीकृत (मेकेनाइज्ड) सिस्टम की ओर जाता है, एक दूरदर्शी तथा वित्तीय दृष्टिकोण से संतुलित योजना होगी।
5. अधिकांश मल-निस्तारण संयंत्रों की क्षमता इनकी योजना बनाने के समय तात्कालिक तौर पर उपलब्ध सीवेज के आधार पर निर्धारित की जाती है, किंतु पूर्ण होने तक वह क्षमता अक्सर कम पड़ जाती है। अतः इसकी क्षमता की परिकल्पना कम-से-कम 10 से 15 वर्षों के लिए की जानी चाहिए। अभिकल्पना कचरे की वास्तविक बी.डी.ओ. तथा इसमें उपस्थित अवक्षेपित ठोस प्रदूषकों की मात्रा के आधार पर होनी चाहिए।
6. अनियमित विद्युत आपूर्ति को दृष्टिगत रखते हुए बड़े मल निस्तारण संयंत्रों, जिनमें मल निस्तारण पारंपरिक या यू.एस.बी.सी. विधि से प्रस्तावित है, गैर-पारंपरिक ऊर्जा के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिसका उपयोग बाधित विद्युत-आपूर्ति काल, जो सामान्य तौर पर होता रहा है, के समय किया जा सकता है।
7. नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए जन-सहभागिकता तथा जन-जागरूकता की उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
8. सीवर प्रणाली का रख-रखाव करने वाले विभाग/संस्था को ही मल-निस्तारण संयंत्रों का रख-रखाव एवं संचालन करना चाहिए।
9. सीवर-प्रणाली तथा मल-निस्तारण संयंत्रों के रख-रखाव एवं संचालन करने के लिए उत्तरदायी स्थानीय निकायों के संसाधनों में बढ़ोतरी को शीर्ष प्राथमिकता देनी होगी। कार्य-योजना के अंतर्गत निर्मित-स्थापित संसाधनों के समुचित रख-रखाव एवं संचालन के लिए स्थानीय निकायों के पास पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित कर्मी होने चाहिए।
10. निर्मित, स्थापित संसाधनों के रख-रखाव तथा संचालन को व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाते हुए, निजी क्षेत्र को सौंपने का विचार करना चाहिए। सुलभ इंटरनेशनल सामाजिक सेवा संस्थान द्वारा सामुदायिक शौचालयों का रख-रखाव एवं संचालन, स्वच्छता से संबंधित संसाधनों का निजीकरण तथा जन-सहभागिता का ज्वलंत उदाहरण है।

राष्ट्रीय नदी-संरक्षण योजना के अंतर्गत गंगा-यमुना के संदर्भ में प्रदूषण-नियंत्रण


भारत की दो महान तथा पवित्र नदियों-गंगा और यमुना का भारतीय जन-मानस में सर्वदा ही उच्च आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्व रहा है। विशेषतौर पर गंगा नदी को अति पवित्र माना गया है। इसकी पवित्र जल-बूंद नवजात शिशु के मुंह में डालकर उसे अमरत्व प्रदान किया जाता है तथा इंसान के अंतिम पड़ाव पर यही जल-बूंद उसे मोक्ष प्राप्त कराती है। वस्तुतः गंगा प्राणदायिनी, कर्मदायिनी तथा मोक्षदायिनी है। संचयित गंगा-जल लंबे समय तक प्रदूषित नहीं होता। इसलिए इस विशाल देश के प्रत्येक घर में दैनिक पूजा, शरीर-पवित्रीकरण, आत्मिक शुद्धता तथा धार्मिक संस्कारों के लिए इसे संरक्षित रखा जाता है।

गंगा के प्रवाह-क्षेत्र में कृषि की सघनता बहुत अधिक है। देश के पूरे सिंचित क्षेत्र का लगभग 43 प्रतिशत क्षेत्र गंगा के प्रवाह-क्षेत्र में पड़ता है। समूचे प्रवाह-क्षेत्र में गंगा का जल हरिद्वार से अपर गंगा नहर में विक्षेपित किया जाता है। हरिद्वार तथा अलीगढ़ के बीच गंगा नदी में जो भी जल पुनः संचित होता है, उसे अलीगढ़ में लोअर गंगा नहर में विक्षेपित कर दिया जाता है। इसके फलस्वरूप गंगा में जल प्रवाह कन्नौज तथा इलाहाबाद के मध्य बहुत क्षीण हो जाता है। इसके विपरीत कानपुर तथा इलाहाबाद में जनसंख्या का घनत्व भी अधिक है। इलाहाबाद के बाद गंगा में इसकी सहायक नदियों तथा-यमुना, घाघरा, सोन, कोसी, गंडक आदि के प्रवाह समाहित होते हैं। इस प्रकार हरिद्वार तथा इलाहाबाद के मध्य गंगा के जल-स्तर तथा जल-प्रवाह पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

सन् 1980 के दशक में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने विभिन्न स्रोतों की मदद से गंगा के प्रदूषण की जांच का गहन अध्ययन प्रारंभ किया। यह अध्ययन सन् 1984 में पूर्ण हुआ, जिससे निम्न तथ्य सामने आए-

1. नदी प्रदूषण का तीन-चौथाई हिस्सा नदी के किनारे बसे शहरों के घरेलू कचरे से आता है।
2. इस प्रदूषण का 88 प्रतिशत प्रथम श्रेणी के 25 शहरों से आता है।
3. औद्योगिक कचरे के कारण 25 प्रतिशत प्रदूषण मुख्यतः दो औद्योगिक नगरों कानपुर एवं कोलकाता से आता है।

गंगा-कार्य योजना


नदी के किनारे बसे शहरों के लिए नदी उनकी जीवनधारा होती है। गंगा के किनारे बसे 25 बड़े नगरों, जिनकी आबादी एक लाख से अधिक है, से नदी के कुल प्रदूषण का तीन-चौथाई भाग घरेलू तथा औद्योगिक कचरे के रूप में आता है। ये नगर 2525 कि.मी. नदी की लंबाई, जो तीन राज्यों यानी-बिहार, उत्तर प्रदेश एवं बंगाल में अवस्थित है, को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण नदी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा सन् 1980 में तैयार की गई सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार पर गंगा के प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने फरवरी, 1985 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय गंगा प्राधिकरण का गठन किया। इस प्राधिकरण में उत्तर प्रदेश, बिहार एवं बंगाल के मुख्यमंत्रियों, कुछ केंद्रीय मंत्रियों तथा सचिवों को प्राधिकरण में नामित किया गया। एक अवर विभागीय कार्य समिति का भी गठन किया गया है, जिसकी कार्य-योजना अवयवों को विस्तृत रूप से चरणबद्ध करने तथा उनके विभिन्न पहलुओं के क्रियान्वयन को निर्देशत एवं संचालित करने का दायित्व सौंपा गया। योजना के क्रियान्वयन के लिए जून 1985 में गंगा कार्ययोजना निदेशालय की स्थापना पर्यावरण विभाग की शाखा के रूप में की गई, जिसे केंद्रीय गंगा प्राधिकरण की सहायता करने का जिम्मा सौंपा गया। वर्तमान में गंगा-कार्य योजना निदेशालय का नाम बदलकर ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय’ कर दिया गया। योजना का नामकरण राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के रूप में किया गया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों तथा कुछ केंद्रीय मंत्रियों को शामिल करते हुए प्राधिकरण का क्षेत्राकार बढ़ा दिया गया है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के प्रमुख कार्य हैं-

1. क्षेत्रीय स्तर के विभागों द्वारा तैयार की गई योजनाओं का मूल्यांकन एवं अनुमोदन करना।
2. धन आवंटन।
3. कार्य-योजना के विभिन्न क्रियाकलापों में सहयोग, संचालन तथा निरीक्षण करना।

कार्य-योजना के लक्ष्य


कार्य योजना के लक्ष्य निम्नवत हैं-

1. नदी जल की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए नदी में प्रदूषण स्तर को कम करना।
2. नदी की जैव-विविधता को संरक्षित करना तथा समन्वित नदी-प्रवहण व्यवस्था के प्रस्ताव को अपनाना।
3. उक्त लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अनुसंधान करना।
4. अन्य प्रदूषित नदियों के लिए समान कार्ययोजना अपनाने के लिए अनुभव प्राप्त करना।

रणनीति


कार्य-योजना के प्रथम चरण में नदी के किनारे बसे 25 नगरों से उत्सर्जित कचरे को नदी में गिरने से रोकने तथा उसे निस्तारित करने पर जोर दिया गया है। निस्तारित कचरे को सिंचाई या पुनः नदी में प्रवाहित करने का प्रस्ताव किया गया है। उक्त लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कार्य योजना के निम्न विचार थे-

1. कचरे को नदी में प्रवाहित होने से रोकने के लिए चालू नालों, सीवर का निक्षेपण-द्वार तथा मल-निस्तारण संयंत्रों का जीर्णोंद्धार किया जाना।
2. जहां पर प्राकृतिक ढाल की मदद से कचरा सीवर में नहीं पहुंचता हो, वहां नए-नए प्रवाह रोधक तथा मल-निस्तारण संयंत्र बनाने चाहिए।
3. चालू मल-निस्तारण संयंत्रों का जीर्णोंद्धार किया जाना चाहिए। कार्य-योजना के प्रभावी होने के पूर्व उत्तर प्रदेश में ही एक मल-निस्तारण संयंत्र था।
4. अधिकतम संसाधनों यथा विद्युत तथा खाद की प्राप्ति को दृष्टिगत रखते हुए नए मल-निस्तारण संयंत्रों का निर्माण किया जाना चाहिए।
5. नदी तट से सटे मुहल्लों के कारण होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए कम लागत वाली स्वच्छता योजनाओं को लागू करना चाहिए।
6. बिना जले तथा अधजले शवों को नदी में प्रवाहित होने से रोकने के लिए उसके किनारे विद्युत शवदाह-गृह का निर्माण किया जाना चाहिए।
7. नदी के जल प्रवाह के शुद्धिकरण के लिए जैविक-संरक्षण का उपाय करना चाहिए।
8. नदी तट के विभिन्न खंडों पर स्नान घाटों को विकसित करने के साथ-साथ नए स्नान-घाटों का निर्माण कराया जाना चाहिए।
9. कार्य-योजना के लागू होने के पहले तीन राज्यों से कुल 1340 एम.एल.डी. कचरा नदी में प्रवाहित होता था। गंगा-कार्य योजना के प्रथम चरण में प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित कुल 261 योजनाएं तीन राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल में लागू की गई। इन योजनाओं का लक्ष्य 873 एम.एल.डी. कचरे का मार्ग विक्षेपित करना था।

इन योजनाओं में कचरे के मार्ग अवरोधन तथा विक्षेपण से संबंधित 88, मल-निस्तारण संयंत्र से संबंधित 35, एल.सी.एस. से संबंधित 43, विद्युत शवदाह-गृह से संबंधित 28, नदी तट विकास से संबंधित 24 और विविध परियोजनाओं से संबंधित 32 योजनाएं शामिल थीं। कचरे की अवशेष मात्रा का मार्ग विक्षेपण तथा निस्तारण कार्य योजना के दूसरे चरण में पूरा करने का प्रस्ताव किया गया था। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, कार्य योजना लागू होने के पूर्व 6 शहरों से कुल 680 एम.एल.डी कचरा नदी में प्रवाहित होता था। कार्य योजना के प्रथम चरण में 431 एम.एल.डी. कचरे का मार्ग-विक्षेपण का प्रस्ताव किया गया तथा शेष मात्रा का अगले चरण में मार्ग विक्षेपित करने का लक्ष्य रखा गया।

गंगाजल की गुणवत्ता पर गंगा कार्य-योजना की योजनाओं का प्रभाव


जैविक ऑक्सीजन मांग (बी.डी.ओ.) तथा घुल्य ऑक्सीजन (डी.ओ.) जल के प्रदूषण के सूचक हैं। स्नान की आवश्यक जैविक ऑक्सीजन मांग (बी.डी.ओ.) तथा घुल्य ऑक्सीजन (डी.ओ.) की मात्रा क्रमशः 3 मिग्रा./ली. (अधिकतम) एवं 6 मिग्रा./ली. (न्यूनतम) होनी चाहिए। कार्य योजना का प्रथम चरण लागू होने के पूर्व, गंगा नदी की निर्धारित लंबाई (हरिद्वार से वाराणसी तक) में जैविक ऑक्सीजन मांग (बी.डी.ओ.) का स्तर 15.50 से 4.8 मिग्रा./ली. था, यथा कानपुर 8.6, इलाहाबाद 15.50, वाराणसी 10.60 और हरिद्वार 4.8। कार्य योजना का प्रथम चरण पूर्ण हो जाने पर जैविक ऑक्सीजन मांग (बी.डी.ओ) की मात्रा नदी जल में कानपुर में 6.4 मि.ग्रा., इलाहाबाद में 2.6 मिग्रा./ली., हरिदावार में 1.6 मिग्रा./ली. तथा ऋषिकेश में 1.10 मिग्रा../ली. मापी गई। जहां घुल्य ऑक्सजीवन (डी.ओ) स्तर की बात है यह स्तर नदी जल में सभी जगह अपेक्षा से ऊपर है, 5 मिग्रा/ली.। (ये आंकड़े सन् 1998 की रिपोर्ट पर आधारित हैं)।

गंगा-कार्य योजना के प्रथम चरण से जो बात सामने आई वह है-ऊर्जा, जल तथा खाद के रूप में संसाधनों के घरेलू कचरे से प्राप्ति तथा चर्म उद्योगों से संबंधित कचरे से क्रोम नामक पदार्थ की प्राप्ति। ज्ञात हुआ है कि इलाहाबाद, वाराणसी तथा रामपुर में स्थापित मल-निस्तारण संयंत्रों की कुल ऊर्जा मांग का 33 प्रतिशत संयंत्रों से प्राप्त जैविक ईंधन (बायोगैस) से पूरा होता है। यह भी खुशी की बात है कि संयंत्रों से प्राप्त क्रोम की कीमत संयंत्रों की निर्माण लागत से अधिक पाई गई है।

यमुना-कार्य योजना


यमुना नदी यमुनोत्री ग्लेशियर से निकली है, जो उत्तराखंड राज्य के उत्तर काशी जिले में स्थित है। इस नदी की लंबाई इलाहाबाद में मिलने से पहले 1376 कि.मी. है। यह नदी भूगर्भ जल एवं आर्थिक दृष्टिकोण से निम्न पांच जिलों के भागों से निम्नानुसार बहती है-

1. हिमालय भाग-172 कि.मी. (उत्पत्ति स्थान से ताजेवाला बैराज तक, जो हरियाणा में है)
2. ऊपरी भाग-224 कि.मी. (ताजेवाला बैराज से वजीराबाद बैराज तक)
3. दिल्ली भाग-022 कि.मी. (वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज तक)
4. यूट्राफिकेटेड सेगमेंट-490 कि.मी. (ओखला बैराज से चंबल संगम तक)
5. जल मिश्रित भाग-172 कि.मी. (चंबल संगम से गंगा संगम तक)

उपर्युक्त दो, पहले और दूसरे भागों में, पानी की गुणवत्ता अच्छी समझी जाती है। तीसरा भाग बहुत ही खराब माना जाता है। इसका कारण हरियाणा द्वारा 73.94 प्रतिशत पानी की मात्रा सिंचाई के लिए है और दिल्ली में पीने के लिए 4.29 प्रतिशत पानी की मात्रा ली जाती है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में सिंचाई के लिए 18.53 प्रतिशत पानी की मात्रा ली जाती है। दिल्ली भाग में वजीराबाद तथा ओखला बैराज के बीच पानी की गुणवत्ता निगम के निरर्थक तरल पदार्थ से पानी की उत्पत्ति की जाती है। चौथे भाग के अंतर्गत पृथ्वी पर बहने वाले पानी की मात्रा से पुनः नदी के पानी का तल मथुरा, वृंदावन एवं आगरा में बढ़ जाता है। इस तरह पानी की मात्रा पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी एवं पेड़-पौधों पर निर्भर करती है।

दोषाग्राही भाग एवं प्रदूषण के कारण


1. वजीराबाद से ओखला तक- दिल्ली से घरेलू एवं औद्योगिक कूड़ा-करकट।2. ओखला से वृंदावन तक- दिल्ली से घरेलू निष्प्रयोज्य जल और सहारनपुर, गाजियाबाद, नोएडा आदि से औद्योगिक बहिष्प्रवाही।
3. वृंदावन से मथुरा तक- वृंदावन एवं मथुरा से घरेलू दूषित पानी एवं रंगाई तथा छपाई की इकाइयों का औद्योगिक दूषित पानी।
4. मथुरा से इटावा तक – आगरा एवं इटावा से घरेलू एवं दूषित जल।

चंबल नदी जब इटावा में यमुना में मिलती है तो पानी की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार होता है। हिमालय के भू-भाग को छोड़कर नदी का पानी कहीं भी नहाने योग्य नहीं पाया जाता।

औद्योगिक प्रदूषण


यमुना-कार्य योजना के अंतर्गत 81 छोटी एवं मंझोली औद्योगिक इकाईयां चित्रित की गई हैं। इन 81 इकाइयों में से 22 हरियाणा में, 42 दिल्ली में और 17 उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। इन औद्योगिक इकाइयों में कागज, चीनी, रासायनिक पदार्थ, चमड़ा एवं मदिरा आदि बनाए जाते हैं। इन तीन राज्यों में इन वस्तुओं का उत्पादन लगभग 628 मी. टन प्रतिदिन होता है, जो नदी की संपूर्ण जैविक ऑक्सीजन मांग का 70 प्रतिशत ही है। अतः इन औद्योगिक इकाइयों की निष्प्रयोजन सामग्री का धारा 1986 के अनुसार आस-पास की वस्तुओं में सुधार की दृष्टि से उपचार करना होगा।

व्यूह रचना


मल-उपचार हेतु मल-उपचार यंत्र लगाए जाना प्रस्तावित किया गया है। उपरोक्त के अतिरिक्त इस कार्यक्रम के लिए निम्न कार्य प्रस्तावित किए गए हैं-

1. नगर के प्रदूषित जल को रोकना और मोड़ देना।
2. कम लागत की मल-सफाई (सेनिटेशन योजना)
3. दाह-संस्कार स्थल का सुधार करना।
4. नदी के किनारे पेड़-पौधे आदि लगाना।
5. सामुदायिक हिस्सेदारी।
6. ठोस पदार्थों की संपूर्ण व्यवस्था।

विशेष आकृति


गंगा-कार्य योजना के प्रथम चरण की तरह द्वितीय चरण में भी कार्य-योजना के सभी कार्य किए जाएंगे परंतु निम्न कार्यों में विशेष रूप से महत्व दिया जाना है-

1. बाहरी (वनज सिद्ध सीवर) की लागत को कम करने के लिए मल के आवागमन और अनुकूल उपचार हेतु मल का विकेंद्रीकरण करना प्रस्तावित किया गया है।
2. मल के उपचार हेतु कम लागत वाले टरीकों, जैसे-वनरोपण, ऑक्सीकरण तकनीकी, जल सुधारक और यू.ए.एस.बी. तकनीक को उत्साहित किया जा रहा है।
3. कार्य-योजना के अंतर्गत नदी में मिट्टी को जमने से रोकना, नदी के किनारों में लंबी दरारों का पड़ना, खेती-बाड़ी के लिए अंतिम छोर तक पानी की पहुंच, महामारी से बचना आदि कार्यों में जो बाधाएं आती हैं, उन्हें संबंधित प्रशासनिक मंत्रालयों के सहयोग से दूर करने पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

औद्योगिक नवीकरण


मल के उपचार का मुख्य उद्देश्य यह है कि मल में जो स्थाई सड़ने-गलने वाले कार्बनिक पदार्थ मौजूद रहते हैं, उनको मल से हटा दिया जाए, ताकि वे वायुमंडल को दूषित न बना सकें। इस तरह के उपचार के लिए अनेक तकनीकी तरीके हैं, जिनमें से आवश्यकतानुसार कोई भी तरीका अपनाया जा सकता है। इस कार्य के लिए ट्रिक्लिंग फिल्टर, ऑक्सीडेशन पांड आदि यंत्र उपलब्ध हैं। विभिन्न यंत्रों की दक्षता 70 प्रतिशत से 96 प्रतिशत तक होती है।

विभिन्न उपचारकर्ता इकाइयों की सापेक्षिक क्षमता


1.

बारीक जाली

05 से 20

10 से 20

5 से 10

2.

ठोस पदार्थ को तली में बैठाने वाले साधारण कुंड

35 से 65

30 से 70

25 से 40

3.

रासायनिक पदार्थ का तली में बैठना

70 से 90

40 से 80

50 से 85

4.

रिस-रिसकर छनने हेतु (मंद दर से)

70 से 90

80 से 95

70 से 95

5.

रिस-रिसकर छनने हेतु (तेज दर से) (ठोस पदार्थों के साधारण ढंग से तली में बैठने के साथ)

65 से 92

80 से 95

70 से 95

6.

गतिशील कीचड़ में साधारणतः ठोस पदार्थों का तली में बैठना

85 से 90

90 से 98

75     से 96

7.

गतिशील कीचड़ में ऊंची दर से ठोस पदार्थों का तली में बैठना

65 से 96

80 से 96

65 से 96

8.

बालू के माद्यम से छनने हेतु अल्पांतर छनना

85 से 96

95 से 98

90 से 95

9.

रुके हुए अवमल का क्लोरीकरण

 

90 से 96

18 से 30

10.

तालाब द्वारा उपचयन

 

99

80 से 90

11.

खाई ट्रेंच द्वारा उपचयन

95

 

98

12.

यू.ए.एस.बी.

  

50 से 70



समस्त उपचारकारक इकाइयों के उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि तालाब द्वारा उपचार तरीका सबसे उचित है। बहुत-सी परिस्थितियों के अंतर्गत गर्म वातावरण में प्रचलित तालाबों के निर्माण के मुकाबले कुदरती तालाब काफी सस्ते पाए जाते हैं। कुदरती तालाबों के निर्माण हेतु आवश्यकतानुसार निपुण श्रमिकों की आवश्यकता नहीं होती और उनकी दिन-प्रतिदिन की कार्यक्षमता से कोई मतलब नहीं रहता। शहर के बाहरी क्षेत्र में इस कार्य पर व्यय न के बराबर ही आता है। मल उपचार हेतु किस तकनीक का उपयोग करना है, यह अधिकतर स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसके लिए गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए तथा स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए कम कीमत वाली तकनीक का उपयोग करना चाहिए। मल उपचार हेतु तालाब के उपयोग से लेकर मशीन के उपयोग तक विचार करना चाहिए।

मल-उपचार के तकनीकी ज्ञान एवं लाभ की जानकारी, जिससे हमारी नदियां गंदगी से परे रहे हैं, के संबंध में जनता द्वारा स्वीकार करने से पहले सभाओं तथा अन्य माध्यमों से उसका प्रचार किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार ने इस बात की प्रशंसा की है कि गैर-सरकारी संसाथाओं के माध्यम से जनता को इसकी जानकारी दी गई है। गैर-सरकारी संस्थाएं इस बात की जानकारी स्कूल के प्रांगण में प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से बच्चों को तथा इश्तेहार, मीडिया तथा नुमाइश आदि में शिविर लगाकर आम जनता को दे रही है। अप सक्रिय मल-निस्तारण हेतु मंदगति से छानने वाले छन्ने (फिल्टर), ऑक्सीकरण तालाब, घूमने वाले जैविक संयंत्र, स्थानीय आवश्यकता के अनुसार चुने गए। सभी संयंत्रों में घूमने वाले जैविक संयंत्र अधिक कामयाब नहीं पाए गए। नीरी में जो संयंत्र मल-निस्तारण हेतु लगाए गए थे, वे घूमने वाले जैविक संयंत्र, जो दूसरे देशों में 20 वर्ष से अधिक समय से लगाए जा रहे हैं, की तरह ही के हैं। इन इकाइयों में सपाट डिस्क का प्रयोग, रस्सी के बदले कीचड़ आदि को रोकने के लिए किया जाता है। स्वर्गआश्रम (ऋषिकेश, उत्तराखंड) में जो इकाई बिठाई गई, वह कामयाब नहीं है, चूंकि रस्सियां, उनको रोकने वाले बायोस्लिम आवश्यकता से अधिक थे। यह पाया गया कि रस्सियों के बीच जीव-जंतुओं तथा मल के साथ तैरने वाले पदार्थ फंस गए और उन्होंने गांठ का आकार ले लिया, जिसके कारण वायु मिश्रण (एरेशन) संपूर्ण रूप से नहीं हो पाया और इकाई की कार्यक्षमता घट गई।

कार्य संपादन एवं रख-रखाव


मल एवं कीचड़ के यंत्रों को सुचारु रूप से चलाने एवं उनका रख-रखाव करने की लागत, पानी के यंत्रों के मुकाबले अधिक आती है। आमदनी के जरिए हैं- भवन कर, सीवर कर, खाद की बिक्री, ट्रीटमेंट, प्लांट से मिलने वाला साफ पानी, (खाद और साफ पानी) दोनों में ही एन.पी.के. की मात्रा पेड़-पौधों की आवश्यकता से काफी अधिक होती है। इसके अलावा विद्युत, जो मीथेन गैस से और मछलियां जो ऑक्सजीन पाड से मिलती हैं। धनावंटन न मिलने के कारण पिछले दिनों ये समस्त साधन असफल रहे। वर्तमान में उत्तर प्रदेश राज्य के छह नगरों में सीवेज पंपिंग स्टोशनों और उपचार इकाइयों को चलाने एवं उनके रख-रखाव की लागत 20 करोड़ रुपए से अधिक है। यह हानि उपचारित जल (ट्रीटेड वॉटर), खाद और होने वाली बिजली की आमदनी के बाद की है। द्वितीय चरण में इस कार्यक्रम के अंतर्गत कुछ और नगर जुड़ जाने से इन इकाइयों को सुचारू रूप से चलाने एवं इनके रख-रखाव की लागत बढ़ जाने की संभावना है। राज्य सरकारों के लिए अपनी आमदनी के जरियों से इन इकाइयों को चलाना एवं उनका रख-रखाव करना संभव नहीं है। अतः वायुमंडल शुद्ध करने के नाम से जनता एवं उद्योगों, जो नदी के किनारे स्थित हैं, पर सीवर एवं गृह कर अतिरिक्त लगाना चाहिए।

अन्य तरीका यह हो सकता है कि इन इकाइयों के चलाने तथा रख-रखाव का कार्य निजी संस्था को सौंप दिया जाए। अगर यह कार्य निजी संस्था को दिया जाता है तो खाद को बेचने से, पानी सिंचाई की सुविधा देने से, आमदनी बढ़ सकती है। इसका ज्वलंत उदाहरण निजी संस्था द्वारा सार्वजनिक शौचालय को सुचारू रूप से चलाना एवं उनका रख-रखाव है, जो गंगा कार्य-योजना के अंतर्गत बनाए गए हैं। सुलभ शौचालय सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन तथा स्थानीय प्राधिकारी के बीच एक समझौता है, जिसके अंतर्गत सार्वजनिक शौचालयों को चलाना एवं उनका रख-रखाव की जिम्मेवारी सुलभ इंटरनेशनल की है। इस प्रकार स्थानीय निकाय अथवा राज्य सरकार पर इसका कोई अतिरिक्त भार नहीं पड़ता है। ये शौचालय प्रयोग एवं भुगतान (USE & PAY) आधार पर जनता के सहयोग से चलाए जाते हैं। इस तरह के कार्यों की, जनता औवं प्राधिकारियों द्वारा उसकी सफाई एवं अच्छे रख-रखाव के कारण प्रशंसा की गई है। प्रयोगकर्ताओं से शौचालय एवं स्नानघर के प्रयोग के लिए बहुत ही मामूली पैसा लिया जाता है। पेशाबघर के प्रयोग के लिए कोई पैसा नहीं लिया जाता है। वृद्धों, अपंग तथा वे व्यक्ति जो पैसा देने में असमर्थ हैं, उनको ये सुविधाएं बिना पैसे के उपलब्ध कराई जाती है। उपरोक्त को दृष्टिगत रखते हुए मल-उपचार-प्लांट भी निजी संस्था को रख-रखाव के लिए प्रायोगिक तौर पर सौंपे जाने चाहिए।

जनता में इन कार्यों की जनाकारी तथा उसका सहयोग


मल-उपचार के तकनीकी ज्ञान एवं लाभ की जानकारी, जिससे हमारी नदियां गंदगी से परे रहे हैं, के संबंध में जनता द्वारा स्वीकार करने से पहले सभाओं तथा अन्य माध्यमों से उसका प्रचार किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार ने इस बात की प्रशंसा की है कि गैर-सरकारी संसाथाओं के माध्यम से जनता को इसकी जानकारी दी गई है। गैर-सरकारी संस्थाएं इस बात की जानकारी स्कूल के प्रांगण में प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से बच्चों को तथा इश्तेहार, मीडिया तथा नुमाइश आदि में शिविर लगाकर आम जनता को दे रही है। आज भी जनता नदियों के घाट पर आबदस्त लेती है, जबकि घाट पर सार्वजनिक शौचालय बने हुए हैं। साथ-ही-साथ नदी में फूल-पौधे आदि भी फेंकते हैं, जिससे नदी में गंदगी फैलती है और पानी दूषित हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि गैर-सरकारी संस्थाएं इस कार्य में तुरंत लगाई जाएं, ताकि वे जनता को नदी के पानी को साफ बनाए रखने की जानकारी दें तथा प्रदूषण से बचने के उपाय भी बताएं। यह भी सुझाव दिया जाता है कि अन्य स्वतंत्र संस्थाओं को यह कार्य सौंपा जाए कि गैर-सरकारी संस्थाएं, जो प्रदूषण रोकने हेतु कार्य कर रही है, उनका समय-समय पर मूल्यांकन करें ताकि किसी स्तर पर इस कार्य में शिथिलता न आए।

स्थानीय निकायों की कार्यक्षमता यथावत बनी रहे


स्थानीय निकायों/संस्थाओं का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि नगर में जिन कार्यों का निर्माण हो चुका है, उनको चालू रखा जाए एवं उनका उचित रख-रखाव किया जाए। स्थानीय निकायों की आमदनी के साधन कम होने के कारण उनके लिए यह संभव नहीं है कि बढ़ते हुए व्यय को बर्दाश्त करें। राज्य के किसी भी स्थानीय निकाय में सॉफ्टवेयर संसाधन नहीं हैं। बहुत-सी स्थानीय संस्थाओं में आवश्यकतानुसार आदमी भी नहीं हैं। अगर कहीं हैं भी तो वे रोजाना के कार्यों में लगे रहते हैं और वे तनिक भी समय इन कार्यक्रमों में नहीं दे पाते हैं।

इन सब बातों को देखते हुए नीचे कुछ विकल्प दिए गए हैं-

1. वर्तमान कार्यकर्ताओं को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाए कि जो पूर्व में पूर्ण हो चुका है, उनको सुचारू रूप से कैसे चलाया जाए और उनका रख-रखाव किया जाए कि पर्याप्त आमदनी हो।
2. उत्तर प्रदेश जल निगम के पास संपूर्ण प्रणाली को चालू रखने एवं रख-रखाव करने हेतु काफी तकनीकी शक्ति है, परंतु वित्तीय माध्यमों की भी आवश्यकता है यह तभी संभव हो सकता है, जब मकानों एवं उद्योगों पर अतिरिक्त कर लगाया जाए।

3. तीसरा विकल्प यह है कि पूर्व में बनी संरचना को ठीक रूप से रखने एवं उसके सुचारू रूप से रख-रखाव का कार्य किसी निजी संस्था को सौंपा जाए और उस कार्य हेतु पर्याप्त धनराशि उपलब्ध कराई जाए।

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

Path Alias

/articles/raasataraiya-nadai-sanrakasana-yaojanaa

Post By: Shivendra
×