1. प्रस्तावना
1.1 जल एक दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन है जो जीवन, जीविका, खाद्य सुरक्षा और निरन्तर विकास का आधार है। भारत में संसार की 18 प्रतिशत से अधिक आबादी है जबकि विश्व का केवल 4 प्रतिशत नवीकरणीय जल संसाधन और विश्व के भू क्षेत्र का 2.4 प्रतिशत भू क्षेत्र है। इसके अतिरिक्त, समय और स्थान के साथ असमान वितरण के कारण जल की उपयोग योग्य मात्रा भी सीमित है, इसके अलावा, देश के किसी-न-किसी हिस्से में प्रायः बाढ़ और सूखे की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।
एक तेजी से विकासशील राष्ट्र में जनसंख्या बढ़ने तथा आवश्यकताओं में बढ़ोत्तरी और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए, भविष्य में उपयोग योग्य जल की और कमी होगी तथा विभिन्न प्रयोक्ता समूहों के बीच जल विवादों के और गहराने की सम्भावना है।
जनता में जल की कमी तथा उसके जीवन रक्षक और आर्थिक महत्त्व के विषय में जागरुकता की कमी के कारण जल का कुप्रबन्धन, जल की बर्बादी और अकुशल उपयोग होता है और प्रदूषण तथा न्यूनतम पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं से भी कम प्रवाह हो पाता है। इसके अतिरिक्त, जल संसाधनों का बँटवारा असमान है तथा जल संसाधनों की आयोजना, प्रबन्धन और उपयोग के विषय में समरूप परिप्रेक्ष्य की कमी है। राष्ट्रीय जलनीति का उद्देश्य मौजूदा स्थिति का संज्ञान लेने, नियमों और संस्थाओं की प्रणाली के सृजन और समरूप राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य समेत कार्य योजना हेतु ढाँचे का प्रस्ताव रखना है।
1.2 भारत में जल संसाधनों और उनके प्रबन्धन सम्बन्धी वर्तमान परिदृश्य से कई प्रकार की चिन्ताएँ सामने आई हैं जिनमें से महत्त्वपूर्ण चिन्ताएँ इस प्रकार हैं :-
(i) भारत के बड़े हिस्सों में पहले ही जल की कमी हो चुकी है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और जीवनशैली में परिवर्तन के कारण जल की माँग में तेजी से बढ़ोत्तरी की वजह से जल सुरक्षा के विषय में गम्भीर चुनौतियाँ बन गई हैं।
(ii) जल संचालन सम्बन्धी मुद्दों पर भी पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया गया है। जल संसाधनों के खराब प्रबन्धन से देश के कई हिस्सों में गम्भीर स्थिति बन गई है।
(iii) जल की उपलब्धता में भारी स्थानिक और कालिक अन्तर है जो जलवायु परिवर्तन से और अधिक बढ़ सकता है जिसके कारण जल संकट और गहराएगा तथा जल सम्बन्धी आपदाओं अर्थात बाढ़, अधिक भू-कटाव तथा सूखे की बार-बार होने वाली घटनाओं आदि में वृद्धि होगी।
(iv) जलवायु परिवर्तन से समुद्र जल का स्तर भी बढ़ सकता है। इसकी वजह से भूजल जलभृतों/सतही जल में लवणता का प्रवेश हो सकता है और तटीय क्षेत्रों में तटीय जल-प्लावन बढ़ सकता है जिसका इन क्षेत्रों मे निवास स्थानों, कृषि और उद्योग पर बुरा असर पड़ेगा।
(v) कई क्षेत्रों में स्वच्छ पेयजल और अन्य घरेलू आवश्यकताओं के लिये जल की उपलब्धता की समस्या अभी भी है। विभिन्न क्षेत्रों में और एक ही क्षेत्र के विभिन्न लोगों के बीच जल उपलब्धता विषम है और इससे सामाजिक अराजकता हो सकती है।
(vi) भूजल हालांकि जल विज्ञानीय चक्र और सामुदायिक संसाधन का हिस्सा है लेकिन इसे अभी भी वैयक्तिक सम्पत्ति मानकर इसकी निरन्तरता के विषय में सोचे समझे बिना इसका असमान दोहन किया जाता है जिसके कारण कई क्षेत्रों में अति-दोहन की स्थिति बन गई है।
(vii) जल संसाधन परियोजनाएँ जो कि यद्यपि बहुसंख्यक भागीदारों वाली बहुआयामी परियोजनाएँ होती हैं कि आयोजना और कार्यान्वयन, अनुकूलतम उपयोग, पर्यावरण का स्थायित्व और लोगों को समग्र लाभ के विषय पर कोई ध्यान दिये बिना विखण्डित रूप से किया जा रहा है।
(viii) जल की हिस्सेदारी के सम्बन्ध में अन्तरांचल, अन्तरराज्यीय, अन्तःराज्यीय और अन्तरक्षेत्रीय विवादों के कारण, सम्बन्धों में तनाव तथा बेसिन/उप बेसिन आधार पर वैज्ञानिक योजना के माध्यम से जल के अनुकूलतम उपयोग में बाधा आती है।
(ix) मौजूदा सिंचाई अवसंरचनाओं के कुल मिलाकर अपर्याप्त अनुरक्षण के फलस्वरूप उपलब्ध संसाधनों की बर्बादी होती है और उपयोग कम हो पाता है। सृजित सिंचाई क्षमता और उपयोग की गई सिंचाई क्षमता में भारी अन्तर है।
(x) प्राकृतिक जल निकायों और जल निकास मार्गों पर अतिक्रमण किया जा रहा है और उन्हें अन्य प्रयोजनों के लिये उपयोग किया जा रहा है। भूजल पुनर्भरण क्षेत्र प्रायः बन्द रहते हैं।
(xi) जलस्रोतों में बढ़ता प्रदूषण, विशेषकर औद्योगिक बहिःस्रावों के जरिए, पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिये खतरा पैदा करने के साथ-साथ स्वच्छ जल की उपलब्धता को भी प्रभावित कर रहा है। देश के कई हिस्सों में नदी का बड़ा क्षेत्र बहुत अधिक प्रदूषित होने के साथ-साथ जलीय पारिस्थितिकी, सांस्कृतिक आवश्यकताओं तथा सौन्दर्यबोध में सहायता देने हेतु प्रवाहमयी होने से भी वंचित रह जाता है।
(xii) साफ-सफाई और स्वच्छता के लिये जल की उपलब्धता तो और अधिक गम्भीर समस्या है। अपर्याप्त साफ-सफाई और मल-जल परिशोधन की कमी के कारण जल संसाधन प्रदूषित हो रहे हैं।
(xiii) जल की समग्र कमी और आर्थिक महत्त्व के विषय में लोगों में कम जागरुकता होने के कारण जल की बर्बादी और अकुशल उपयोग होता है।
(xiv) वैज्ञानिक आयोजना, सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके आधुनिक तकनीक और विश्लेषणात्मक क्षमताओं के उपयोग हेतु पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मियों की कमी के कारण अच्छे जल प्रबन्धन में बाधा आती है।
(xv) जल सम्बन्धी समस्याओं के विषय में समग्र और अन्तर-विषयक दृष्टिकोण नहीं है।
(xvi) जल सम्बन्धी निर्णय लेने वाले प्रभारी सार्वजनिक अभिकरण भागीदारों से परामर्श किये बगैर अपने आप निर्णय लेते हैं जिसके कारण प्रायः खराब और अविश्वसनीय सेवाएँ मिलती हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की असमानताएँ होती हैं।
(xvii) जलधाराओं, नदियों के आवाह-क्षेत्रों और जलदाई स्तर के पुनर्भरण क्षेत्रों की विशेषताएँ बदल रही हैं जिसके फलस्वरूप भूमि उपयोग और शामिल भूमि में परिवर्तन हो रहा है जिससे जल संसाधन उपलब्धता और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
1.3 जल संसाधनों के विषय में सार्वजनिक नीतियों का संचालन कतिपय बुनियादी नियमों द्वारा करने की आवश्यकता है, ताकि जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबन्धन के दृष्टिकोणों में कुछ साझापन हो। ये बुनियादी नियम इस प्रकार हैं :-
(i) जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबन्धन, स्थानीय, क्षेत्रीय, राज्यीय और राष्ट्रीय सन्दर्भ में मानवीय, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एकीकृत और पर्यावरणीक तौर पर सुदृढ़ आधार वाले साझे एकीकृत परिप्रेक्ष्य में संचालित करने की आवश्यकता है।
(ii) जल के उपयोग और आवंटन में समानता और सामाजिक न्याय का नियम अपनाया जाना चाहिए।
(iii) समानता, सामाजिक न्याय और स्थायित्व के लिये सूचित पारदर्शी निर्णय द्वारा अच्छा संचालन बहुत जरूरी है। सार्थक गहन सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही से निर्णय लेने और जल संसाधनों के विनियमन में मार्गदर्शन देना चाहिए।
(iv) खाद्य सुरक्षा, जीविका तथा सभी के लिये समान और स्थायी विकास हेतु राज्य द्वारा सार्वजनिक धरोहर के सिद्धान्त के तहत जल का प्रबन्धन सामुदायिक संसाधन के रूप में किये जाने की आवश्यकता है।
(v) जल, पारिस्थितिकी को बनाए रखने के लिये आवश्यक है और इसलिये न्यूनतम पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं को समुचित महत्त्व दिया जाना चाहिए।
(vi) जल को, पेयजल, सफाई के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता और अन्य घरेलू आवश्यकताओं (पशुओं की आवश्यकताओं समेत) खाद्य सुरक्षा हासिल करने, सम्पोषक कृषि को सम्बल देने और न्यूनतम पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं के लिये उच्च प्राथमिकता वाले आवंटन के बाद आर्थिक वस्तु माना जाना चाहिए ताकि इसका संरक्षण और कुशल उपयोग बढ़ सके।
(vii) जल चक्र के सभी घटक अर्थात वाष्प-वाष्पोत्सर्जन, वर्षण, अपवाह, नदी, झीलें, मृदा नमी और भूजल, समुद्र आदि परस्पर आधारित होते हैं तथा मूलभूत जल विज्ञानीय इकाई नदी बेसिन है जिसे आयोजना के लिये मूलभूत इकाई माना जाना चाहिए।
(viii) उपयोज्य जल संसाधनों की उपलब्धता को बढ़ाने सम्बन्धी बताई गई सीमाओं और जलवायु परिवर्तन के कारण आपूर्तियों में अधिक परिवर्तिता को देखते हुए भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करना माँग प्रबन्धन पर अधिक निर्भर होगा और इसलिये इसे, विशेषकर (क) एक ऐसी कृषि प्रणाली विकसित करके जिससे जल उपयोग को मितव्ययी बनाया जा सके और जल से अधिकतम लाभ मिल सके तथा (ख) जल के अधिकतम दक्ष उपयोग को लागू करने और जल की बर्बादी को रोककर, उच्च प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
(ix) जल गुणवत्ता और मात्रा एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनके एकीकृत ढंग से प्रबन्धन की आवश्यकता है जिसके लिये अन्य बातों के साथ-साथ लगातार प्रदूषण और जल बर्बादी को कम करने हेतु आर्थिक प्रोत्साहन और दंड विधियों के उपयोग समेत व्यापक पर्यावरणीय प्रबन्धन दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
(x) जल संसाधनों की उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, जल प्रबन्धन सम्बन्धी निर्णयों में एक घटक होना चाहिए। स्थानीय भू-जलवायु विषयक और जल-विज्ञानीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए जल के उपयोग वाले कार्यकलापों को विनियमित करने की आवश्यकता है।
2. जल सम्बन्धी ढाँचागत कानून
2.1 यद्यपि, यह माना जाता है कि जल के सम्बन्ध में समुचित नीतियाँ, कानून बनाए/कार्यान्वित करने और/या विनियमन करने का अधिकार राज्य का है तथापि, जल सम्बन्धी सामान्य सिद्धान्तों का व्यापक राष्ट्रीय जल सम्बन्धी ढाँचागत कानून तैयार करने की आवश्यकता है। इससे देश के प्रत्येक राज्य में जल के संचालन हेतु आवश्यक विधान बनाने तथा स्थानीय जल स्थिति से निपटने के लिये सरकार के निचले स्तरों पर आवश्यक प्राधिकार सौंपने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
2.2 ऐसे ढाँचागत कानून में जल को केवल दुर्लभ संसाधन ही नहीं बल्कि जीवन और पारिस्थितिकी को बनाए रखने के साधन के रूप में भी मान्यता दी जानी चाहिए। अतः खाद्य सुरक्षा, जीविका और सभी के लिये समान और निरन्तर विकास हेतु राज्य द्वारा सार्वजनिक विश्वास के सिद्धान्त के अन्तर्गत जल विशेषकर भूजल का सामुदायिक संसाधन के रूप में प्रबन्धन करने की आवश्यकता है। मौजूदा अधिनियमों के अनुसार इसमें संशोधन किया जाना चाहिए।
2.3 जल के सभी रूपों (वर्षा, मृदा, नमी, भूमि और सतही जल समेत) इसके समरूप परिप्रेक्ष्य में बेसिन/उप बेसिन को इकाई मानकर भूमि और जल संसाधनों की वैज्ञानिक आयोजना सुनिश्चित करने और आवाह एवं कमान दोनों क्षेत्रों का समग्र व सन्तुलित विकास सुनिश्चित करने के लिये अन्तरराज्यीय समन्वय को सुलभ बनाने हेतु अन्तरराज्यीय नदियों और नदी घाटियों के अनुकूलतम विकास के वास्ते एक व्यापक विधान की आवश्यकता है। इस विधान में अन्य बातों के साथ-साथ बेसिनों में सम्बन्धित राज्यों को शामिल करते हुए जल उपयोग की आयोजना, प्रबन्धन और विनियमन हेतु बेसिन प्राधिकरणों को समुचित शक्तियाँ सौंपने की आवश्यकता है।
3. जल के उपयोग
3.1 घरेलू जल उपयोग, कृषि, जल विद्युत, ताप विद्युत, नौवहन, मनोरंजन इत्यादि के लिये आवश्यक है। इन विभिन्न प्रकार के उपयोगों के लिये जल का इष्टतम उपयोग किया जाना चाहिए तथा जल को एक दुर्लभ संसाधन मानने के लिये जागरुकता फैलानी चाहिए।
3.2 केन्द्र, राज्यों और स्थानीय निकायों (संचालक संस्थाएँ) को अपने सभी नागरिकों को आवश्यक स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिये स्वच्छ जल की न्यूनतम मात्रा की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए, जिससे सभी परिवारों को शुद्ध जल आसानी से प्राप्त हो सके।
3.3 यह मानते हुए कि नदी प्रवाह में न्यून अथवा शून्य प्रवाह, लघु बाढ़ (फ्रेशेट्स), बड़ी बाढ़ आदि के रूप में विविधता होती है, नदी की पारिस्थितिकी आवश्यकताएँ विकासात्मक आवश्यकताओं को शामिल करते हुए वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा निर्धारित की जानी चाहिए। नदी प्रवाह का एक हिस्सा पारिस्थितिकीय आवश्यकता को पूरा करने के लिये अलग रखा जाना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि न्यून और अधिक प्रवाह विनियमित भूजल उपयोग के माध्यम से कम प्रवाह वाले मौसम में आधार प्रवाह सहयोग के साथ प्राकृतिक प्रवाह पद्धति के अनुपातिक हो।
3.4 नदियों और अन्य जल निकायों में जहाँ तक सम्भव हो नौवहन सुविधा का विकास किया जाना चाहिए और बहुउद्देशीय जन निकाय परियोजनाओं में आयोजना स्तर से ही नौवहन का ध्यान रखा जाये।
3.5 भारत के विपुल जल मात्रा वाले पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल उपयोग अवसंरचना कमजोर है, खाद्य सुरक्षा के लिये इसे सुदृढ़ किये जाने की आवश्यकता है।
3.6 लम्बी दूरी से जल अन्तरण द्वारा जल उपलब्ध कराने से पहले समुदाय को इस बात के लिये सुग्राहित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वह प्राथमिक रूप से स्थानीय क्षेत्रों में जल की उपलब्धता के अनुसार जल का उपयोग करें। समुदाय आधारित जल प्रबन्धन को एक संस्थागत रूप देना चाहिए और सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
4. जलवायु परिवर्तन के अनुरूप अनुकूलन
4.1 जलवायु परिवर्तन से जल संसाधनों की परिवर्तिता में बढ़ोत्तरी होने की सम्भावना है, जिससे मानव स्वास्थ्य और जीविका प्रभावित होगी। इसलिये सूक्ष्म स्तर पर जलवायु के अनुरूप प्रौद्योगिकीय विकल्प अपनाने के लिये समुदाय की क्षमता बढ़ाने हेतु विशेष जोर दिया जाना चाहिए।
4.2 जलवायु परिवर्तन के कारण जल की उपलब्धता के वैभिन्य में प्रत्याशित वृद्धि को जल भण्डारणों को उनके विभिन्न रूपों नामतः मृदा नमी, तालाबों, भूजल, लघु और बड़े जलाशयों और उनके संयोजन को बढ़ाकर निपटा जा सकता है। राज्यों को उनकी जल भण्डारण क्षमता बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिसमें इसके साथ-साथ पारम्परिक जल हार्वेस्टिंग तंत्र तथा जल निकायों का पुनरुद्धार भी शामिल है।
4.3 अनुकूलन कार्यनीतियों में विशेषतः संगत कृषि कार्यनीतियाँ और फसलीय चक्रों तथा जल अनुप्रयोग पद्धतियों जैसे भूमि समतलीकरण तथा/अथवा टपक/छिड़काव सिंचाई को अपनाकर बेहतर माँग प्रबन्धन को भी शामिल किया जा सकता है क्योंकि इससे जल उपयोग दक्षता में वृद्धि होती है तथा जलवायु परिवर्तन के कारण विषमता के बढ़ने का समाधान करने के लिये क्षमता प्राप्त की जा सकती है। इसी तरह औद्योगिक प्रक्रियाओं की जलीय दक्षता को भी बढ़ाया जाना चाहिए।
4.4 विभिन्न कृषिगत कार्यनीतियों को विकसित करके, मृदा कटाव को कम करके और मृदा उर्वरता में सुधार करने के लिये स्थानीय शोध और शैक्षिक संस्थानों से वैज्ञानिक ज्ञान-आधारित भूमि-मृदा-जल प्रबन्धन में भागीदारों की सहभागिता को प्रोत्साहित करना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों की विशिष्ट समस्याओं जैसे अचानक जल अपवाह, मृदा की कमजोर जल पकड़ क्षमता, कटाव व तलछट परिवहन और पहाड़ी ढलान जलभृतों की रिचार्जिंग आदि पर पर्याप्त रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए।
4.5 जल संसाधन संरचनाओं अर्थात बाँध, बाढ़ सुरक्षा तटबन्ध, ज्वार सुरक्षा तटबन्ध आदि की आयोजना और प्रबन्धन में सम्भावित जलवायु परिवर्तनों से निपटने वाली कार्यनीतियाँ शामिल होनी चाहिए। सम्भावित जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर नई जल संसाधन परियोजनाओं को स्वीकृति के मानदण्ड का पुनःनिर्धारण करने की आवश्यकता है।
5. उपयोग हेतु उपलब्ध जल में वृद्धि करना
5.1 देश के विभिन्न बेसिनों तथा राज्यों के विभिन्न हिस्सों में जल संसाधन की उपलब्धता तथा इनके उपयोग का वैज्ञानिक पद्धति से आकलन और आवधिक रूप से अर्थात प्रत्येक पाँच वर्ष में, समीक्षा किये जाने की आवश्यकता है। जल संसाधन आयोजना के दौरान ही जलवायु परिवर्तन सहित विभिन्न घटकों के कारण जल उपलब्धता के रुझानों का आकलन कर ध्यान में रखना चाहिए।
5.2 जल की उपलब्धता सीमित है परन्तु जनसंख्या वृद्धि, तेजी से हो रहे शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और आर्थिक विकास के कारण जल की माँग में तेजी से वृद्धि हो रही है इसलिये जल की बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिये उपयोग हेतु जल की उपलब्धता को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। उपयोग योग्य जल संसाधन में वृद्धि के लिये वर्षा का प्रत्यक्ष उपयोग एवं अपरिहार्य वाष्प-वाष्पोत्सर्जन को कम करना नई अतिरिक्त कार्यनीतियाँ हैं।
5.3 देश में भूजल संसाधन (पुनर्भरणीय एवं गैर-पुनर्भरणीय दोनों) की मात्रा एवं गुणवत्ता जानने के लिये जलभृतों की स्थिति का पता लगाने की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए पूर्ण रूप से सहभागिता को बढ़ाया जाना चाहिए। इसे आवधिक रूप से अद्यतन किया जाये।
5.4 अति-दोहित क्षेत्रों में जल उपयोग की उन्नत तकनीकें अपनाकर, जल के कुशल उपयोग को प्रोत्साहन देकर और जलभृतों के समुदाय आधारित प्रबन्धन को बढ़ावा देकर भूजल स्तर में गिरावट को रोके जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जहाँ आवश्यक हो कृत्रिम पुनर्भरण परियोजनाएँ शुरू की जानी चाहिए जिससे जल की निकासी जल के पुनर्भरण से कम हो। इससे जलभृतों से सतही प्रणाली को आधारभूत प्रवाह उपलब्ध हो सकेगा और पारिस्थितिकी बनाए रखी जा सकेगी।
5.5 अन्तरबेसिन अन्तरण केवल उत्पादन बढ़ाने के लिये नहीं होता बल्कि आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये और समानता एवं सामाजिक न्याय हासिल करने के लिये भी होता है। जल के अन्तर्बेसिन अन्तरण को प्रत्येक मामले को उसकी विशेषताओं के आधार पर ऐसे अन्तरणों के पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करके विचार किया जाना चाहिए।
5.6 मृदा में नमी बढ़ाने, गाद में कमी लाने एवं समग्र भूमि व जल उत्पादकता को बढ़ाने के लिये जल ग्रहण क्षेत्र विकास क्रियाकलापों को व्यापक रूप से क्रियान्वित किये जाने की आवश्यकता है। किसानों द्वारा खेत के तालाबों एवं अन्य मृदा व जल संरक्षण उपाय अपनाकर वर्षाजल संचयन के लिये मनरेगा (एमजीएनआरईजीए) जैसे वर्तमान कार्यक्रमों का लाभ उठाया जा सकता है।
6. माँग प्रबन्धन एवं जल उपयोग दक्षता
6.1 विभिन्न प्रयोजनों के लिये जल उपयोग हेतु बेंचमार्क विकसित करने की एक प्रणाली अर्थात जल के कुशल उपयोग को प्रोत्साहित करने एवं बढ़ावा देने के लिये विभिन्न प्रयोजनों के लिये जल उपयोग हेतु मानदंड निर्धारित करने की प्रणाली अर्थात जल खपत-स्तर और जल लेखा-जोखा विकसित किया जाना चाहिए। ‘परियोजना’ एवं ‘बेसिन’ जल उपयोग कुशलता में सतत जल सन्तुलन तथा जल लेखा अध्ययन के माध्यम से सुधार लाये जाने की आवश्यकता है। इस उद्देश्य से जल के कुशल उपयोग के प्रोत्साहन, विनियमन एवं नियंत्रण के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत व्यवस्था की जाएगी।
6.2 विशेषतः औद्योगिक परियोजनाओं के लिये जल उपयोग हेतु परियोजना मूल्यांकन एवं पर्यावरणीय प्रभाव अध्ययन से अन्य बातों के साथ-साथ जल उपयोग हेतु जल फुटप्रिंटों के विश्लेषण को शामिल करना चाहिए।
6.3 वापसी के प्रवाह सहित जल के पुनःचक्रण एवं पुनः उपयोग को बढ़ावा देना सामान्य नियम होना चाहिए।
6.4 परियोजना वित्तपोषण की संरचना इस प्रकार होनी चाहिए कि जल के कुशल एवं मितव्ययी उपयोग को बढ़ावा मिले और चालू परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करने को सुगम बनाया जा सके।
6.5 सिंचाई उपयोग में जल बचाना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतिक संसाधन अक्षय निधि के अनुसार फसल प्रणाली, सूक्ष्म सिंचाई (टपक, छिड़काव आदि), स्वचालित सिंचाई प्रचालन, वाष्पीकरण-वाष्पोत्सर्जन न्यूनीकरण आदि जैसी पद्धतियों को बढ़ावा एवं प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। भूजल के संयुक्त उपयोग से नहर के रिसाव जल का पुनःचक्रण किये जाने पर भी विचार किया जा सकता है।
6.6 छोटे बन्धों, खेत तालाबों, कृषि एवं अभियांत्रिकी पद्धतियों और जल ग्रहण क्षेत्र विकास के तरीकों आदि के माध्यम से अत्यधिक लघु स्थानीय स्तर की सिंचाई को बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है। तथापि, उनकी बाह्यताओं, सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों जैसे अनुप्रवाह में गाद में कमी आना तथा जल उपलब्धता में कमी आना, को ध्यान में रखा जाये।
6.7 यदि जल उपयोग पद्धति से भूजल में अस्वीकार्य गिरावट अथवा वृद्धि, लवणता, क्षारीयता अथवा इसी प्रकार की गुणवत्ता समस्याएँ आदि जैसी समस्याएँ होती हैं तो उपयुक्त उपायों की आयोजना की दृष्टि से निगरानी के लिये प्रयोक्ताओं को शामिल करते हुए एक समवर्तीतंत्र होना चाहिए।
7. जल का मूल्य निर्धारण
7.1 जल के मूल्य निर्धारण द्वारा इसका प्रभावी उपयोग तथा संरक्षण को बढ़ावा देना सुनिश्चित किया जाय। सभी भागीदारों से व्यापक विचार विमर्श करके प्रत्येक राज्य द्वारा स्थापित स्वतंत्र जल विनियामक प्राधिकरण के माध्यम से सभी के लिये जल की समान उपलब्धता तथा पेयजल और अन्य उपयोगों जैसे साफ-सफाई, कृषि तथा उद्योगों के लिये इसका उचित मूल्य निर्धारण किया जाय।
7.2 समानता, दक्षता तथा आर्थिक सिद्धान्तों को प्राप्त करने के लिये जल प्रभार अधिमानतः/नियम के तौर पर स्वैच्छिक आधार पर तय किये जाने चाहिए। ऐसे प्रभारों की आवधिक समीक्षा की जाये।
7.3 जल का विशिष्ट मानकों से उपचार करने के बाद पुनःचक्रण तथा पुनःउपयोग को भी उचित रूप से नियोजित शुल्क प्रणाली के तहत प्रोत्साहित किया जाये।
7.4 पेयजल तथा साफ-सफाई के लिये जल के उपयोगों के क्रय से पूर्व निर्धारण तथा गरीबों के लिये खाद्य सुरक्षा तथा आजीविका सुनिश्चित करने को उच्च प्राथमिकता देते हुए अलग-अलग मूल्य निर्धारण के सिद्धान्त को बनाए रखा जा सकता है। उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात उपलब्ध जल का अधिकतम रूप से आवंटनों और आर्थिक सिद्धान्तों के आधार पर मूल्य निर्धारण किया जाना चाहिए जिससे जल को अनावश्यक रूप से उपयोग करके व्यर्थ न किया जाये तथा उसका अधिक लाभकारी उपयोग किया जाये।
7.5 जल प्रयोक्ता संघों को जल शुल्क एकत्रित करने एवं एक हिस्सा रखने, उन्हें आवंटित जल की मात्रा का प्रबन्धन करने और उनके अधिकार क्षेत्र में वितरण प्रणाली के रख-रखाव के लिये वैधानिक शक्तियाँ दी जानी चाहिए। जल प्रयोक्ता संघों को डब्ल्यूआरए द्वारा निर्धारित की गई मूल दरों के अनुसार दरों को नियत करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
7.6 भूजल के दोहन हेतु विद्युत के उपयोग का विनियमन करके भूजल के अधिकतम दोहन को कम-से-कम किया जाना होगा। कृषि हेतु उपयोग के लिये भूजल को पम्प करने के लिये अलग विद्युत फीडर्स के उपयोग पर विचार किया जाना चाहिए।
8. नदी मार्गों, जल निकायों एवं अवसंरचनाओं का संरक्षण
8.1 नदियों, नदी मार्गों, जल निकायों एवं अवसंरचनाओं का संरक्षण सामुदायिक सहभागिता के माध्यम से एक वैज्ञानिक रूप से नियोजित पद्धति से शुरू किया जाना चाहिए। बाढ़, पर्यावरण एवं सामाजिक मुद्दों में सन्तुलन लाने के लिये जलस्रोतों एवं जलमार्गों और/अथवा सम्बन्धित नम भूमि, बाढ़ मैदानों, पारिस्थितिकीय बफर और विशिष्ट सौन्दर्यपरक मनोरंजनात्मक और/अथवा सामाजिक आवश्यकताओं हेतु आवश्यक क्षेत्रों की भण्डारण क्षमताओं का प्रबन्धन हर सम्भव सीमा तक एक समेकित रूप से लागू नियमों के आधार पर किया जाये।
8.2 जलस्रोतों (जैसे नदियाँ, झीलें, टैंक, तालाब आदि) और जल निकास मार्गों (सिंचित क्षेत्र और शहरी क्षेत्र जल निकास) का अतिक्रमण एवं अन्य उपयोगों में नहीं होने देना चाहिए और जहाँ भी ऐसा हुआ है, इसे व्यवहार्य सीमा तक पुनःस्थापित कर समुचित रूप से अनुरक्षित किया जाना चाहिए।
8.3 संरक्षित प्रतिप्रवाह क्षेत्रों के जलाशयों/जल निकायों के आस-पास शहरी स्थापनाओं, अतिक्रमण तथा अन्य विकासात्मक गतिविधियाँ जिनसे सन्दूषण, प्रदूषण, कम पुनर्भरण को सम्भावित खतरा हो तथा वन्य एवं मानवी जीवन संकट में पड़ जाये उनका कड़ाई से विनियमन किया जाना चाहिए।
8.4 योजना बनाते समय हिमालय क्षेत्रों, जलीय पारिस्थितिकी, नम भूमि तथा तटबन्ध बाढ़ मैदानों की पर्यावरणीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए।
8.5 जल के उद्गम स्थलों तथा जलस्रोतों को प्रदूषित नहीं होने देना चाहिए। निश्चित समय अवधि में तीसरा पक्ष निरीक्षण की प्रणाली विकसित की जानी चाहिए और प्रदूषण के लिये जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध कड़ी दण्डात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए।
8.6 भूजल के लिये गुणवत्ता को बनाए रखना और इसमें सुधार और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, चूँकि इसकी सफाई करना अत्यन्त कठिन है। यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है कि औद्योगिक बहिःस्राव, स्थानीय उपकर पोखरों, उर्वरकों एवं रसायनों के अवशेष आदि भूजल तक न पहुँचें।
8.7 अभीष्ट लाभ प्राप्त करना जारी रखने के लिये जल संसाधन अवसंरचना का उचित रख-रखाव किया जाना होगा। मरम्मत एवं रख-रखाव के लिये एकत्रित जल शुल्क के साथ-साथ अवसंरचना विकास की लागत का एक उचित प्रतिशत हिस्सा अलग रखा जाये। परियोजनाओं के निर्माण के लिये संविदा में उचित रख-रखाव की अधिक लम्बी अवधि एवं अवसंरचना को अच्छी हालत में सौंपने का प्रावधान अन्तर्निहित होना चाहिए।
8.8 राज्यों में और केन्द्र में भी कानूनी अधिकार प्राप्त बाँध सुरक्षा सेवाएँ सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है। प्रत्येक बाँध हेतु अनुप्रवाह बाढ़ प्रबन्धन सहित उपयुक्त सुरक्षा उपाय सर्वोच्च प्राथमिकता पर शुरू किये जाने चाहिए।
9. परियोजना की आयोजना एवं कार्यान्वयन
9.1 भारत में जल की कमी की वर्तमान स्थितियों और जलवायु परिवर्तन एवं अन्य कारकों के कारण भविष्य में स्थिति और खराब होने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना विभिन्न स्थितियों के लिये निर्धारित दक्षता मानदंडों के अनुसार की जानी चाहिए।
9.2 अन्तर्विषयक प्रकृति की होने के कारण जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना के समय परियोजना प्रभावित एवं लाभार्थी परिवारों के साथ परामर्श से तकनीकी-आर्थिक मुद्दों के अतिरिक्त सामाजिक एवं पर्यावरणीय पक्षों पर भी विचार किया जाना चाहिए। जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना एवं प्रबन्धन के लिये अधिकतर भागीदारों हेतु न्यायोचित एवं सामान्यतः स्वीकार्य समाधान खोजने पर जोर देते हुए एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धन अपनाया जाना चाहिए।
9.3 परियोजनाओं के कार्यान्वयन में विलम्ब के कारण हुए भारी आर्थिक नुकसान को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय एवं निवेश स्वीकृतियों सहित सभी स्वीकृतियाँ समयबद्ध रूप से मिलनी चाहिए।
9.4 निर्धारित समय एवं लागत से ऊपर समय व लागत से बचने के लिये समय पर निरीक्षण हेतु राज्य एवं केन्द्र स्तर पर परियोजना की समवर्ती निगरानी शुरू की जानी चाहिए।
9.5 जल संसाधन परियोजनाओं के सभी घटकों की आयोजना एवं निष्पादन समरूप प्रकार से किया जाना चाहिए जिससे अभीष्ट लाभ तुरन्त मिलने शुरू हो जाएँ और सृजित क्षमता व उपयोग की गई क्षमता के बीच कोई अन्तर न हो।
9.6 स्थानीय शासी निकायों जैसे पंचायतों, नगरपालिकाओं निगमों आदि और जल प्रयोक्ता संघों को, जहाँ भी ये हों, को परियोजनाओं की आयोजना में शामिल किया जाएगा। अनुसूचित जाति एवं जनजाति, महिलाओं और समाज के अन्य कमजोर वर्गों की अनन्य जरूरतों और आकांक्षाओं की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए।
9.7 जल विद्युत परियोजनाओं सहित सभी जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना अधिकतम व्यवहार्य सीमा तक बहुउद्देशीय परियोजनाओं के रूप में की जानी चाहिए जिनमें उपलब्ध स्थलाकृति एवं जल संसाधन से अधिकतम लाभ लेने के लिये भण्डारण का प्रावधान हो।
10. बाढ़ एवं सूखे के लिये प्रबन्धन
10.1 जहाँ संरचनात्मक एवं गैर-संरचनात्मक उपायों के माध्यम से बाढ़ एवं सूखे जैसी जल सम्बन्धी आपदाओं को रोकने के लिये हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए, वहीं बाढ़/सूखे से निपटने के लिये तंत्र सहित पूर्व तैयारी पर एक विकल्प के रूप में जोर दिया जाना चाहिए। प्राकृतिक जल निकास प्रणाली के पुनर्स्थापन पर अत्यधिक जोर दिया जाना चाहिए।
10.2 सूखे से निपटने के लिये विभिन्न कृषि कार्यनीतियों को विकसित करने तथा मृदा एवं जल उत्पादकता में सुधार करने के लिये स्थानीय, अनुसंधान एवं वैज्ञानिक संस्थानों से प्राप्त वैज्ञानिक जानकारी सहित भूमि, मृदा, ऊर्जा एवं जल प्रबन्धन करना चाहिए। आजीविका सहायता और गरीबी उपशमन के लिये समेकित खेती प्रणालियों और गैर कृषि विकास पर भी विचार किया जा सकता है।
10.3 नदी द्वारा किये गए भूमि कटाव, जिससे स्थायी नुकसान होता है, की हानि को रोकने के लिये पलस्तर लगाने, स्पर, तटबन्धों इत्यादि के निर्माण हेतु आयोजना, निष्पादन, निगरानी और अनुरक्षण भू-आकृति विज्ञानीय अध्ययनों के आधार पर किया जाना चाहिए। यह और भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है चूँकि जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तीव्र वर्षा होने तथा मृदा कटाव होने की सम्भावना है।
10.4 बाढ़ का सामना करने के लिये तैयार रहने के लिये बाढ़ पूर्वानुमान अति महत्त्वपूर्ण है तथा इसका देश भर में सघन विस्तार किया जाना चाहिए और वास्तविक समय आँकड़ा संग्रहण प्रणाली का उपयोग करते हुए आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए और इसे पूर्वानुमान मॉडल से जोड़ा जाना चाहिए। पूर्वानुमान समय को बढ़ाने के लिये विभिन्न बेसिन भागों के लिये भौतिक मॉडल विकसित करने के प्रयास किये जाने चाहिए, जिन्हें आपस में और मध्यम अवधि के बाढ़ पूर्वानुमान से जोड़ा जाना चाहिए।
10.5 जलाशयों के संचालन की प्रक्रिया को विकसित करने तथा इसका कार्यान्वयन इस प्रकार करना चाहिए ताकि बाढ़ के मौसम के दौरान बाढ़ को सहन करने सम्बन्धी क्षमता प्राप्त हो सके तथा अवसादन के असर को कम किया जा सके। ये प्रक्रियाएँ ठोस निर्णय सहयोग प्रणाली पर आधारित होनी चाहिए।
10.6 बाढ़ प्रवण तथा सूखा प्रवण समस्त क्षेत्रों का संरक्षण करना व्यवहार्य नहीं हो पाएगा; अतः बाढ़ तथा सूखे से निपटने के लिये पद्धतियों को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है। बाढ़ से निपटने की कार्यनीतियों को विकसित करने के लिये बारम्बारता आधारित बाढ़ आप्लावन मानचित्रों को तैयार किया जाना चाहिए जिसमें बाढ़ के दौरान एवं इसके तुरन्त बाद सुरक्षित जल की आपूर्ति करने की पूर्व तैयारी शामिल है। बाढ़/सूखे की स्थितियों से निपटने के लिये कार्य योजना तैयार करने की प्रक्रिया में समुदाय को शामिल किये जाने की आवश्यकता है।
10.7 आकस्मिक और अचानक बाढ़ से सम्बन्धित आपदाओं से निपटने के लिये तैयारी के लिये प्रभावित समुदायों को शामिल करते हुए बाँध/तटबन्ध क्षति सम्बन्धी अध्ययन किये जाने चाहिए तथा आपातकालीन कार्रवाई योजनाओं/आपदा प्रबन्धन योजनाओं को तैयार किया जाना चाहिए और इन्हें आवधिक आधार पर अद्यतन किया जाना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लेशियर झील टूटने से बाढ़ तथा भू-स्खलन बाँध टूटने से बाढ़ आने सम्बन्धी अध्ययन किये जाने चाहिए और यंत्रीकरण आदि सहित आवधिक निगरानी की जानी चाहिए।
11. जल आपूर्ति एवं स्वच्छता
11.1 शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में जल आपूर्ति के निर्धारण के बीच अत्याधिक असमानता को हटाने की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में समुचित सीवेज व्यवस्था के साथ जल आपूर्ति में सुधार करने के लिये प्रयास किये जाने चाहिए। कम जल के प्रयोग वाली स्वच्छता एवं मल जल निकास प्रणालियों के साथ विकेन्द्रित मल जल परिशोधन संयंत्रों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
11.2 भूजल एवं वर्षाजल के साथ सतही जल से ग्रामीण एवं नगरीय घरेलू जल आपूर्ति प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। जहाँ आपूर्ति का विकल्प उपलब्ध हो, वहाँ घरेलू जल आपूर्ति के लिये बेहतर विश्वसनीयता और गुणवत्ता के स्रोत को चुना जाना चाहिए। घरेलू जल की आपूर्ति को प्राथमिकता देते हुए उपयोग के लिये स्रोतों का अदल-बदल सम्भव होना चाहिए। साथ ही शहरों में रसोई और स्नानागारों से बहिस्रावित जल को प्रारम्भिक परिशोधन के पश्चात प्रसाधनों की सफाई के लिये पुनः इस्तेमाल करने को बढ़ावा देना चाहिए, जिसमें मानव सम्पर्क न होना सुनिश्चित किया जाये।
11.3 शहरी घरेलू जल प्रणालियों में जल लेखा-जोखा का संग्रहण करके जल के रिसाव और चोरी को दर्शाते हुए जल लेखा परीक्षा रिपोर्टें प्रकाशित करने की आवश्यकता है जिन्हें सामाजिक मुद्दों पर विधिवत ध्यान देते हुए कम किया जाना चाहिए।
11.4 शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में उपयोज्य जल की उपलब्धता में वृद्धि करने हेतु जहाँ तकनीकी-आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो, वर्षाजल संचयन तथा अलवणीकरण किये जाने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। वर्षाजल संचयन के कार्यान्वयन में जल भूविज्ञान, भूजल सन्दूषण, प्रदूषण एवं झरनों से होने वाले निस्सरण जैसे मानकों की वैज्ञानिक निगरानी शामिल की जानी चाहिए।
11.5 शहरी जल आपूर्ति और मल-जल परिशोधन परियोजनाओं का समेकन और निष्पादन साथ-साथ किया जाना चाहिए। जल आपूर्ति बिलों में जल निकास प्रभारों को शामिल करना चाहिए।
11.6 जल की कमी वाले क्षेत्रों में उद्योगों को या तो कम जल से काम चलाने की अनुमति दी जाये या उन्हें फिर बहिस्राव से उपचारित जल को जल विज्ञानीय प्रणाली के विशिष्ट मानक के अनुसार वापस करने का दायित्व अपनाना चाहिए। संयंत्र में उपचार न करके जल का अनावश्यक उपयोग करने अथवा भूजल को प्रदूषित करने की प्रवृत्तियों को रोकने की आवश्यकता है।
11.7 औद्योगिक प्रदूषकों को रोकने तथा जल के पुनःचक्रण/पुनः उपयोग को बढ़ावा देने के लिये सब्सिडी और नकद प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, जिसमें अन्यथा बहुत पूँजी लगती है।
12. संस्थागत व्यवस्थाएँ
12.1 पक्षकार राज्यों के बीच जल से सम्बन्धित मुद्दों पर विचार विमर्श करने तथा मतैक्य बनाने, सहयोग और सुलह करने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक मंच होना चाहिए। प्रत्येक राज्य में जल के विभिन्न प्रयोक्ताओं की जल प्रतिस्पर्धी माँगों सम्बन्धी मतभेदों तथा राज्य के विभिन्न भागों के बीच के विवादों का भी सौहार्द्रपूर्ण समाधान करने के लिये इसी तरह का तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए।
12.2 विवादों का सम्यक तरीके से तीव्र समाधान करने के लिये केन्द्र में एक स्थायी जल विवाद अधिकरण स्थापित किया जाना चाहिए। विवादों के समाधान के लिये केन्द्र अथवा राज्य सरकारों के अच्छे कार्यालयों के अलावा, माध्यमस्थम एवं मध्यस्थता का रास्ता जैसा मामला हो, भी अपनाया जाना चाहिए।
12.3 जल संसाधन परियोजनाओं एवं सेवाओं का प्रबन्धन सामुदायिक सहभागिता से किया जाना चाहिए। जहाँ भी राज्य सरकारें अथवा स्थानीय शासी निकाय ऐसा निर्णय लें वहाँ निजी क्षेत्र को असफलता के लिये जुर्माने सहित सेवा प्रदान करने की सहमत शर्तों को पूरा करने हेतु सार्वजनिक निजी सहभागिता में एक सेवा प्रदाता बनने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
12.4 नदी बेसिन/उप बेसिन को एकक के रूप में लेते हुए समेकित जल संसाधन प्रबन्धन (आईडब्ल्यूआरएम) करना जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबन्धन का मुख्य सिद्धान्त होना चाहिए। केन्द्र/राज्य सरकार स्तरों के विभागों/संगठनों का पुनर्गठन किया जाना चाहिए और तदनुसार इन्हें बहु-विषयक बनाया जाना चाहिए।
12.5 वर्षा, नदी प्रवाहों, फसल एवं स्रोत द्वारा सिंचित क्षेत्र, सतही और भूजल दोनों द्वारा विभिन्न प्रयोजनों के लिये दिये गए जल के उपयोग के सम्बन्ध में नियमित आधार पर समग्र आँकड़ों का संग्रहण करके सूचीबद्ध करने के लिये और प्रत्येक नदी बेसिन के समुचित जल बजट और जल विज्ञानीय मापनों के आधार पर तैयार किये गए जल लेखों के साथ प्रत्येक वर्ष दस दैनिक आधार पर जल लेखों का प्रकाशन करने के लिये प्रत्येक नदी बेसिन हेतु उपयुक्त संस्थागत व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रत्येक जलभृत के लिये जल बजट तैयार किया जाना चाहिए और जल लेखा परीक्षा की जानी चाहिए।
12.6 सतही और भूजल दोनों की जल गुणवत्ता की निगरानी के लिये प्रत्येक नदी बेसिन हेतु समुचित संस्थागत व्यवस्था को विकसित किया जाना चाहिए।
12.7 राज्यों को जल संसाधनों के सम्बन्ध में नवप्रवर्तनकारी कार्य करने, संरक्षण करने और इनका कुशल उपयोग करने के लिये सुधारों और विकासात्मक उपायों को प्रारम्भ करने के लिये प्रोत्साहन और नकद सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
13. सीमा पार की नदियाँ
13.1 व्यवहार्यता और सरल अनुपालना के आधार पर बेसिन को विकास की एक इकाई के रूप में मानने के सिद्धान्त को स्वीकार करते समय भी पड़ोसी देशों से द्विपक्षीय आधार पर अन्तरराष्ट्रीय नदियों के जलविज्ञानी आँकड़ों का लगभग वास्तविक समय आधार पर आदान-प्रदान करने के लिये अन्तरराष्ट्रीय समझौते करने के प्रयास किये जाने चाहिए।
13.2 अन्तरराष्ट्रीय नदियों के जल के बँटवारे और प्रबन्धन हेतु सर्वोपरि राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए तटवर्ती राज्यों के परामर्श से द्विपक्षीय आधार पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के लिये केन्द्र में पर्याप्त संस्थागत व्यवस्था की जानी चाहिए।
14. डाटाबेस एवं सूचना प्रणाली
14.1 राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित संवेदनशील श्रेणी के मामलों को छोड़कर समस्त जलविज्ञानीय आँकड़ों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। तथापि आँकड़ों को संवेदनशील सूची से बाहर करने के लिये आवधिक समीक्षा की जाये। सम्पूर्ण देश से नियमित रूप से जलविज्ञानी आँकड़ों का संग्रहण, सूचीबद्ध करने और प्रक्रियान्वयन करने के लिये एक राष्ट्रीय जल सूचना केन्द्र को स्थापित करना चाहिए तथा इनका प्रारम्भिक प्रक्रियान्वयन करना चाहिए और जीआईएस प्लेटफॉर्म पर खुले और पारदर्शी तरीके से रख-रखाव किया जाना चाहिए।
14.2 सम्भावित जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए हिम और ग्लेशियरों, वाष्पीकरण, ज्वारीय जलविज्ञान तथा जलविज्ञानी अध्ययन, नदी ज्यामितिक परिवर्तनों, कटाव, अवसादन इत्यादि के सम्बन्ध में अति विस्तृत आँकड़ों का संग्रहण करने की आवश्यकता है। ऐसे आँकड़े के संग्रहण के कार्यक्रम को विकसित और कार्यान्वित करने की आवश्यकता है।
14.3 जल से सम्बन्धित समस्त आँकड़ों जैसे वर्षा, हिम वर्षा, भू-आकृतिविज्ञान, जलवायु, भू-विज्ञानी, सतही जल, भूजल, जल गुणवत्ता, पारिस्थितिकी, जल निकासी एवं उपयोग, सिंचित क्षेत्र, ग्लेशियर इत्यादि से सम्बन्धित आँकड़ों को सुपरिभाषित प्रक्रिया से समेकित किया जाना चाहिए तथा आँकड़ों को ऑनलाइन अद्यतन करने तथा जल के प्रबन्धन के लिये पूर्ण सूचना के आधार पर निर्णय लेने हेत डाटाबेस विकसित करने की व्यवस्था हेतु आँकड़ों के स्थान्तरण को सुनिश्चित करने के लिये प्रारूप तैयार किया जाना चाहिए।
15. अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता
15.1 जल क्षेत्र के मुद्दों का वैज्ञानिक पद्धति से समाधान करने के लिये निरन्तर अनुसन्धान और प्रौद्योगिकी की प्रगति को अवश्य बढ़ावा दिया जाएगा। जल संसाधन क्षेत्र में नवाचार कार्यों को प्रोत्साहन, मान्यता और पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
15.2 राज्यों को प्रौद्योगिकी, अभिकल्प पद्धतियों, आयोजना और प्रबन्धन पद्धतियों को अद्यतन करने, स्थान और बेसिन हेतु वार्षिक जल मापनों और लेखों को तैयार करने, जल प्रणालियों हेतु जलविज्ञानी मापनों को तैयार करने तथा बेंचमार्किंग और निष्पादन मूल्यांकन करने हेतु पर्याप्त अनुदान दिया जाना आवश्यक है।
15.3 इस तथ्य को मान्यता दिये जाने की आवश्यकता है कि विकसित देशों में जल क्षेत्र की क्षेत्रीय पद्धतियों में सूचना प्रौद्योगिकी और विश्लेषणात्मक क्षमताओं में प्रगति द्वारा क्रान्ति आई है। भारत में निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में सभी स्तरों पर जल आयोजकों और प्रबन्धकों हेतु एक पुनः प्रशिक्षण एवं गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम प्रारम्भ करने की आवश्यकता है।
15.4 जल संसाधन के बदलते परिदृश्य हेतु नीति निर्णयों के प्रभावों का मूल्यांकन करने तथा नीति-निर्देशों को विकसित करने के लिये जलनीति में अनुसन्धान हेतु एक स्वायत्त केन्द्र की भी स्थापना की जानी चाहिए।
15.5 जल क्षेत्र में कुशल श्रमिकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये जल प्रबन्धन में नियमित प्रशिक्षण और शैक्षणिक पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। प्रशिक्षण एवं शैक्षणिक संस्थानों को प्रगतिशील अवसंरचना विकसित करने की ओर बढ़ते हुए अनुप्रयुक्त अनुसन्धान को बढ़ावा देने के लिये नियमित रूप से अद्यतन किया जाना चाहिए जिससे उन्हें विश्लेषण की प्रचलित प्रक्रिया में सुधार करने तथा सम्बन्धित विभागों में तथा समुदायों द्वारा पूर्ण सूचना के अनुसार निर्णय लेने में सहायता प्राप्त होगी। जल क्षेत्र में विभिन्न भागीदारों के क्षमता निर्माण के लिये जल साक्षरता हेतु एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किये जाने की आवश्यकता है।
16. राष्ट्रीय जल नीति का कार्यान्वयन
16.1 राष्ट्रीय जल बोर्ड को राष्ट्रीय जल नीति के कार्यान्वयन की नियमित निगरानी के लिये राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद के अनुमोदन के अनुसार राष्ट्रीय जल नीति के आधार पर एक कार्य योजना तैयार करनी चाहिए।
16.2 राज्य जल नीतियों का प्रारूप/संशोधन, आधारभूत समस्याओं एवं सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए और एक एकीकृत राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखते हुए इस नीति के अनुसार किये जाने की आवश्यकता हो सकती है।
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Post By: Editorial Team