गाँव की ‘पानी-पहचान’ एक-न-एक दिन इसे अवश्य बहुत दूर तक ले जाएगी। मावे वाले गाँव की पहचान से भी बहुत आगे। हर उस गाँव के लिये खजुरिया मंसूर प्रेरणा बन सकता है, जहाँ बीच से कोई नाला गुजरता हो। फिर तालाब, बावड़ी, कुण्डी और डबरियाँ भी बन जाएँ तो क्या कहने! महिदपुर में काचरिया से ढाई किलोमीटर दूर बसा है यह गाँव। सबसे पहले दीदार करते हैं एक बावड़ी का। लोग इसे काचरिया के रास्ते वाली बावड़ी के नाम से जानते हैं। उज्जैन जिले का महिदपुर का खजुरिया मंसूर किसी जमाने में मुम्बई के मिठाई व्यापारियों की दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम रहा है। यहाँ मवेशी बहुत हुआ करते थे और यहाँ का मावा मुम्बई में लोकप्रिय था। कहते हैं, मुम्बई से फोन से विशेष आग्रह करके यहाँ का मावा बुलवाया जाता था। वक्त बीता और इस गाँव की पहचान भी जाती रही। लेकिन इसमें निराशा की क्या बात है, गाँव ने अपनी नई पहचान फिर बना ली है। रामदेवजी का नाला आपको इसकी पूरी कहानी सुना देगा।
यदि आपके क्षेत्र में कोई नाला बहता है और गाँव-समाज केवल ‘दर्शक’ बनकर उसके पानी को बहते हुए देखता रहता है तो लाखों लीटर पानी बरसात में हमारे सामने से निकल जाएगा और बाद में हम पछताने के सिवा कुछ नहीं करेंगे। पुरानी जल संरचनाओं को उपयोग में लाते हुए नाले के पानी के बेहतर प्रबन्धन का नाम है- खजुरिया मंसूर।
इस गाँव की ‘पानी-पहचान’ एक-न-एक दिन इसे अवश्य बहुत दूर तक ले जाएगी। मावे वाले गाँव की पहचान से भी बहुत आगे। हर उस गाँव के लिये खजुरिया मंसूर प्रेरणा बन सकता है, जहाँ बीच से कोई नाला गुजरता हो। फिर तालाब, बावड़ी, कुण्डी और डबरियाँ भी बन जाएँ तो क्या कहने! महिदपुर में काचरिया से ढाई किलोमीटर दूर बसा है यह गाँव। सबसे पहले दीदार करते हैं एक बावड़ी का। लोग इसे काचरिया के रास्ते वाली बावड़ी के नाम से जानते हैं। यह 25 साल पुरानी है। इसे सिंचाई विभाग ने बनवाया था। किसी जमाने में इससे एक बार सिंचाई तक हो जाया करती थी, लेकिन बाद में अवर्षा और पानी समाप्त होने की वजह से यह उपयोगी नहीं रही। इसमें कचरा भरा जाने लगा था। पानी आन्दोलन के तहत यह पुनः जिन्दा हो गई। इसमें अब भरपूर पानी देखा जा सकता है।
यह सब एक नाले पर पानी रोकने वाली आर.एम.एस. संरचना बनाने की वजह से है। इस नाले का नाम ‘रामदेवजी का नाला’ है। दो खजूर के पेड़ों के बीच यहाँ रामदेवजी का स्थान है। नाले पर पानी रोकने से बावड़ी जिन्दा होने के साथ-साथ और भी अनेक लाभ हुए। नाले द्वारा बहाकर ले जाई जाने वाली मिट्टी को भी रोका गया है। इससे मोटे अनुमान के अनुसार आस-पास के खेतों के 25 कुएँ रिचार्ज हुए हैं। इसकी वजह से एक किमी. परिधि की 50 बीघा जमीन में रबी की फसल ली जा रही है।
पानी रोको अभियान के प्रमुख किरदार और पानी समिति के अध्यक्ष शिवनारायणसिंह कुमावत और समाज ने हमें बताया- “इस आर.एम.एस. निर्माण के पहले हालात यह थे कि पानी पूरी तरह से बहकर निकल जाया करता था। अब यहाँ रिचार्जिंग हो रहा है। इस साल भीषण सूखा है, लेकिन फिर भी आप देख सकते हैं कि यहाँ पानी मौजूद है।” इसका बैकवाटर एक किलोमीटर तक भरा हुआ था। सरकारी महकमे गाँवों में अनेक जल संरचनाएँ बनाते रहे हैं, लेकिन समाज की सहभागिता नहीं होने की वजह से कालान्तर में वे बेकार हो जाती रही हैं। सरकार की राशि तो बर्बाद होती ही है, स्थानीय समाज पानी जैसी बुनियादी जरूरत के लिये परेशान होता रहता है। लेकिन, इस बार पानी आन्दोलन में समाज आगे-आगे है और व्यवस्था पीछे-पीछे। इसलिये यहाँ समाज ने एक अभिनव संकल्प लिया।
यह है आड़ा खाल! यह ऊपर से आड़े-तिरछे ढंग से बहता हुआ आ रहा है, इसलिये इसे आड़ा खाल (नाला) के नाम से जानते हैं। गाँव-समाज अपने प्राकृतिक संसाधनों से मूल रूप से इतना प्रेम करते आया है कि वह इन्हें स्थानीय और आत्मीय सम्बोधनों से ही बुलाता है। करीब 20 साल पहले यहाँ सिंचाई विभाग ने एक स्टॉपडैम बनाया था, लेकिन इसके गेट निकाल ले जाने तथा किसी का ध्यान नहीं देने से यह संरचना भी बेकार पड़ी थी। महिदपुर के पानी परियोजना अधिकारी श्री एस.सी. गुप्ता कहते हैं- समाज के साथ हमने भरपूर विचार-विमर्श किया। यह तय किया गया कि इस पर स्थायी संरचना बना दी जाये तो काफी पानी रोका जा सकता है। इस संरचना में 6 गेट बनाए गए थे। इसमें लोहा और पत्थर का मिश्रण डालकर इन्हें पैक कर दिया गया। ऊपर थोड़ी जगह छोड़ दी गई ताकि ओवर-फ्लो जा सके।
आप आश्चर्य करेंगे! इस बेकार पड़े स्टॉपडैम में पानी रुकने से 50 बीघा क्षेत्र में रबी की फसल ली जा रही है। पानी समिति के सचिव गिरधरलाल रघुवंशी कहते हैं- “यहाँ आस-पास के कुएँ जिन्दा होने से लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है कि वे पानी रोकने के परम्परागत फैसले लेने में अभी भी सक्षम हैं। रामाजी के कुएँ से सिंचाई होने लगी है, जो इसी नाले के पास स्थित है।”
श्री एस.सी. गुप्ता, शिवनारायण कुमावत, गिरधरलाल रघुवंशी और समाज के लोग कहने लगे- “कहानी आगे और भी है। हमने यहाँ 50 कुण्डियाँ बनाई हैं। 20 डबरियाँ और 5 आर.एम.एस. तैयार किये हैं। डबरियों ने भी पानी रिचार्जिंग में महती भूमिका अदा की है, जिसकी वजह से कुएँ जिन्दा हुए हैं। पहले कुएँ 15 मिनट भी ठीक से नहीं चल पाते थे, अब एक-एक घंटे आराम से चलते हैं। पहले पानी की समस्या पूरे गाँव में ही थी। कुएँ भी सूखे रहते थे और नाले भी बरसात बाद अपना परिचय खो देते थे। पहले यहाँ 50 बीघा जमीन ही सिंचित हो पाती थी। पानी के लिये समाज के आगे आने से तैयार जलस्रोतों में बूँदें गाँव की मेहमान बनकर रह गईं। अब यहाँ लगभग एक हजार बीघा कुल जमीन सिंचित करने की क्षमता आ गई है।”
पानी प्रबन्धन से महत्त्वपूर्ण आर्थिक बदलाव यह आया है कि किसान भाई स्वयं के पैसों से खाद व बीज खरीद लेते हैं। इसके पहले साहूकारों के यहाँ से इस बुनियादी जरूरत के लिये भी पैसा उधार लिया जाता था। पानी का मोल समझ में आने के बाद समाज अब जलसंचय की पहल खुद करने लगा है। श्री एस.सी. गुप्ता व शिवनारायण कुमावत कहने लगे- “डबरियाँ बनाने में समाज का उत्साह अभी भी बरकरार है। इन डबरियों से खेतों में फसल कटाई तक नमी बनी रहती है। इस बार पिछले साल की तुलना में 35 प्रतिशत रकबा (रबी का) बढ़ा है।” घोर आश्चर्य की बात है, इस भीषण सूखे की हालत में वाटर मिशन के पहले गाँव में छोटी-छोटी बात पर विवाद होते थे। पानी की शीतलता ने यहाँ समाज की प्रवृत्ति भी बदली है। लोग अब वटवृक्ष की तरह एक नजर आते हैं। गाँव के ही लक्ष्मीनारायण कहने लगे- “डबरियाँ बनने से शासकीय हैण्डपम्प भी जिन्दा हो गए हैं। पूरे गाँव में 5 हैण्डपम्प हैं। इनमें से 4 बन्द हो जाया करते थे। अब जल संचय के कार्यों से पाँचों हैण्डपम्प चालू हैं। बरसात अच्छी होने के बावजूद रबी के लिये संकट बना रहता था, लेकिन लगातार तीसरे साल सूखे के बावजूद यहाँ रबी फसल ली जा रही है। पहले गाँव में एकमात्र कुण्डी थी, जिससे मवेशी पानी पीते थे। अब गाँव में अनेक कुण्डियाँ हैं, जहाँ से सभी को पानी प्राप्त हो रहा है।” श्री गुप्ता कहते हैं- “इस स्टॉपडैम की लागत केवल 26 हजार रुपए आई है। इस नाले में कम-से-कम 26 मोटरें लगी हैं। गाँव के किसान इससे लाखों की फसल ले रहे हैं। नाले के पास एक कुएँ में तो 3 फीट पर पानी उपलब्ध रहता है।” आपका मानना है- “खजुरिया मंसूर का जल प्रबन्धन इस अवधारणा पर किया गया है कि कई पुरानी जल संरचनाओं को इस अत्यन्त कम लागत में जिन्दा कर अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।”
...और ये है बांडिया खाल!
इस नाले का बहाव काफी रहता आया है। जब तेज बरसात होती है तो पूर आने के दौरान इसे पार करने में मुश्किल आती है। इसके इस ‘तेज’ के कारण ही इसे गाँव-समाज ‘बांडिया’ खाल के नाम से पुकारता है। बांडिया याने तेज-तर्रार। इसके ऊपर भी एक आर.एम.एस. बनाया गया है। इसका बैकवाटर आधा किलोमीटर तक रहता है।
इस संरचना के पास जल संचय से होने वाली क्रान्ति की एक छोटी-सी मिसाल देखने का सौभाग्य भी मिला। पानी समिति अध्यक्ष शिवनारायण कुमावत खुद यहाँ एक किरदार के रूप में हैं। एस.सी. गुप्ता और तकनीकी विशेषज्ञ एम.एल. वर्मा कहते हैं- “गन्ने की फसल अत्यधिक पानी लेने वाली फसल मानी जाती है। इस किसान ने अपने खेत में गन्ना बो रखा है। यह फिलहाल बीज उत्पादन के मकसद से है। अगली बार यहाँ अधिकांश किसान गन्ना लगाएँगे।” इस भीषण सूखे की स्थिति में गन्ने की फसल लेना किसी चमत्कार से कम नहीं है। आप जब गन्ने की लहलहाती फसलों को देखते हैं तो वे कहते नजर आते हैं- “हम जब खेतों में खड़े हैं तो सूखे के बावजूद कोई ये तो बता दे कि सूखा है कहाँ?” कुमावत ने अपने उस कुएँ के दर्शन भी कराए जो ‘जिन्दा’ है। वे कहते हैं- “कुएँ से 4 फीट दूरी पर 10X10 का एक 5 फीट गहरा गड्ढा खोदा गया। पाइप, पत्थर व रेती से इसे तैयार किया गया। खेत का पानी जब इसमें आता है तो वह रिचार्ज हो जाता है। पहले यह 15 मिनट चल पाता था। अब डेढ़ घंटे तक चल रहा है।”
यह गाँव लसुड़िया मंसूर है। जाहिर है, यह खजुरिया मंसूर के समीप ही बसा है। गाँव के आस-पास तीन-चार लसुड़िया और थे। गाँव वालों ने सोचा खजुरिया मंसूर के पास होने से इसे लसुड़िया मंसूर क्यों न कहा जाये। सो, उसके बाद इसी नाम से पुकारा जाने लगा।
महूखोरा नाम है, इस पहाड़ी का। सामने है एक पुराना शिव मन्दिर। कहते हैं, यह एक हजार वर्ष पुराना है। यहाँ एक पुजारीजी रहते थे। नाम था जैविसरजी। इन्होंने तपस्या के बाद स्वयं की इच्छा से समाधि ले ली थी। इस मन्दिर के सामने एक कुण्ड बना है। बरसों से इसमें बारह मास पानी रहता है। आस-पास के अनेक गाँव के लोग मनौती लेने आते हैं और कुण्ड में स्नान करते हैं।
पानी आन्दोलन के तहत यहाँ एक तालाब भी बनाया गया है। पानी आन्दोलन के सक्रिय किरदार नाहरसिंह, गोवर्धनसिंह व समाज ने बताया कि पहले गाँव में पानी नहीं था। केवल 10-12 बीघे में रबी की फसल ली जा रही थी। कुएँ बमुश्किल एक-डेढ़ घंटे चल पाते थे। अब सात-आठ घंटे तक मोटरें चलती हैं। तालाब बनने के बाद गाँव में व्यापक बदलाव आया है। कुएँ रिचार्ज हुए। मवेशियों को पीने के पानी की व्यवस्था हुई है। पहले बरसात के कुछ दिनों बाद नाला सूख जाया करता था। अब वह जिन्दा रहने लगा है। इसे पाटपाला कहते हैं। लगभग 70 साल पहले यहाँ पाट डालकर पानी रोकने की कोशिश की गई थी। इस पानी से थोड़ी सिंचाई भी हो जाया करती थी। गाँव के अकेले हैण्डपम्प से 200 घरों के लोग पानी पीते थे। तालाब बनने से 10-12 कुओं के पानी का इस्तेमाल सम्भव हो सका है। अब यहाँ 50-60 बीघे में रबी की फसल ली जा रही है। ओंकारसिंह, विक्रमसिंह, सुरेशसिंह, भगवानसिंह, रूपसिंह, अनोखीलाल, बद्रीलाल व समाज के अन्य लोगों को पानी रोकने से लाभ मिला है। तालाब 15 हेक्टेयर जमीन पर बनाया गया है।
इस अध्याय को हम यहीं विराम दे रहे हैं। लेकिन, खजुरिया मंसूर की कहानी तो अभी जारी है। यह ठिकरिया गाँव के साथ एक ‘रिश्ते’ के रूप में मौजूद रहेगी।
इन गाँवों के नालों के जिन्दा रहने के पीछे कुछ और भी कारण हैं?
हाँ, एक राज की बात है!
यह ‘सरप्राइज’ अगले अध्याय में...!
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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Post By: RuralWater