पुराने अनुभव बताते हैं कि बड़े निर्माण-कार्यों का क्रियान्वयन करने वाली कंपनियां पुनर्वास संबंधी नीतियों के प्रति बेहद असंवेदनशील और गैर-जिम्मेदाराना रुख अपनाती हैं। पहले भी देखा गया है कि सरकारी तंत्र और निजी कंपनियों के बीच के गठजोड़ में विस्थापित होने वाली जनता के रोजी-रोटी के सवाल नदारद रहते हैं और ऐसे लोगों के पक्ष में आवाज उठाने वालों को विकास-विरोधी की संज्ञा दी जाती है। भारत में पानी से जुड़ी मूल समस्या पानी की उपलब्धता की नहीं, बल्कि पानी के प्रबंधन की है।
जनसत्ता 16 मार्च, 2012: उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकार को नदियों के एकीकरण की योजना पर चरणबद्ध तरीके से अमल करने का निर्देश देने के बाद परिणामप्रिय विश्लेषक इस योजना से होने वाले लाभों को गिनवाने में लग गए हैं। नदियों के एकीकरण के इस प्रस्ताव पर उस तबके के बीच खासा उत्साह का माहौल है जो इसके जरिए अपने हितों को साधने और अपने आर्थिक विस्तार की संभावनाएं तलाश रहा है। मोटे तौर पर यह वही तबका है जो विकास के देशी-सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति हिकारत का भाव रखता है और उन्हें सिरे से खारिज करता है। यही वजह है कि इस प्रस्ताव के पक्ष में गोलबंदी भी शुरू हो गई है। बौद्धिक जगत का एक हिस्सा इस योजना के दूरगामी परिणामों को समझे बगैर इसके साथ खड़ा है और इस योजना को पानी की समस्या से निजात पाने का रामबाण इलाज बता रहा है। नदियों के एकीकरण पर होने वाली बहस पर ‘विकास बनाम विकास-विरोध’ का रंग भी चढ़ता नजर आ रहा है।इन स्थितियों में नदियों के एकीकरण की इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना पर सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों स्तरों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत महसूस होती है। यह एक भौगोलिक तथ्य है कि देश के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से उत्तर और पूर्वोत्तर की तुलना में सूखे हैं और यही वजह है कि उत्तरी हिस्से में पानी प्राकृतिक रूप से ज्यादा उपलब्ध है। नदियों के एकीकरण का मुख्य सिद्धांत उनमें जमा अतिरिक्त पानी की उपयोगिता की बात करता है। नदियों में जमा अतिरिक्त पानी की उपयोगिता का सिद्धांत गणितीय जलविज्ञान के मॉडल से उपजा है, जिसके आधार पर उत्तरी अमेरिका और कई अन्य देशों ने अपने यहां नदियों का एकीकरण किया है। भारत में इस तरह के गणितीय मॉडल के आधार पर नदियों को जोड़ना संभव नहीं है। भारत का जलवायु तंत्र जितनी विविधता लिए है उसमें पानी एक नदी में बहने से लेकर किसी समुद्र या खाड़ी में गिरने तक की प्रक्रिया में विविध प्रकार की पारिस्थितिक भूमिकाओं का निर्वाह करता है। नदियों के एकीकरण का गणितीय मॉडल पानी की इन विविध भूमिकाओं का कोई मूल्यांकन नहीं करता और जल संसाधनों की उपयोगिता को महज पानी के संग्रहण, स्थानांतरण और वितरण के लिहाज से परखता है।
नदियों में जमा पानी की एक-एक बूंद हर क्षण पारिस्थितिकी को संतुलित करने में अपना योगदान दे रही होती है। असल में इस मूल स्थापना में ही गलती है कि नदियों में अतिरिक्त पानी अनुपयोगी होता है और किसी दूसरी नदी से जोड़ कर उसका उपयोग किया जा सकता है। अतिरिक्त पानी की नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करने में अपनी भूमिका होती है और अगर इस अतिरिक्त पानी का उपयोग दूसरे उद्देश्य के लिए हो तो आनुपातिक रूप से इसका नुकसान पर्यावरण को उठाना पड़ेगा। यह तथ्य भी भूलना नहीं चाहिए कि नदियों के एकीकरण का वर्तमान प्रस्ताव राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी) और जल संसाधन मंत्रालय द्वारा 1980 से 2000 के बीच देश भर की नदियों पर किए गए शोध-कार्य पर आधारित है। यह रिपोर्ट हिमालय से निकलने वाली नदियों और दक्षिण भारत से निकलने वाली प्रायद्वीपीय नदियों को आपस में जोड़ने की चर्चा तो करती है, लेकिन हिमालय से निकलने वाली नदियों को जोड़ने के लिए जरूरी तकनीकी पहलुओं पर कोई प्रकाश नहीं डालती। रिपोर्ट में स्वीकार भी किया गया है कि वास्तव में हिमालय की नदी-घाटियां बेहद संवेदनशील हैं और इन हिस्सों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है।
सवाल यह है कि जब एक राष्ट्रीय संस्था स्वयं हिमालय की नदी-घाटियों में होने वाले परिवर्तनों और उथल-पुथल के संबंध में ठोस जानकारी जुटाने में विफल रही है, तो बगैर किसी निश्चित जानकारी और नजरिए के ऐसे स्थानों पर बड़े बांधों का निर्माण कैसे संभव हो पाएगा। नदियों के एकीकरण के पक्ष में एक लोकप्रिय तर्क यह है कि इससे पानी की कमी और सूखे से जूझ रहे इलाकों में जल आपूर्ति संभव हो पाएगी। राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा ऐसे राज्य हैं जो लगातार सूखे की मार और पानी की कमी झेलते रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि इन इलाकों में घरेलू जरूरतों को पूरा करने लायक पानी भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। निश्चित तौर पर घरेलू जरूरतों के लिए इन इलाकों में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करना प्राथमिकता होनी चाहिए। इन इलाकों में मौजूद नदियों और छोटे जल-स्रोतों का पानी बेशक औद्योगिक और सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी न हो, लेकिन यह घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होता है।
अगर इन इलाकों में महज घरेलू जरूरतों को पूरा करने के नजरिए से पानी की उपलब्धता देखी जाए, तो सर्वथा नई तस्वीर उभर कर सामने आएगी। यूनिसेफ और ‘वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर’ ने ऐसे इलाकों पर बहुत-से अध्ययन किए हैं जहां पर मानसून पूर्व के महीनों में पानी की कमी होती है। इन अध्ययनों में बताया गया है कि संग्रहण और संरक्षण की विधियां अपनाकर बहुत प्रभावी तरीके से घरेलू जरूरतों के लिए जरूरी पानी की आपूर्ति की जा सकती है। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तराखंड में सामुदायिक प्रयासों के जरिए वर्षा जल संचयन (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) जैसे तरीकों का इस्तेमाल कर ऐसा संभव भी कर दिखाया गया। नदियों का एकीकरण उन इलाकों में पानी आपूर्ति की समस्या को सुधार नहीं सकता, जो नदी-घाटी से ऊंचे स्थानों पर बसे हुए होते हैं। निर्जल इलाकों में अधिकांश गरीब जनसंख्या नदी-घाटी से दूर और ऊंचे स्थानों पर निवास करती है। ऐसी आबादी को नदियों के एकीकरण के कारण जमा होने वाले पानी का कोई लाभ नहीं होगा।
निश्चित तौर पर आज भी इस परियोजना से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय आयामों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हिमालय से निकलने वाली ज्यादातर नदियों का उद्गम स्थल भारत की सीमा से बाहर है और ये नदियां भारत के अलावा कई पड़ोसी देशों से भी होकर गुजरती हैं। हिमालय से निकलने वाली बड़ी नदियां अंतत: बांग्लादेश में स्थित बंगाल की खाड़ी में ही जाकर गिरती हैं। एकीकरण परियोजना से बड़े स्तर पर होने वाले जल पथांतरण के चलते बांग्लादेश में पहले ही पर्यावरण को नुकसान हो चुका है। 1975 में भारत ने शुष्क मौसम में गंगा नदी से बड़ी मात्रा में पानी निकाल लिया था। इसका मकसद फरक्का स्थित कोलकाता बंदरगाह को फिर से जिलाना था, जिस पर लंबे वक्त से कीचड़ आदि जमा होने के कारण समुद्री आवागमन बंद हो चुका था। भारत के इस कदम से बांग्लादेश को बहुत नुकसान हुआ। बांग्लादेश हिमालय से निकलने वाली किसी भी नदी के जल पथांतरण के चलते होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के कारण इस परियोजना का विरोध कर रहा है। इस परियोजना को लेकर नेपाल की भी अपनी चिंताएं हैं, जिनका मुख्य आधार उसके पुराने अनुभव हैं। भारत ने लंबे वक्त तक पानी को नियंत्रित करने के लिए ऐसी नदियों पर बड़े बैराजों और बांधों का निर्माण किया है जो नेपाल से निकलती हैं।
नेपाल में इन निर्माण-कार्यों की वजह से जल-भराव और बाढ़ जैसी स्थितियां पैदा हुर्इं और कई स्थानों पर नदियों के किनारे सूख गए। नदी जोड़ योजना का एक बड़ा व्यावहारिक पक्ष इस पर आने वाला खर्च है। इस योजना पर सवा सौ से दो सौ अरब डॉलर खर्च आने का अनुमान है और साल-दर-साल यह खर्च बढ़ता भी जाएगा। भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए लगातार दस वर्षों तक इतने बड़े बजट की व्यवस्था करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। एकीकरण परियोजना से राज्यों और अंचलों के बीच नए तरह के जल विवाद भी पैदा हो सकते हैं, क्योंकि राज्य पानी के बंटवारे को केंद्र का नहीं, बल्कि राज्य का विषय मानते हैं। इन व्यावहारिक और सैद्धांतिक दिक्कतों के अलावा नदियों के एकीकरण का यह प्रस्ताव विकास के ढांचे की उस बड़ी संकल्पना से भी जुड़ता है, जिसके प्रतिकूल और खतरनाक परिणाम पिछले एक दशक में हमारे सामने आए हैं। भारत में नदियों के एकीकरण की योजना को दुनिया में सबसे बड़े निर्माण-कार्य का प्रस्ताव माना जा रहा है और इसके लिए अनुमान है कि तीस विशाल नहरों और चालीस नए बांधों का निर्माण होगा। निश्चित तौर पर आबादी का बड़ा हिस्सा इस निर्माण-कार्य के कारण होने वाले विस्थापन की चपेट में आएगा। विश्व बांध आयोग (वर्ल्ड कमीशन ऑफ डैम्स) ने अपने एक अध्ययन में पाया था कि भारत में पिछले पांच दशकों में बड़े निर्माण-कार्यों के चलते विस्थापित होने वाली चार करोड़ आबादी के पचहत्तर प्रतिशत हिस्से को पुनर्वास नहीं मिला है।
पुराने अनुभव बताते हैं कि बड़े निर्माण-कार्यों का क्रियान्वयन करने वाली कंपनियां पुनर्वास संबंधी नीतियों के प्रति बेहद असंवेदनशील और गैर-जिम्मेदाराना रुख अपनाती हैं। एकीकरण की योजना ऐसी कॉरपोरेट कंपनियों के लिए मुनाफे की संभावनाओं का विस्तार करती है और यही वजह है कि बड़े स्तर पर इस योजना के पक्ष में सकारात्मक माहौल तैयार करने के प्रयास तेज हो रहे हैं। पहले भी देखा गया है कि सरकारी तंत्र और निजी कंपनियों के बीच के गठजोड़ में विस्थापित होने वाली जनता के रोजी-रोटी के सवाल नदारद रहते हैं और ऐसे लोगों के पक्ष में आवाज उठाने वालों को विकास-विरोधी की संज्ञा दी जाती है। भारत में पानी से जुड़ी मूल समस्या पानी की उपलब्धता की नहीं, बल्कि पानी के प्रबंधन की है। आजादी के बाद भी पानी की समस्या को हल करने के लिए बड़े बांधों के निर्माण और बड़ी सिंचाई योजनाओं को एकमात्र उपाय के रूप में पेश किया गया। नदियों के एकीकरण के प्रस्ताव की वकालत भी इसी सोच के आधार पर की जा रही है। सच्चाई यह है कि हरित क्रांति के बाद और उद्योगीकरण के दौर में पानी के प्राकृतिक स्रोतों का मनचाहा दोहन किया गया, जिससे पानी की उपलब्धता प्रभावित हुई है। इस पूरी प्रक्रिया ने पानी के उपलब्ध स्रोतों के बीच क्षेत्रीय असंतुलन भी पैदा किया है। नदियों के एकीकरण के जरिए इस क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के बजाय उन वजहों पर ध्यान देना होगा, जिनके कारण यह असंतुलन पैदा हुआ है।
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