राजस्थान के किसान भले ही बहुत अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं, परन्तु कृषि में उनका ज्ञान बहुत उन्नत है। इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने खेती के कई तरीके ईजाद किये। स्थान विशेष की मिट्टी, जलवायु, वर्षा की मात्रा एवं संसाधन के आधार पर कहाँ कौन सी फसलें करना उपयुक्त है, इसका विस्तृत ज्ञान किसानों के पास है। किसान को धरती पुत्र कहा जाता है, क्योंकि वह धरती की अनुकूलता के आधार पर खेती करते हैं। कृषि और मानव का सम्बन्ध सबसे पुराना और गहरा है। आदिमानव ने आजीविका के लिये कृषि की खोज की। आज कृषि सबसे विकसित उद्योग है जिस पर मानव जीवन आधारित है। भारत प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण देश है। यहाँ की जलवायु एवं मौसमी चक्र के अनुसार कृषि यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, इसलिये भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है।
भारत की 80 प्रतिशत जनता गाँवों में बसती है। गाँव में आजीविका का प्रमुख साधन कृषि और पशुपालन है। यहाँ के किसान भले ही बहुत अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं, परन्तु कृषि में उनका ज्ञान बहुत उन्नत है। इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने खेती के कई तरीके ईजाद किये। स्थान विशेष की मिट्टी, जलवायु, वर्षा की मात्रा एवं संसाधन के आधार पर कहाँ कौन सी फसलें करना उपयुक्त है, इसका विस्तृत ज्ञान किसानों के पास है। किसान को धरती पुत्र कहा जाता है, क्योंकि वह धरती की अनुकूलता के आधार पर खेती करते हैं। भारत की जलवायु एवं मौसम के अनुसार यहाँ पर दो प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं:-
खरीफ और रबी।
खरीफ खरीफ की फसल ग्रीष्म ऋतु की फसल मानी जाती है, जिसकी बुआई जून-जुलाई के महीने में होती है। राजस्थान में खरीफ की मुख्य फसलें बाजरा, मोठ, मूँग, ग्वार, तिलहन आदि हैं।
रबी रबी की फसल सर्दी ऋतु की फसल है। रबी की फसल की बुआई अक्टूबर-नवम्बर के महीने में की जाती है। राजस्थान में रबी की मुख्य फसलें चना, सरसों, जौ, राई, गेहूँ, मूँगफली आदि हैं।
फसल की बुआई से लेकर कटाई तथा अनाज संग्रहण तक हमारे पूर्वजों ने कई तकनीकें बनाई हैं। आज भी किसान इन्हीं तकनीकों को अपनाते हुए खेती करते हैं। इस भाग में खेती के चरणों का क्रमानुसार विवरण लिखा गया है।
आज के आधुनिक युग में ट्रैक्टर से लेकर फर्टिलाइजर तक अनेक कृषि के उपकरण काम में लिये जा रहे हैं। परन्तु प्राचीलकाल से अब तक कृषि की जरूरत के अनुसार गाँवों में ग्राम स्तर पर निर्मित उपकरणों से ही खेती की जाती है। ये उपकरण आज भी उपयोगी हैं।
खेती के काम में आने वाले उपकरण
1. फावड़ा खेत की पाली (खड़ीन) बाँधने के काम में आता है।
2. गेंती खेत में मिट्टी खोदने के काम में आता है।
3. तगारी मिट्टी डालने के काम आता है।
4. कस्सी खेत में व फसल में लगी खरपतवार को काटने के काम में आती है।
5. दांतरा खेत में फसल को काटने के काम आता है। जैसे डोका, घास, कड़ब, रायड़ा, सरसों आदि काटने में।
6. दांतरी खेत में बाजरा तथा ज्वार के पौधों के सिरे (बाली) काटने के काम में आती है।
7. बई खेत में पाला, छोटी-बड़ी झाड़ियाँ, घास इकट्ठा करने व बाड़ा बनाने के काम में आती है।
8. हाहीगी खेत में कुतर (भुसा) भरने के काम में आती है।
9. चारसींगी/चौंकनी घास को इधर-उधर डालने एवं चारा (कुत्तर/भूसा) को भरने के काम में आता है।
10. हल खेत में बुआई के काम में आता है।
11. खेड़ का हल खेत में जुताई के काम में आता है।
12. थ्रेसर बाजरा, ज्वार, ग्वार, गेहूँ तथा सरसों आदि निकालने के काम में आता है।
13. तवी ट्रैक्टर के पीछे चलाकर खेत की जुताई की जाती है।
14. कल्टीवेटर ट्रैक्टर के पीछे चलाकर खेत में बुवाई की जाती है।
15. कुत्तर मशीन खेती में डोका, कड़ब, घास, सेवण, घामण, आदि को काटने के काम में आती है।
16. दंताली वर्मी कम्पोस्ट खाद में लगाने के काम में आता है। जिससे खाद को कीड़ा से बचाया जाता है।
17. कुल्हाड़ी (कवाड़ी) बड़ी झाड़ियों, कांटों को छाँगने या काटने के लिये।
18. गेंती कठोर मिट्टी /मुरड़ खोदने के लिये।
19. ओड़ी/ओड़ा पशुओं को चारा एवं कचरा भरने के लिये।
भूमि तैयार करना या खेत की तैयारी
वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने से पहले किसान अपने खेत को अगली फसल के लिये तैयार करते हैं। खेत की तैयारी इसलिये आवश्यक है, ताकि बारिश होते ही बीजारोपण प्रारम्भ किया जा सके। खेत की तैयारी के कुछ मुख्य चरण हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है –
1. सूड करना सूड ज्यादातर वर्षा आधारित खेती में किया जाता है क्योंकि फसल कटने के बाद से अगले मानसून आने के बीच में किसान जमीन की जुताई भूक्षरण को रोकने की वजह से जुताई नहीं करता है अतः इस बीच प्राकृतिक रूप से खेत में उग आई बेकार की खरपतवार या झाड़ियों को खेत से निकालने की प्रक्रिया को सूड करना कहते हैं। इस प्रक्रिया में किसान द्वारा खेत में से आँकड़ी, झाड़ियाँ, बबूल तथा सीनियों के पौधे बारिश के आने से पहले काट लिये जाते हैं, जिससे खेत में हल चलाने में आसानी होती है और बीज भी अच्छी प्रकार से उगते हैं, क्योंकि बड़ी खरपतवार (काँटों) से हल चलाने वालों को परेशानी होती है और चोट लगने का डर रहता है। इस प्रकार से भूमि का सर्वोत्तम उपयोग हो जाता है। बड़ी-बड़ी झाड़ियों को खेत की चारदीवारी (मेंढ़) पर ले जाकर डाल दिया जाता है या फिर खड़ीन पर छाप दिया जाता है। इस काम को खेत में फसल की बुआई से पहले या बारिश का मौसम आने से पहले मई, जून तथा जुलाई के मौसम में करते हैं। इस काम को घर के बुजुर्गों को छोड़कर अन्य सभी सदस्य (महिला एवं पुरुष) मिलकर करते हैं। अगर सूड करने का काम नहीं करते हैं तो इससे लगभग 5 प्रतिशत अनाज की पैदावार (उपज) कम होती है, क्योंकि बेकार में उग आई खरपतवार खेत में उगने वाली फसल का स्थान तो घेरती ही है, साथ ही यह फसल को मिलने वाली नमी को भी सोख लेती है। किसान लोग यह बताते हैं कि इस प्रक्रिया का हम लोगों को सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि खेत में फसल की पैदावार अच्छी होती है तथा खेत भी समतल हो जाता है, जिससे सम्पूर्ण फसल को बराबर पानी मिलता है। बेकार की झाड़ियाँ तथा घास उनके पशुओं के लिये चारे के रूप में काम आती हैं। खरपतवार को जलाने से फसल में कीड़े भी नहीं लगते हैं, जिससे फसलों को बीमारियों से भी बचाया जाता है। सूड करने में निकाली गई झाड़ियाँ, खेत की कानाबंदी, आँकड़ा झोंपों की छत ईंधन के रूप में भी काम में आता है।
2. लागत सूड करने में मुख्यतः किसान का परिश्रम और कुछ औजार काम में आते हैं। इसमें काम में आने वाले औजार हैं – कस्सी कीमत 100 रुपए, गंडासी (कवाडी) कीमत 50 रुपए, भोला कीमत 200 रुपए, बई कीमत 125 रुपए और चौकनी कीमत 125 रुपए।
लाभ
1. झाड़ियाँ हट जाने से फसल की अधिक उपज होती है।
2. ऊबड़-खाबड़ जमीन समतल हो जाती है।
3. कुछ किसान यह मानते हैं कि इससे मच्छर और कीड़े-मकोड़े भाग जाते हैं।
कानाबन्दी (कणाबन्दी) राजस्थान की तीक्ष्ण गर्म आँधियों में भूमि के जैविक कणों को सुदूर उड़ने से बचाने की तकनीक को कानाबंदी कहते हैं। कानाबंदी की प्रक्रिया खेत में इकट्ठा हुए सार्बनिक कणों को गर्मियों के समय हवा के द्वारा उड़कर दूर जाने से बचाती है। ये कण खाद का काम करते हैं और भूमि की उर्वरक क्षमता को बढ़ाते हैं। यह प्रक्रिया भूमि के कटाव को भी रोकने में मदद करती है। (अप्रैल से मई) सीनियो या काँटों को कूटकर खेत के बीच में डाल दिया जाता है, जिससे रेत खेत में रुकती है और उपजाऊ रेत और उड़कर आई खाद खेत मे ठहर सकती है। साथ ही काँटे और सीनिया खाद के रूप में जमीन की उर्वरकता बढ़ाते हैं। गर्मी के दिनों में लू तथा आँधी ज्यादा चलती है इसलिये इसका महत्त्व ज्यादा होता है और यह विशेष इन्हीं दिनों में की जाती है। इस काम को परिवार के सभी सदस्य मिलकर एक साथ करते हैं। इस प्रक्रिया को बारिश के दो या तीन महीने पहले करते हैं। इस प्रक्रिया में आँकड़ा, बबूल, कैर तथा झाड़ियों को काटकर इकट्ठा कर लिये जाते हैं, फिर इनको खेत की चारदीवारी पर एक कतार में लगाकर आधा फीट से एक फीट ऊँची मेड़ बना ली जाती है। ये दीवार उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाई जाती है, क्योंकि सामान्यतः हवा पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर चलती है। आर्गेनिक पदार्थों के कण इसकी सीमा पर जाकर रुक जाते हैं और वह खेत के बाहर नहीं जा पाते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि छोटे कण जो कि खाद का काम करते हैं वह खेत के बाहर नहीं जा पाते और पैदावार अच्छी होती है। इससे खेत में आने वाली हवा की तीव्रता भी कम हो जाती है, जिससे हवा के चलने से मिट्टी भी क्षतिग्रस्त नहीं होती है और खेत का पानी भी खेत से बाहर नहीं जा पाता है। साथ ही मेड़ को भी मजबूती मिलती है।
लागत कानाबंदी में शारीरिक श्रम और कुछ कृषि औजारों की आवश्यकता होती है। एक हेक्टेयर जमीन पर कानाबंदी करने में झाड़ियों और मजदूरी पर तकरीबन 1800 रुपए खर्च होते हैं।
लाभ
1. मिट्टी के जैविक कण हवा के साथ उड़ते नहीं हैं और भूमि की उर्वरक क्षमता बढ़ती है।
2. खेतों में हवा की गति कम हो जाती है और भू-क्षरण कम होता है।
3. कानाबंदी से मेड़ बन जाती है और वर्षाजल व्यर्थ नहीं बहता है।
मेड़बन्दी मेड़बन्दी भी जल और भूमि दोनों को संरक्षित करने का एक अच्छा तरीका है। मेड़बन्दी जल बहाव की गति को नियंत्रित करती है। यह जल ठहराव व भूजल को बढ़ाने में बहुत योगदान करती है। ये वर्षा काल के दौरान कटाव को भी रोकती है। भूमि के उपजाऊ तत्व भी न बहे और भूमि की उर्वरा शक्ति भी बनी रहे, इसका यह एक खास लाभ है। मेड़बन्दी का निर्माण किसान स्वयं अपने खाली समय में अपने परिवारजनों की मदद से कर लेता है। अतः किसी भी प्रकार का आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता। मेड़बन्दी का कार्य भले ही देखने में छोटा लगता हो, लेकिन इनकी उपयोगिता बड़े जोहड़ या छोटे एनिकट से कम नहीं होती। मेड़बन्दी की मदद से पूरे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जल संरक्षण का कार्य किया जाये तो, अधिक उपयोगी होता है। इसके साथ ही ढलान क्षेत्रों में टिंच वाल बनाई जाती है, जो मेड़बन्दी की सहायक छोटी बहन की भूमिका अदा करती है। अध्ययनों के अनुसार इसके सामाजिक प्रभाव भी अच्छे रहे। फिर बहुत से गाँवों में एक साथ कई प्रकार के जल संरक्षण के कार्य किये गए। मेड़बन्दी सचमुच छोटी, किन्तु बहुत उपयोगी संरचना है।
मेड़बन्दी निर्माण विधि - ढलान पर आवश्यकतानुसार मेड़बन्दी बनाई जा सकती है। खेत के ढलान क्षेत्र में 2 से 4 फीट की ऊँचाई तथा 3-4 फीट की चौड़ाई की मेड़ जरूरत व खेत की लम्बाई के आधार पर बनाई जाये। इसकी सुरक्षा के लिये उपयोगी पौधे एवं घास भी लगाई जा सकती है।
मेड़बन्दी के लाभ वर्षा जल के अलावा मेड़बन्दी की सहायता से खेत में कुएँ अथवा नलकूप से सिंचाई करने में सुगमता रहती है। खेत में बारिश के पानी का पूरा लाभ मिलता है। मेड़बन्दी समय की बचत के साथ ही जल संरक्षण में भी सहायक रहती है। मेड़बन्दी का अन्य लाभ खेत का सीमांकन भी होता है। इससे आपसी वाद-विवाद कम होते हैं। आज ग्रामीण क्षेत्रों में इंच-इंच जमीन विवाद की जड़ मानी जाती है। इससे मुक्ति मिलेगी। कई बार किसान खेत के चारों तरफ पतली गहरी खाई भी खोदते हैं ऐसा करने से पशुधन से फसल को होने वाले नुकसान से भी बचाया जाता है।
झूर कुछ जंगली झाड़ियों और घास को एकत्र करके छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर बीज रोपने से पहले खेतों में फैला दिया जाता है। इसमें अधिकांशतः बाड़ और झोपों की छत में काम आई पुरानी झाड़ियों तथा केर की झाड़ियों को प्रयोग में लिया जाता है। ये टुकड़े हल चलाते समय मिट्टी से ढँक जाते हैं। जमीन में उपस्थित दीमक और अन्य कीटाणु इनका अपघटन कर इन्हें खाद में परिवर्तित कर देते हैं। यह प्रक्रिया वर्षा से पहले अप्रैल एवं मई में खेतों में की जाती है। झूर के लिये जैव पदार्थ जंगलों, चारागाहों या सूड से निकाली गई झाड़ियों से प्राप्त होता है। इन जैव पदार्थों को काटते हैं या भारी लकड़ी से पीटकर छोटे टुकड़ों में परिवर्तित करते हैं।
लागत एक हेक्टेयर जमीन पर झूर करने में 18 दिन का श्रम लगता है तथा इसकी लागत 1080 रुपए प्रति हेक्टेयर आती है।
लाभ
1. जैविक पदार्थ मिलने से भूमि की उर्वरकता बढ़ती है।
2. उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
3. झूर करने से भूमि वर्षाजल को अधिक अवशोषित कर सकती है और खेतों में नमी बनी रहती है।
4. जैव पदार्थ का बचा हुआ भाग पशुओं के खाने के काम आता है।
विशेष बिन्दू झूर की उपयोगिता वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है। यदि वर्षा की मात्रा कम है और खेत में अधिक जैव पदार्थ डाला गया है तो यह हानिकारक होता है। जैव पदार्थों के अपघटन से भूमि में अधिक गर्मी पैदा होती है, जो कि फसल को खराब कर सकती है। इस प्रकार सामान्य या अधिक वर्षा में झूर उपयोगी है अन्यथा कम वर्षा में यह नुकसानदायी हो सकता है।
बूआई बुआई अर्थात खेतों में बीज बोना। बीज की बुआई निम्न चरणों के अनुसार की जाती है।
बीज की तैयारी (गौजला) खेत में बोने के लिये बीजों को मुख्यतः घर पर ही तैयार करते हैं। बीजों का शुद्धिकरण इसलिये किया जाता है ताकि फसल में कीड़े या बीमारियाँ न लगे।
इस प्रक्रिया में सुबह के समय गोमूत्र को इकट्ठा करते हैं। 1 लीटर गोमूत्र में 10 किलो गेहूँ के बीज डाल दिये जाते हैं। फिर इन बीजों को आँगन में फैला दिया जाता है। इसके बाद इन बीजों के ऊपर राख छिड़क देते हैं और फिर ऊपर गोमूत्र (गौजला) छिड़क दिया जाता है। बीजों को गौजला में मिलाकर 20-25 मिनट तक इन्तजार करते है। बीजों को सूखने के लिये छोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया को तीन से चार दिन तक सुबह के समय एक बार जरूर दोहराते हैं। इस प्रकार से शुद्ध किये हुए बीजों को तीन से चार दिन के अन्दर बो दिया जाता है। इस प्रक्रिया के अन्दर जरूरत से अधिक गौजला का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि जरूरत से अधिक गौजला के इस्तेमाल से बीजों में बुआई से पहले ही अंकुरण शुरू हो जाता है। खेत में बोने के लिये केवल उन्हीं बीजों को चुनते हैं जो मोटे तथा भारी होते हैं और छोटे तथा हल्के बीजों को अलग कर दिया जाता है क्योंकि ये अच्छे फसल के लिये उपयुक्त नहीं होते हैं। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा फायदा यह है कि अगर बीजों को गौजला से शुद्ध किया जाता है तो फसल पर कीट पतंगे आक्रमण नहीं करते हैं, जिससे पेड़ भी पीला नहीं पड़ता है तथा फसल भी अच्छी होती है।
लागत
इस प्रक्रिया में केवल श्रम की आवश्यकता होती है। गौजला घरेलू स्तर पर ही उपलब्ध होता है।
लाभ
1. गौजला से उपचारित बीजों पर दीमक कभी भी आक्रमण नहीं करते।
2. पौधे पीले नहीं पड़ते हैं।
3. इससे पौष्टिक एवं बेहतर फसल प्राप्त होती है।
जुताई एवं बुवाई जुताई एक प्रकार से हल चलाने की प्रक्रिया है जो खेत के अन्दर की जाती है। इसे स्थानीय भाषा में खड़ाई करना भी कहते हैं। खेत की जुताई मुख्यतः पहली बारिश के बाद जून से जुलाई के मध्य की जाती है। परम्परागत तरीके से खेत की जुताई बैल, ऊँट या गधों के द्वारा ही की जाती रही है। परन्तु धीरे-धीरे वक्त के साथ अब इनका स्थान ट्रैक्टरों ने ले लिया है। आधुनिक युग में अब राजस्थान के कुछ गाँवों में ट्रैक्टरों से ही जुताई हो रही है। ऊँट, बैल या गधों के द्वारा खेत की जुताई करते समय किसान को इनके पीछे चलना पड़ता है और हल इन जानवरों की पीठ/कन्धों से बँधा होता है। किसान हल को ऊपर से नीचे की ओर बल लगाते हुए आगे बढ़ते हैं ताकि हल भूमि में अधिक-से-अधिक गहराई तक जा सके और नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाये। इस प्रकार से समस्त मिट्टी आपस में मिल जाती है, जिससे खेत की उर्वरक शक्ति भी बढ़ जाती है। इस प्रक्रिया में किसान एक हाथ से खेत की जुताई करता है और दूसरे हाथ से वह बीजों को जुती हुई मिट्टी में डालता रहता है। कभी-कभी इस काम को करने के लिये एक व्यक्ति खेत में हल चलाता है और दूसरा व्यक्ति बीजों को डालता जाता है। खेत को पहले बीच में से जोता जाता है फिर किनारों की तरफ। ऊँट के द्वारा खेत की जुताई करने में खेत की लम्बाई के समानान्तर खेत की जुताई करते हैं और फिर इसे अन्त में ‘U‘ (यू) की आकृति में जोता जाता है ताकि जमीन कहीं पर छूटने न पाये और सम्पूर्ण खेत की ठीक प्रकार से जुताई हो सके। खेत मे बुआई करते समय खेत में हल से जुताई ढलान के विपरीत दिशा (आड़ी) में की जाती है जिससे वर्षा का पानी सभी खूड में समान रूप से भरा रह सकें। इसी प्रकार चलने वाली हवाओं को भी ध्यान में रखकर बुआई की जाती है। खेत की जुताई करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इससे खेत की मिट्टी में लोच (लचीलापन) के साथ उसकी उर्वरक शक्ति बढ़ जाती है और फसल की पैदावार ज्यादा होती है।
लागत
एक हेक्टेयर जमीन को एक जोड़ी बैल या ऊँट की सहायता से एक दिन में जोता जा सकता है। ज्यादातर किसानों के पास स्वयं के ऊँट या बैल होते हैं, अन्यथा इन पशुओं को किराए पर भी लिया जा सकता है। एक जोड़ी बैल या ऊँट का किराया 170 रुपए प्रतिदिन है।
आज के आधुनिक समय में किसान ट्रैक्टर से खेत की जुताई को अधिक प्राथमिकता देने लगे हैं। ट्रैक्टर से जुताई में ‘तवी (डिस्क प्लाऊ)’ बहुत प्रचलित है। ट्रैक्टर और तावी से तीन साल में एक बार खेतों की गहरी जुताई की जाती है, इससे 12 इंच तक की गहराई में दबी मिट्टी नीचे से ऊपर आ जाती है और मिट्टी की जल अवशोषण क्षमता बढ़ जाती है। तवी के साथ दो तरीके प्रचलित हैं-
1. तीन वर्ष में एक बार तवी तथा बीच के दो वर्षों में ट्रैक्टर से कल्टी द्वारा सामान्य जुताई।
2. तीन वर्ष के बाद एक बार तवी तथा बीच के दो वर्षों में बैल या ऊँट से जुताई। कम श्रम एवं जल्दी जुताई करने की दृष्टि से आज के युग में किसान ट्रैक्टर की जुताई एवं तवी की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। इस प्रकार की तवी के फायदे एवं नुकसान निम्न प्रकार से हैं।
लाभ
1. ऊँट से एक हेक्टेयर प्रतिदिन जुताई होती है, जबकि ट्रेक्टर से एक हेक्टेयर प्रति घंटे की दर से जुताई होती है।
2. ट्रैक्टर से जुताई की लागत 170 रुपए प्रति हेक्टेयर आती है और काम जल्दी हो जाता है।
3. तवी से जंगली पौधे मिट्टी में दब जाते हैं और बिना श्रम के झूर और सूड स्वयं ही हो जाता है।
4. ट्रैक्टर के कारण महिलाओं का कार्यभार कम हो जाता है।
नुकसान
1. तवी द्वारा गहरी जुताई से उपयोगी सेवण घास, जंगली पौधों एवं झाड़ियों की जड़े नष्ट हो जाती हैं और उपयोगी सेवण घास जंगली पौधे कम हो जाते हैं।
2. प्राकृतिक रूप से उगने वाली खेजड़ी के पौधे कटकर नष्ट हो जाते हैं।
3. जंगली पौधे कम होने से कानाबंदी और झूर के लिये जैव पदार्थ कम हो जाते हैं।
4. किसानों को रासायनिक खाद पर अधिक आश्रित रहना पड़ता है, जैविक खाद कम मिल पाती है।
5. ट्रैक्टर की जुताई से स्थानीय पेड़-पौधे जैसे खेजड़ी, कैर आदि की जड़े नष्ट हो जाती हैं।
6. बीज की बुआई समान मात्रा में नहीं हो पाती है।
7. अकाल के समय सेवण घास से प्राप्त होने वाला चारा तथा देशी बेर की झाड़ियों से प्राप्त होने वाला चारा (पाला) एवं काटा (पाई) नहीं मिल पाता है अर्थात हमेशा के लिये खत्म भी हो सकता है।
भांज (दुबारा बीज बोना)
कम वर्षा या अन्य कारणों से कभी-कभी सारे बीज अंकुरित नहीं हो पाते हैं। ऐसी स्थिति में किसान दुबारा बीजों की बुआई करता है। अधिक से अधिक अंकुरित बीजों को बचाते हुए किसान बीच-बीच में बीज बोते हैं। इस प्रक्रिया को भांज कहते हैं। पहली बुआई के तीन से पाँच सप्ताह के बाद भांज किया जाता है। इसमें किसान पहले बोए गए बीजों की दो कतारों के बीच में हल चलाते हैं और बीज बोते हैं। इस प्रक्रिया को करने के लिये खेत में नमी होना जरूरी है।
लागत
इस प्रक्रिया में 300 रुपए प्रति हेक्टेयर तक खर्च आता है।
लाभ
इससे अधिक फसल प्राप्त की जा सकती है और होने वाले फसलीय नुकसान से बचा जा सकता है।
कटाई राजस्थान क्षेत्र की मुख्य फसल बाजरा है, इस प्रान्त में अधिकतर इसी फसल की कटाई होती है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले पौधे की बालियों को काट लिया जाता है, फिर उनसे दानों को अलग कर लिया जाता है। उनको सुरक्षित रख लिया जाता है, ताकि समय से पहले बारिश या आँधी चलने से फसल को कोई नुकसान न पहुँचे। इस क्षेत्र में खरीफ की फसल की कटाई कार्तिक माह में और रबी की फसल की कटाई बैसाख माह में की जाती है। फसल की कटाई करने के लिये दरांती नामक उपकरण का प्रयोग करते हैं। यह उपकरण लोहे का बना होता है और इसमें पीछे की तरफ लकड़ी का एक हत्था लगा होता है। फसल कटाई का कार्य परिवार के सभी सदस्य आपस में मिलकर करते हैं, जिसमें घर की महिलाओं की मुख्य भूमिका होती है। किसान बाली को काटने के बाद कपड़े में बाँधकर इसे ले जाते हैं। कटाई को स्थानीय भाषा में लावणी कहा जाता है। सीठ्ठियाँ तोड़कर अलग इकट्ठा की जाती है और डोका शेष बचता है। डोके को कुछ दिनों बाद काट लिया जाता है। सीठ्ठियों (बाजरा-ज्वार) को इकट्टा करके आगे का काम करने के लिये पड़ोसियों को बुलाया जाता है, इस प्रक्रिया को घूटनी कहते हैं। फसल की कटाई के बाद शेष बचे हिस्से को कडब (डोका) कहते हैं जो जानवरों के चारे के काम में आता है। कुछ फसलें जैसे ग्वार, तिल की फसल में सीठ्ठियाँ तथा तने को अलग-अलग करके नहीं काटा जाता है।
कटाई में निम्न फसलें काटी जाती हैं।
कटाई/खूटणी
1. सीठ्ठियों (बाजरा-ज्वार) को इकट्ठा करना।
2. ग्वार उखाड़कर इकट्ठे करना।
3. मूँग, मोठ, की फली, तरबूज/मतीरा आदि इकट्ठा करना।
4. बाजरे के डोके को काटकर इकट्ठा करना।
लाह
विभिन्न मौके जैसे निदान, कटाई, घर निर्माण आदि पर गाँवों के लोग परस्पर सहभागिता से एकजुट होकर काम करते हैं। इस प्रक्रिया को लाह कहते हैं। कटाई के समय किसान अपने पड़ोसियों व अन्य किसानों को कटाई में सहायता के लिये आमंत्रित करता है। सामान्यतया प्रत्येक परिवार से एक सदस्य इस काम में भाग लेता है। इस प्रकार सब परिवार एक दूसरे के खेत में फसल कटाई में मदद करते हैं। कभी-कभी तो लाह इतनी बड़ी होती है कि पड़ोसी गाँव के लोग भी उसमें सहभागिता (कटाई) हेतु भाग लेते हैं।
लागत
यह एक सामुदायिक काम है जो पारस्परिक सहयोग से होत है। किसान गाँन क अन्य लोगों को मजदूरी नहीं देता है बल्कि वह सभी लोगों को अपनी हैसियत के मुताबिक अच्छा खाना, लाप्सी आदि खिलाता है।
लाभ
1. खेत में लाह से काम जल्दी और एक बार में पूरा हो जाता है।
2. लाह से ग्रामीणों के आपसी सम्बन्ध में प्रगाढ़ता आती है।
3. इस अवसर पर अच्छा खाना परोसा जाता है और सभी लोग इसे उत्सव की तरह मनाते हैं।
मिश्रित कृषि
प्राचीन काल से ही मिश्रित कृषि हमारी कृषि प्रणाली का एक अभिन्न अंग रहा है। हमारे पूर्वजों ने इसकी संकल्पना मौसम की विपरीत परिस्थितियों में फसल सुरक्षा के दृष्टिकोण से की थी। सिंधु घाटी की सभ्यता के एक प्रमुख स्थल कालीबंगा से प्राप्त जुताई के अवशेषों से पता चला कि उस समय भी कई फसलों को मिलाकर मिश्रित कृषि की जाती थी। पतंजलि कृत “भाग्य“ से भी मिश्रित खेती के प्रमाण मिले हैं।
आज के युग मे खेती योग्य भूमि पर जनसंख्या का बोझ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मिश्रित कृषि अपनाकर किसान प्रति इकाई भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं। मिश्रित खेती एक वरदान है, जिसे सही ढंग से अपनाने पर अधिक आमदनी के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति भी बरकरार रहती है।
मिश्रित खेती का अर्थ है एक ही खेत में दो या दो से अधिक फसल एक साथ उगाना। कई फसलें जैसे ग्वार, तिल, बाजरा, मूँग, मोठ, मतीरा, काचर आदि एक साथ उगाई जाती है।
इसमें अलग प्रकार के (तीन या चार तरह के) बीज एक साथ एक ही खेत मे बोते हैं। वर्षा अच्छी होने पर अच्छे परिणाम सामने आते हैं। वर्षा कम होने पर भी एक-न-एक फसल अच्छी हो जाती है। मिश्रित खेती हेतु विभिन्न बीजों का चयन एवं भाग का मिश्रण विशेषकर महिलाओं के द्वारा किया जाता है।
लाभ
1. मिश्रित कृषि से जमीन की उर्वरकता बढती है। मूँग, मोठ, और ग्वार की पत्तियाँ झड़कर मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाती है।
2. मिश्रित कृषि वाले खेतों में पशु द्वारा फसल का नुकसान कम होता है।
3. भू-क्षरण कम होता है, विभिन्न पौधों की अलग प्रकार की जड़ें मिट्टी को रोक कर रखती हैं।
4. कम वर्षा में भी अच्छी उपज (चारा व अनाज) प्राप्त हो जाती है।
हानि
किसी एक फसल को होने वाली बीमारी दूसरी फसल को भी लग सकती है।
फसल की सुरक्षा
खेती का अहम भाग खड़ी हुई फसल की सुरक्षा करना है, अन्यथा किसान का सारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कई कारक होते हैं जैसे चिड़िया, कीट पतंगे, टिड्डी, कीड़े-मकोड़े, रोगाणु आदि। इसके अलावा मौसम के भी फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। समय के साथ परिस्थिति अनुसार पूर्वजों ने फसल के बचाव के लिये विभिन्न तरीके स्थानीय स्तर पर विकसित किये। ये तरीके आज भी काम में लिये जाते हैं और कारगर भी हैं।
सुरक्षा एवं देखभाल - तवाली करना, गोफन, आडवा
चिड़िया किसानों की शत्रु कही जाती है, क्योंकि ये किसानों की फसल को नुकसान पहुँचाती है। यह बाजरा , मूँग, मोठ तथा गेहूँ आदि के पके हुए दानों को भी खा जाती है और फसल को बर्बाद कर देती है। सरसों की फसल को तो मुख्य रूप से चिड़ियो से बचाना होता है, क्योंकि जब सरसों के बीजों को खेत में बोया जाता है और उनमें सिंचाई की जाती है तो लगभग 3 दिन बाद ही बीज अंकुरित होकर बाहर आ जाते हैं। इसी समय चिड़िया यहाँ आ जाती है और नई अंकुरित फसल को बर्बाद कर देती है। इसलिये किसान लोग चिड़ियों से अपनी फसल को बचाने के लिये मुख्यतः तीन प्रकार के तरीके इस्तेमाल करते हैं जो कि निम्नलिखित हैं –
1. टवाली करना
2. गोफन
3. आडवा
टवाली करना
सीरिया निकलने के बाद फली में दाने पड़ने पर फसल की चिड़ियों आदि से सुरक्षा करने के लिये किसान लोग टीन के डिब्बे में कंकड़ डालकर उसे ड्रम की तरह बजाते हैं। जिससे चिड़िया भाग जाती हैं। कुछ लोग जमीन या चारपाई पर बैठकर टीन के डिब्बे को डण्डी से पीटते हैं, जिसकी आवाज सुनकर चिड़िया भाग जाती है।
2. गोफन
रस्सी से बना हुआ एक गोफन बनाया जाता है, जिसके बीच में चमड़ा लगा रहता है। इसमें पत्थर डालकर घुमाकर फेंका जाता है, जो सनसनाहट करता हुआ जाता है और चिड़ियों को भगा देता है।
3. आडवा
किसान लोग लकड़ी का एक डंडा लेकर इसे जमीन में गाड़ देते हैं। थोड़ा नीचे की तरफ आड़ी एक लकड़ी और बाँध देते हैं, फिर एक पुराना सफेद फटा हुआ कुर्ता पहनाकर और ऊपर से एक मटकी को काले रंग से रंगकर इसे पहना देते हैं। चिड़िया जब इसे देखती है तो समझती है कि खेत में कोई व्यक्ति खड़ा हुआ है और इस प्रकार से चिड़िया खेत के आस-पास नहीं आती है इस प्रकार फसल की चिड़ियों से एक पारम्परिक तरीके द्वारा सुरक्षा की जाती है।
निदान
निदान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें खेत में फसल के बीच में उगी बेकार की झाड़ियों तथा घास-फूस (खतपरवार) को हटा दिया जाता है, क्योंकि खेत में फसल के साथ-साथ बेकार की झाड़ियाँ तथा घास भी उग जाती है। ऐसा माना जाता है कि अगर इन खरपतवारों को हटा दिया जाये तो बारिश का अधिक-से-अधिक फायदा प्राप्त किया जा सकता है। इनको हटा दें तो नमी जमीन में बनी रहती है। निदान की प्रक्रिया बीजों को बोने के लगभग 15 से 30 दिन बाद की जाती है, जब फसल लगभग एक फीट से पौन फीट की हो जाती है। निदान की प्रक्रिया में एक विशेष प्रकार के उपकरण का इस्तेमाल होता है, जिसे कस्सी कहते हैं। यह उपकरण लोहे का बना हुआ होता है और इसमें पीछे की तरफ लकड़ी का एक हत्था लगा हुआ होता है। किसान खेत में खड़ा होकर कस्सी से बेकार की झाड़ियों तथा घास पर चोट मारते हैं और इनकी जड़ों को जमीन से बाहर निकाल लेते हैं। झाड़ियों (खरपतवार) को किसान खेत में से बीन लेते हैं जो कि पशुओं के लिये चारे का काम करती हैं। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि जमीन में बनी नमी केवल फसल के द्वारा ही शोषित की जाती है, ना कि बेकार की खरपतवार के द्वारा जो कि फसल के काम की नहीं होती है। लगभग 25 प्रतिशत अधिक फसल का उत्पादन निदान की प्रक्रिया के तहत बढ़ जाता है। घास पशुओं के चारे के काम आती है, क्योंकि मरुस्थलीय क्षेत्र में पशुओं के लिये इसके अलावा कोई अन्य हरा चारा आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है।
मौसमी प्रभाव से बचाव
पाला से फसल का बचाव
(1) पानी से छिड़काव द्वारा सर्दी के मौसम में बहुत अधिक ठंड होने पर पाला पड़ने से फसल का नुकसान हो सकता है। पाले से फसल को बचाने के लिये खेत में पानी का छिड़काव करते हैं और शाम को खेत में धुआँ कर दिया जाता है। धुएँ की गर्मी से पाला फसल पर नहीं पड़ता है।
लागत यह काम परिवार के सदस्य मिलकर करते हैं। इसमें केवल पानी खर्च होता है। परन्तु यह पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है।
(ब) अरण्डी के पौधों द्वारा सिचिंत खेती में मिर्ची की फसल के साथ अरण्डी के पौधे भी लगाए जाते हैं। मिर्ची के बीज बोने के बाद साथ वाली लाइन में 3-3 फीट की दूरी पर अरण्डी के बीज बोते हैं, जिससे कि वह मिर्ची के पौधे से लम्बा बढ़ सके। इस प्रकार अरण्डी के लम्बे पौधे मिर्ची की फसल को सर्दी की तेज ठंडी हवा और पाले से बचाते हैं।
फसल की मुख्य बीमारियाँ
तेलिया, गुन्दिया, फनकुड़ी।
फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़े टिड्डी, कातरा, दीमक।
किसान अपनी फसल को कवक, कीड़ों तथा अन्य बीमारियों से बचाने के लिये कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं, जिसका वर्णन निम्न प्रकार से है-
1. ग्वार और तिल की फसल को तेलिया नामक बीमारी से बचाने के लिये गाय के गोबर से बने कंडों में मृत ऊँट की हड्डियों को जलाकर धुआँ पैदा करते हैं। जिससे धुआँ फसल के ऊपर लगता है और इस प्रकार फसल को कीड़ों से बचाया जा सकता है।
2. कुछ किसान गाय के बाड़े से एकत्रित की गई मिट्टी तथा इसमें राख को मिलाकर फसल के ऊपर छिड़काव करके कीड़ों से बचाते हैं।
3. फसल को दीमक से बचाने के लिये राख और गोबर मिलाकर छिड़काव करने से दीमक लगना कम हो जाते हैं। दीमक अधिकतर सूखे में ज्यादा लगते हैं इसलिये बीजों को गोमूत्र में उपचारित कर बोते हैं।
4. फसल को दीमक से बचाने के लिये एक और दूसरा उपचार भी करते हैं। इसमें नीम की पत्ती और आक की पत्ती को लेकर एक बर्तन में रख देते हैं और इसमें गोमूत्र मिला देते हैं, ताकि पत्तियाँ गोमूत्र को सोख लें। इस बर्तन को ढक्कन लगाकर बन्द कर देते हैं। 15 दिन बाद इस प्रक्रिया से कीटनाशक तैयार हो जाते हैं। अब इस पदार्थ का छिड़काव फसल के ऊपर करते हैं, जिससे फसल में दीमक नहीं लगती है। इस प्रकार दीमक से फसल को बचाया जा सकता है।
5. तिल और ज्वार की फसल में तेलिया और कड़वा कीड़े लगते हैं, जो कि फसल को नुकसान पहुँचाते हैं। इससे बचाव के लिये मिट्टी के बर्तन में गर्म कोयले में तिल्ली के तेल को जलाकर धुआँ कर देते हैं। जिससे इस बीमारी को रोका जाता है।
6. जीरे की फसल में अल नामक कीड़े से गुल्दिया और फनकुड़ी नामक बीमारी होती है, जिससे छुटकारा पाने के लिये किसान राख और सल्फर मिलाकर पाउडर की तरह का मिश्रण बनाते हैं। इस मिश्रण को बोरी या कपड़े की थैली में भर लेते हैं और इसे सुबह के समय हाथ से निकाल कर फसल के ऊपर छिड़काव करते हैं, जिससे गुन्दिया और फनकुड़ी नामक बीमारी से बचाव किया जा सकता है। विशेषकर जीरे की फसल में जब फूल आते हैं तब यह छिड़काव करते हैं।
7. सुबह के समय जब पौधों पर ओस की नमी होती है तब फसल पर राख का छिड़काव करते हैं। राख पत्तों से चिपककर उनका कीड़ों से बचाव करती है।
कातरा कातरा पीले रंग का उड़ने वाला एक कीट होता है, जो मुख्यतः बाजरे की फसल पर आक्रमण करता है और फसल को खा जाता है। ये कीड़े चाँदनी रात में प्रकाश की ओर या आग की ओर आकर्षित होते हैं, इसलिये खेत में गड्ढे खोद लिये जाते हैं और गड्ढों के पास आग जलाकर रोशनी कर दी जाती है। ये कीड़े उन रोशनी वाले गड्ढों में गिर जाते हैं और फिर उन्हें बन्द कर दिया जाता है। फसल को बचाने के लिये इस पर राख व नमक घोल का छिड़काव भी करते हैं।
टिड्डी टिड्डी दल को भगाने के लिये खेत में पीपा बजाते हैं, जिससे ये भाग जाते हैं। कुछ किसान खेत के चारों तरफ गड्ढे खोद देते हैं, ताकि टिड्डी और इनके नवजात बच्चे इसमें आकर गिर जाते हैं। फिर इन्हें मिट्टी व राख से ढँक दिया जाता है। अक्सर टिड्डी अपने अंडे कैर के पेड़ों में देती है। किसान इन छिद्रों में सूखा गोबर डालकर आग लगाते हैं जिससे अंडे नष्ट हो जाते हैं।
बीज संग्रहण बीज संग्रहण का मुख्य लक्ष्य अगले वर्ष की फसल बोने के लिये अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों को चुनकर सुरक्षित रखना होता है, ताकि बाजार से बीज न खरीदने पड़े। और समय पर बुआई की जा सके।
बीजों का चयन पश्चिमी राजस्थान के लोग सामान्यतः बीजों का चयन अगले मौसम में बोने के लिये करते हैं। अगले मौसम में बीजों को इस्तेमाल करने के लिये फसल से अच्छे स्वस्थ बीजों को निकाल लिया जाता है। पारम्परिक तरीके से पहले बीजों को मटके में डालकर इनमें नीम की पत्तियाँ, राख आदि मिलाकर रख दिया जाता है, क्योंकि बीजों को मुख्य रूप से कीड़ों से खतरा होता है।
बीजों का चयन मुख्यतः तब करते हैं जब फसल पककर तैयार हो जाती है, अर्थात बीजों का चयन अक्टूबर के अन्त में या नवम्बर के प्रारम्भ में दीपावली के त्योहार के आस-पास फसल की कटाई के दौरान करते हैं। बीजों का चयन मुख्यतः बुजुर्ग व समझदार किसानों की मदद से करते हैं।
बीजों का चयन मुख्यतः वहीं पर किया जाता है जहाँ पर फसल की कटाई की जाती है। आमतौर पर फसल से अच्छे बीजों को चुनकर अलग रख दिया जाता है। बाजरा यहाँ की मुख्य फसल है। बाजरे के बीजों का चयन करने के लिये निम्नलिखित तरीकों का इस्तेमाल करते हैं-
1. बीजों का चयन तब करते हैं जब फसल खेत में पूरी तरह पककर खड़ी हो जाती है। बीजों को अलग-अलग करके चुनते हैं और फिर इसे इकट्ठा करके सुरक्षित रख देते हैं।
2. मुख्यतः मोटे तथा लम्बे (सीठ्ठियों) बीज ही चुने जाते हैं।
3. किसान पीले और गोल बीजों को चुनते हैं। काले, सफेद और टेढ़े-मेढ़े बीजों को हटा देते हैं।
4. अच्छे बीजों का चयन करने के लिये अच्छे पौधों का चयन किसान लोग खुद ही करते हैं। किसान देखते हैं कि कौन सा पौधा हृष्ट-पुष्ट बीमारी रहित है।
लागत इस कार्य में कोई बाहरी खर्च नहीं आता, यह काम घरेलू स्तर पर स्वयं के श्रम द्वारा किया जाता है।
लाभ अच्छे बीजों के चयन से अगले वर्ष फसल की अच्छी पैदावर होती है।
बाजार पर निर्भरता नहीं रहती है।
समय पर फसल की बुआई हो जाती है।
बीज एकत्रीकरण और इनका संरक्षण
बीजों को अगली फसल में इस्तेमाल करने के लिये इनको सुरक्षित किया जाता है, इस प्रक्रिया को बीजों का संरक्षण कहते हैं।
बीज इकट्ठा करना फसल का निरीक्षण करके उत्तम किस्म की लम्बी और अधिक बीज वाली सीठ्ठियों को देखकर इकट्ठा कर लिया जाता है। उनमें से बीज निकालकर बीजों को मिट्टी के बर्तन जिसमें राख छिड़की होती है, में भर दिया जाता है। इसके बाद नीम की पत्तियाँ बीजों पर डाल दी जाती है। मटके पर ढक्कन लगाकर उसे मिट्टी तथा गोबर के मिश्रण से लीप कर बन्द कर दिया जाता है।
ग्रामीण राजस्थान में बीजों को सुरक्षित करने के लिये विभिन्न प्रकार के तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। जिनमें से कुछ तरीके निम्नलिखित हैः-
(1) इस विधि में यहाँ के लोग 25 प्रतिशत राख तथा 5 प्रतिशत नीम की पत्तियों के साथ बीजों को मिला देते हैं। इसके बाद इस मिश्रण को मिट्टी के घड़े में रख दिया जाता है। इस घड़े को ढक्कन लगाकर मिट्टी या गाय के गोबर से सील कर दिया जाता है। प्रत्येक दो या तीन माह बाद सील को तोड़ दिया जाता है। बीजों को आँगन में बिखेरकर सूर्य की रोशनी में रख दिया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद फिर बीजों को वापस उसी मटके में नई राख तथा नीम की सूखी पत्तियों के साथ मिलाकर पहले की तरह सीलकर रख दिया जाता है।
(2) इस प्रक्रिया में राख को रात में खुला रख दिया जाता है, ताकि वह ठंडी हो सके और फिर सुबह इसमें बीजों को मिला दिया जाता है। अगर राख के साथ बीजों को शाम को मिलाते हैं तो भाप पैदा होती है जो बीजों को चिटका देती है और बीज खराब हो सकते हैं। इस मिश्रण को एक मिट्टी के बर्तन (घड़े) में रखकर सील कर दिया जाता है।
(3) इस विधि में बलुई मिट्टी के साथ बीजों को मिला दिया जाता है और मिट्टी के बर्तन में रखकर इसे गाय के गोबर से सील कर दिया जाता है।
(4) इस विधि में बलुई मिट्टी तथा नीम की सूखी हुई पत्तियों के साथ बीजों को मिला दिया जाता है। जब यह मिश्रण अच्छी तरह सूख जाता है तो इसे मिट्टी के बर्तन में रख दिया जाता है, तथा इसको गाय के गोबर से सील कर दिया जाता है।
लागत
इस काम में प्रयोग होने वाली सामग्री घरेलू एवं ग्रामीण स्तर पर सहज उपलब्ध होती है तथा यह काम परिवार के सदस्यों (विशेषकर महिला) द्वारा होता है, इसलिये इसमें कोई लागत नहीं आती है। केवल मिट्टी के बर्तनों (मटकी) को आवश्यकतानुसार खरीदना होता है।
घास बीज एकत्र करना व उपज
घास बीज को एकत्र करने के संकेतक के रूप में बीज में नमी की मात्रा को प्रयोग किया जा सकता है। सामान्यतः बीज का शुष्क भाग बाली में बीज की स्थिति व कल्ले की अवस्था पर निर्भर करता है। बाली के सिरे के स्पाईकिल व बाली के बाद में निकलने के साथ बीज का भार घटता जाता है। बीजों को एकत्र करने का सही समय तब होगा जब दैनिक झड़ने वाले बीजों की क्षति बीजों के भार में दैनिक वृद्धि के बराबर हो। बीजों की परिपक्वता के बारे में सामान्य दिशा निर्देश यह है कि बीजों को एकत्रित करने का कार्य उस समय शुरू हो जाना चाहिए जब वह मध्यम से सख्त पकने की अवस्था में हो। इस अवस्था की पहचान के लिये बीजों को मध्यम से सख्त दबाव देते हुए नाखून से दबाएँ। यदि बीज पर निशान छूटता है तो बीज इस अवस्था में पहुँच गया है।
घासों से बीज एकत्र करने के लिये किसी यांत्रिक विधि का प्रचलन नहीं है, इसलिये छीलन विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि में पके बीजों को पुष्पक्रम से छील लिया जाता है, जबकि अभी तक यह बढ़ रहा होता है व अन्य बीज पक रहे होते हैं। इस विधि से बीज उपज ज्यादा मिलती है व अपरिपक्व बीजों को पकने का समय मिलता है, जिन्हें बाद में एकत्रित किया जा सकता है। इस तरह गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। हालांकि यह विधि बहुत ही श्रमसाध्य व समय लेने वाली है। अच्छी प्रबन्धन परिस्थितियों में अंजन घास की बीज उपज लगभग 50-55 किग्रा सेवण व घामन की लगभग 90-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर होती है।
बीजों का अभिसंस्करण
खेत से बीजों को एकत्र करने के बाद इनको परिस्कृत करना बहुत जरूरी होता है व एक ऐसे उत्पाद के रूप में बेचने के लिये तैयार करना पड़ता है जो दूसरे फसल के बीजों के अलावा अन्य संक्रमणों से मुक्त हो। बीज अभिसंस्करण प्रक्रिया में बीजों में चिपके हुए पुष्पक्रम संरचना, खरपतवार बीजों, दूसरी फसल के बीजों तथा अन्य कचरा को इच्छित बीज के भौतिक गुणों को ध्यान में रखते हुए अलग किया जाता है। इच्छित फसल बीजों में से ऐसे बीज जो सड़े हुए, टुटे हुए, तड़के हुए, क्षतिग्रस्त या निम्न गुणवत्ता के हों, को निकालकर भी बीजों की गुणवत्ता में और सुधार किया जा सकता है। अभिसंस्करण के दौरान कुछ अच्छे बीज भी संक्रमित बीजों के साथ निकल जाते हैं, इस नुकसान को कम-से-कम रखना चाहिए। एक बार बीजों का अभिसंस्करण हो गया तो फिर ये बिक्री के लिये तैयार हो जाते हैं।
लाटा
कटे हुए पौधो में से अन्न को अलग करने की प्रक्रिया को लाटा कहते हैं। यह काम फसल कटाई के बाद मैदान में किया जाता है। खरीफ की फसल का लाटा कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) के महीने में और रबी की फसल का लाटा बैसाख (अप्रैल-मई) के महीने में करते हैं।
यह काम घर के पास स्थित समतल कठोर स्थान पर करते हैं। स्थान को 25-40 फीट के घेरे में गोबर से लीपा जाता है। इस लीपी हुई जगह को लाटा कहते हैं। इस स्थान पर सूर्य की रोशनी सीधी आनी चाहिए ताकि फसल सूख सके। पशुओं से सुरक्षा के लिये इसके चारों ओर कंटीली झाड़ियों, पत्थर टुकड़ों से बाड़ बना दी जाती है। लाटा के ऊपर बाजरे की बालियाँ फैला दी जाती हैं और उसके ऊपर ऊँट, गधे या बैल को बार-बार गोलाकार घुमाया जाता है। पशुओं के भार से सित्तास टूटकर छोटे टुकड़ों में बँट जाते हैं और अन्न अलग हो जाता है। एक आदमी फसल को नीचे से ऊपर पलटता रहता है, जिससे साबुत सित्तास ऊपर आ जाते हैं।
बिखरे एवं टूटे हुए सित्तास को छाजली से फटकारा जाता है। यह काम तीन लोग मिलकर करते हैं। एक आदमी सित्तास को छाजली में भरता है, दूसरा व्यक्ति जब हवा चल रही होती है तब इस मिश्रण को धीरे-धीरे जमीन पर बरसाता है। इस प्रक्रिया से अन्न के कण पैर के पास गिरते हैं और भूसा थोड़ी दूर उड़कर एकत्र हो जाता है। तीसरा व्यक्ति झाड़ू से भूसे को बुहारता जाता है। फिर अनाज को छलनी में डालकर छान लेते हैं और साफ अनाज को बोरों या थैलियों में बन्द कर देते हैं।
ग्वार, मूँग, मोठ और तिल की फसल को लाटा पर फैला कर लाठी से धीरे-धीरे पीटते हैं, जिससे दाने निकल कर भूसा अलग हो जाता है।
तुम्बा, मतीरों को भी कटाई के बाद लाटा पर फैलाते हैं और फिर निकले बीजों को बाजार में बिक्री के लिये ले जाते हैं।
मिर्ची की फसल को लाटा फैलाकर सुखाते हैं। सूखी मिर्च को बोरों में बन्द कर देते हैं।
लागत
लाटा बनाने में दो ट्रॉली सख्त मिट्टी, दो ऊँटगाड़ी टैंक पानी व कम-से-कम 6 मजदूरों के श्रम की जरूरत पड़ती है। इसके अन्दर तकरीबन 1300-1400 रुपए का खर्चा होता है। हालांकि यह खर्च एक बार ही होता है। फिर तो प्रतिवर्ष केवल गोबर से लिपाई की जाती है।
लाभ लाटा करने से मिट्टी और अनाज आपस में मिलते नहीं है। अर्थात फसल का दाना साफ-सुथरा प्राप्त होता है।
अन्न का भण्डारण
परम्परागत तरीके से अन्न के भण्डारण के लिये मिट्टी की टंकी जैसा स्थानीय बबूल की कोमल टहनियों से निर्मित ढाँचा बनाते हैं, जिसमें नीचे की तरफ एक बड़ा छेद होता है जहाँ से अनाज निकाला जा सके। इस ढाँचे को किन्हारा कहते हैं।
अक्टूबर-नवम्बर में रबी की फसल की कटाई के बाद किन्हारा बनाते हैं। किन्हारा घर की रसोई, आँगन या पिछवाड़े में बनाया जाता है।
विधि इसके तल में पत्थर की पट्टियाँ बिछाते हैं जिससे मिट्टी की नमी अनाज में न पहुँचे। इसके ऊपर खड़ी, लम्बी, सिलेंडर की आकृत्ति की टंकी मिट्टी तथा स्थानीय बबूल की टहनियों से बनाई जाती है। निचले हिस्से में एक बड़ा छेद बनाते है। टंकी की अन्दरुनी और बाहरी सतह को गोबर से लीप देते है। क्योंकि गाय के गोबर को जीवाणु प्रतिरोधी माना जाता है। सूखने पर अनाज को किन्हारा में भरकर इसे ऊपर से बन्द कर देते हैं। खुले स्थान में बने किन्हारा को बारिश से बचाने के लिये छपरा, जूट की बोरी या पॉलिथीन से ढँक देते हैं।
लागत
गोबर एवं पत्थर गाँव में ही सरलता से मिलता है। किन्हारा बनाने में 3-4 महिलाओं/पुरुषों का श्रम लगता है। इसमें श्रम की कीमत 200-250 रुपए तक आती है।
लाभ
1. अनाज का घर में ही भण्डारण किया जा सकता है।
2. अनाज कीटों से सुरक्षित रहता है।
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Post By: RuralWater