राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण और पर्यावरण संरक्षण

पर्यावरण सुरक्षा और पर्यावरण संबंधी विवादों को सही समय पर निपटाने के लिए आख़िरकार हमारे देश में भी अलग से पर्यावरण अदालत की स्थापना हो गई है। पिछले दिनों पर्यावरण और वन राज्यमंत्री जयराम रमेश ने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के गठन की जब औपचारिक घोषणा की तो भारत विश्व के उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया, जहां पर्यावरण संबंधी मामलों के निपटारे के लिए राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधिकरण होते हैं। सुप्रीमकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश लोकेश्वर सिंह पंटा इसके पहले अध्यक्ष होंगे और न्यायाधिकरण का मुख्यालय राजधानी दिल्ली होगा। शुरुआत में देश के अलग-अलग चार स्थानों पर इसकी पीठ क़ायम की जाएगी, लेकिन मामलों की तादाद के आधार पर आगे पीठों की संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण पूरी तरह स्वतंत्र होगा और मंत्रालय की इसमें किसी भी तरह की दख़लअंदाजी नहीं होगी। न्यायाधिकरण की सबसे खास बात यह है कि पर्यावरण और वन मंत्री या उनके मंत्रालय के ख़िला़फ शिक़ायत रखने वाला पक्ष भी न्यायाधिकरण में अपील कर सकता है। यानी किसी शख्स को यदि यह लगता है कि पर्यावरण और वन मंत्रालय के नियम, नीतियां या उसकी ओर से किया गया कार्यान्वयन मनमाना, अपारदर्शी और पक्षपातपूर्ण है तो वह बिना झिझक न्यायाधिकरण में इंसाफ की गुहार लगा सकता है।

कुल मिलाकर देश में ग़रीबी और पर्यावरण का हृास दोनों का अटूट रिश्ता है। पर्यावरणीय संतुलन के बिगड़ने के ख़तरे का सवाल देश में बढ़ती हुई ग़रीबी के साथ जुड़ा हुआ है। जब तक देश में ग़रीबी ख़त्म नहीं होगी, तब तक पर्यावरण भी सुरक्षित नहीं रहेगा।

ग़ौरतलब है कि लोकसभा में पिछले बजट सत्र में पर्यावरण सुरक्षा और वनीकरण से जुड़े हरित अधिकरण विधेयक को हरी झंडी मिलने के बाद से ही मुल्क में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के गठन की कवायद शुरू हो गई थी, जो अब जाकर अमल में आ पाई। आज दुनिया भर में बढ़ते वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के चलते पर्यावरण सुरक्षा और संरक्षण एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देश कोशिश कर रहे हैं कि पर्यावरण सुरक्षा और भी बेहतर हो और इस दिशा में अपनी तऱफ से क़दम उठाने में वे कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ रहे हैं। पर्यावरण नुक़सान कम से कम हो, यह उनका अहम एजेंडा है। ज़ाहिर है, यह बदलते व़क्त की दरकार भी है। हमारे देश में भी जलवायु संकट और पर्यावरण के सामने पैदा ख़तरों को देखते हुए इस तरह के न्यायाधिकरण की ज़रूरत बरसों से महसूस की जा रही थी। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण रातोंरात अस्तित्व में नहीं आ गया, बल्कि सच बात तो यह है कि सरकार की इस नई पहल के पीछे कई अदालती फैसले और विधि आयोग की 186वीं रिपोर्ट है।

बहरहाल, सरकार ने न्यायाधिकरण को दायित्व और अधिकार के मामले में काफी सशक्त बनाया है। न्यायाधिकरण को मामलों की सुनवाई के बाद पर्यावरण संबंधी नियमों-कानूनों का उल्लंघन करने वालों को सज़ा, उन पर जुर्माना लगाने और प्रभावितों को मुआवजे का आदेश देने का अधिकार होगा। सज़ा का यह अधिकार महज़ खानापूर्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अधिकार काफी व्यापक है। न्यायाधिकरण व्यक्तिगत तौर पर 10 करोड़ रुपये या किसी कंपनी पर 25 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगा सकता है। यही नहीं, अपराध की गंभीरता को देखते हुए अपराधी को सश्रम कारावास जैसी सख्त सज़ा भी सुना सकता है। हां एक बात और, यदि कोई पक्षकार पंचाट के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह उस फैसले के ख़िला़फ सुप्रीमकोर्ट में अपील कर सकता है। अक्सर देखने में आता है कि अदालतों के फैसले आने में सालों लग जाते हैं। विलंबित न्याय हमारी न्यायिक व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है और सरकार ने इसी खामी को मद्देनज़र रखते हुए यह व्यवस्था की है कि पंचाट 6 महीने की समय सीमा में शिक़ायत का निपटारा करे। इन सब बातों के अलावा न्यायाधिकरण को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह जहां पर्यावरण नियमों का उल्लंघन होता देखे तो स्वत: इसका संज्ञान लेकर ज़रूरी कार्रवाई करे।

दरअसल, आज हम दुनिया भर में जो पर्यावरण का हृास और पर्यावरणीय असंतुलन देख रहे हैं, वह यूरोपीय पूंजीवादी विकास नीतियों का नतीजा है। हमारे देश के नीति नियंता भी लगातार इन्हीं नीतियों के नक्शेक़दम पर हैं। देश के कई हिस्सों में चल रहीं खनन परियोजनाओं और बड़े-बड़े बांधों के चलते जहां लाखों लोग विस्थापित हुए हैं, वहीं पर्यावरण का भी व्यापक स्तर पर विनाश हुआ है। उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर ज़मीनों में अंधाधुंध खनन किया गया तो उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर ही परंपरागत खेती और वानिकी को बदल कर व्यवसायिक खेती बड़े पैमाने पर शुरू कर दी गई, जिससे पर्यावरण का विनाश और परंपरागत आजीविका का भी ख़ात्मा होना शुरू हो गया। पूंजीवादी ताक़तों द्वारा विकास की इस तरह की विनाशकारी प्रक्रिया चलाने का एक ही मक़सद था, उनके मुनाफे में बढ़ोत्तरी और उनका मुना़फा बढ़ा भी, लेकिन लोगों के विस्थापन और पर्यावरण के विनाश की शर्त पर।

कुल मिलाकर देश में ग़रीबी और पर्यावरण का हृास दोनों का अटूट रिश्ता है। पर्यावरणीय संतुलन के बिगड़ने के ख़तरे का सवाल देश में बढ़ती हुई ग़रीबी के साथ जुड़ा हुआ है। जब तक देश में ग़रीबी ख़त्म नहीं होगी, तब तक पर्यावरण भी सुरक्षित नहीं रहेगा।

देशी-विदेशी सरमाएदारों ने देश के अकूत प्राकृतिक संसाधनों की जिस तरह लूटमार की, उससे इन संसाधनों पर निर्भर व्यापक जनसमुदायों के सामने भयानक संकट खड़ा हो गया है। इससे एक तऱफ जहां उनकी आजीविका के संसाधन ख़त्म होते चले गए, वहीं दूसरी तऱफ पर्यावरण का भी बड़े पैमाने पर हृास हुआ। सरकारें इन ताक़तों के ख़िला़फ कार्रवाई करने के बजाय हमेशा उनकी मददगार बनी रहीं, मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रहीं। नतीजा यह निकला कि पर्यावरण संतुलन बिगड़ता चला गया। विकास हो, लेकिन पर्यावरण की क़ीमत पर नहीं। इसी मक़सद को ध्यान में रखते हुए सरकार ने देश में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की स्थापना की है। उम्मीद है, इसके अस्तित्व में आने से देश के पर्यावरणीय हालात में सुधार आएगा और पर्यावरण विनाश पर लगाम लगेगी। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन पर्यावरण बचाने की राह में सरकार की एक छोटी सी कोशिश है। उम्मीद है, यह कोशिश जल्द ही रंग लाएगी।
 

 

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