भारत सरकार नई जल नीति ला रही है, पर इस बार की जल नीति जन अंकाक्षाओं के ठीक विपरीत है। जल अब एक आर्थिक वस्तु बन जायेगा इस जल नीति के आधार पर। नई जल नीति कहती है कि जल को आर्थिक वस्तु मानकर इसका मुल्य निर्धारण उससे अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर कर करना चाहिए। नई जल नीति कॉर्पोरेट हितों को पोषण करेगी बता रहे हैं भगवती प्रकाश।
जल संसाधनों के प्रबंध व वितरण के क्षेत्र में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अनुमान है कि जल संसाधनों का निजीकरण कर जल के कारोबार में विदेशी निवेश की छूट देने की दशा में 20 खरब डालर के उदीयमान व्यवसाय के अवसर उत्पन्न होंगे। केवल विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय जल नीति प्रारूप-2012’ में जल को आर्थिक वस्तु की श्रेणी में रखना प्रस्तावित किया है। साथ ही जल का मूल्य लागत आधारित करते हुए जल के प्रबंध व वितरण में व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने की बात की गई है। जल नीति प्रारूप- 2012 में तो यहां तक कह दिया है कि जल को आर्थिक वस्तु मान कर उसका मूल्य निर्धारण उससे अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य को ध्यान में रख कर करना चाहिये। यह अत्यंत चिंताजनक है।
लगता है सरकार को यह नहीं पता कि दुनिया में जहां-जहां पानी पर निजी एकाधिकार स्थापित किया गया, वहां जन प्रदर्शन, सामाजिक अशांति और विरोध अभियानों के रूप में तीखी प्रतिक्रिया हुई। अर्जेटीना में जल के निजीकरण के विरोध में उपजे जन आक्रोश से निजी कंपनियों को भारी नुकसान, मेट्रो मनीला जलप्रदाय परियोजना से निजी कंपनी द्वारा हाथ खींच लेने को विवश होना, अटलांटा में पानी के अनुबंध पर संकट, कोलम्बिया, जकार्ता और अल आल्टो जैसी जगहों पर तीव्र सामाजिक प्रतिक्रियाएं और दंगे आदि की भारत सरकार को अनदेखी नहीं करनी चाहिये। जल के निजीकरण के विरूद्ध इस प्रकार की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि पानी के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की सहभागिता का माडल सफल नहीं हो सका है। निजीकरण के बाद अधिकांश स्थानों पर जल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है, अनेक स्थानों पर जल की गुणवत्ता असंतोषजनक पायी गयी है और आम जनता शोषण का शिकार हुई है। अधिकांश स्थानों पर जहां भी निजी कंपनियों ने अनुबंध की शर्तों को पूरा नहीं किया था, वहां उन्हें अनेक राजनैतिक और सामाजिक विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा है। यह सब देखते हुए भारत सरकार को जल नीति प्रारूप- 2012 पर पुनर्विचार करना चाहिये। संक्षेप में इस प्रारूप के विवादास्पद बिंदु निम्न हैं-
जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। इससे अधिकतम लाभर्जन की वृत्ति से साधारण व्यक्ति का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा और किसान के लिये कृषि और अनाकर्षक होती चली जायेगी। जल नीति 2012 के बिंदु क्रमांक 7.1 में कहा है, ‘‘जल को एक आर्थिक वस्तु के रूप में समझे जाने की आवश्यकता है और इसलिये इसका मूल्य जल उपयोग कुशलता को बढ़ावा देने एवं जल से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से निर्धारित किया जाना चाहिए। जहां जल के मूल्य पर प्रशासनिक नियंत्रण की पद्धति जारी रखनी पड़ सकती है, वहां जल मूल्य पर प्रशासनिक नियंत्रण अधिकाधिक आर्थिक सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए।’’
प्रारूप के बिंदु क्र. 7.2 में कहा गया है, ‘‘प्रत्येक राज्य में जल शुल्क प्रणाली स्थापित करने एवं जल प्रभार के लिए मानदंड निर्धारित करने के लिए एक तंत्र होना चाहिए, जो कि इस सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए कि क्रास सब्सिडी, यदि कोई हो, को ध्यान में रखते हुए जल शुल्क में जल संसाधन के प्रशासन, प्रचालन एवं रख-रखाव की लागत की पूर्ण वसूली शामिल हो।’’ क्रास सब्सिडी की मौजूदा व्यवस्था, जिसके अंतर्गत पेय जल एवं कृषि उपयोग के लिए जल का दाम सस्ता व वाणिज्यिक उपयोग के लिये महंगा होता है, नई नीति में धीरे-धीरे कम करने की सिफारिश की गई है।
जल नीति में कहा है कि विद्युत का मूल्य कम होने से जल व विद्युत दोनों का दुरूपयोग होता है। इसलिये विद्युत के दाम बढ़ाये जायें। विशेष रूप से कृषि के लिये बिजली के दाम बढ़ाने का प्रस्ताव है। यथा- बिंदु क्र 7.5 में कहा है, ‘‘विद्युत का बहुत कम मूल्य निर्धारण करने से विद्युत एवं जल दोनों की बर्बादी होती है। इसे बदलने की जरूरत है।’’
सुखाधिकार अधिनियम-1882 के अधीन भूमि के गर्भ में उपलब्ध जल पर उस भूमि के स्वामी का हक होता है, उसे समाप्त किये जाने की वकालत की गई है। यथा बिंदु क्र. 2.2 में कहा है, ‘‘भारतीय सुखाधिकार अधिनियम-1882 में उस प्रावधान का संशोधन करना पड़ सकता है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह अधिनियम भूमि स्वामी को उसकी भूमि के अंतर्गत भूमि जल के लिए मालिकाना हक प्रदान करता है।’’
नई नीति में कहा गया है कि निजीकरण करते हुये सरकार जल वितरण के काम से धीरे-धीरे बाहर निकल जाये और वह केवल इस कार्य के नियमन की ही जिम्मेदारी ले। जल संबंधी सेवाओं को समुचित ‘सार्वजनिक निजी भागीदारी’ के उचित प्रारूप के अनुसार समुदाय तथा / अथवा निजी क्षेत्र की इकाईयों को हस्तांतरित करने की वकालत प्रस्तावित नीति में की गई है।
प्रस्ताव है कि जल की कीमत निर्धारण, वितरण तथा विविध कार्यों के लिये मात्र आवंटन के लिए प्रदेशों में एक स्वायत्त जल नियामक प्राधिकरण हो, जिसका स्वतंत्र कानून हो। वर्तमान में सरकारें जन दबाव के कारण जल का दाम बढ़ा नहीं सकती हैं। स्वायत्त प्राधिकरण ऐसे जन दबाव व सरकारी नियंत्रण से मुक्त रहेगा, जिससे वह जल सेवा प्रदाता (निजी कंपनी) के लिये लागत व उचित प्रतिफल-युक्त मूल्य निर्धारित कर सके। इस हेतु विश्व बैंक व एशिया डेवलपमेंट बैक की शर्तों पर अनेक देशों में ऐसे प्राधिकरण बने हैं। देश में भी जहां-जहां विश्व बैंक व एशियाई विकास बैंक से ट्टण लेकर जल क्षेत्र में तथाकथित सुधार लागू किये गए हैं, वहां ऐसे प्राधिकरण का कानून बना है। यथा जल नीति प्रारूप के बिंदु क्र. 13.1 में कहा है, ‘‘प्रत्येक राज्य में एक जल विनियमन प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए। प्राधिकरण अन्य बातों के साथ-साथ इस नीति में उल्लिखत नियमों के अनुसार सामान्यतः स्वायत्त ढंग से जल शुल्क प्रणाली तथा प्रभारों का निधारण और विनियमन करना चाहिए। प्राधिकरण को शुल्क प्रणाली के अलावा आवंटन का विनियमन करने, निगरानी प्रचालन करने, निष्पादन की समीक्षा करने तथा नीति में परिवर्तन करने संबंधी सुझाव इत्यादि देने जैसे कार्य भी करने चाहिए। राज्य में जल विनियमन प्राधिकरण को अंततः राज्यीय जल संबंधी विवादों का समाधान करने में भी सहयोग देना चाहिए।’’
यदि जल के क्षेत्र में व्यापारिक कंपनियां प्रवेश करती हैं और वे लागत व लाभ वसूल करेंगी और लागत आधारित माडल पर यदि आंशिक सामुदायिक (जल प्रयोक्ता संघ के) स्वामित्व के आधार पर भी सार्वजनिक व निजी भागीदारी प्रारंभ होती है तो जल के दाम बहुत बढ़ जायेंगे। आरंभ में निजीकरण हेतु विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक सहायता देते हैं, जिससे कुछ समय दाम नहीं बढ़ते हैं। लेकिन शनैः-शनैः यह सहायता बंद होने पर जल के दाम, लागत व लाभ आधारित होते ही बढ़ते चले जाएंगे।
इस पब्लिक-प्राइवेट माडल के अंतर्गत बिल वितरण, नये कनेक्शन देने आदि का काम किसी जल प्रयोक्ता संघ या सामुदायिक संगठन को सौंपा जा सकता है एवं सम्पूर्ण जल संग्रह व वितरण की आधारिक रचनाओं (Infrastructure) को किसी बड़ी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी को सौंप दिया जाता है। विश्व भर में स्वेज, विवेंडी, डेग्रेमोंट, वेक्टेल जैसी 10-12 बड़ी यूरो-अमरीकी कंपनियां हैं, जो इस सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माडल से विश्व भर की अधिकांश जल संबंधी आधारिक रचनाओं को नियंत्रित करती जा रही हैं। इस दृष्टि से बिंदु क्र. 7.4 में कहा है, ‘‘जल प्रयोक्ता संघों को जल शुल्क एकत्रित करने एवं एक हिस्सा रखने, उन्हें आवंटित जल की मात्रा का प्रबंधन करने और उनके अधिकार क्षेत्र में वितरण प्रणाली के रख-रखाव के लिए वैधानिक शक्तियां दी जानी चाहिएं।’’
जल के निजीकरण के संबंध में विश्व बैक ने योजनापूर्वक जलापूर्ति, चिकित्सा व शिक्षा जैसी जन-उपयोगिताओं के लिये नागरिक आधारिक रचनायें (Civic Infrastructure) शब्द प्रयोग आरंभ कर दिया है। साथ ही यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि इन्हें बाजार आधारित किया जाये। अर्थात इन पर अनुदान के स्थान पर लागत व लाभ के आधार मूल्य निर्धारण हो (Market Based Instruments should Be Invoked in Civic Infrastructure), जिसका आशय है कि जलापूर्ति, शिक्षा व चिकित्सा में लाभ युक्त लागत के आधार पर मूल्य निर्धारण प्रारंभ कर इनका निजीकरण व इनमें विदेशी निवेश खोलना चाहिये। इन तीन सेवाओं के निजीकरण व इनमें विदेशी पूंजी निवेश खोलने पर ऐसी कंपनियां 100 खरब डालर के लाभकारी कारोबार की आशा संजोये बैठी हैं।
यदि सिंचाई के लिये जल व विद्युत के दाम लागत आधारित हो गये तो किसान के लिये खेती करना असंभव हो जाएगा और वे अपनी भूमि पर विदेशी कंपनियों के लिये ठेके पर खेती करने के लिये विवश होंगे। भारत के पास विश्व की सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि व सर्वाधिक सिंचित भूमि होने के कारण विश्व भर की खाद्य व कृषि उत्पाद कंपनियां अनुबंधित कृषि के माध्यम से किसानों से उनकी जमीन लेना चाहती हंै। उदाहरण के लिए कारगिल नामक अमरीकी कंपनी अपने नेचर फ्रेश नामक आटे के लिये 6000 हेक्टर भूमि पर अपने बीज देकर खेती करवा रही है और अपनी ही आटा मिल से आटा पीस कर देश में बेच रही है। इस प्रकार ‘खेत-खलिहान से किचन’ तक की समग्र आपूर्ति शृंखला उसके हाथ में है। ऐसे ही हिंदुस्तान यूनी लिवर टमाटर व आलू की खेती करवा रही है।
अभी तक देश में प्रमुख स्थानों पर जहां भी जलापूर्ति का निजीकरण हुआ है, वहां स्वेज, बेक्टेल, डेग्रमांड जैसी विदेशी कंपनियों ने निवेश किया है। उदाहरणतः तिरूपुर में यूएस एड व विश्व बैंक की सहायता से लागू योजना में वेक्टेल के साथ 30 वर्ष का अनुबंध है। नयी दिल्ली में डेग्रेमांट कंपनी के साथ 10 वर्ष का अनुबंध है। ऐसे सभी मामलों में निजी कंपनी को लाभ की पूरी गारंटी दी गई है। चिंता की बात यह है कि जल वितरण में स्पर्धा के अभाव में उनकी कुशलता की कोई गारंटी नहीं रह जाती है। निजी कंपनी अपने अनुबंध में यह भी शर्त रखती है कि वहां जल वितरण की कोई समानान्तर व्यवस्था नहीं संचालित की जा सकेगी।
लेटिन अमेरिका व अफ्रीका आदि के कई देशों में जहां भी जल का निजीकरण हुआ है, वहां लोग उन विदेशी कंपनियों से ही जल क्रय करें, यह सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों को जल हेतु अपनी जमीन पर कुएं खोदने की भी मनाही है। बोलिविया में तो छत के जल को संग्रहित करने के लिये भी इटालवी अंतर्राष्ट्रीय जल कंपनी व अमरीकी वेक्टेल ने परमिट प्रणाली लागू की है। सर्वत्र, किसी भी प्रकार की समानान्तर जलापूर्ति की व्यवस्था पर रोक होने से जनता के जल स्रोतों पर एक ही कंपनी का एकाधिकार हो जाता है। सभी स्थानों पर निजी सेवा प्रदाता से होने वाले समझौते में किसी भी प्रकार की प्रतिस्पर्धी सेवा की मनाही होती है। कई अनुबंधों में सार्वजनिक नलकूपों को गहरा करने तक की भी मनाही होती है।
भारत में ऐसा कोई प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। लेकिन यदि सरकार ने दुराग्रह के साथ अपनी नीति को लागू करने का प्रयास किया तो निश्चित है कि देश में भारी अराजकता फैल जाएगी। देश की जनता ऐसे अन्यायपूर्ण कानूनों को कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।
ईमेलः bpsharma131@yahoo.co.in
अभी तक देश में प्रमुख स्थानों पर जहां भी जलापूर्ति का निजीकरण हुआ है, वहां स्वेज, बेक्टेल, डेग्रमांड जैसी विदेशी कंपनियों ने निवेश किया है। उदाहरणतः तिरूपुर में यूएस एड व विश्व बैंक की सहायता से लागू योजना में वेक्टेल के साथ 30 वर्ष का अनुबंध है। नयी दिल्ली में डेग्रेमांट कंपनी के साथ 10 वर्ष का अनुबंध है। ऐसे सभी मामलों में निजी कंपनी को लाभ की पूरी गारंटी दी गई है। चिंता की बात यह है कि जल वितरण में स्पर्धा के अभाव में उनकी कुशलता की कोई गारंटी नहीं रह जाती है। निजी कंपनी अपने अनुबंध में यह भी शर्त रखती है कि वहां जल वितरण की कोई समानान्तर व्यवस्था नहीं संचालित की जा सकेगी।
केवल विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय जल नीति प्रारूप-2012’ में जल को आर्थिक वस्तु की श्रेणी में रखना प्रस्तावित किया है। साथ ही जल का मूल्य लागत आधारित करते हुए जल के प्रबंध व वितरण में व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ने के जो संकेत दिये हैं वे चिंताजनक हैं। जल सम्पूर्ण जीव सृष्टि के लिये प्रकृति का अनमोल उपहार है। यह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता होने के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा का आधार एवं किसान के योगक्षेम का अवलंबन है। हमारी परंपरा में जल को पैसा नहीं बल्कि पुण्य कमाने का माध्यम माना गया है। लेकिन यदि केंद्र सरकार की नवीन जल नीति के सुझाये उपायों पर अमल हुआ तो जल संसाधनों पर निजी एकाधिकार होगा और पानी बेचकर निजी कंपनियां मुनाफा कमाएंगी। ऐसा होने पर जल सामान्य व्यक्ति के लिये दुर्लभ व बहुसंख्य समाज के शोषण का माध्यम बन जायेगा।जल संसाधनों के प्रबंध व वितरण के क्षेत्र में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अनुमान है कि जल संसाधनों का निजीकरण कर जल के कारोबार में विदेशी निवेश की छूट देने की दशा में 20 खरब डालर के उदीयमान व्यवसाय के अवसर उत्पन्न होंगे। केवल विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय जल नीति प्रारूप-2012’ में जल को आर्थिक वस्तु की श्रेणी में रखना प्रस्तावित किया है। साथ ही जल का मूल्य लागत आधारित करते हुए जल के प्रबंध व वितरण में व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने की बात की गई है। जल नीति प्रारूप- 2012 में तो यहां तक कह दिया है कि जल को आर्थिक वस्तु मान कर उसका मूल्य निर्धारण उससे अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य को ध्यान में रख कर करना चाहिये। यह अत्यंत चिंताजनक है।
लगता है सरकार को यह नहीं पता कि दुनिया में जहां-जहां पानी पर निजी एकाधिकार स्थापित किया गया, वहां जन प्रदर्शन, सामाजिक अशांति और विरोध अभियानों के रूप में तीखी प्रतिक्रिया हुई। अर्जेटीना में जल के निजीकरण के विरोध में उपजे जन आक्रोश से निजी कंपनियों को भारी नुकसान, मेट्रो मनीला जलप्रदाय परियोजना से निजी कंपनी द्वारा हाथ खींच लेने को विवश होना, अटलांटा में पानी के अनुबंध पर संकट, कोलम्बिया, जकार्ता और अल आल्टो जैसी जगहों पर तीव्र सामाजिक प्रतिक्रियाएं और दंगे आदि की भारत सरकार को अनदेखी नहीं करनी चाहिये। जल के निजीकरण के विरूद्ध इस प्रकार की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि पानी के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की सहभागिता का माडल सफल नहीं हो सका है। निजीकरण के बाद अधिकांश स्थानों पर जल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है, अनेक स्थानों पर जल की गुणवत्ता असंतोषजनक पायी गयी है और आम जनता शोषण का शिकार हुई है। अधिकांश स्थानों पर जहां भी निजी कंपनियों ने अनुबंध की शर्तों को पूरा नहीं किया था, वहां उन्हें अनेक राजनैतिक और सामाजिक विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा है। यह सब देखते हुए भारत सरकार को जल नीति प्रारूप- 2012 पर पुनर्विचार करना चाहिये। संक्षेप में इस प्रारूप के विवादास्पद बिंदु निम्न हैं-
अधिकतम लाभ प्राप्ति का उद्देश्यः
जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। इससे अधिकतम लाभर्जन की वृत्ति से साधारण व्यक्ति का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा और किसान के लिये कृषि और अनाकर्षक होती चली जायेगी। जल नीति 2012 के बिंदु क्रमांक 7.1 में कहा है, ‘‘जल को एक आर्थिक वस्तु के रूप में समझे जाने की आवश्यकता है और इसलिये इसका मूल्य जल उपयोग कुशलता को बढ़ावा देने एवं जल से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से निर्धारित किया जाना चाहिए। जहां जल के मूल्य पर प्रशासनिक नियंत्रण की पद्धति जारी रखनी पड़ सकती है, वहां जल मूल्य पर प्रशासनिक नियंत्रण अधिकाधिक आर्थिक सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए।’’
जल के मूल्य को लागत से जोड़नाः
प्रारूप के बिंदु क्र. 7.2 में कहा गया है, ‘‘प्रत्येक राज्य में जल शुल्क प्रणाली स्थापित करने एवं जल प्रभार के लिए मानदंड निर्धारित करने के लिए एक तंत्र होना चाहिए, जो कि इस सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए कि क्रास सब्सिडी, यदि कोई हो, को ध्यान में रखते हुए जल शुल्क में जल संसाधन के प्रशासन, प्रचालन एवं रख-रखाव की लागत की पूर्ण वसूली शामिल हो।’’ क्रास सब्सिडी की मौजूदा व्यवस्था, जिसके अंतर्गत पेय जल एवं कृषि उपयोग के लिए जल का दाम सस्ता व वाणिज्यिक उपयोग के लिये महंगा होता है, नई नीति में धीरे-धीरे कम करने की सिफारिश की गई है।
पानी और बिजली दोनों को महंगा करनाः
जल नीति में कहा है कि विद्युत का मूल्य कम होने से जल व विद्युत दोनों का दुरूपयोग होता है। इसलिये विद्युत के दाम बढ़ाये जायें। विशेष रूप से कृषि के लिये बिजली के दाम बढ़ाने का प्रस्ताव है। यथा- बिंदु क्र 7.5 में कहा है, ‘‘विद्युत का बहुत कम मूल्य निर्धारण करने से विद्युत एवं जल दोनों की बर्बादी होती है। इसे बदलने की जरूरत है।’’
भूगर्भीय जल पर किसान को अधिकार च्युत करने का प्रस्तावः
सुखाधिकार अधिनियम-1882 के अधीन भूमि के गर्भ में उपलब्ध जल पर उस भूमि के स्वामी का हक होता है, उसे समाप्त किये जाने की वकालत की गई है। यथा बिंदु क्र. 2.2 में कहा है, ‘‘भारतीय सुखाधिकार अधिनियम-1882 में उस प्रावधान का संशोधन करना पड़ सकता है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह अधिनियम भूमि स्वामी को उसकी भूमि के अंतर्गत भूमि जल के लिए मालिकाना हक प्रदान करता है।’’
सरकार की भूमिका में कटौतीः
नई नीति में कहा गया है कि निजीकरण करते हुये सरकार जल वितरण के काम से धीरे-धीरे बाहर निकल जाये और वह केवल इस कार्य के नियमन की ही जिम्मेदारी ले। जल संबंधी सेवाओं को समुचित ‘सार्वजनिक निजी भागीदारी’ के उचित प्रारूप के अनुसार समुदाय तथा / अथवा निजी क्षेत्र की इकाईयों को हस्तांतरित करने की वकालत प्रस्तावित नीति में की गई है।
स्वायत्त इकाई का गठनः
प्रस्ताव है कि जल की कीमत निर्धारण, वितरण तथा विविध कार्यों के लिये मात्र आवंटन के लिए प्रदेशों में एक स्वायत्त जल नियामक प्राधिकरण हो, जिसका स्वतंत्र कानून हो। वर्तमान में सरकारें जन दबाव के कारण जल का दाम बढ़ा नहीं सकती हैं। स्वायत्त प्राधिकरण ऐसे जन दबाव व सरकारी नियंत्रण से मुक्त रहेगा, जिससे वह जल सेवा प्रदाता (निजी कंपनी) के लिये लागत व उचित प्रतिफल-युक्त मूल्य निर्धारित कर सके। इस हेतु विश्व बैंक व एशिया डेवलपमेंट बैक की शर्तों पर अनेक देशों में ऐसे प्राधिकरण बने हैं। देश में भी जहां-जहां विश्व बैंक व एशियाई विकास बैंक से ट्टण लेकर जल क्षेत्र में तथाकथित सुधार लागू किये गए हैं, वहां ऐसे प्राधिकरण का कानून बना है। यथा जल नीति प्रारूप के बिंदु क्र. 13.1 में कहा है, ‘‘प्रत्येक राज्य में एक जल विनियमन प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए। प्राधिकरण अन्य बातों के साथ-साथ इस नीति में उल्लिखत नियमों के अनुसार सामान्यतः स्वायत्त ढंग से जल शुल्क प्रणाली तथा प्रभारों का निधारण और विनियमन करना चाहिए। प्राधिकरण को शुल्क प्रणाली के अलावा आवंटन का विनियमन करने, निगरानी प्रचालन करने, निष्पादन की समीक्षा करने तथा नीति में परिवर्तन करने संबंधी सुझाव इत्यादि देने जैसे कार्य भी करने चाहिए। राज्य में जल विनियमन प्राधिकरण को अंततः राज्यीय जल संबंधी विवादों का समाधान करने में भी सहयोग देना चाहिए।’’
विनाशकारी परिणामः
यदि जल के क्षेत्र में व्यापारिक कंपनियां प्रवेश करती हैं और वे लागत व लाभ वसूल करेंगी और लागत आधारित माडल पर यदि आंशिक सामुदायिक (जल प्रयोक्ता संघ के) स्वामित्व के आधार पर भी सार्वजनिक व निजी भागीदारी प्रारंभ होती है तो जल के दाम बहुत बढ़ जायेंगे। आरंभ में निजीकरण हेतु विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक सहायता देते हैं, जिससे कुछ समय दाम नहीं बढ़ते हैं। लेकिन शनैः-शनैः यह सहायता बंद होने पर जल के दाम, लागत व लाभ आधारित होते ही बढ़ते चले जाएंगे।
इस पब्लिक-प्राइवेट माडल के अंतर्गत बिल वितरण, नये कनेक्शन देने आदि का काम किसी जल प्रयोक्ता संघ या सामुदायिक संगठन को सौंपा जा सकता है एवं सम्पूर्ण जल संग्रह व वितरण की आधारिक रचनाओं (Infrastructure) को किसी बड़ी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी को सौंप दिया जाता है। विश्व भर में स्वेज, विवेंडी, डेग्रेमोंट, वेक्टेल जैसी 10-12 बड़ी यूरो-अमरीकी कंपनियां हैं, जो इस सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माडल से विश्व भर की अधिकांश जल संबंधी आधारिक रचनाओं को नियंत्रित करती जा रही हैं। इस दृष्टि से बिंदु क्र. 7.4 में कहा है, ‘‘जल प्रयोक्ता संघों को जल शुल्क एकत्रित करने एवं एक हिस्सा रखने, उन्हें आवंटित जल की मात्रा का प्रबंधन करने और उनके अधिकार क्षेत्र में वितरण प्रणाली के रख-रखाव के लिए वैधानिक शक्तियां दी जानी चाहिएं।’’
जल के निजीकरण के संबंध में विश्व बैक ने योजनापूर्वक जलापूर्ति, चिकित्सा व शिक्षा जैसी जन-उपयोगिताओं के लिये नागरिक आधारिक रचनायें (Civic Infrastructure) शब्द प्रयोग आरंभ कर दिया है। साथ ही यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि इन्हें बाजार आधारित किया जाये। अर्थात इन पर अनुदान के स्थान पर लागत व लाभ के आधार मूल्य निर्धारण हो (Market Based Instruments should Be Invoked in Civic Infrastructure), जिसका आशय है कि जलापूर्ति, शिक्षा व चिकित्सा में लाभ युक्त लागत के आधार पर मूल्य निर्धारण प्रारंभ कर इनका निजीकरण व इनमें विदेशी निवेश खोलना चाहिये। इन तीन सेवाओं के निजीकरण व इनमें विदेशी पूंजी निवेश खोलने पर ऐसी कंपनियां 100 खरब डालर के लाभकारी कारोबार की आशा संजोये बैठी हैं।
यदि सिंचाई के लिये जल व विद्युत के दाम लागत आधारित हो गये तो किसान के लिये खेती करना असंभव हो जाएगा और वे अपनी भूमि पर विदेशी कंपनियों के लिये ठेके पर खेती करने के लिये विवश होंगे। भारत के पास विश्व की सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि व सर्वाधिक सिंचित भूमि होने के कारण विश्व भर की खाद्य व कृषि उत्पाद कंपनियां अनुबंधित कृषि के माध्यम से किसानों से उनकी जमीन लेना चाहती हंै। उदाहरण के लिए कारगिल नामक अमरीकी कंपनी अपने नेचर फ्रेश नामक आटे के लिये 6000 हेक्टर भूमि पर अपने बीज देकर खेती करवा रही है और अपनी ही आटा मिल से आटा पीस कर देश में बेच रही है। इस प्रकार ‘खेत-खलिहान से किचन’ तक की समग्र आपूर्ति शृंखला उसके हाथ में है। ऐसे ही हिंदुस्तान यूनी लिवर टमाटर व आलू की खेती करवा रही है।
अभी तक देश में प्रमुख स्थानों पर जहां भी जलापूर्ति का निजीकरण हुआ है, वहां स्वेज, बेक्टेल, डेग्रमांड जैसी विदेशी कंपनियों ने निवेश किया है। उदाहरणतः तिरूपुर में यूएस एड व विश्व बैंक की सहायता से लागू योजना में वेक्टेल के साथ 30 वर्ष का अनुबंध है। नयी दिल्ली में डेग्रेमांट कंपनी के साथ 10 वर्ष का अनुबंध है। ऐसे सभी मामलों में निजी कंपनी को लाभ की पूरी गारंटी दी गई है। चिंता की बात यह है कि जल वितरण में स्पर्धा के अभाव में उनकी कुशलता की कोई गारंटी नहीं रह जाती है। निजी कंपनी अपने अनुबंध में यह भी शर्त रखती है कि वहां जल वितरण की कोई समानान्तर व्यवस्था नहीं संचालित की जा सकेगी।
लेटिन अमेरिका व अफ्रीका आदि के कई देशों में जहां भी जल का निजीकरण हुआ है, वहां लोग उन विदेशी कंपनियों से ही जल क्रय करें, यह सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों को जल हेतु अपनी जमीन पर कुएं खोदने की भी मनाही है। बोलिविया में तो छत के जल को संग्रहित करने के लिये भी इटालवी अंतर्राष्ट्रीय जल कंपनी व अमरीकी वेक्टेल ने परमिट प्रणाली लागू की है। सर्वत्र, किसी भी प्रकार की समानान्तर जलापूर्ति की व्यवस्था पर रोक होने से जनता के जल स्रोतों पर एक ही कंपनी का एकाधिकार हो जाता है। सभी स्थानों पर निजी सेवा प्रदाता से होने वाले समझौते में किसी भी प्रकार की प्रतिस्पर्धी सेवा की मनाही होती है। कई अनुबंधों में सार्वजनिक नलकूपों को गहरा करने तक की भी मनाही होती है।
भारत में ऐसा कोई प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। लेकिन यदि सरकार ने दुराग्रह के साथ अपनी नीति को लागू करने का प्रयास किया तो निश्चित है कि देश में भारी अराजकता फैल जाएगी। देश की जनता ऐसे अन्यायपूर्ण कानूनों को कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।
ईमेलः bpsharma131@yahoo.co.in
Path Alias
/articles/raasataraiya-jalanaitai-2012-jai-kaa-janjaala
Post By: Hindi