राज्य में भूमिगत जल नहीं है पर्याप्त (Ground water problem in Jharkhand)


पेयजल की समस्या से अब भी मुक्ति मिल सकती है। प्रकृति ने भूमिगत जलस्तर को बरकरार रखने के लिये अपनी ओर से कई छोटी-बड़ी नदियों को रांची तथा अन्य शहरों से प्रवाहित किया है। यदि हम इनकी सफाई कर छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण कर दें तो भूमिगत जल का स्तर बनाए रखा जा सकता है। साथ ही कृत्रिम जलागारों को उपयुक्त स्थानों पर निर्मित करने से वर्षा के जल को एकत्रित किया जा सकता है। झारखंड में आबादी गुणात्मक तरीके से बढ़ रही है। पूरे सात महीने भीषण पेयजल संकट के आगोश में रहती है। पैर पसारते शहरों की माँग पूरी करने के लिये भूमि की परत-दर-परत के नीचे से अविवेकपूर्ण जल दोहन का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। 800 से 1200 फीट तक गहरे नलकूपों की खुदाई व पम्पों से जल को सींचना विज्ञान का दुरुपयोग-सा लगता है। इसके बाद भी जल मिलने की सम्भावना क्षीण होती जा रही है। झारखंड में इसकी शुरुआत करीब तीस वर्ष पहले डीप बोरिंग मशीन की घनघनाहट के साथ हुई। इसके पहले बहुत हुआ तो लोग कुआँ खुदवाते थे। ज्यादा आबादी सप्लाई जल पर ही निर्भर थी। जो कभी-कभार ही अनियमित होती थी। उसके बाद प्रशासनिक लापरवाही के चलते सप्लाई का पानी अनियमित आपूर्ति का शिकार होता गया तथा कई बार हफ्ते में तीन दिन, कभी लगातार ही तीन-चार दिन गायब रहने लगा। इससे मजबूर होकर लोगों को भूमिगत जल पर निर्भर होना पड़ा। उपेक्षित व अनियमित जलापूर्ति के फलस्वरूप उस समय से आज तक लगातार डीप बोरिंग की संख्या तेजी से बढ़ने लगी।

यह जानकर आश्चर्य होगा कि रांची के भूमिगत जल का सर्वे आजादी के पहले हो चुका था। यह वर्ष 1946 की बात है, जब ब्रिटिश भूवैज्ञानिक जेबी ऑडेन ब्रिटिश सेना के हेडक्वार्टर की स्थापना के लिये स्थान का चयन कर रहे थे। तब उन्होंने कहा था कि राँची की कायान्तरित चट्टानें सालों भर भूमिगत जल देने में सक्षम नहीं हैं तथा गर्मी शुरू होते ही भूमिगत जल सूख जाएगा।

झारखंड की भूगर्भीय संरचना ज्यादातर कायान्तरित चट्टानों से निर्मित है, जो वस्तुतः अपारगम्य है व इसमें पानी को रोककर रखने की क्षमता भी बहुत कम है। इनमें भंडारित जल जो इन चट्टानों के अपर्दित हुए ऊपरी चट्टानों में जमा है, इनकी गहराई ऊपरी सतह से बमुश्किल 10 मीटर है। ऊपर से अन्धाधुन्ध बड़ी-बड़ी इमारतों के बनने से भूमिगत जलस्रोतों पर दोहरी मार पड़ी है। दो बोरिंग के बीच की दूरी कम-से-कम एक किलोमीटर होनी चाहिए, लेकिन झारखंड में यह घटकर पाँच मीटर तक सिमट गया है। इसके चलते भी भूमिगत जल का स्तर खतरनाक स्थिति से भी अधिक गिर रहा है। आज कल हम लोग रूफ टॉप वाटर हार्वेस्टिंग या ग्राउंड वाटर रीचार्जिंग की बात करते हैं। कुछ हद तक तो यह काम कर सकता है, लेकिन झारखंड की चट्टानों की संरचना को देखते हुए हम इस पर निर्भर नहीं कर सकते, क्योंकि झारखंड की चट्टानों में पानी सोखने की क्षमता ज्यादा नहीं है तथा यह केवल उन्हीं स्थानों पर सफल हो सकता है, जहाँ की चट्टानों में लम्बी दरार या फॉल्ट मौजूद हो।

भूमिगत जल वास्तव में वर्षाजल ही है, जो गुरुत्वाकर्षण के कारण भूमि में समा जाता है। इधर, हाल के वर्षों में झारखंड में वन कटाई तथा बदलती जलवायु के चलते वर्षा अनियमित हो गई है, जिसका असर भूमिगत जल पर पड़ने लगा है। यही नहीं पर्याप्त वर्षा होने के बावजूद 40 फीसदी वर्षा जल ऊपर से बहकर निकल जाता है। देर अब भी नहीं हुई है।

पेयजल की समस्या से अब भी मुक्ति मिल सकती है। प्रकृति ने भूमिगत जलस्तर को बरकरार रखने के लिये अपनी ओर से कई छोटी-बड़ी नदियों को रांची तथा अन्य शहरों से प्रवाहित किया है। यदि हम इनकी सफाई कर छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण कर दें तो भूमिगत जल का स्तर बनाए रखा जा सकता है। साथ ही कृत्रिम जलागारों को उपयुक्त स्थानों पर निर्मित करने से वर्षा के जल को एकत्रित किया जा सकता है।

 

और कितना वक्त चाहिए झारखंड को

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

जल, जंगल व जमीन

1

कब पानीदार होंगे हम

2

राज्य में भूमिगत जल नहीं है पर्याप्त

3

सिर्फ चिन्ता जताने से कुछ नहीं होगा

4

जल संसाधनों की रक्षा अभी नहीं तो कभी नहीं

5

राज व समाज मिलकर करें प्रयास

6

बूँद-बूँद को अमृत समझना होगा

7

जल त्रासदी की ओर बढ़ता झारखंड

8

चाहिए समावेशी जल नीति

9

बूँद-बूँद सहेजने की जरूरत

10

पानी बचाइये तो जीवन बचेगा

11

जंगल नहीं तो जल नहीं

12

झारखंड की गंगोत्री : मृत्युशैय्या पर जीवन रेखा

13

न प्रकृति राग छेड़ती है, न मोर नाचता है

14

बहुत चलाई तुमने आरी और कुल्हाड़ी

15

हम न बच पाएँगे जंगल बिन

16

खुशहाली के लिये राज्य को चाहिए स्पष्ट वन नीति

17

कहाँ गईं सारंडा कि तितलियाँ…

18

ऐतिहासिक अन्याय झेला है वनवासियों ने

19

बेजुबान की कौन सुनेगा

20

जंगल से जुड़ा है अस्तित्व का मामला

21

जंगल बचा लें

22

...क्यों कुचला हाथी ने हमें

23

जंगल बचेगा तो आदिवासी बचेगा

24

करना होगा जंगल का सम्मान

25

सारंडा जहाँ कायम है जंगल राज

26

वनौषधि को औषधि की जरूरत

27

वनाधिकार कानून के बाद भी बेदखलीकरण क्यों

28

अंग्रेजों से अधिक अपनों ने की बंदरबाँट

29

विकास की सच्चाई से भाग नहीं सकते

30

एसपीटी ने बचाया आदिवासियों को

31

विकसित करनी होगी न्याय की जमीन

32

पुनर्वास नीति में खामियाँ ही खामियाँ

33

झारखंड का नहीं कोई पहरेदार

खनन : वरदान या अभिशाप

34

कुंती के बहाने विकास की माइनिंग

35

सामूहिक निर्णय से पहुँचेंगे तरक्की के शिखर पर

36

विकास के दावों पर खनन की धूल

37

वैश्विक खनन मसौदा व झारखंडी हंड़ियाबाजी

38

खनन क्षेत्र में आदिवासियों की जिंदगी, गुलामों से भी बदतर

39

लोगों को विश्वास में लें तो नहीं होगा विरोध

40

पत्थर दिल क्यों सुनेंगे पत्थरों का दर्द

 

 

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